शनिवार, 12 दिसंबर 2009

पार्क.... (हिन्दी नाटक)


aRANYA pRESENTS.



पार्क... (हिंदी नाटक)



लेखक- मानव कौल


(अँधेरे में उदय की आवाज़ आती है, वो फोन पर किसी से बात करना चाह रहा है। सिग्नल बहुत कम है इसलिए वो अपनी जगह बदलता रहता है। जब लाईट आती है तो हम देखते हैं कि तीन पार्क बेंच रखी है... एक जैसी, उदय धूप से बचता हुआ एसी जगह तलाशता है जहाँ वो मोबाईल में अच्छा सिग्नल हो और वो बात कर सके।)
उदय- हैलो! हैलो! आवाज़ आ रही है....??? हैलो.. हाँ जी। तो मैं यहाँ पार्क में आपका इंतज़ार कर रहा हूँ। आप कब तक आएगीं? जी, हैलो.. हैलो.. हाँ अब बोलिए! नहीं आपने ही क्लिनिक आने को मना किया था ना.. इसलिए मैं पार्क में हूँ... आप यहाँ आ जाईये। अरे आप मेरी डॉक्टर है... आपको आना पड़ेगा। फोन पर कैसे बता दूँ...? अच्छा.. अच्छा.. सुनिये.. नहीं तबियत तो ठीक थी पर अभी मैं एक मंदिर में गया था तो वहाँ मुर्ति को देखकर मुझे बुख़ार आ गया, और मुझे वो मूर्ति एकदम बेचारी सी लगने लगी। इतने भक्तों की भीड में एक बेचारी मूर्ती।  मुझे अजीब लगने लगा, लोग उस मूर्ति पर तेल चढ़ा रहे हैं, पैसे चढ़ा रहे हैं, पता नहीं क्या-क्या माँग रहे हैं और वो मूर्ति चुपचाप खड़ी है... मुझे लगा कि वो मुझसे कह रही है कि उसके हाथ में कुछ नहीं है। मैं डर गया और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। जब मंदिर की सीढ़ियाँ उतर रहा था..तो... हैलो.. हैलो... हैलो..। हाँ आई आवाज़। तो आ जाईये। अरे क्यों नहीं आ सकती। मतलब.. अरे.. मैं आपको अपनी कंसल्टेशन के पैसे देता हूँ। नहीं मतलब पैसों की बात नहीं है.. पर। मैं इतनी दूर से आया हूँ इस गर्मी में और आप मुझसे मिलने भी नहीं आएगीं। देखिए आपको आना पड़ेगा। वरना? वरना... मैं यहीं आपका इंतज़ार करते करते मर जाऊँगा। आप मत आईये.. पर मैं यहाँ से आपसे बिना मिले नहीं जाने वाला। मैं यहीं इस.. पार्क में आपका इतंज़ार कर रहा हूँ। मैं नहीं जाऊँगा। अब.. हैलो... हैलो...।
(फोन कट जाता है। उदय गुस्से में अपना बेग़ पटकता है। फिर उठाकर झाड़ता है। गलती से एक बेंच पर बैठता है.. और तुरंत उठ जाता है। बेंच बहुत गर्म है। पहली बेंच के कोने पर बस थोड़ी सी छाया हैं... वो उस बेंच के कोने में जाकर बैठ जाता है। फोन देखता है उसमें बिल्कुल सिग्नल नहीं है। उसे बेग़ के भीतर रखता है और एक सिग्रेट निकालता है। पर उसे माचिस नहीं मिलती है। तभी नरेश तेज़ चलता हुआ अंदर आता है... थोड़ी सी ज़्यादा उम्र का आदमी। उदय को छाया वाली जगह पर बैठा देखकर दुखी हो जाता है। नरेश उदय के करीब आता है.. उदय की निग़ाह उसपर पड़ती है। नरेश इशारे से पूछता है कि ’आप बैठे हैं?’ उदय इशारा नहीं समझता है। वो इशारे से जवाब देता है...’क्या?.. अच्छा.. गर्मी है बहुत।’ नरेश फिर कोशिश करता है पर उदय कुछ और ही समझता है तभी नरेश दयनीय आवाज़ में कहता है।)
नरेश-आप बैठे हैं?
उदय- हाँ... मतलब बैठा हूँ!
नरेश-आप बैठेंगे न?
उदय- हाँ, बैठूँगा ही... अभी!
नरेश-तो ठीक है, क्या आप... आप वहाँ बैठेंगे?
उदय- क्यों?                                    
नरेश-मुझे सोना है।
उदय- अरे! आपको सोना है तो मैं धूप में बैठूँ?
नरेश-अरे! दस-पंद्रह मिनट में वहाँ छाया आ जाएगी, बस थोड़ी देर की तो बात है।
उदय- हाँ, बस थोड़ी देर की ही बात है। फिर आप वहाँ सो जाइएगा।
नरेश-अरे अजीब ज़िद्दी किस्म के आदमी हो! देखो मैंने एकदम गले-गले तक ढ़ूसकर खाना खाया है। अगर जल्दी से सोऊँगा नहीं तो उल्टी कर दूँगा।
उदय- तो कर दो।
नरेश-नहीं कर सकता ना।
उदय- क्यों?
नरेश-उल्टी करना, यहाँ के नियमों के ख़ि‍लाफ़ है।
उदय- अरे बताओ अब आदमी को उल्टी करने की भी आज़ादी नहीं है!
नरेश-जब आपके ऊपर उल्टी कर दूँगा तब देखता हूँ आप कितनी आज़ादी की बात करते हैं।
उदय- आप मुझे डरा रहे हैं?
नरेश-अरे नहीं भाई, मैं डरा नहीं रहा हूँ, मैं तो... देखिए... देखिए... मुझे पसीना आने लगा है।
उदय- तो?
नरेश-बस थोड़ी ही देर में मेरे कान लाल होने लगेंगे। फिर समझ लीजिए कि समय हो गया। और अगर मैंने फिर भी ख़ुद को रोकने की कोशिश की तो मेरी आँखों से पानी आने लगता है और तब मेरे बस में कुछ नहीं होता। आज का, कल का, परसों का सारा खाना बाहर।
(नरेश, उदय के ऊपर उल्टी करने को होता है कि वो घबराकर खड़ा हो जाता है।)
उदय- अरे ये क्या कर रहे हो?
नरेश-बच गए हम दोनों।
(नरेश छाया वाले कोने मैं बैठ चुका है और उदय खड़ा है। वो गुस्से में नरेश से सटकर बैठता है। दोनों बेंच के कोने में चिपकर बैठे हैं धूप से बचते हुए।)
उदय- बैठो यहा तुम भी। वहाँ छाया आ जाएगी तो मैं ही वहाँ चला जाऊँगा।
नरेश-धन्यवाद!
(पर नरेश को नींद आ रही है वो कुछ झपकियाँ उदय के कंधे पर लेता है पर उदय उसे दूर कर देता है।)
उदय- क्या कर रहे हो? सीधे बैठो।
नरेश-देखिए मैं बैठ पाने की हालत में भी नहीं हूँ। मेरे लिए सोना बहुत ज़रूरी है।
उदय- अरे! थोड़ी देर बैठे रहेंगे तो मर नहीं जाएँगे।
नरेश-आपको पता नहीं, मैंने आज सूअर की तरह ठूस-ठूस कर खाना खाया है। दोपहर का सोना मेरे लिए बहुत ज़रूरी है, मान जाइए?
उदय- मैं नहीं मानता।
नरेश-मान जाइए न?
उदय- अरे आप क्या मेरे ऊपर ही लेट जाइएगा? सीधे बैठिए... सीधे।
नरेश-बैठा रहा तो उल्टी हो जाएगी फिर आप कहीं भी बैठने लायक नहीं बचेंगे।
(नरेश ज़बरद्स्ती लेट जाता है और उदय बेंच के बाहर गिर पड़ता है। गुस्से में वो अपनी जगह के लिए लड़ने की कोशिश करता है पर नरेश पूरी बेंच पर पसर कर लेट चुका है।)
उदय- ठीक है! ठीक है! मरो तुम यहीं पर।
नरेश-धन्यवाद!
(उदय जाकर दूसरी बेंच पर बैठ जाता है, बीच वाली नहीं आखरी वाली। वह एक किताब निकालता है और धूप बचाने की कोशिश करता है जो उसके सिर पर ही पड़ रही है। वो फिर एक सिगरेट निकालता है, जिसे वो जला नहीं पाया था और फिर माचिस ढूँढ़ता है, पर उसे मिलती नहीं है।)
उदय- आपके पास माचिस होगी?
नरेश-जी (नींद में)


उदय-माचिस ? माचिस है?
नरेश-सिगरेट पीना यहाँ के रुल्स के ख़ि‍लाफ़ है।
उदय- यहाँ कहीं लिखा तो नहीं है।
नरेश-इधर-उधर लिखना भी allowed  नहीं है।
उदय- आप यहाँ रोज़ आकर सोते हैं?
