aRANYA pRESENTS,
त्रासदी...
Written by- Manav Kaul
...
मुझे माँओं से बहुत शिकायत है। वो हमारे बचपन में, अपने लाड़ में, हमारे ऐसे नाम रख देती हैं कि हमें अपने बड़े होने पर उन घर के अपने नामों को छुपाना पड़ता है। कितने अजीब होते हैं ये नाम, चिट्टी, मिलू, टुन्नी, छोटू, चोटी, नाटे, भूरी, सनी।
मेरे घर का नाम कोपल था, कोपल, गाँव में मुझे आज भी सब कोपल ही बुलाते हैं। कोपल का मतलब क्या होता है आप जानते हैं?
मुझे भी नहीं पता था। मुझे याद है एक दिन माँ मुझे स्कूल छोड़ने जा रही थी, मैं उनकी उंगली पड़े हुए चल रहा था। उसी वक़्त मैंने उनसे पूछा था।
‘माँ ये कोपल का क्या मतलब होता है? मेरे सारे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं कि ये क्या नाम है, कोपल, इससे अच्छा तो कपिल रख लेता।’
मेरी माँ मुझे एक पेड़ के पास ले गई और कहा, ‘इन पत्तों को छू’, मैं पत्तों को छूने गया तो उन्होंने कहा कि, ‘नहीं बड़े वाले नहीं वो जो छोटे पत्ते हैं ना, जो अभी अभी आए हैं, हल्के पीले से, उन्हे छू’, मैंने छुआ।
‘ओह! माँ’, मैं आश्चर्यचकित रह गया।
‘हाँ, इन्हें कोंपल कहते हैं।’ माँ ने कहा
‘पर माँ ये तो कितने कमजोर हैं माँ।’, मैंने कहा
‘ये कमजोर नहीं है.. ये बहुत कोमल हैं, जैसा तू है।’
पता नहीं क्यों मैंने उस वक्त माँ से कहा था कि,
‘अगर यह कोमल-से पत्ते मैं हूँ तो यह पेड़ आप हो।’
मैं इस बात को बहुत पहले भूल चुका था।
अब मैं मुंबई में रहता था। यहीं जॉब करता हूँ। गाँव तो जाने कब का छूट चुका था।
कल ही की बात थी, मैं आफिस था। महीने का अंत चल रहा था, तो मेरे सिर पर बहुत काम था। मेरी डेस्क पर फाइलों का ढ़ेर था, सिर कंप्यूटर में घुसा पड़ा था। तभी मेरा फोन बजा, मैंने देखा सोनी जी का फोन है। सोनी जी, गाँव में हमारे पडोंसी थे और मैं इन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं करता था। मैंने फोन उठाया...
‘हेलो! जी बोलिए। हेलो, अरे बोलिए।‘
‘बेटा।‘
‘हाँ, अरे सोनीजी, सुनाई दे रही है आवाज़, बोलिए ना।‘
‘बेटा, तेरी माँ कल रात अचानक चल बसी हैं। तू जितनी जल्दी हो सके आ जा।’
(वक्फ़ा, चुप्पी, लंबी चुप)
मैं कहना चाहता था कि, क्या कह रहे हैं आप? क्या हुआ है माँ को? पर मुझे लगा मेरे पूछते ही वो अपना वही वाक्य फिर से कहेंगे। और मैं उस वाक्य को दौबारा नहीं सुन सकता था। पर मुझे कुछ तो कहना ही था। पर क्या कहूँ? इस वक्त क्या कहा जाता है? मैं कुछ बोलने गया तभी सोनी जी बोले,
‘तू है वहाँ... हेलो, कोपल, हेलो.. बेटा?’
‘हाँ मैं हूँ... यहाँ’
‘जल्दी आ जा बेटा’
‘हाँ हाँ… Okay.. okay।’
मैं सीधा अपनी डेस्क पर आया और वापस काम करने लगा। बहुत सारा काम था। मुझे लगा पहले मैं अपने सारे अधूरे पड़े काम खत्म कर लूँ। काम करते हुए लगा कि इस बीच कुछ घटा ही नहीं था, कोई फोन नहीं आया था, कुछ नहीं हुआ था। तभी, काम करते-करते, मुझे कुछ खाली-खाली-सा लगने लगा। मैं रुक गया। देर तक अपनी डेस्क को ताकता रहा। मुझे कुछ चाहिए था, कुछ है जो मुझे दिख नहीं रहा था। मैं अपनी डेस्क पर चीजें ऊपर नीचे करने करने लगा। टेबल के दराज़ खोलकर ढूँढने लगा। पर मुझे जो चाहिए वो मिल नहीं रहा था। तभी मेरे दोस्त ने मुझे देखा और पूछा कि,
‘क्या बे.. क्या खोज रहा है?’
मैंने उसे देखा और अपने कंधे उचका दिये।
‘और तुझे इतना पसीना क्यों आ रहा है?’, मेरे दोस्त ने पूछा
मैंने देखा, मेरे माथे से पसीना टपक रहा है, मेरी आँखें जल रही है। मैंने अपनी बुशर्ट से पसीना पोंछा। मैं अपने दोस्त के पास गया और उससे कहा कि,
‘मेरा माथा देख… कहीं मुझे बुख़ार तो नहीं है?’
‘नहीं। बुख़ार तो नहीं है।’
उसने मेरे माथे और गर्दन पर हाथ रखने के बाद कहा।
‘क्या हुआ बे तुझे?’ उसने पूछा,
पता नहीं क्या हुआ मैंने उससे कहा कि,
‘यार मेरी माँ नहीं रही।’
और तब पहली बार उसकी आँखों में मैंने वो देखा जिसे मैं इतनी देर से खोज रहा था।
मैं सीधा अपने बॉस के केबिन में गया। उनसे कहा कि,
‘बॉस मुझे छुट्टी चाहिए अभी।‘
मैंने उन्हें कारण बताया तो उन्होंने कहा कि, हाँ हाँ, बिल्कुल, एक हफ़्ते की छुट्टी ले लो.. या ऐसा करो तुम तेरवाँ ख़त्म करके आना..
नहीं नहीं, मैंने कहा, मैं एक- दो दिन में आ जाऊँगा वापस.. मैं इतने दिन क्या करूँगा गाँव में.. वो मुझे आश्चर्य से देखने लगे और उन्होंने कहा कि,
‘ठीक है।‘
‘ठीक है’, मैंने कहा।
मैंने अगले दिन की फ़्लाइट बुक की.. दोपहर की फ़्लाइट सस्ती थी.. और सुबह की बहुत मंहगी….. पर मुझे जल्दी जाना था सो,
मैंने सुबह की फ़्लाइट बुक कर दी और मैं घर आ गया था।
मैं बिल्कुल सुबह का आदमी नहीं हूँ। मुझे सुबह उठना पसंद नहीं है। पर पता नहीं क्या हुआ आज मैं सुबह चार बजे से उठा हुआ था। सुबह कितनी धीमी गति से होती है इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था। मैं नहा चुका था। पूरा सामान बाँध चुका था पर सुबह होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मुझे पसीना आ रहा था, मेरी आँखें जल रही थी, सिर भारी था। पर आँख बंद करते ही लगता कि कुछ छूट रहा है और मैं फिर उठकर खड़ा हो जाता, कहीं फ़्लाइट तो नहीं छूट जाएगी? नहीं फ़्लाइट नहीं छूटनी चाहिए। मैं अपने कमरे में मंडराने लगा। तभी अपनी रेक पर मेरी निगाह एक किताब पर गई। क्या हो रहा है आज। आज पहली बार इतनी किताबों के बीच मेरी निगाह उसी किताब पर गई। मेक्सिम गोर्की की मदर।पलाग्या निलोवना। गोर्की ने ये किताब अपनी माँ के लिए लिखी थी। पलाग्या निलोवना, जब मैंने इस किताब को पढ़ा था, बहुत पहले, तब मेरे भीतर एक बहुत ही रिरियाती हुई इच्छा जागी थी कि काश! मेरी माँ भी पलाग्या निलोवना की तरह महान माँ होती। मुझे लगा था कि उन्होंने मुझे धोखा दिया है। उन्हें महान होना चाहिए था, वह हो सकती थीं, फिर क्यों नहीं हुईं? हमारी माएँ महान क्यों नहीं हो पाती हैं?