(नरेश एक तेज़ उबासी लेता है।)
उदय- आपने अपना आधा जीवन सोने में गुज़ार दिया है। ज़रूर आप सरकारी मुलाज़िम होंगे? ठीक पहचाना न? ज़िद्दी, खड़ूस सरकारी मुलाज़िम?
नरेश-मैं सो चुका हूँ!
उदय- अगर मैं अभी जाकर आपकी शिकायत कर दूँ तो आपको नौकरी से निकाला जा सकता है
नरेश-आप मेरे सपने में आकर मुझे धमकी दे रहे हैं। कोई फ़ायदा नहीं है मैं सो चुका हूँ।
(उदय चिढ़कर चुपचाप बैठ जाता है। कुछ देर में सब जगह छाया आ जाती है। और उदय किताब अपने सिर से हटा लेता है। और आराम से बैठ जाता है, किताब पढ़ने लगता है। तभी मदन पार्क में आता है। वह उदय को बैठा हुआ देखता है, तो थोड़ा नाराज़ सा हो जाता है। फिर थोड़ा इधर-उधर धूमने के बाद। उदय के पीछे खड़ा हो जाता है, उदय उसे नज़रअंदाज़ कर देता है। मदन झांकर उदय के कंधे के पीछे से आगे की तरफ कुछ देखना चहता है पर तभी उदय उसे धूरकर देखता है और वो वहाँ बीच वाली बेंच की तरफ चलने लगता है।)
मदन- मैं सालों से इस पार्क में आ रहा हूँ। पहले मैं रोज़ इसे बस बाहर से देखते हुए निकल जाता था। सोचो रास्ते में पार्क है, पर नहीं आता था। घर जाने की हमेशा जल्दी लगी रहती थी। जब से इस पार्क में मैं आने लगा हूँ यूँ समझिए कि, आदत सी लग गई है। अच्छा है यह पार्क, छोटा सा। क्यों? अरे ठीक ही तो है? नहीं तो और पार्क कैसे होते हैं? जब आप आ ही गए हैं पार्क में तो ख़ुश रहिए, थोड़ा घूम लीजिए। आप यहीं काफ़ी समय से, एक ही जगह बैठे हैं इसीलिए शायद आपको यह पार्क अच्छा नहीं लग रहा है। थोड़ा टहल लीजिए। पीछे की तरफ़ देखिए। हिरण, खरगोश, सब हैं यहाँ।
उदय- पता है मुझे।
मदन- अच्छा आप पीछे की तरफ़ हो आए हैं? तभी नाराज़ हैं। मुझे भी पार्क का यही हिस्सा अच्छा लगता है। पीछे क्या रखा है? हिरण और खरगोश बस! और हिरण भी काहे के हिरण... गाय जैसे दिखते हैं। सच ऐसे कोई हिरण होते हैं! जब देखो जुगाली करते रहते हैं। ना उछलते है, ना कूदते हैं, गाय हैं यह। मतलब एकदम गाय भी नहीं दिखते, बछड़े जैसे लगते हैं, गाय के बछड़े। देखे होंगे आपने मोहल्लों में घूमते हुए?
उदय- हाँ।
मदन- हाँ बस वैसे ही दिखते हैं। और खरगोश... खरगोश तो जनाब क्या बताएँ!
उदय- वह तो आपको चूहे जैसे लगते होंगे।
मदन- नहीं। खरगोशों को देखा जा सकता है, क्योंकि वह तो एकदम खरगोश जैसे लगते हैं। मगर कोई कितनी देर तक खरगोशों को देख सकता है! अब खरगोश, बंदर तो होते नहीं है कि उछलें, कूदें, आपका मनोरंजन करें। मेरे हिसाब से हर पार्क में बंदरों का होना ज़रूरी है। आप क्या कहते हैं?
उदय- मैं आपकी बात से सहमत हूँ, बंदरों का होना भी ज़रूरी है और उनको पिंजरे में बंद भी रखना ज़रूरी है। यूँ खुला छोड़ दो तो, पार्क में शांत बैठे लोगों के लिए काफ़ी परेशानी खड़ी कर सकते हैं।
मदन- बंदरों को पार्क में कोई खुला छोड़ता है, यहाँ तो हिरण को भी... आप मुझे बंदर कह रहे हैं? आपकी हिम्मत कैसे हुई? देखिए आप जानते हैं मैं कौन हूँ। मैं संगीत और साइंस टीचर हूँ सामने के स्कूल में। और अपनी उम्र देखिए, मुझे लगा आप कुछ परेशान हैं, तो आपसे बात करूँ। और आप तो मेरी बेइज़्ज़ती कर रहे हैं! आप... मैं चाहूँ तो अभी आपको इस पार्क से बाहर निकलवा सकता हूँ। आप... ऐ कोई है? कोई है?
नरेश-ऐ चिल्ला क्यों रहे हो? चुप! एकदम चुप! यहाँ कुछ लोग सो रहे हैं, दिख नहीं रहा?
मदन- माफ़ करना! पर उन्होंने मुझे बंदर कहा...
नरेश-आप बंदर हैं क्या?
मदन- नहीं!
नरेश-फिर क्यों बुरा मान रहे हैं?
मदन- अरे लेकिन!
नरेश-अच्छा मैं आपसे कहता हूँ- बंदर... बंदर...
मदन- आप?
नरेश-आप नहीं हैं न? बात ख़त्म हो गई बस! मुझे सोने दो।
(मदन थोड़ा सँभलता है। एक बार घड़ी देखता है, फिर चुपचाप बीच वाली बेंच पर बैठ जाता है। वह जैसे ही उदय को देखता है, उसे ग़ुस्सा आने लगता है।)
मदन- वह तो अच्छा हुआ आप बीच में आ गए (नरेश की तरफ इशारा करते हुए) वरना! आप तो जानते ही होंगे पहले इस पार्क में, दोपहर को जवान लोगों का आना मना था। सही था क्यों? आपको नहीं लगता?
नरेश-मैं सो चुका हूँ।
मदन- मैं तो ख़ुद यहाँ आता हूँ कि दोपहर को थोड़ी देर इस पीपल के पेड़ की छाया तले बैठूँगा पर।
उदय- Sorry!
मदन- क्या? आपने मुझसे कुछ कहा क्या?
उदय- मैंने कहा sorry! ग़लती से मेरे मुँह से निकल गया। माफ़ी चाहता हूँ।
मदन- सुना आपने? सुना? सॉरी बोल रहा है। चलिए ठीक है जाने दीजिए। वैसे आप जहाँ बैठे हैं वह पार्क की सबसे अच्छी जगह है।
उदय- तीन तो बेंच है इस पार्क में... वो भी एक साथ यहीं इसी जगह पर हैं। इसमें क्या ख़ास है?
मदन- वहाँ से view थोड़ा ज़्यादा अच्छा है।
उदय- जो यहाँ से मुझे दिख रहा है। वो वहाँ से आपको भी दिख रहा है। और देखने को है भी क्या? सामने एक बिल्डिंग खड़ी है उसे आप view कहते हैं?
मदन- यही तो मैं कह रहा हूँ। इस बेंच के ठीक सामने बिल्डिंग है, जबकि आपकी बेंच से बिल्डिंग ठीक सामने नहीं दिखती है।
उदय- मुझे यहाँ से वह सामने वाली बिल्डिंग की कुछ एक बालकनी दिख रही है जो आपको नहीं दिख रही है, इससे फ़र्क़ क्या पड़ता है?
मदन- फ़र्क़ है आसमान का। आपको वहाँ से ज़्यादा आसमान देखने को मिलता है और मुझे कम।
उदय- मुझे आसमान में कोई दिलचस्पी नहीं है।
मदन- तो आप यहाँ आ जाइए। मुझे आसमान में बहुत दिलचस्पी है। चलिए उठिए!
उदय- अरे! मैं क्यों उठूँ? जो भी आता है मुझे मेरी जगह से उठा देता है! आप जाइए अपनी जगह पर, मुझे नहीं उठना। (गुस्से में)
मदन- (मदन वापिस अपनी जगह पर बैठ जाता है... कुछ देर में) अरे! आप ही ने कहा था कि आपको आसमान में दिलचस्पी नहीं है?
उदय- नहीं है। पर मुझे इस जगह बैठे रहने में दिलचस्पी है। अजीब ज़बरदस्ती है?
(वक़्फा)
मदन- आपको पता है वह मेरी जगह है?
उदय- क्यों आपका नाम लिखा है इस जगह पर?
मदन- यह क्या बात हुई? जब तुम स्कूल में अपनी class में जाते थे, तो क्या टीचर की कुर्सी पर उसका नाम लिखा होता था? नहीं न? पर तुम जाकर टीचर की कुर्सी पर तो नहीं बैठ जाते थे? बैठते तो तुम अपनी ही जगह पर थे ?
उदय- यह क्या बात हुई?
मदन- कौन से स्कूल में पढ़े हो? उदाहरण नहीं समझते?
उदय- अरे! यह क्या उदाहरण हुआ? पार्क का class room से क्या संबंध है?
मदन- अच्छा, अब तुम संबंध की बात कर रहे हो तो यह बताओ, इस गाँव से तुम्हारा क्या संबंध है?
उदय- मतलब?
मदन- क्या तुम इसी गाँव में पैदा हुए हो?
उदय- नहीं।
मदन- तो फिर मेरा ज़्यादा हक़ बनता है इस जगह पर। मैं यहीं पैदा हुआ हूँ... यहीं पला-बढ़ा हूँ।
उदय- अगर यह बात है तो, मैं इसी देश में पैदा हुआ हूँ। तो इस हिसाब से मेरा भी बराबर का हक़ है।
मदन- पर तुमसे पहले मैं इस दुनिया में आया हूँ। मेरा हक़ ज़्यादा है।
उदय- मैं हिंदू हूँ... अब बोलो?
मदन- मैं ब्राह्मण! और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सदस्य भी! क्यों बोलती बंद हो गई?
उदय- तो अब क्या आप मुझे मेरे कम हिंदू होने पर मारेंगे?
मदन- यह गाँधी पार्क है। और वैसे भी यह तीनों बेंच जिन्होनें इस पार्क को दान की थी वो केलकर हैं... पंडित हरि केलकर।
उदय- तो?
मदन- और मैं उसगाँवकर हूँ।
उदय- मी पूण्यात शीक्लो आहे। मला मराठी येते। (मैं पूना में पढ़ा हूँ। मुझे मराठी आती है।)
मदन- क्या?
उदय- कॉय ज़ाला? तुला मराठी येत नाही का? हा हा हा... (क्या हुआ? तुम्हें मराठी नहीं आती।) उसगांवकर, तेंदुल्कर.. मराठी आती नहीं और मुझसे बहस कर रहे हो?
मदन- अरे मेरी माँ मराठी नहीं है पर पिताजी मराठी थे, वो  मेरे बचपन में ही चल बसे थे। सो, मैं मराठी नहीं जानता हूँ। पर... मैं मराठी हूँ, मेरा ज़्यादा हक़ है बस!
उदय- काय करायचे आहे ते कर, मी इक्डूंन उठनार नाही। (अब आप कुछ भी कर लें, मैं यहाँ से नहीं उठने वाला हूँ।)
मदन- क्या?
उदय- मैं... नहीं... उठूँगा...!
(मदन कुछ देर शांत बैठता है। पर उससे रहा नहीं जाता।)                                 
मदन- जब तुम यहाँ आए होगे तो दोनों बेंच खाली होगी?
उदय- तीनों खाली थी।
मदन- तो आप यहाँ इनसे भी पहले आए हैं?
उदय- और अब मैं यहाँ से नहीं उठूँगा।
मदन- तो आप वहीं बैठे रहेंगे?
उदय- जी हाँ।
मदन- मैंने ह्यूमन सायकोलॉजी पढ़ी है। हर आदमी सामान्य परिस्थिति में हमेशा बीच में बैठना चाहता है। पर तुम कोने में बैठे हो। इसका मतलब?
उदय- इसका मतलब है कि मैं पागल हूँ।
मदन- नहीं, इसका मतलब तुम्हारे भीतर कुछ डर है। डर है पकड़े जाने का। इसलिए तुम कोने वाली बेंच पर बैठे हो।
उदय- चुप रहिए!
मदन- वैसे तो मैं साइंस का टीचर हूँ पर ह्यूमन साइकी को जानना, समझना मेरी हॉबी रही है। पकड़ लिया न बच्चू?
उदय- बच्चू?
मदन- अरे बच्चू को छोड़ो। पकड़ा गए न... अब मान लो।
उदय- अरे! क्या मान लूँ? आप कुछ भी कहते रहेंगे और मैं मान लूँगा?
मदन- आप मेरी हॉबी पर शक़ कर रहे हैं?
उदय- आपको जो समझना है समझो!
मदन- अच्छा यह सुनो! तुम यहाँ पहली बार आए हो, तुम यहाँ के नहीं हो, तुम बाहर किसी शहर से आए हो। तो बताओ यह तीनों बातें सही हैं?
उदय- यह तो एक ही बात हुई।
मदन- थोड़ा रुक जाओ। तुम तेज़ हो तुम्हें पकड़ना आसान नहीं है। अब समझा। तुम अपनी ज़िंदगी से बोर हो चुके हो। सब कुछ छोड़कर कहीं भाग जाना चाहते हो। फिर से शुरू से अपनी एक नई ज़िंदगी शुरू करना चाहते हो। जहाँ तुम वापस उछलो-कूदो बच्चे हो जाओ। बोलो सही है?
उदय- बकवास!
मदन- तुम एक निहायती ज़िद्दी आदमी हो, जिसने अपनी ज़िद्द की वजह से अपनी ज़िंदगी बरबाद कर ली। वही ज़िद्द है जिसकी वजह से तुम मेरी जगह बैठे रहना चाहते हो। अब बोलो... सही है?
उदय- बकवास!
मदन- तुम्हें लगता है कि भगवान ने तुम्हारे साथ इंसाफ़ नहीं किया। इसलिए तुम मंदिरों में जाकर सेक्स के बारे में सोचते हो जिससे भगवान से बदला ले सको।
उदय- क्या?
मदन- तुम यहाँ suicide करने आए हो? तुम्हें एक बीमारी है जिसका इलाज असंभव है। तुम्हें ज़िंदा कॉकरोच खाना अच्छा लगता है। तुम प्रेम में धोखा खाए एक बेचारे प्रेमी हो? बस... बस... बस...
उदय- हार गए?
मदन- क्यों तुम मेरी हॉबी का खून कर रहे हो? मैंने एक बात तो सही कही होगी? एक... एक भी नहीं? एक भी नहीं?
उदय- हाँएक बात सही है।
मदन- हा हा हा... (फिर मदन एक ग़हरी साँस छोड़ता है।) कौन सी?
उदय- वो वाली... वो... पर आधी सही है।
मदन- आधी-सही बात क्या होती है?
उदय- आधी सही बात होती है- आधी सही, और आधी ग़लत।
मदन- कौन सी? भगवान वाली?
उदय- नहीं नही... वो...
मदन- कॉकरोच वाली?
उदय- अरे नहीं... वो वाली...
मदन- suicide वाली?
उदय- नहीं... अरे! वो कॉकरोच और भगवान के बाद तुमने कौन सी बात कही थी?
मदन- कौन सी?
नरेश-कौन सी? कौन सी? यार कौन सी बात सही है। बता दो और बात ख़त्म करो । सच तुम लोगों की बातों के चक्कर में मैं सो नहीं पा रहा हूँ। कौन सी बात सही है... कौन सी?
उदय- मुझे... एक बीमारी है।
मदन- पर!
नरेश-(मदन से) ठीक है उसे एक बीमारी है। कह दिया ना उसने, सुन लिया तुमने? एक बीमारी है... बात ख़त्म। अब चुप रहना, मैं सो रहा हूँ।
(कुछ देर में...)
मदन- ऐसी बीमारी, जिसका इलाज असंभव है?
उदय- नहीं, इसीलिए मैंने कहा कि आधी बात आपकी सही है। शायद संभव है।
मदन- कौन सी बीमारी है?
(नरेश हंसते हुए उठके बैठ जाता है।)
मदन- अब आप क्यों उठ गए?
नरेश-कौन सी बीमारी है? कौन सी है... जल्दी बता दो और बात ख़त्म करो।
उदय- मुझे दिमाग़ की बीमारी है।
मदन- अच्छा तो उस
नरेश-बस! सुन लिया? उसे दिमाग़ की बिमारी है दिमाग़ की। अब अगर तुमने एक भी सवाल और पूछा ना तो मेरा दिमाग़ खराब हो जाएगा। चुप.. एकदम चुप।
मदन- हाँ।
(नरेश वापस सो जाता है। मदन थोड़ी देर चुप रहता है। फिर धीरे से इशारे से उदय से पूछता है। कौन सी? उदय बोलने को होता है तो मदन उसे चुप कर देता हैइशारा नरेश की तरफ करता है कि ये उठ गया तो बहुत बवाल करेगा। वो उससे इशारे से बोलने को कहता हैदोनों कुछ देर इशारो में कहने और समझने की कोशिश करते हैंपर मदन उदय के इशारों का एकदम अलग ही मतलब निकालता है। अंत में उदय गुस्से में कहता है।)
उदय- मुझे लगता है कि मैं जीनियस हूँ। (नरेश उठ जाता है। मदन मूर्ति बनकर सतर्क हो जाता है। उदय अपनी किताब वापिस पढ़ने लगता है।)
नरेश-ठीक है! ठीक है! मैं समझ गया। जब तक तुम पूरा सुन नहीं लोगे  और जब तक तुम पूरा बता नहीं दोगे, तुम दोनों मुझे सोने नहीं दोगे। अब बोलो जल्दी से सब कुछ बोल दो।
उदय- मैंने कह दिया बस।
नरेश-कि तुम जीनियस हो? ऐसा क्या काम किया है तुमने कि तुम्हें लगता है कि तुम जीनियस हो?