मुझे याद है मैंने कई दिनों तक अपनी माँ से ठीक से बात नहीं की थी। मेरी माँ की समझ ही नहीं आया कि मैं क्यों उनसे नाराज़ हूँ। वो पूछती, क्या हुआ कोपल... मैं कहता... जाने दो आप नहीं समझोगी।
अब लगता है कि मैं कौन सा गोर्की हो गया था।
मैंने घड़ी देखी छ: बज चुके थे। मैंने अपना सामान उठाया और एयरपोर्ट के लिए रिक्शा पकड़ लिया। बारिश बहुत हो रही थी, सुबह का समय था, सड़के खाली थीं, मैं अपने समय से बहुत पहले ही एयरपोर्ट पहुँच गया। Check in करने के बाद… जैसे ही मैं एयरपोर्ट मे घुसा तो मुझे पता चल गया कि मुझे क्या चाहिए था, मुझे लगा कि अगर अभी मुझे एक गर्म काफी मिल जाए तो ये आखों की जलन और सर का भारीपन सब खत्म हो जाएगा। मैं भाग के एक कैफ़े मे गया और वहाँ से एक कॉफी ली और अपनी फ्लाइट के गेट पर आकर मैं बैठ गया था।
मैंने घड़ी देखी, अभी तो फ़्लाइट में बहुत टाइम है। लगता है एयरपोर्ट का AC काम नहीं कर रहा था, मुझे कितना पसीना आ रहा था, आँखें अभी भी जल रही थीं, सिर भारी लग रहा था।
एयरपोर्ट के बाथरूम के पास बहुत देर से एक औरत खड़ी हुई थी। न तो वो भीतर जा रही है न ही कहीं और जा रही है। वो बस वहीं खड़ी हुई है। जबकि महिलाओं का बाथरूम इस तरफ़ है। पता नहीं क्या चक्कर है? कोई उन्हें कुछ बता ही नहीं रहा।
मैंने माँ से आखरी बार कब बात की थी? मैंने अपना फ़ोन निकाला और देखा पंद्रह दिन पहले, मैं फ़ोन पर उनका नाम देख रहा था। क्या अगर मैं उन्हें अभी फोन कर दूँ तो दूसरी तरफ़ से उनकी आवाज़ आएगी? क्यों नहीं आएगी? क्या वो आज के बाद कभी भी दूसरी तरफ़ नहीं होंगी? मैंने मैसेज मे जाकर उनका आखरी मैसेज देखा
‘तो क्या लिख रहा है आजकल?’
मैंने जवाब में लिखा था, ऑफिस में हूँ, काम में व्यस्त हूँ… फ़ोन करता हूँ। तीन एकदम रुख़े वाक्य, मैंने जान बूझकर लिखे थे। क़रीब दो साल से मैं माँ से मिला नहीं था, उनकी शक्ल तक नहीं देखी थी। मैं उनसे नाराज़ था… बहुत नाराज़।
वैसे क्या ये आपके साथ भी होता है? जब आप किसी नए एयरपोर्ट के बाथरूम के बाहर खड़े होते हो और आपकी समझ ही नहीं आ रहा होता है कि कौन सा पुरुषों का बाथरूम है और कौन सा महिलाओं का? हे ना, पता नहीं आजकल कैसे डिज़ाइन करते हैं ये लोग, कुछ पता ही नहीं चलता। एक बार तो मैं महिलाओं के बाथरूम मे घुसते-घुसते बचा था। शायद वो महिला भी कनफ्यूज़ हो रहीं हैं।
मैंने काफी रखी और उठकर उस औरत के पास उसकी मदद करने गया।
मैं जैसे ही उनके पास पहुँचा, मुझे उनके पास से एक ख़ुशबू आई… मैं इस ख़ुशबू को पहचानता था… ये ख़ुशबू तो सिर्फ़ मेरी माँ के पास से आती थी, ये मेरी माँ की खुश्बू थी।
मेरी माँ बहुत काम करती थी, वो मनबोर्ड स्कूल में टीचर थीं। उनकी तनख़्वाह कुछ सात सौ रुपय थी। टीचरी खत्म करके वो घर आकर कुछ ट्युशन कर लेती थी जिससे ऊपर का कुछ पैसा उन्हें मिल जाता था। फिर वो घर का सारा काम निपटाकर जब मेरे पास आती थीं तो मैं उनसे चिपक जाता। वो कहती,
‘छी, क्या कर रहा है, मैं एकदम पसीने पसीने हूँ। हट मुझे पहले नहा लेने दे।’
‘नहीं मुझे अपकी ये ख़ुशबू बहुत पसंद है।’, मैं कहता
‘ख़ुशबू..? ये ख़ुशबू है?’ वो आश्चर्य से पूछती।
‘हाँ, ये किसकी ख़ुशबू है माँ?’
उन्होंने कहा था कि, ‘ये थकान है बेटा, मैं बहुत थक जाती हूँ। ये थकान की ख़ुशबू है।’
मुझे लगता था ये थकान की ख़ुशबू सिर्फ़ मेरी माँ के पास से आती है। पर ये तो उनके पास से भी आ रही थी जो औरत बाथरूम के पास खड़ी थी।
जब रात में मुझे नींद नहीं आती थी तो मैं अपनी माँ के पास जाता था और उनके साड़ी के पल्लू को सूंघता था और मुझे नींद आ जाती थी।
मेरी माँ जितना थकती थीं मैं उतनी गहरी नींद सोता था।
मैं एक बार और वो थकान वाली खुशबू सूंघ लेना चाहता था।
मैं धीरे से उनके पास गया। अपनी आँखें बंद करते जैसे ही मैंने एक तेज़ ख़ुशबू भीतर जी खींची वो पलट गई।
‘नमस्ते… अरे! माँ.., आप यहाँ क्या कर रही हो माँ? माँ मैं कोपल, अरे, क्या हुआ? माँ, माँ मैं अब आपसे नाराज़ नहीं हूँ… मैं था नाराज़.. पर अभी.. मैं ख़ुद आपको फ़ोन करने वाला था। माँ, कहाँ जा रही हो, आपको बाथरूम जाना है ना, वो उधर है, आप फिर ग़लत जा रही हैं। चलो चलो, अरे चिल्ला क्यों रही हो… चलो, माँ, जिद्दी कहीं-की, चलो। आप जाइये ना बाथरूम, मैं हूँ यहाँ, लाइये आपका बेग मुझे दीजिए.. दीजिए.. दीजिए बेग’
तभी मैंने देखा हमारे आस-पास कुछ लोग जमा हो गए हैं। उसी वक़्त एक आवाज़ आई,
‘क्या हो गया भई? मेरी माँ से क्या कह रहा है?’