उदय- मैंने कोई काम नहीं किया है इसलिए मैंने कहा है कि यह मेरी बीमारी है कि मुझे लगता है कि मैं जीनियस हूँ। जिसका इलाज चल रहा है।
मदन- मैं पूछूँ? एक सवाल? (मदन नरेश से पूछता है।)
नरेश-पूछो?
मदन- कुछ तो कारण होंगे जो तुम्हें सोचने पर मजबूर करते होंगे कि तुम यह सोचो कि तुम जीनियस हो?
उदय- हाँ... मुझे बुख़ार आने लगता है... पूरा शरीर ठंडा पड़ जाता है। जब कभी मैं वह सब देखने लगता हूँ जो असल में वहाँ नहीं है।
मदन- दिग्भ्रम?
नरेश-क्या?
मदन- Hallucination
नरेश-आ... अच्छा! तो यह कैसे शुरू हुआ था? यह दिग्भ्रम तुम्हें?
उदय- हाँ... यह कहाँ शुरू हुआ? यह शुरू हुआ उस रात जब मैं मेरी माँ को अस्पताल लेकर जा रहा था। उनकी अचानक तबियत बिगड़ गई थी। तभी शहर में दंगे शुरू हो गए। मैं उनको लेकर एक छोटी सी मोची की दुकान में जाकर छुप गया। दो दिन और दो रात मैं उनको लेकर वहीं बैठा रहा। अस्पताल मेरे सामने था पर मैं रोड क्रॉस ही नहीं कर पा रहा था। कहते हैं कि वह इलाक़ा सबसे ज़्यादा दंगा ग्रस्त इलाक़ा था। मैंने एक रात, उस दुकान के छेद में से झाँककर देखा कि कुछ लोग, कुछ लोगों को मार रहे हैं, काट रहे हैं... बुरी तरह! तब यह पहली बार हुआ, मुझे बुख़ार सा आने लगा, पूरा शरीर ठंडा पड़ गया। और मैंने देखा कि यह सब लोग बच्चे हैं, छोटे बच्चे। जो चोर-पुलिस, या हिंदू-मुसलमान खेल रहे हैं। और मुझे लगने लगा कि  अभी कहीं से इनके माँ-बाप निकलकर आएँगे और सबको डाँट लगा देंगे कि- ‘चलो बहुत रात हो गई है, अब बंद करो यह खेल।और सारे बच्चे खेलना बंद कर देंगे, वह भी जिसने अभी-अभी बहुत से लोगों को काटा था और वह सारे भी जो मरे-कटे पड़े हुए थे। सभी उठेंगे और अपने-अपने घर चले जाएँगे।
नरेश-और तुम्हें लगने लगा कि तुम जीनियस हो?
उदय- नहीं! मैं तो एक डॉक्टर को दिखाने गया था बहुत पहले। तो उसने यह शब्द कहा था कि- ‘तुम्हें लगता है कि तुम जीनियस हो?’ तो मुझे लगा कि शायद मैं ऐसा ही सोचता हूँ और यही मेरी बीमारी है। तब से मेरा इलाज चल रहा है।
नरेश-इलाज से कुछ फ़ायदा हुआ?
उदय- हाँ... हुआ तो। पर अभी एक मंदिर पर घटना हुई थी जिससे मैं थोड़ा डर गया।
मदन- मंदिर पर क्या हुआ था? कौन सा मंदिर?
नरेश-यार तुम एक बार में अपनी पूरी बात क्यों नहीं कह देते?
उदय- मैं कह चुका हूँ। बस मुझे और कुछ नहीं कहना।
मदन- अरे! वह मंदिर वाली बात?
नरेश-यह कह दी तुमने अपनी बात। जैसे कोई तुमसे पूछे कि तुम्हारा नाम क्या है तो तुम्हारा जवाब होना चाहिए कि मेरा नाम फलाँ-फलाँ है। बस बात ख़त्म हो गई। पर तुम कहते हो मेरा नाम फलाँ-फलाँ है पर... या लेकिन? अरे! यह लेकिन का क्या मतलब है?
उदय- लेकिन अभी बहुत दिनों के बाद अपने डॉक्टर को छोड़कर किसी और से यह बात कही है तो मुझे अच्छा लग रहा है।
(नरेश घड़ी देखता है और परेशान हो जाता है। वापिस सोने जाता है।)
नरेश-तुम लोगों की बातों के चक्कर में मैं सो नहीं पा रहा हूँ मेरा सोना बहुत ज़रुरी है।
मदन- आप अगर इतना परेशान हो रहे हैं तो वहाँ पीछे की तरफ़ क्यों नहीं चले जाते?
नरेश-पीछे की तरफ़ कहाँ? वह हिरणों और खरगोशों के बीच? या वह बच्चों के झूलों में दुबककर सोऊं? देखिए, मुझे सोना है और मैं यहीं सोऊँगा। अगर आप लोगों को यह बेहूदा बातें करनी है तो आप दोनों क्यों नहीं पीछे चले जाते हैं? और अगर यहाँ बैठना है तो एकदम चुपचाप बैठिए। मैं सो रहा हूँ।
(नरेश वापस सोने चला जाता है। मदन कुछ देर चुप रहता है।)
मदन- मुझे खुद बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, मैं तो बस अपनी जगह बैठना चाहता हूँ, जहाँ यह जीनियस महाशय चिपककर बैठ गए हैं।
उदय- आप यहीं क्यों बैठना चाहते हैं?
मदन- मैं नहीं बता सकता।
उदय- अजीब पागलपन है? मुझे तो लगता है कि यह पागल है, इन्हें इलाज की ज़रूरत है। क्या कहते हैं आप?
मदन- अरे! हम दोनों की बात में आप उन्हें क्यों घसीट रहे हो? उन्हें सोने दो।
उदय- अरे वाह! आप लड़कर यह जगह लेना चाहते हैं? उन्हें फैसला करने दो?
मदन- ठीक है जो यह फैसला करेंगे मैं भी मान लूँगा।
उदय- जी... कहिए? आप जो कहेंगे हम वो ही करेंगे।
(दोनों जाकर नरेश के पास खड़े हो जाते हैं... कुछ देर में नरेश अपनी आखें खोलता है उनदोनों को देखकर परेशान हो जाता है। नरेश उठता है और वहाँ से चला जाता है। मदन और उदय एक-दूसरे को देखते रह जाते हैं। उदय वापिस अपनी जगह जाता है।)
मदन- एक भला आदमी यहाँ सो रहा था, आपने उसे भी भगा दिया। बस वहाँ बैठे रहने की ज़िद्द में।
उदय- देखिए असल में...
मदन- रहने दो अब माफ़ी मत माँगना मुझसे, पहले ही एक बार मैं माफ़ कर चुका हूँ। बेशरम कहीं के। अरे! अजीब शैतान हो, कम-से-कम देख तो लीजिए कि वह बेचारा कहाँ गया है! स्कूल में कभी पढ़ा नहीं यहाँ पढ़ने का नाटक कर रहे हो।
(उदय खीजकर उठाता है और नरेश को बुलाने बहार जाता है।)
उदय- अरे भाईसाब... आ जाईये... सुनिये... ओ भाईसाब।
(तब तक मदन उदय की जगह बैठ जाता है। बेंच के एकदम किनारे पर। सामने दिख रही बाल्कनी को देखता है और मुस्कुराता है फिर आँखे बंद कर लेता है। तब तक उदय वापस आ जाता है।)
उदय- अरे! कैसे हो तुम? उठो... उठो मेरी जगह से।
मदन- रुको... रुको!
उदय- अरे उठो मेरी जगह से। मेरी जगह हथियाना चाहते हो?
(उदय, मदन को ज़बरदस्ती उठा देता है।)
मदन- यह क्या ज़बरदस्ती है? बाहर से हमारे गाँव में धुस आए हो और हमें हमारी ही जगह से उठा रहे हो?
(दोनों में हथापाई हो जाती है। तभी उदय का हाथ मदन के चहरे पर लगता है।)
उदय- अरे! यह तुम्हारा चेहरा गीला क्यों है?
मदन- मैं नहीं बता सकता। मुझे बस थोड़ी देर और बैठने दो। बस थोड़ी देर और...
उदय- नहीं हटो... यह क्या पागलपन है? हटो... हटो...
(दोनों में गुथम गुत्था हो जाते हैं। तभी नरेश अंदर आता है, उसके हाथ में एक डंडा है। नरेश ज़ोर से एक डंडा ज़मीन पर मारता है। दोनों डर जाते हैं और लड़ना तुरंत बंद कर देते हैं।)
उदय- मैं आपको बुलाने गया था, और यह मेरे जाते ही यहाँ मेरी जगह बैठ गए। इतने बेशरम हैं कि उठने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
नरेश-दोनों इस तरफ़ चलो... चलो!
(उदय चला जाता है।)
नरेश-आपको क्या न्यौता देना पड़ेगा?
मदन- मैं?
नरेश-चलो!
(दोनों दूसरी तरफ़ आ जाते हैं। नरेश उस जगह को देखता है ध्यान से...)
नरेश-दोनों ने लड़-लड़के मेरा जीना हराम कर दिया, क्या है इस जगह मैं ऐसा! तीन बेंचे है वो भी एक जैसे... एक ही तरफ मुँह करके रखी हुई हैं और सामने भी बस ये एक पेड़ है... और... क्या है इस जगह में? हें? (थोड़ा झुकता है)
(तभी उसकी निगाह सामने की बालकनी पर खड़ी एक लड़की पर पड़ती है, जो अपने बाल सुखा रही है।)
नरेश-ओह! तो इस जगह के यह फायदे हैं!
उदय- क्या? क्या फायदे हैं?
(उदय भागता हुआ आता है और झुकर देखता है, उसे वह लड़की दिखती है।)
मदन- आप जो समझ रहे हैं, वह एकदम ग़लत है।
नरेश-इसके अलावा क्या समझा जा सकता है? आप बता दो हम वही समझ लेंगे।
उदय- ओह! अरे वह तो चली गई!
नरेश-चली गई?
मदन- चली गई
?
(मदन उसे देखने जाता है। वह दोनों उसे धक्का दे देते हैं। मदन नीचे गिर पड़त है। )
मदन- वह अभी वापस आएगी। अभी उसने सिर्फ़ अपने बालों को धोया है। अभी वह उसे शैंपू करेगी फिर कंडिशनर लगाएगी और फिर वापस आएगी।
नरेश-आप टीचर हैं, आपको यह सब शोभा देता है? शर्म आ रही है मुझे मेरा बेटा आपके स्कूल में पढ़ता है!
मदन- जी मैं ऐसा ही टीचर हूँ। बच्चे मुझे स्कूल में गब्बर सिंह कहकर बुलाते हैं। आप चाहें तो अपने बच्चे को स्कूल से निकाल सकते हैं।
नरेश-मेरा बच्चा क्यों निकलेगा स्कूल से? मैं आपकी शिक़ायत करूँगा। आप निकाले जाएँगे स्कूल से।
मदन- क्या दोष है मेरा? कि मैं इस जगह बैठना चाहता हूँ?
(यह कहकर वह वापस उदय की जगह पर बैठ जाता है। उदय उसे उठा देता है।)
उदय- दोष है कि आप इस जगह बैठकर उन्हें ताड़ रहे हैं, जो एक तरह से लड़की छेड़ना है।
मदन- लड़की छेड़ना??? (मदन संजीदा हो जाता है और अपने बेग से कपड़ा निकालकर मुँह पोंछने लगता है।)
उदय- और आपका चेहरा गीला क्यों है?
मदन- यह मैं नहीं बता सकता।
(नरेश डंडा लेकर उसके सामने खड़ा हो जाता है।)
नरेश-आपका चेहरा गीला क्यों है?
मदन- ठीक है, मैं आपको पूरी बात बताता हूँ। पर अगर इस बात को सुनने के बाद भी आपको लगे कि यह लड़की ताड़ना या छेड़ना है तो आप जो कहेंगे मैं करूँगा और अगर नहीं तो यह जगह मेरी। बोलो मंज़ूर?
उदय- अरे मैं अपनी जगह नहीं दूंगा।
मदन- ये देखो आप?
नरेश-अरे, पहले तुम अपनी बात तो बताओ।
मदन- ठीक है... वह सामने वाले घर में रहती है। वहाँ, सिर्फ़ उस जगह से उसके घर की बालकनी दिखती है। वह हमारे स्कूल की गणित की टीचर है।
नरेश-छी! अपने ही स्कूल की गणित की टीचर के साथ?
मदन- आप पूरी बात तो सुनेंगे? मैं पहले भी, बिना किसी वजह के, यहाँ आया करता था। एक दिन, मैं वहाँ, उस जगह बैठा हुआ था। काफ़ी भीड़ थी इस पार्क में, वरना मैं कभी वहाँ नहीं बैठता था। मेरी जगह तो वो थी, जहाँ अभी आप बैठे हुए हैं।
उदय- अरे! बात पर आओ न।
मदन- वही बता रहा हूँ। उसी दिन वह आई अपनी बालकनी पर, नहाने के बाद बाल सुखाने। मैं उसे देख रहा था। तभी उसके बाल झटकने के साथ ही उसके पानी के छीटे उड़ते हुए सीधे मेरे मुँह पर आए। जबकि उस दिन हवा भी नहीं चल रही थी। मैंने सोचा यह मेरा वहम होगा। उस वहम की जाँच के लिए मैं बार-बार यहाँ आने लगा। आप आश्चर्य करेंगे, वह पानी के छीटे न तो दाएँ जाते हैं ना ही बाएँ। वह उसके बालों से निकलकर सीधे मेरे चेहरे पर आते हैं।
नरेश-उसे यह बात पता है?
मदन- नहीं। अभी तो मुझे भी नहीं पता कि यह बात क्या है?
उदय- और?
मदन- और क्या, मैंने बता दिया। बस यही है, और इसकी मुझे आदत लगी हुई है।
उदय- तुम इसका इलाज कराना चाहोगे?
मदन- नहीं। बस यही तो एक चीज़ है जिसके कारण मैं ख़ुद को थोड़ा विशेष महसूस करता हूँ। वर्ना टीचरी करते तो दिन गुज़र ही रहे हैं। अब बताओ... क्या यह लड़की ताड़ना या छेड़ना है?
नरेश-नहीं। पर...
मदन- तो मुझे मेरी जगह पर बैठने दो। चलो हटो।
उदय- मैं अपनी जगह से नहीं उठूँगा बस...
मदन- अरे आप बहस हार चुके हैं.. चलिए
उदय- अरे काहे की बहस... मैं नहीं उठूंगा।
(मदन ज़बरदस्ती उसे उठाने लगता है।)
नरेश-सुनो भाई। आप अपनी जगह पर आओ... देखो, यह लड़की छेड़ना या ताड़ना तो नहीं है। लेकिन यह, लड़की, नहीं छेड़ना या नहीं ताड़ना भी नहीं है।
उदय- अरे! यह यहाँ बैठकर उन्हें ताड़ ही तो रहे हैं?
नरेश-पर यह लड़की छेड़ने के दायरे में नहीं आता।
मदन- सुनो अब बहस का कोई फ़ायदा नहीं है। यह जगह मेरी है... उठो यहाँ से।
(उदय और मदन फिर लड़ने लगते हैं... नरेश बीच बचाव करता है।)
नरेश-नहीं रुको। अभी उसने अपनी बात नहीं कही है। उसे अपनी बात भी तो कहने दो। फिर तय करेंगे कि उस जगह असल में किसका ज़्यादा अधिकार है। चलो शुरु करो।
उदय- देखिये मैं जब यहाँ आया तो....
(मदन, नरेश को कोने में ले जाता है।)
मदन- अरे! यह तो वजह बता चुके हैं... इनकी बीमारी है। एक बार आप अपने आपको जीनियस समझ लो तो बस खेल ख़त्म! फिर तो आपको लगने लगता है कि पूरी दुनिया पर आपका ही अधिकार है। हिटलर को भी तो यही बीमारी थी...
उदय- आप मेरी बीमारी का मज़ाक उड़ा रहे है?
मदन- अरे तो आप बीमार हैं ना, तो...
उदय- मैं तुम्हें कान के नीचे एक चपत लगाऊँगा तब समझ आएगा।
मदन-देखिए मारने की बात कर रहे हैं।
नरेश-दोनों चुप! अपनी जगह पर जाईए.. चलिए... हाँ.. तो चलिए, अब आप इस जगह पर अपना अधिकार सिद्ध करिए
(उदय गंभीर हो जाता है। उसे अपनी जगह जाती हुई दिखती है।)
उदय- अरे यह क्या है... मैं क्या अधिकार सिद्ध करूँ? यह जगह मेरी है और आप इसके गवाह हैं।
नरेश-लेकिन, तुम तो पहले यहाँ आकर बैठे थे न?                                                                                         
उदय- हाँ... और आप ही ने मुझे वहाँ से उठा दिया। अब मैं यहाँ बैठा हूँ... और यह मेरी जगह है।
नरेश-नहीं तुम समझ नहीं रहे हो। उस जगह से उनका इतिहास जुड़ा है, अब। और हम दोनों इस बात के गवाह भी हैं कि वह झूठ नहीं बोल रहे हैं। इतिहास जिनका जगह उनकी।
उदय- मैंने अभी-अभी LAW पास किया है। मुझे कानून पता है। किसी भी सार्वजनिक जगह से उठाने का हक़ किसी को नहीं है।
नरेश-पर वक़ील साहब, इस वक़्त इस जगह की समस्या को लेकर कानून तो मैं ही हूँ। और मेरे हाथ में डंडा भी है। आप ही ने यह अधिकार मुझे दिया हुआ है... फ़ैसला करो? फ़ैसला करो? सो अब कर रहा हूँ मैं फ़ैसला। जहाँ तक सार्वजनिक शब्द का प्रश्न है, इस देश में इसका कोई महत्त्व नहीं है। यहाँ सब सार्वजनिक है और कुछ भी सार्वजनिक नहीं है। वक़ील साहब और कुछ है आपके पास कहने को?