मैं बेटा नहीं था, बेटा तो कोई और था। मेरे हाथ में उस औरत का बेग था.. मैंने वो बेग तुरंत उन्हें वापस कर दिया और जल्दी में मैंने भीड़ से कहा कि,
‘Sorry Sorry, मुझे पता नहीं आज क्या हो रहा है, असल मे आज मेरी माँ……।’
पर तब तक देर हो चुकी थी। लोग मुझे धक्का देने लगे…कुछ थप्पड़ भी पड़े.. मैं गिर पड़ा.. और फिर वही हुआ जो भीड़ एक आदमी के साथ करती है। मैंने ख़ुद की आँखें बंद की शरीर को ढीला छोड़ दिया। जो भी मुझपे हो रहा था मैंने उसे होने दिया।
कुछ देर में लड़खड़ाते- संभलते मैं वापस अपनी जगह आ कर बैठ गया था।
पता नहीं क्यों पर मार खाकर मुझे बहुत अच्छा लगा, सच में। मेरी आँखों में अभी भी जलन थी, पसीना अभी भी आ रहा था पर मार खाने के बाद मेरा सिर का जो भारीपन था ना वो ख़त्म हो चुका था। वाह! पिटने के अपने फायदे भी हैं।
तभी हमारी फ़्लाइट एनाऊंस हुई और मैं तुरंत जाकर लाइन में लग गया।
तो क्या लिख रहा है आजकल, माँ हमेशा पूछती थीं।
असल में, मेरी माँ शिद्दत से लेखक हो जाना चाहती थी। पर मेरे पिता को ये मंजूर नहीं था। इसलिए उन्हें कहीं भी घर मे पेन दिखता तो वो तोड़ देते। मुझे मेरे पिता बहुत कम ही याद हैं। मैं बहुत छोटा था जब वो चल बसे थे। मेरी माँ, पिताजी के बारे में जब बात करती थी तो ऐसा लगता था मानो वो कोई सैनिक हों जिनका काम था उनपर पहरा देना। पिताजी जब तक जीवित थे उन्होंने माँ पर पहरा दिया था। मेरी माँ बहुत सुंदर थीं, ताँबई रंग, दुबला-पतला लंबा क़द, घने बाल, इसलिए पिताजी हमेशा काम पर जाने के पहले घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं अपने बाप से बहुत चिढ़ता था। क्रूर आदमी, आदमी ऐसा कैसे हो सकता है? इतना क्रूर? माँ बताती हैं कि उसी क्रूरता के बीच कहीं मैं पैदा हुआ था और माँ ने बहुत वक्त बाद कोमलता को छुआ था, इसलिए उन्होंने मेरा नाम कोंपल रखा था। अब ये नाम मुझे बहुत अच्छा लगता है।
फिर जब पिताजी नहीं रहे तो मुझे लगा माँ अब खूब लिखेंगी.. पर ऐसा हुआ नहीं। मुझे बहुत अजीब लगा तो मैं एक दिन माँ के पास गया और उनसे कहा,
‘माँ आप क्या ये कोरे पन्नों से सामने पेन से खेलती रहती हो, आप लिखती क्यों नहीं हो? लिखो, आपको जो लिखना है, आपको पूरी आजादी है।’
तो उन्होंने कहा, ‘इतना आसान थोड़ी है, मेरे भीतर कई सालों का ग़ुस्सा भरा है बेटा, और गुस्सा आदमी को कठोर बना देता है... मैं ये ग़ुस्सा नहीं लिखना चाहती हूँ। मैं कुछ अच्छा लिखना चाहती हूँ।’
अच्छा लेखन, मेरी माँ एक शब्द भी नहीं लिख पाई थीं। पर वो बहुत पढ़ती थीं, हाँ, बाप रे! वो हमेशा किताबों से घिरी रहती।
और एक मैं था उनका गधा-बच्चा, मुझे न तो लिखना अच्छा लगता था और न ही पढ़ना। भई बहुत कठिन काम है, अपने बस का नहीं है। मैं तो किताबों का इस्तेमाल करता था सो जाने के लिए। किताबें मेरी लिए नींद की गोलियाँ थीं। खाओ और टप से सो जाओ।
पर माँ हर रात एक किताब मेरे सिरहाने रख दिया करती थी और कहती कि,
‘न, न, न, ऐसे नहीं, हमेशा पढ़कर ही सोना’
‘ठीक है माँ।‘
मैं एक पन्ना पढ़ता और जैसे कैसे दूसरे पन्ने पर पहुँचता पर तब तक मुझे लगता कि मेरी पलकों पर किसी ने ये बड़े बड़े पत्थर रख दिए हैं। मैं पूरी ताकत लगाता कि एक वाक्य, कुछ शब्द और पढ़ लूँ पर मजाल हैं आँखें खुली रहें। वो पट से बंद हो जाती और मैं खर्राटे लेने लगता।
सुबह माँ पूछती,
‘तो सुनाओ कहानी जो रात में पढ़ी थी?’
मैं कहता, ठीक है माँ, सोने से पहले का एक पन्ना तो मैं उन्हें सुना देता और दूसरे पन्ने तक आते ही मैं माँ के सामने एक झूठी कहानी बुनने लगता, और जैसे कैसे उस कहनी को पूरा कर देता। माँ मेरी झूठी कहानी पर खुश हो जाती। उन्हें मेरे झूठ पर मज़ा आ जाता। मैं सोचने लगा कि ये क्या है? अरे, जब उन्हें मेरे झूठ पर ही मजा आ रहा है तो पढ़ने की क्या जरूरत है। मैंने तुरंत पढ़ना कर दिया बंद, अब मैं बढ़िया चादर तानकर सोता, सुबह बढ़ियाँ एक अंगड़ाई लेकर उठता और माँ के सामने एक पूरी झूठी कहानी बनाकर सुना देता। माँ हंस हंस के लोट-पोट हो जाती। मेरी माँ इतना अच्छा हंसती थीं, नहीं, नहीं वो हंसती नहीं थी वो खिलखिलाती थीं... वो खिलखिलाती थीं।
फिर एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया,
‘कोपल’, भारी आवाज़ में
‘क्या माँ?’
‘इधर आ, इधर आ, इधर आ’
माँ जब भी मुझे ऐसे बुलाती थीं मैं समझ जाता था कि मुझसे कुछ बड़ी गड़बड़ी हुई है।
‘क्या हुआ माँ?’
‘सुन, तू जो मुझे सुनाता है, ये कहानियाँ’
‘हाँ’
‘तू उन्हें लिख दिया कर।’
‘क्या माँ, वो कहानियाँ तो पहले से ही लिखी हुई है न किताबों में, उन्हें फिर से क्यों लिखना?’
‘चल झूठे, मैं जानती नहीं हूँ क्या, वो अलग हैं, मुझे पता है तू मुझे क्या सुनाता है, वो ज़्यादा अच्छा है, सुन ना मैं पढ़ना चाहती हूँ तुझे, तू लिख दिया कर ना।’
देखा कितनी तेज़ हैं। मतलब इन्हें शुरु से पता था कि मैं झूठ झूठ सुना रहा हूँ पर इन्होंने कभी कुछ कहा नहीं बस खिलखिलाती रहीं।
‘माँ।’
‘क्या है?’
‘Sorry, अब आपको तो पता है कि ये सब झूठ है न, इस झूठ को क्या लिखना?’
उन्होंने कहा,’ये झूठ नहीं है ये तेरी कल्पना है… और ऐसे ही सब लिखते हैं।’
‘क्या मतलब? तो क्या ये सारी किताबों में झूठ-झूठ लिखा हुआ है?’, मैंने उनसे पूछा था।
‘हाँ, झूठ, कल्पना, एक ही बात है।’
मेरे दिमाग़ में हो गया विस्फोट। मतलब आप समझ रहे हैं कि आपको अचानक पता चले कि इस दुनियाँ में जितनी किताबें है उसमें सब झूठ-झूठ लिखा हुआ है। भाई साब! मेरे तो तोते उड़ गए। फिर लगा अगर सब झूठ ही पेल रहे हैं तो ये झूठ तो मैं भी लिख सकता हूँ। फिर क्या मैं रोज़ सुबह उठता और एक बढ़िया झूठी कहानी माँ को लिखकर देता और माँ मेरा झूठ पढ़ती और खुश हो जाती। कितनी सही सेटिंग हो गई थी ये। नींद की नींद और कहानी की कहानी।
ओ भाई साहब, लेकिन मुझे इस सब में पता ही नहीं चला कि मैं कब माँ के पैंतरे में फँस गया था और लिखने लगा था। बाप रे कितनी तेज़ हैं माँ। मैं लिखता ही चला गया था, अपनी माँ के लिए।
आपको पता है मुझे विंडो सीट मिली थी प्लेन में, मुझे अचानक से विंडो सीट का मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं लगता है, छोटे सुखद आश्चर्य जैसा कुछ। मुझे हवाई जहाज़ शुरु से ही बहुत पसंद थे। अरे मेरा छोड़िए मेरी माँ तो हवाई जहाज़ के लिए पागल थी।
हमारे घर के ऊपर से जब भी हवाई जहाज़ गुजरता तो मैं और माँ दोनों घर से बाहर आ जाते और आश्चर्य से उसे देखते। माँ के मुँह से निकलता… ओह! फिर हम टाटा करते थे। टाटा टाटा टाटा टाटा टाटा, जब तक वो आँखों से ओझल नहीं हो जाता हम टाटा करते रहते।
‘कोपल’, माँ कहती
‘क्या माँ?’
‘बेटा हवाई जहाज़ का दिखना बहुत शुभ होता है।’
‘हैं!’
‘हाँ, ये ले एक रूपये.. जा पेड़े ले आ।’
हवाई जहाज़ दिखने पर हमारे यहाँ पेड़े आते थे। पर हम ज़्यादा पेड़े खा नहीं पाते थे, क्योंकि हमारे घर से उस वक़्त महीने दो महीनों में एक-आध हवाईजहाज़ बमुश्किल गुजरता था। फिर पता नहीं क्या हुआ कि मेरे बड़े होने में, हमारे घर के ऊपर से हवाई जहाज़ गुजरने की तादाद बढ़ने लगी। पेड़े बहुत महँगे थे, हम बताशों पर आ गए। और कभी कभी तो हमारे गाँव से एक ही दिन में दो हवाई जहाज़ गुज़र जाते। बताशे भी तो पूरे महीने चलाने होते थे। ऐसा थोड़ी हर हवाई जहाज़ पर बताशा मुँह में रख लिया। इतने पैसे थोड़ी थे। तब माँ को एक तरकीब सूझी। अब हमारे घर से जैसे ही दूसरी हवाई जहाज़ गुजरता मैं और मेरी माँ ऐसा बिहेव करते कि हमें तो कुछ सुनाई नहीं दे रहा, पता नहीं क्या आवाज़ आ रही है ऊपर से। ये तरकीब बहुत काम आई। जैसे माँ की तनख्वाह बहुत कम थी, वो महीने की एक तारीख को अपने छे सौ, सात सौ रूपये को लाकर सीधा भगवान की अलमारी में रख देती थीं और कहती कि,
‘कोपल, बस बहुत हुआ, इस बार इन पैसों को पूरा महीना चलाना है।‘
मैं कहता, ‘ठीक है माँ’,
क्या ख़ाक ठीक है। वो पैसे हर बार की तरह, बीस से पच्चीस तारीख़ के आस पास कहीं अपना दम तोड़ देते। और महीने का आख़री हफ़्ता हम ऐसे गुज़ारते मानो घर के ऊपर से गड़गड़ाता हुआ दुखों भरा दूसरा हवाई जहाज़ गड़गड़ाता हुआ गुजर रहा हो, और तब ये तरकीब काम आती। हमें वो दुख दिखाई नहीं देता। उस दुख को हम सुनते ही नहीं। हर महीने के आख़री हफ़्ते का दुख यूँ आता और बिना दिखे वो यूँ गुजर जाता। और फिर ख़ुशियों भरी एक तारीख़ आती और भगवान की अलमारी वापस पैसे आ जाते। माँ कहती कि, दुखों को अगर देखो नहीं तो वो असल में हैं ही नहीं।
एक दिन मैंने माँ से पूछा,
‘माँ’, उन्हीं की तरह गंभीर आवाज में
‘क्या है?’
‘इधर आओ, इधर आओ, इधर आओ।‘
‘एक दूंगी रख कर।‘
‘अरे ऐसे ही पूछना था कुछ’
‘पूछ?’
‘गंभीर सवाल है।’
‘गंभीर सवाल मुझे अच्छे लगते हैं।’
‘अच्छा तो ये सुनो, माँ हम इसे भगवान की अलमारी क्यों कहते हैं? इसमें भगवान तो है नहीं। ख़ाली पड़ी है अलमारी।’
माँ ने कहा था, ‘क्योंकि भगवान तेरे पिता के साथ चले गए। मैं तो नास्तिक हूँ ना।’
‘छी.. क्या? आप नास्तिक हो?’
‘हाँ।’
‘नहीं।’
‘हाँ, मैं नास्तिक हूँ।’
‘अरे, माएँ कहाँ नास्तिक होती हैं? माँ नास्तिक नहीं होती हैं।’
‘अब मैं तो हूँ।’
‘पर मैं नहीं हूँ, भगवान, मैं नहीं हूँ, बस ये ही हैं। मैं तो आपमें विश्वास रखता हूँ, अपनी सेटिंग एकदम सही चल रही है।’, मैंने कहा
‘तू भी नास्तिक है।’
‘माँ! पाप लगेगा क्या कह रही हो। मैं नहीं हूँ।’
‘हम सब इस दुनिया में ज़्यादा नास्तिक हैं कम आस्तिक हैं।’
‘क्या!’
‘हाँ, देखो इस दुनिया में लगभग दस धर्म है। उसमें से नौ तो तू नहीं मानता है, बस एक मानता है न। तो उन नौ धर्मों के लिए तो हम दोनों साथ में नास्तिक हुए न। मैं तो बस एक और धर्म नहीं मानती हूँ।’
अब कर लो इनसे बात। देखा कैसे घुमाती है बातों को। पर मैं भी कोपल हूँ ऐसे हारने वाला नहीं था। मैंने पूछा।
’तो… तो इसका क्या मतलब… आप कह रही हो कि मैं भागवान को नहीं मानूँ। नहीं मानूँ?’
‘तुम तो मानोगे’
‘ओ,ओ... रुको, रुको, रुको मैं क्यों मानूँगा?’
‘क्योंकि तुम पुरूष हो।’
‘छी, नहीं, माँ में आपका बेटा हूँ। मैं कोई पुरुष-वुरुष नहीं हूँ।’
‘अरे गधे, मेरे बेटे होने पर साथ साथ तू पुरुष भी तो है, और हर धर्म में मुख्य भूमिका तो पुरुषों की ही है… तो वो तो मानेंगे। हम औरतों का तो हर धर्म में सपोर्टिग रोल है… तो मैं तो नहीं मानूँगी। मुझे तो समझ में नहीं आता कि औरतें क्यों इसे स्वीकार करती हैं? मैं नहीं करुगी, मेरा अब सपोर्टिंग रोल नहीं है। मेरे जीवन में मेरी भूमिका मुख्य है।’
पता नहीं क्यों मुझे ये बात बहुत बुरी लग रही थी। मैंने कहा,
‘और मैं? मैं कहा हूँ आपके जीवन में?’
‘तुम अहम किरदार हो।’
‘अहम! मैं मुख्य नहीं हूँ। मैं आपका इकलौता बेटा, आपके जीवन में मुख्य नहीं है?’