उदय- वाह! यह तो ऐसा हो गया कि मेरा घर था। जिसमें मैंने आपको सुस्ताने का मौक़ा दिया। आप वहाँ पसर गए। अब जब मैं यहाँ आकर बैठा हूँ तो आप क़ि‍स्से-कहानियाँ बनाकर मुझे यहाँ से, मतलब इस घर से निकाल रहे हैं।
मदन- अरे यह पार्क है। घर का इससे क्या संबंध? कुछ भी दलील दे रह हैं यह?
उदय- टीचर हो? उदाहरण नहीं समझते, क्या होता है?
(तभी मदन गुस्से में उसके पास जाता है। उदय और ग़ुस्सा हो जाता है।)
उदय- सुनो तुम इधर आने की सोचना भी नहीं, वरना मैं... मैं... अपनी जगह के लिए कुछ भी कर सकता हूँ।
मदन- यह देखिए मुझे फिर मारने की धमकी दे रहे हैं?
नरेश-देखिए यह गाँधी पार्क है। यहाँ यह सब नहीं चलेगा।
मदन- गोडसे कहीं के!
उदय- Sorry! Sorry!
(मदन और नरेश एक कोने में डरे खड़े रहते हैं.... उदय को लगता है कि उसने ग़लत कर दिया है... तभी नरेश इशारे से मदन को उदय की जगह पर जाने को कहता है... मदन जाने को होता है तभी उदय पलटकर देखता है... मदन, नरेश को देखता है और नरेश मदन को इशारे से कहता है कि अपनी जगह बैठो... मदन वापिस बीच वाली बेंच पर बैठ जाता है...। तभी उदय अपनी जगह पर, मतलब बेंच पर एक पांव ज़ोर से रखता है... दोनों उदय की तरफ देखते हैं।)
उदय- उदाहरणार्थ.... अब यह सुनो! उदाहरणार्थ!
नरेश-क्या? क्या?
उदय- अब मैं इस जगह पर अपना अधिकार सिर्फ़ इसी तरीक़े से सिद्ध कर सकता हूँ... उदाहरणार्थ! आशा करता हूँ आप सब पढ़े-लिखे होंगे, और मेरी बात समझेंगें। ये सुनिये उदाहरणार्थ! उस बेंच को अगर फ़ि‍लिस्तीन मान लें तो आपने तो मुझे अरब बना दिया। मैंने इन (नरेश) यहूदी को अपने यहाँ पनाह दी, और इन्होंने मुझे अपने ही घर से निकाल दिया। अब मैं अपनी इस छोटी जगह के लिए लड़ना चाहता हूँ तो ये मुझे ही कह रहे हैं कि यहाँ यह सब नहीं चलेगा?
मदन- यह क्या बात कर रहे हैं?
नरेश-मैं इसका जवाब देना चाहता हूँ। भइया, लेकिन ईश्वर के फ़रिश्ते से... इब्राहिम के बेटे याक़ूब को इज़राइल की उपाधि मिली थी। यह असल में यहूदियों का ही शहर था। यह फ़ि‍लिस्तीन नहीं इज़राइल ही था। यह अलग बात है कि यहूदी... वह वहाँ कभी रह नहीं पाए, पर था तो उनका ही। सो एक दिन वह आ गए वहाँ रहने- ‘भाई यह हमारी जगह है, हटो यहाँ से। बात ख़त्म। अब इसमें कोई क्या कर सकता है कि अरबी (उदय की तरफ़ इशारा करके) भाषा में इज़राइल का अर्थ यमराज है, मौत का देवता...
उदय- पर उन बेचारों (अरब लोगों) का क्या जो उसे अपना घर समझे बैठे थे? अचानक आप ईश्वर की बातों को कोट कर-करके उनसे सब कुछ छीन लेंगे?
मदन- यार यह क्या बात हो रही है?
उदय- वही जो उनके साथ वहाँ हुई, आप लोग मेरे साथ यहाँ कर रहे हो। यहूदी कहीं के।
मदन- यहूदी? अरे, मैं तो बस इस पार्क बेंच के इस कोने पर बैठना चाहता हूँ? इसमें आपको इतनी समस्या क्यों है? बहुत हो गया आप उठिए यहाँ से... आप बहुत पहले बहस हार चुके थे... चलिए.. उठिए।
उदय- मैं आपको यह जगह तो नहीं दूँगा चाहे कुछ हो जाए। पर अगर आप इस जगह के लिए इतने ही पगला रहे हैं तो मैं एक काम कर सकता हूँ। अगर यह (नरेश) मुझे अपनी जगह दे दें, तो वहाँ चला जाऊँगा। चूँकि शुरू में मैं वहीं आकर बैठा था। और फिर आप उनसे यह जगह माँग लेना।
मदन- यह तो एकदम ठीक है। चलो उठो?
उदय- लेकिन पहले आप उन्हें उनकी जगह से उठाइए।
मदन- चलिए साहब यह तो सारी समस्या ही सुलझ गई। उठिए?
नरेश-मुझे कोई आपत्त‍ि नहीं है आपको ये जगह देने में.. ।पर ज़रा रुको मुझे ज़रा सोचने दो...
मदन- इसमें क्या सोचना है? सीधी बात तो है।
नरेश-बात जितनी सीधी आपको दिख रही है उतनी सीधी नहीं है। मुझे यह जगह आपको देने में कोई आपत्ति नहीं है... पर मुझे, मेरी जगह से उठा दिए जाने से ऐतराज़ है।
मदन- भाई आपको आपकी जगह से कोई नहीं उठा रहा है। आपको बस इस जगह के बदले वह जगह दी जा रही है।
नरेश-और फिर उसके बाद आप मुझे वहाँ से भी उठा देंगे और कहेंगे कि आप इधर आ जाओ, मुझे वहाँ बैठ जाने दो?
मदन- हाँ। मतलब पहले वहाँ फिर यहाँ।
नरेश-मतलब... आप लोगों की वजह से मैं दो बार अपनी जगह से उठाया जाऊँगा, जबकि मैं तो महज़ यहाँ सोना चाहता था।
मदन- पर आप यह क्यों नहीं मान लेते कि आपकी असल में जगह यह है। मतलब ये फिर ये!
नरेश-कैसे मान लूँ? मैं यहाँ बैठा हूँ, मेरी यह जगह है, बस।
मदन- मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप लोग इतनी छोटी सी बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं। अरे यहाँ पार्क में हम तीन हैं, तीन बेंचे रखी हैं, कोई कहीं भी बैठे क्या फ़र्क़ पड़ता है। आप लोगों ने तो, इसे एक मुद्दा बना लिया है और इस सबमें, बस मैं पिस रहा हूँ। अरे आप लोगों को तो बस समय काटना है पर मेरे लिए वह जगह ज़रूरी है।
(मदन गुस्से में बैठ जाता है। तीनों शांत बैठे रहते हैं। कुछ वक़्त बीतता है...)
नरेश-तुम कभी कश्मीर गए हो?
मदन- नहीं।
नरेश-मैं भी कभी नहीं गया। मैंने हमेशा उसे अपने भारत के नक्शे में ही देखा है। पर अगर कोई दूसरा देश हमसे कहता है कि कश्मीर तुम्हारा नहीं हमारा है... तो मुझे बड़ी बेचैनी महसूस होती है। मुझे अच्छा नहीं लगता। यूं कश्मीर के बारे में, वहाँ के लोगों के बारे में हमें कुछ पता नहीं है... और ना ही जानना है..  पर बस लगता है बुरा..  और मज़े की बात है कि कश्मीर से, या इस जगह से, मेरा कोई सीधा संबंध भी नहीं है। पर मुझे पता है कि मैं यहाँ बैठा हूँ और  यह जगह अभी हमारी है बस... यह हमसे कोई नहीं छीन सकता।
मदन- आप क्या कहना चाहते हैं? मैं आपसे कश्मीर माँग रहा हूँ?
उदय- अरे उनके कहने का मतलब वह नहीं है। यह सब उदारणार्थ चल रहा है।
मदन- अरे! पर इस बेंच की इस जगह का कश्मीर से क्या संबंध है?