‘न, मुख्य तो कोई नहीं है, मैं मेरे जीवन में मुख्य हूँ, जैसे तुम्हारे जीवन में तुम।’
ये माँ क्या कह रही थीं? ये कौन सी बातें है? मैं हैरान था। मेरी आँखों में एकदम कोने कोने तक आँसू आ चुके थे। पर मैंने ख़ुद से कहा कि, नहीं कोपल रोना नहीं है। एक नास्तिक के सामने तो हमें कभी नहीं रोना है। मैं सीधा अपने पक्के दोस्त सुधीर के घर गया।
‘सुधीर, सुधीर’, मैंने उसे आवाज़ लगाई, वो मेरे एकदम पक्का दोस्त था।
‘सुधीर नीचे आ।’ जैसे ही वो नीचे आया मैंने उससे कहा कि,
‘चल, मुझे तुझसे ज़रूरी बात करनी है, हनुमान मंदिर चलते हैं।’
हम दोनों हनुमान मंदिर के चबूतरे पर जाकर बैठ गए। मैंने सुधीर को सब कुछ बताया, आप लोगों को वहाँ होना था, तो आप देखते कि क्या ग़ुस्सा हुआ था सुधीर। उसकी आँखें लाल हो गई थीं और चेहरा पीला। मैंने कहा,
‘क्या बात है यार सुधीर, बहुत सही।’
‘हाँ यार कोपल भई, तेरे घर तो यार बड़ी ट्रेजडी हो गई है यार।’
तभी मेरी इच्छा हुई की बजरंगबली से जाकर माँ की शिकायत कर दूँ क्या? पर बजरंगबली एक नास्तिक का क्या उखाड़ लेंगे? तभी सुधीर बोला,
‘कोपल यार तेरे लिए तो बहुत ही बेड फीलिंग्स हो रही है यार।’
‘हे ना।’
‘और यार कोपल, माँ तो अपने बच्चे के लिए अपना पूरा का पूरा जीवन न्योछावर कर देती है और चूँ तक नहीं करती। चूँ भी नहीं करती है माँ भाई, और बता एक तेरी माँ हैं, कैसे निकली यार, ये तो सही नहीं है।’
‘हे ना।’
‘और भाई नास्तिक… यार कुछ भी चल रहा है तेरे घर में, नास्तिक-पास्तिक, छी… क्या मतलब है, माँ होके नास्तिक.. छी छी छी।’
‘छी छी छी।’
मैंने भी उसकी छी में अपनी छी मिला दी। तभी मैंने देखा कि सुधीर उठकर खड़ा हो गया और मेरे सामने ग़ुस्से में चक्कर काटने लगा। क्या बात है मतलब पक्का दोस्त हो तो ऐसे, वो मेरी माँ की बात पर मुझसे भी ज्यादा गुस्सा था। मैंने कहा,
‘सुधीर भाई लब यू। क्या बात है सुधीर, बहुत ही सही, एकदम पक्का दोस्त है यार तू मेरा, गजब भाई।‘
‘कोपल भाई, तेरे से एक बात कहनी थी।’
‘बोल ना भाई।’
‘अब भई तूने अपनी माँ की बात छेड़ी है इसीलिए बता रिया हूँ, अगर तुझे बुरा न लगे तो।’
‘यार मेरी माँ नास्तिक हैं…. इससे बुरा क्या हो सकता है भई।’भी कुछ हो सकता है?’
‘सही कह रहा है।’
‘बोल भई।’
‘यार कोपल भाई, तेरी माँ के बारे में गाँव वाले बहुत ही गंदी गंदी बातें करते हैं यार।’
‘क्या मतलब।’
‘कहते हैं यार, तेरे यहाँ पता नहीं कौन कौन लोग आते हैं।‘
‘हाँ तू जानता तो है सबको… गुप्ता जी आते हैं… अवस्थी जी आते हैं… सोनी जी… जानता तो है तू सबको।’
‘हाँ पर वो तो सब अकेले आते हैं… वो अपनी लुगाईयों के साथ थोड़ी आते हैं।‘
‘लुगाई?’
‘अरे मतलब, बीबियों के साथ थोड़ी आते है। और ग्यारह बजे, बारह बजे रात तक हंसी ठठे की आवाज़ें तेरे घर से आ रही होती है यार।’
‘अरे पगले, पर वो आवाज़ तो इसलिए आती है कि हमारे घर के खिड़की दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं।’
‘तूने तो कहा था कि तू तो सो जाता है जल्दी, तो तुझे क्या पता खिड़की दरवाज़े कब तक खुले रहते है और कब बंद हो जाते हैं।’
‘क्या मतलब है सुधीर, कुत्ते।क्या कहना चाह रहा है तू?’
‘अरे वाह भाई, लब यू से सीधा कुत्ते पर आ गया। वाह! यार मैं थोड़ी के रिया हूँ… ये तो गाँव में लोग कह रहे हैं कि, तेरी माँ बहुत गुलछर्रे उड़ाती है।’
गुलछर्रे, हनुमान मंदिर के उस चबूतरे पर मैंने पहली बार ये शब्द सुना था। आज भी मैं कभी गुलछर्रे शब्द सुनता हूँ तो माँ का चेहरा मेरी आँखों के सामने कौंध जाता है। गुलछर्रे, ये शब्द सच में कितना क्रूर है। मैं उस दिन सीधा अपनी माँ से बात करने गया था। मैंने उसने कहा कि, माँ आप ये, आप ये…. पर क्या कहूँ? कौन सा शब्द? वो कौन से वाक्य हैं? माँ से इस किस्म के संवाद के शब्द ही नहीं थे, वो वाक्य बने ही नहीं थे। मैं बहुत वक्त तक कुछ भी नहीं कह पाया था। फिर एक दिन पता नहीं कहा से मेरे भीतर हिम्मत आई और मैं सीधा माँ के पास गया और कहा,
‘माँ मुझे आपसे जरूरी बात करनी हैं, अभी’
‘क्या हुआ.. बोल बेटा।‘, वो अपना सारा काम छोड़कर अचानक सचेत हो गई।
‘माँ मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि.....’
मैं लडखडाने लगा था। पर मुझे आज माँ से बात करनी ही थी, मैंने पूछा...
’माँ आप… आप… आप.. माँ… आप… आप इतनी सुंदर क्यों हो? क्यों हो आप इतनी सुंदर? आप माँओं जैसी माँ क्यों नहीं हो? आप सुधीर की माँ को देख ले, बंटी की, राजू-छोटू की, सलीम की… आपने पिंकी की माँ को देखा है? देखो आप सारी माएँ कैसी दिखती हैं? और एक आप हो….. सुंदर कहीं की।’
कुछ देर में माँ मेरे पास आई और उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा,
‘मैं समझती हूँ बेटा पर मैं क्या करूँ तू बता? तू ही बोल क्या करूँ मैं?’
‘मुझे नहीं पता … और आप ये स्लीवलेस वाला ब्लाउज़ क्यों पहनती हो? ताकि आपके पूरे कंधे दिखें? है ना? और मैंने देखा है जब आप स्कूल जाती हो तो जान बूझकर साड़ी ऐसे पहनती तो ताकी आपका पेट दिखे… और आप…’
‘कोंपल!….चुप हो जा बेटा, चुप हो जा..’
माँ की आँखों मे डर था। मुझे लगा उन्होने कोई भूत देख लिया हो। मैंने पूछा,
‘माँ, क्या हुआ? माँ’
तो उन्होने कहा कि,
‘तू सुन रहा है खुद को? तू कितना अपने बाप जैसा सुनाई दे रहा है।’
मैं अपने पिता से चिढता था, मैं उनके जैसा नहीं होना चाहता था। कभी भी नहीं। नहीं, नहीं, नहीं।
इस विषय पर मैंने और माँ ने फिर कोई बात नहीं की कभी।
पर मैंने देखा था, इसके बाद भी माँ ने अपने जीने में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं किए। वो जैसी थी वैसी की वैसी रहीं। फिर एक दिन माँ पूरी बाँह का ब्लाउज़ पहनकर स्कूल जा रही हैं। मैं तुरंत घर भागा और उनके सारे स्लीवलेस ब्लाउज़ उठाए और घर से दूर जाकर एक कूड़ेदान में फेंक दिए।
पर आप आश्चर्य करेंगे इससे मेरी माँ को कोई फ़र्क़ नहीं पडा। घर में लोगों का आना जाना लगा रहा। माँ हर कुछ दिनों में एक नया स्लीवलेस का ब्लाउज़ सिलवा लाती और मैं, जब भी मौक़ा मिलता उस ब्लाउज़ को कूड़े दान में फेंक आता। ब्लाउज़ कहाँ ग़ायब हो रहें है, ये न कभी माँ पूछती और न नए ब्लाउज़ के दिखने पर मैं भी चुप रहता। अजीब सा मूक युद्ध चल रहा था हम दोनों के बीच जिसमें कोई भी हार मानने को राज़ी नहीं था। मैं जब तक गाँव में रहा ये युद्ध कभी ख़त्म नहीं हुआ था।
युद्ध, हिंसा शायद आदमी को जल्दी बड़ा कर देती है। मुझे पता ही नहीं चला मैं कब बड़ा हो गया था। मेरी अजीब सी छतरी-छतरी दाड़ी मूँछ उग आई थीं।
फिर एक अच्छी खबर आई। मेरा जॉब लग गया मुंबई में। गाँव में सबने कहा कि अरे कोपल है न उसका जॉब लगा है बंबई में। घर में पेड़े आए, बहुत सारे पेड़े। मैंने कुछ ज़्यादा ही खा लिए और मेरा पेट ख़राब हो गया। अच्छी चीज ज़्यादा मिल जाए तो पचती नहीं है।
फिर मुझे लगा ये कितना अच्छा मौक़ा है, माँ को फँसाने का। इससे माँ नहीं बच सकती थीं।
मैंने माँ से कहा,
‘माँ क्या रखा है इस गाँव में, यहाँ वैसे भी लोग अजीब-अजीब बातें करते हैं। बंबई ग़ज़ब शहर है। चलो माँ अब से हम दोनों वहीं रहेंगे। वहाँ आपको जैसे रहना हो आप रहना, जो कहना है वो करना, खुली छूट है आपको।’
माँ ने कहा कि, ’तू बंबई जा तेरे को वहाँ जैसे रहना है रह, जो करना है कर, खुली छूट हो तेरे को, मैं तो यहाँ वैसे ही रह रही हूँ जैसा मुझे रहना है।’
‘माँ कभी तो मेरी बात सुनो… लोग क्या कहेंगे कि जैसे ही मुझे बंबई में जॉब मिला मैं अपनी माँ को अकेला छोड़कर भाग गया।’
‘तो उन लोगों को कहना कि तेरी माँ विकलांग नहीं है, उसके हाथ पैर सही चलते हैं, उन्हें ज़िंदा रहने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं है।’
मेरी माँ मेरी बातों में नहीं फँसी। ज़िद्दी औरत है अब क्या बताऊँ।
‘ठीक है रहो, जैसे रहना है आपको, पर कम से कम आप ये गुल…… आप ये स्लीवलेस ब्लाउज़ पहनना तो बंद कर दो, प्लीज़।’
माँ मेरी तरफ़ मुसकुरा के देखने लगी। कुछ देर में उन्होंने मुझसे कहा,
‘ठीक है बेटा, चल छोड़ दिया, अब से नहीं पहनूँगी कभी स्लीवलेस ब्लाउज़… कभी नहीं पहनूँगी। अब खुश है तू, खुश है?’
मैं उन्हें देखता रहा फिर मैंने हाँ में सिर हिला दिया। माँ ने कहा,
‘पर तुझे भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।’
‘बोलो माँ।’
‘तुझे अपना कहानी संग्रह पूरा करना पड़ेगा।’
‘चोर, चोरी चोरी मेरी कहानियाँ पढ़ रही थीं। आपको कैसे पता कि मैं लिख रहा हूँ।’
‘तेरी माँ हूँ, इतनी चोरी का तो हक़ है मुझे, क़सम का कि तू अपना कहानी संग्रह पूरा करेगा, खा क़सम।’
मुझे अच्छी तरह याद है वो दोपहर का वक़्त था। माँ आँगन में खड़ी थीं। उनके पीछे एक हरा घना पेड़ था। तब मैंने अपनी माँ के सिर पर हाथ रखकर क़सम खाई थी कि, ‘माँ मुझे आपकी क़सम है, मैं अपना कहनी संग्रह ज़रूर पूरा करूँगा।’
मैंने माँ की क़सम खाई थी। माँ की क़सम सबसे बड़ी क़सम होती है। सबसे बड़ी क़सम खाई थी मैंने।
बंबई आते ही मैं काम में बुरी तरह उलझ गया था। उसी वक्त से माँ तबियत खराब रहने लगी थी। उन्हें खांसी के दौरे पड़ते थे। पर हर बार फोन आते ही उनका पहला सवाल वही होता कि, क्या लिख रहा है आजकल। मैंने उनको नहीं बताया था कि मैंने अपना कहानी संग्रह पूरा कर लिया था। मैंने उसका नाम त्रासदी रखा था। उस कहानी संग्रह के पहले पृष्ठ पर ही मैंने लिखा था… माँ के लिए। मुझे लगा जब से कहानी संग्रह प्रकाशित होगा तो मैं उसकी पहली प्रति लेकर सीधा गाँव जाऊँगा और इसे माँ की गोदी में रख दूँगा और कहूँगा कि, नहीं, नहीं पहले पहला पन्ना खोलो देखा क्या लिखा है….. आपके लिए….. सरप्राइज़।
हमारा प्लेन समय पर उतरा। मेरा गाँव एयरपोर्ट से करीब सत्तर किलोमीटर दूर था। मुझे अभी भी पसीना आ रहा था, आँखें जल रही थी, पर मार का असर इतना कमाल था कि सर अभी तक हल्का बना हुआ था। मैंने एक टैक्सी की और गाँव की तरफ चल दिया। मैं अपने गाँव आख़री बार दो साल पहले आया था, वो मेरी माँ से आखिरी मुलाकात थी। दो साल पहले कितना असहनीय दिन था वो...
दो साल पहले मुझे सुधीर का फ़ोन आया था। मैं ऑफिस में था। मेरे फोन उठाते ही उसने कहा कि..
‘कोंपल यार एक जरूरी बात करनी थी।‘
‘बोल सुधीर’
‘यार कोंपल, कैसे या र तूने इजाज़त दे दी?’
‘क्या इजाज़त दे दी मैंने?’
‘अरे यार ये सही थोड़ी है, कैसे सोनी जी तेरी माँ के साथ रह सकते हैं?’
‘क्या? कौन साथ रहने लगा है? क्या बोल रहा है?’
‘ओ भाई! तेरे को नहीं पता?’