उदय- संबंध बेंच का नहीं है, संबंध जगह का है। और जगह से उठा दिए जाने का है।
मदन- पर मैं उन्हें दूसरी जगह दे रहा हूँ... मतलब यह और उसके बाद यह।
उदय- (नरेश से) लोगों को जब उनकी जगह से निकालकर दूसरी जगह फेंक दिया जाता है, तो वे कभी भी उसे अपनी जगह के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। वह, उनकी पुश्तें पूरी ज़िदगी इंतज़ार करती हैं, इस आशा में कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा और उन्हें वापस बुलाकर उनकी जगह दे दी जाएगी। जैसा चाइना ने बिचारे तिब्बत के साथ किया है।
नरेश- (उदय से) पर ऐसा कभी होता नहीं है। कोई किसी को निकाल दिए जाने के बाद, जगह वापस नहीं देता। जब तक आप उस जगह पर हो, तभी तक वह जगह आपकी है। बाद में तिब्बत, उनके लामा कितना ही चिल्लाते रहें कि ‘यह जगह हमारी थी’, यह जगह हमारी थी, पर कोई सुनने वाला नहीं है।
मदन- अरे कौन तिब्बत है और कौन सुनने वाला? किसकी बात कर रहे हैं आप लोग?
उदय- जैसे तुम्हारा इतिहास इस जगह से जुड़ा है वैसे ही जगह से उठा दिए जाने का इतिहासमुझ से जुड़ा है।
मदन- यह क्या इतिहास है? ऐसा कोई इतिहास मैंने तो नहीं पढ़ा है?
उदय- यही दिक़्क़त है कि हमें कभी इस इतिहास के बारे में पता ही नहीं होता। वह जगह मेरी थी, जहाँ से इन्होंने मुझे उठाया था। अब वह सारा पुराना इतिहास भूलकर, देखो कैसे उस जगह के लिए आप से लड़ रहे हैं। मानो यह उन्हीं की जगह हो।
नरेश- अरे आप यह, छोटी सी बात भूल क्यों नहीं जाते?
उदय- मैं क्यों भूलूँगा? कैसे भूल जाऊँ? जगह से उठा दिया जाना एक तरह का ह्यूमिलेशन है। अगर आपको ऐसा नहीं लगता है तो दे दीजिए अपनी जगह?
नरेश- (मदन से) आइए आप अपनी जगह ले लीजिए।
मदन- (खुश होकर) देखिए, हो गया। चलिए अब आप भी उठ जाईये.. वो मान गए हैं अब।
उदय- नहीं आप बात को समझे नहीं, आप अभी जगह मुझसे बदल रहे हैं। यह आसान है। मैं जगह से उठा दिए जाने की बात कर रहा हूँ। सो आप इनके कहने पर वह जगह छोड़िए तो मैं आपको यह जगह दूँगा।
मदन- क्या बोल रहे हैं?
नरेश- अरे यार कान ऐसे पकड़ो या ऐसे, बात तो एक ही है न?
उदय- बात एक नहीं है। आप कान वैसे पकड़िए जैसे मैं कह रहा हूँ। तब देखता हूँ आप कैसे पकड़ते हैं कान?
मदन- अरे भाई पकड़ क्यों नहीं लेते अपने कान? जैसे यह कह रहे हैं, पकड़ लो अपने कान... और बात ख़त्म करो।
नरेश-मैं क्यों पकड़ूँ अपने कान?
मदन- (उदय से) भाई आप मुझे बताइए कैसे पकड़ने हैं कान? इनके बदले मैं पकड़ लेता हूँ अपने कान...
उदय- तुम बात को नहीं समझ रहे हो।
मदन- अच्छा! मैं यह जगह चाहता हूँ.. और मैं ही बात को नहीं समझ रहा हूँ?
नरेश-आप नहीं समझ रहे हैं, भाई यह सब उदाहरणार्थ चल रहा है!
मदन- अरे भाई यह क्या उदाहरणार्थ है? आप मुझे अभी समझाइए क्या है? बोलिए  यह उदाहरणार्थ?
नरेश-समझाऊँ?
मदन- जी।
नरेश-तो सुनिए! अकड़, बकड़ बाम्बे बो... ठीक है? अस्सी नब्बे पूरे सौ... सौ में लगा धागा... चोर निकलकर भागा... वह भागा और यह जगह मेरी.. बात खत्म हुई। समझे?
मदन- (अपनी तरफ़ उँगली करके) बाम्बे! नब्बे! चोर! नहीं नहीं... यह सब क्या है? यह ग़लत है। आप मुझे सीधी बात बताइए कि आप उनके साथ यह जगह बदल रहे हैं कि नहीं?
नरेश-अब सीधी बात तो यह है कि, मैं बदलने को तो तैयार हूँ पर अब यही नहीं मान रहे हैं।
मदन- आप तैयार हैं न? बस रुकिए... (उदय के पास जाकर) अब आप क्यों अपनी बात से मुकर रहे हैं?
उदय- मैं नहीं मुकर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ पहले आप उन्हें उनकी जगह से उठाइए, तब मैं वहाँ जाकर बैठूँगा।
मदन- पर यह बात तो एक ही है न? क्यों? अरे देखिए... आप ही उठ जाइए, उठिए... उठिए न...
उदय- आप ही जैसे लोगों की वजह से आदिवासी नक़्सल बनते जा रहे हैं।
मदन- क्या मतलब है, मेरी वजह से?
उदय- अगर उन्हें बार-बार अपनी जगह से उठाओगे तो उनके पास हथियार उठाने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचेगा!
मदन- बताईये पगला रहे हैं.. इनके पास हथियार भी है।
नरेश- अरे नहीं भाई वो उदाहरणार्थ कह रहे हैं... रुकिये मैं आपको समझाता हूँ।
मदन- नहीं नहीं... आप रुकिये... यह उदाहरणार्थ मेरी समझ में आ रहा है... यह सुनो जीनियस! अगर आदिवासियों को उनकी जगह से उठाकर दूसरी जगह नहीं दोगे तो वह तो हथियार उठाएँगे ही। पर मैं तो इन्हें दूसरी जगह दे रहा हूँ। हा हा हा... मज़ा आ गया! अब बोलो... उदाहरणार्थ?
उदय- जब आप समझ ही गए हैं तो आप यह भी समझ गए होंगे कि मैं क्यों कह रहा हूँ कि आप, उन्हें उनकी जगह से उठाइए?
मदन- हाँ मैं समझ गया, आप आदिवासी नहीं बनना चाहते हैं।
नरेश-आप रहने दीजिए। मैं समझ गया यह क्या करवाना चाहते हैं। मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता। आइए आप, मुझसे कहिए-कृपया यहाँ से उठो...’ मैं यहाँ से उठ जाऊँगा।
मदन- ठीक है। ‘कृपया यहाँ से उठिए...
(नरेश उठता है।)
उदय- नहीं, ऐसे नहीं। कोई भी अपनी जगह, इतने प्यार से नहीं छोड़ता। अपनी जगह छोड़ने में तकलीफ़ है। आपको आपके स्वर में, ज़बरदस्ती का भाव लाना पड़ेगा।
मदन- अरे! वह उठ तो रहे हैं? कैसे उठ रहे हैं... इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?
उदय- फ़र्क़ पड़ता है। क्योंकि उठना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है उठाया जाना। उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है न, तो आप कहिए, और ऐसे कहिए, मानो आपके घर में किसी ने ज़बरदस्ती कब्ज़ा कर लिया है और निकलने का नाम नहीं ले रहा है।
नरेश-हाँ मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता है पर मैंने किसी के घर पर कब्ज़ा नहीं किया है।
उदय- मैं सिर्फ़ भाव समझा रहा था। बोलो?
नरेश- भाव समझा रहे थे। बोलिए... चलिए।
मदन- उठिए आप बस... अभी!
उदय- नहीं, वाक्य में अभी भी बहुत इज़्ज़त है। ग़ुस्से में।
नरेश-अरे सुनो! एक बार में बोलो न जो भी भाव-वाव से बोलना है और बात ख़त्म करो। चलो।
मदन- उठो मेरी जगह से...
नरेश- अरे यार क्या?
मदन- उठ.. उठ बे.. चल उठ...  अभी... इसी वक़्त.. वरना मैं अपनी जगह के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। (बहुत ग़ुस्से में नरेश की गिरेबान पकड़ लेता है।) उठ... तेरी समझ में नहीं आ रहा है क्या
? बहरा है क्या तू? उठ... वर्ना मैं तुम्हें धक्के मारते हुए उठाऊँगा... उठता है कि नहीं? चल उठ!
(नरेश अवाक सा उसे देखता रह जाता है। मदन गिरेबान से हाथ हटाता है। नरेश खड़ा हो चुका है। नरेश और उदय दोनों एक साथ चलना शुरू करते हैं। उदय उठके नरेश की जगह पर आकर बैठता है। और नरेश उदय की।)
मदन- माफ़ करना वह जोश-जोश में मेरे मुँह से निकल गया। मेरा इरादा इतना ऊँचा बोलने का नहीं था। (उदय से) क्यों क्या ज़्यादा ज़ोर से बोल दिया मैंने?
उदय- (धीरे से) ठीक बोला।
मदन- अभी तो उन्हें वहाँ से भी उठाना है। बोलूँ उन्हें?