‘नहीं’
‘अरे भाई साब, वो ही मुझे लगा कोंपल ने ऐसे कैसे होने दिया दिया। मुझे लगा तूने कहा होगा सोनी जी को कि माँ का ख़्याल रखना, दवाई अस्पताल देख लेना, पर यार वो तो साथ ही रहने लगे हैं। तेरे ही घर में, गाँव में कैसी-कैसी बातें हो रही है और तेरे को कुछ पता ही नहीं है। यार सब कह रहे हैं कि…’
सुधीर लगातार बोले जा रहा था। पर मुझे सिर्फ एक ही वाक्य सुनाई दे रहा था कि, माँ अब खुलमखुल्ला गुलछर्रे उड़ाने लगी हैं। मैं उनके जीवन में मुख्य नहीं हूँ मैं जानता हूँ, पर अहम तो हूँ। उन्हें पता नहीं कि मैं यहाँ बंबई में अकेला रहता हूँ, मुझ तक ख़बर पहुँचेगी तो कैसा लगेगा मुझे? उन्हें किसी की चिंता नहीं रह गई थी। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया मैं सीधा अपने गाँव गया, और जैसे ही अपने घर पर पहुँचा तो देखता क्या हूँ कि मेरे घर का दरवाज़ा सोनी जी ने खोला। मेरी इच्छा तो हुई उनसे कहने की कि, क्या कर रहा है तू मेरे घर में, निकल यहाँ से…. पर मैंने देखा वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे मानो मुझे चिढ़ा रहे हों।उन्होने कहा,
’अरे कोपल! तुम आ रहे हो तुमने बताया भी नहीं। आ जाओ, सुनिये, देखिए कौन आया है, आपका लाड़ला लेखक , कोंपल! आ जाओ.. जाओ अंदर जाओ माँ अंदर है।’
मैं इस आदमी की आवाज भी नहीं सुनना चाहता था। मैं सीधा माँ के कमरे में चला गया और कमरे में घुसते ही मुझे क्या दिखा, माँ के कमरे मे खूँटी पर सोनी जी के कपड़े टंगे हुए हैं, माँ के कमरे में। मैंने गुस्से में अपनी आँखें बंद की और माँ के पैर छुए। माँ को देखा तो वो बहुत दुबली हो गई थी, उनका शरीर जर्जर हो गया था। मैं उनके बग़ल में बैठा,
“क्या हो गया माँ? रहने दीजिए, उठने की क्या ज़रूरत है। क्या हुआ है माँ?”
तभी मुझे सोनी जी की आवाज़ आई, वह दरवाज़े पर खड़े थे।
‘डॉक्टर ने आराम करने को कहा है पर कहाँ मानती हैं ये। मैंने कहा कि कोंपल को बता देते हैं, तो कहने लगी नहीं नहीं वो अकेला रहता है वो बेकार में वो परेशान होगा, मैंने कहा जाओ उसके साथ रहो थोड़ा हवा पानी बदलेगा, पर नहीं, सुनती ही नहीं हैं, भइया बहुत परेशान हो गया हूँ मैं तो, खैर, चाय बना दूँ तुम्हारे लिए? तुमने तो कुछ खाया भी नहीं होगा, जल्दी के कुछ बना देता हूँ तुम्हारे लिए?’
ये आदमी चुप ही नहीं होगा, इसकी समझ ही नहीं आ रहा है कि इसके कपड़े मेरी माँ के बेडरूम में टंगे हैं, ये हमारे किचन में खाना बना रहा है, और ये कौन होते हैं मुझे बताने वाला कि मेरी माँ कैसी है, कैसी नहीं है!
‘आप रहने दीजिए, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’
माँ ने तुरंत मेरे गालों पर हाथ फेरा और कहा,
‘नहीं बेटा नहीं, बेटा गुस्सा नहीं करते, ग़ुस्सा आदमी को कठोर बनाता है, कठोर नहीं बनना है तुझे, तू कोपल है, वो सब छोड़ बेटा पहले तू ये बता आजकल क्या लिख रहा है?’
‘मैं कुछ भी नहीं लिख रहा हूँ। क्योंकि मैं कभी कुछ लिखना चाहता ही नहीं था, आप लिखना चाहती थीं, मैं नहीं।’
मैंने ये सीधा माँ की आँखों में देखते हुए कहा था।
‘मुझे बाज़ार में कुछ काम है, सोनी जी ने कहा, मैं आता हूँ, तुम, माँ बेटे आराम से बैठकर बातें करो।’
‘हाँ जाओ, मरो (मैंने फुसफुसाया)’
पर माँ ने उन्हें रोक दिया,
‘सोनी जी, वापस आइये, आपको अभी बाज़ार जाने की ज़रूरत नहीं है। आप यहीं रहिए। बेटा तुम बाहर के कमरे में बैठो, मैं हाथ मुँह धोकर आती हूँ।’
मैंने सोनी जी को देखा, फिर माँ को देखा...
‘क्या? मैं बाहर जाऊ?’ मैंने पूछा
‘हाँ, तुम बाहर बैठो, मैं आती हूँ। सोनी जी जरा हाथ दीजिए, उठाइये, आराम से।’
मैं बाहर आकर बैठ गया। यहाँ पर हमारे यहाँ मेहमान आकर बैठते थे। माँ और सोनी जी भीतर कमेरे में थे। मैंने देखा घर बहुत साफ़ दिख रहा था। नए पर्दे लगे हुए थे, नई चद्दरें थीं। तभी मेरी निगाह भगवान की अलमारी पर गई, वहाँ भगवान की अलमारी में भगवान थे और बाहर अगरबत्ती भी जल रही थी। बहुत सही माँ, क्या बात है।
तभी माँ हाथ मुँह धोकर आई और मेरे सामने आकर बैठ गई। वो अभी भी कितनी सुंदर थीं। सोनी जी माँ के पीछे खड़े हुए थे।
‘तू अचानक आ गया, बता देता तो कुछ बनावा देती तेरे लिए। सोनी जी बहुत अच्छा खाना बनाते हैं।’
‘माँ मैं आपको लेने आया हूँ। अपना सामान बाँधो अब हम बंबई में रहेंगे। मैंने शाम की फ़्लाइट के टिकिट बुक करा दिए हैं। अब मैं आपकी एक भी नहीं सुनूँगा… आप मेरे साथ ही रहेंगी अब से बस बहुत हुआ।’
‘अरे बाबा, देखो, सोनी जी, कितना प्यार करता है मुझसे, माँ को कुछ भी हुआ तो सब कुछ छोड़-छाड़कर आ जाएगा। गाँव में सब लोग कहेंगे कि वैसे बहुत व्यस्त रहता है बंबई में पर अगर माँ पर बात आई तो भइया, वो तो सब कुछ छोड़ देता है। इतना प्यार करता है माँ से।’
सोनी जी झेंप गए।
‘अरे ऐसे क्यों कह रही हो, देखो सच में आ ही गया ना।’, सोनी जी ने कहा
‘हाँ वो ही तो कह रही हूँ… देखो, सब छोड़कर आ गया।’
‘माँ आप कुछ भी कह लो हम शाम को साथ चल रहे हैं। मैं आपकी एक नहीं सुनूँगा’
‘ज़बरदस्ती ले जाएगा?’
‘हाँ।’
‘मेरी रज़ामंदी नहीं लेगा?’
‘नहीं।’
‘रख पाएगा मुझे तू अपने साथ?’
‘क्यों नहीं रखूँगा? आप मेरी माँ हो।’
‘वो माँ जो तुझे गाँव में रहकर शर्मिंदा कर रही है। कैसी माँ है ये? उसे क्यों रखना अपने साथ।’
‘ये क्या कह रही हो आप?’
‘इसलिए आया है ना तू?’
‘हाँ मैं इसीलिए आया हूँ… क्योंकि मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि…’
‘क्या?....कि मैं खुश रहूँ।’
‘नहीं…।’
‘तो क्या बर्दाश्त नहीं कर सकता?’
‘मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि आप ये.. ये… ये…।’
तभी माँ को अचानक खाँसी का दौरा पड़ा। मैं कुछ करता उससे पहले सोनी जी ने माँ को पानी पिलाया और वो उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। मैं उठने वाला था। मैं माँ के पास जाना चाहता था, पर वहाँ मेरी जगह ही नहीं थी। कुछ देर में माँ की खाँसी शांत हुई। पूरे घर मे अचानक गहरी चुप छा गई थी। माँ ने कहा,
‘कोंपल’
‘हाँ माँ’
‘मैं कुछ कहूँ बेटा’
‘बोलो’
‘बेटा मैंने पूरा जीवन बहुत सी दुकानें खोल रखी थीं।’
‘दुकानें?’