(उदय मदन को गुस्से से देखता है मदन ख़ुद ही चुप हो जाता है।)
नरेश-कितना वक़्त हो रहा है?
उदय- साढ़े तीन बज रहे हैं।
नरेश-बस आधे घंटे में मेरे बेटे का रिज़ल्ट है। सोचा था पहले सोते हुए समय गुज़ार दूँगा। पर तुम लोगों की बकवास के चक्कर में सो नहीं पाया। फिर सोचा तुम लोग सोने तो दोगे नहीं। चलो साथ बकवास करता रहूँगा तो समय गुज़र जाएगा।
उदय- साढ़े तीन तो बज ही गए हैं।
मदन- क्या आप अब चार बजे तक वहीं बैठे रहेंगे? वह बस आती होगी।
उदय- श्‍श्‍श्श!!!
नरेश-मेरे बेटे के साथ मैं दस साल इसी पार्क में खेला हूँ। उसे यह पार्क उसके घर से भी अच्छा लगता है।
उदय- क्या उम्र है आपके बेटे की?
नरेश-पंद्रह साल का है वो।    
मदन- पर आज रिज़ल्ट तो सिर्फ़ पाँचवीं क्लास का खुलने वाला है?
नरेश-वह पाचवीं क्लास में ही पढ़ता है। वह दिमाग़ी रूप से थोड़ा कमज़ोर है।
मदन- हाँ मैं उसे जानता हूँ। वह मेरी संगीत क्लास में भी आया था। वह तो विकलांग है, क्या नाम है उसका?
नरेश-विकलांग नहीं है वह! आप जैसे लोगों की वजह से वह पास नहीं हो पा रहा है।
मदन- देखिए मैं ऐसा सोचता हूँ कि...
नरेश-आप क्या सोचते हैं इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं आपको मुँह ज़बानी पाँचवीं कक्षा का पूरा पाठ सुना सकता हूँ। हर साल उसे तैयार करता हूँ। पिछले चार सालों से। उसका पास होना हम दोनों के लिए बहुत ज़रूरी है।
मदन- मैं उस लड़के को जानता हूँ... यह पुत्र-प्रेम में पगला रहे हैं।
उदय- आप चुप नहीं रह सकते?
नरेश-हाँ मैं पगला गया हूँ। तुम्हें पता है मैंने उसे दो साल पहले ही साइकिल दिला दी थी? पर उसने उसको छुआ भी नहीं, वह जानता है कि वह पास नहीं हुआ है। जब आप जैसे गब्बर सिंह जैसे टीचर स्कूल में उसका मज़ाक उड़ाते हैं तो वह रात में खाना नहीं खाता। अब हम दोनों ने तय किया है कि हम जैसे ही पाँचवीं पास होंगे, हम ख़ुद स्कूल छोड़ देंगे। और इस साल मुझे पूरा विश्वास है कि वह पास हो जाएगा। मुझसे यह चार बजे तक का वक़्त ही नहीं कट रहा था, इसलिए मैंने सूअरों कि तरह ठूस-ठूस कर खाना खाया था कि पूरी दोपहर सोते हुए निकाल दूँ। सीधा चार बजे उठूँ और मुझे रिज़ल्ट पता लग जाए। मैं यह धीरे-धीरे रेंगता हुआ समय बरदाश्त नहीं कर सकता।
(तीनों कुछ देर चुप-चाप बैठे रहते हैं।)
उदय- आप उससे नक़ल करवा रहे हैं, यह ठीक नहीं है।
नरेश-क्या? मैं उसे पढ़ा रहा हूँ।
उदय- मैं उस नक़ल की बात नहीं कर रहा हूँ हम सबकी इस कहानी में अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैं। कोई व्यक्ति अगर ज़बरदस्ती किसी और की भूमिका निभाता है तो वह जी नहीं रहा है... नक़ल कर रहा है। आपका बेटा जीना चाहता है, नक़ल नहीं करना चाहता। मैं जब पैदा हुआ था तो मेरे माँ-बाप को लगा कि मैं एक special child हूँ। मैं उस स्पेशल चाइल्ड की भूमिका ही मैं आज तक निभा रहा हूँ, जबकि मैं एक आम आदमी हूँ।
नरेश- और मेरा बेटा एक स्पेशल चाइल्ड है
, और मैं उसे ज़बर्दस्ती एक आम आदमी बनाने पर तुले हुए था।
(उदय की निग़ाह मदन पर पड़ती है वो शांत अपनी जगह पर बैठा हुआ है। उदय कहता है।)
उदय- सुनिये आप जाईये अपनी जगह पर बैठिए.. अब कोई समस्या नहीं है।
(मदन नहीं जाता है..।)
नरेश-क्या हुआ? अब आपको अपनी जगह नहीं चाहिए?  (मदन चुप रहता है। नरेश को गुस्सा आने लगता है।) सुनिये, मैं आपसे बात कर रहा हूँ... आपको सुनाई नहीं दे रहा है क्या?
उदय- सुनिए! अब आप अपनी जगह पर क्यों नहीं जा रहे हैं? जाइए वह ख़ाली पड़ी है।
मदन- मैं यहीं ठीक हूँ।
नरेश-नहीं, अब आप संतमत बनिए। आपकी जगह ख़ाली पड़ी है... आपको जाना पड़ेगा.. चलिए आप जाइए वहाँ पर।
मदन- अरे रहने दीजिए। वो नहीं जा रहे हैं तो न जाएँ?
नरेश-क्यों? क्यों नहीं जाएँगे वह? हमारी नाक में दम कर रखा था कि यह मेरी जगह है, यह मेरी जगह है। अब ख़ाली पड़ी है जगह तो उन्हें जाना पड़ेगा। उठिए... उठिए आप।
(नरेश ज़बरदस्ती उसे उठाने की कोशिश करता है। उदय रोकता है, मदन नहीं उठता है। नरेश का गुस्सा बढ़ता जाता है। )
उदय- अरे सुनिए! वह नहीं जाना चाहते हैं तो रहने दीजिए। देखिए... रहने दीजिए।
नरेश-यह ऐसे नहीं मानेंगे।
(नरेश सामने जाकर गणित की टीचर को आवाज़ लगाता है। उदय रोकता है।)
नरेश-सुनिए! ओ गणित की टीचर... मैडम! बाहर आइए... ओ टीचर जी...
उदय- अरे! यह आप क्या कर रहे हैं?
नरेश-आप शांत रहिए। मैडम टीचर जी... सुनिए! मिस... मिस... टीचर जी...
मदन- चिल्लाइए! बुलाइए उनको! मैं भी आपका साथ देता हूँ। (मदन चिल्लाता है।) मैडम... सुनिए! मिस... बाहर आइए! अरे आप क्यों चुप हो गएचिल्लाइए? अब मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। आप लोगों ने सब ख़त्म कर दिया है।
उदय- क्या? हमने? हमने क्या किया?
मदन- यहाँ इस जगह में वह गणित की टीचर महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसका वहाँ खड़े रहना, बाल सुखाना, कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। जो महत्त्वपूर्ण था वह आज आपने ख़त्म कर दिया।
नरेश-अरे! आप तो ऐसे इल्ज़ाम लगा रहे हैं मानो हमने किसी का ख़ून कर दिया हो?
मदन- ख़ून ही हुआ है। मैं गब्बर सिंह हूँ... अपने स्कूल में, घर में, बाज़ार में, सब जगह। सारी जगह मैं विलेन हूँ... बुरा आदमी, सिवाय इस जगह के। यहाँ इस बेंच पर मैं हीरो हूँ। अच्छा हूँ, सच्चा हूँ। मैं बस यहाँ पर ही मैं हूँ। आप लोगों ने अभी, इस मैं का ख़ून कर दिया। मुझे यहाँ भी आप लोगों ने विलेन बना दिया। अब मैं सब जगह गब्बर सिंह हूँ...
(उदय, मदन के पास जा रहा होता है। नरेश उसे रोकता है। नरेश, मदन के पास जाता है।)
नरेश-देखो! मैं अपनी जगह के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। तुम्ही ने मुझे यह जगह दी है। मतलब पहले वहाँ फिर यहाँ.. आपकी जगह खाली पड़ी है जाईये आप। (नरेश प्यार से मदन के कंधे पर हाथ रखता है।) जाओ भाई।
(मदन उठता है... और अपनी जगह पर बैठता है। उदय अपना बेग़ उठाता है और नरेश के पास आता है। घड़ी देखकर कहता है कि)
उदय- चार बज गए हैं... बेस्ट ऑफ़ लक।
(नरेश और उदय लेफ्ट और राईट विंग से exit करते हैं... मदन अपनी आँखे बंद करता है... धीरे धीरे म्युज़िक के साथ स्पाट मदन के चहरे पर रह जाता है जहाँ कुछ रंग हमें बदलते हुए दिखते हैं... एक छोटे जादू सा कुछ और ब्लैक आऊट होता है।)
इति सिद्धम्‍ 

4 टिप्‍पणियां:

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    María Alejandra from Buenos Aires, Argentina.

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