‘हाँ, अच्छी बेटी की, अच्छी माँ की, अच्छी बीवी की, अच्छी औरत की, अच्छी टीचर की… जाने कितनी दुकानें खोल रखी थीं। मैं कब से लोगों को वही बेच रही थी जो लोग ख़रीदना चाहते थे। पर लोगों की अपेक्षाएँ ख़त्म नहीं होती, मैं इस उम्र में और कितनी दुकानें खोलूँ? इस सब में मैं क्या चाहती हूँ मेरे पास उसकी कोई जगह ही नहीं बची थी, उसकी एक टपरी तक नहीं थी मेरे पास। सो मैंने बहुत पहले अपनी सारी दुकानों के शटर गिरा दिए हैं। मैं अब किसी को कुछ नहीं बेच रही हूँ। न लोगों को और न ही तुझे।’
तभी एक हवाई जहाज़ हमारे घर के ऊपर से गुजरा। मैंने कहा, माँ… हवाईजहाज़… मैंने और माँ ने तुरंत ऊपर देखा, फिर एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे। मैंने देखा सोनी जी भागकर किचन से बताशे ले आए। उन्होंने एक बताशा माँ को दिया और एक मेरी तरफ बढाया,
‘मैं ऑफ शुगर हूँ। मैं नहीं खा सकता इसे, मैं आजकल डायटिंग कर कर रहा हूँ।’
‘हाँ.. सही है। इसमें तो बहुत मीठा होता है।’, सोनी जी ने बताशे को देखते हुए कहा
फिर उन्होंने मेरा वाला बताशा अपने मुँह में रख लिया। माँ मुझे देखकर मुस्कुरा रही थीं।
‘तू कितना बदल गया है बेटा। पर ठीक है शहर में रहता है वहाँ के तो रंग ढंग ही अलग हैं। सोनी जी वो दाल बनाओ न आज, तड़के वाली ये बहुत अच्छी बनाते हैं, मैं थोड़ा आराम कर लूँ, हम खाने पर बात करेंगे। तेरे साथ मैं ज़्यादा खाना खा लूँगी।’
माँ उठी और सोनी जी की मदद से वो अपने कमरे में चली गई। सोनी जी अच्छी दाल बनाते हैं, माँ के कमरे में उनके कपड़े लटके हुए थे, भगवान की अलमारी में भगवान थे, माँ और सोनी जी मेरे सामने बताशे खा रहे थे। मुझे लगा मेरे हाथों से सारा कुछ छूट चुका है।
सीनी जी वापस आए और उन्होंने कहा,
’वो ऐसे है नहीं, वो असल में बीमारी की वजह से थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई हैं।’
‘चिड़चिड़ी हो गई है या धार्मिक हो गई हैं… वो भागवान में मानने लगी हैं।’
‘नहीं वो तो भगवान की अलमारी ख़ाली रहती थी इसलिए मैंने एक दिन एक पत्थर लाकर उसमें रख दिया, अरे कुछ तो रहे उसमें, वो तो भइया अभी भी... एकदम नास्तिक हैं। पर अच्छी है बहुत, हे ना।’
(मैं देर तक देखता रहा। मुझे विश्वास नहीं हुआ।) मुझे सोनी जी की आँखों में प्रेम दिखा। अबे मेरी माँ है वो साले… मैं ये नहीं देख सकता था। ये मेरे बर्दाश्त के बाहर था। मैं वहाँ एक पल भी नहीं रुक पाया था। मैं तुरंत वापस बंबई आ गया।
जब मैं मुंबई वापस पहुँचा था तो माँ से मैंने कोई बातचीत नहीं की। उनका भी मुझे कोई मेसेज फ़ोन कुछ नहीं आया था। मैंने सोच सही है करो जिसे जो करना है, जिसे जैसा जीना हो मेरी बला से। फिर कई महीनों बाद एक दिन अचानक माँ का मेसेज आया।
‘कैसा है कोंपल? मेरी तबीयत पहले से कुछ बेहतर रहती है, सोनी जी बहुत ख्याल रखते हैं, सुन न बेटा, तू झूठ बोल रहा था न? तू लिख रहा है न, बेटा वो मत छोड़ना, वो तेरी कल्पना है, यथार्थ तो झूठ होता है बेटा कल्पना ही सच है। और अगर कुछ लिख रहा हो तो मुझे भी बता देना कि क्या लिख रहा है आजकल।’
मेरे पास एक लोहे की बाल्टी हुआ करती थी। मैं बाथरूम से वो लोहे की बाल्टी लाया। उसे कमरे के बीचों बीच रखा। फिर अपना कहानी संग्रह लेकर आया, त्रासदी, उसके टुकड़े टुकड़े करके मैंने बाल्टी में डाले और आग लगा दी।
माँ के लिए।
इस बात को दो साल बीत चुके थे। दो साल से मैंने अपनी माँ की शक्ल भी नहीं देखी थी, अब पता नहीं कैसी दिख…….।
‘भैया Ac चालू कर दो बहुत गर्मी है।’
‘Ac चालू ही है।’
टेक्सी ड्रायवर ने कहा, टेक्सी गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी।
‘ओ.. ठीक है। मुझे आज पता नहीं क्या हो रहा है, बहुत पसीना आ रहा है।’
‘आप क्या पहली बार इस गाँव में आए हैं?’, टेक्सीवाले ने पूछा
‘नहीं… यहाँ मेरा अपना घर है।’
‘अच्छा तो घर वालों से मिलने आए हैं?’
‘हाँ।’
‘आपका कौन रहता है यहाँ?’
‘माँ। मेरी माँ रहती हैं।’
माँ रहती थीं, मैं थीं बोल नहीं पाया था। थीं, कैसे बोल दें? इतनी जल्दी। पहली बार मैंने अपनी आँखों में पानी जमा होते देखा। वो टैक्सी वाला कांच में मुझे देख रहा था। मैंने सिर नीचे कर लिया। फिर कुछ देर में मैंने एक काला चश्मा लगा लिया। जैसे ही टैक्सी घर पहुँची मुझे सुधीर सामने खड़ा दिखा। उसने मुझे गले लगा लिया।
‘तू ठीक है कोपल?’
‘हाँ मैं ठीक हूँ।’ मैंने कहा।
‘जा जा माँ अंदर हैं, मैं तेरा सामान लेकर आता हूँ।’
उसने इतनी सहजता से कहा कि मुझे लगा मैं जैसे ही घर में घुसूँगा मुझे वहाँ मेरी माँ मुस्कुराती हुई खड़ी दिख जाएँगी।
मैं घर में घुसा तो बाहर वाले कमरे के बीचों-बीच उनका शरीर रखा हुआ था। उनके सर के बग़ल में एक थाली थी जिसमें राख रखी हुई थी। अगरबत्ती और दूब की वजह से पूरे कमरे में धुआँ फैला हुआ था। सोनी जी उनकी बग़ल में बैठे थे। मैं माँ के पास गया, पर सोनी जी से थोड़ा दूर बैठा। सोनी जी मुझे देखते ही मेरे पास आ गए। कुछ देर में उन्होंने अपना सिर मेरे कंधे पर रखा और रोने लगे…. बच्चों की तरह, सुबक-सुबक के। मैंने अपने कंधे को झटका दिया तो वो मुझसे दूर हो गए। कुछ देर में वो उठकर कमरे से बाहर चले गए।
मैंने माँ के चेहरे को देखा,
‘माँ, माँ, मैं आ गया, देखो न, देर हो गई, बहुत देर हो गई,’
उन्हें देखकर ऐसा लगा वो गहरी नींद सो रही हैं, वो अभी अपनी आँखें खोलेंगी और कहेंगी अरे कोपल तू आ गया, अब जल्दी से बता दे क्या लिख रहा है आजकल? वो अभी भी माँओं जैसी माँ नहीं लग रही थीं। वो इस वक़्त भी बेहद खूबसूरत लग रही थीं। मैंने उनके गालों हो हल्के से छुआ। वो बहुत ठंडे थे। मैंने उनके माथे को छुआ…..
‘माँ, ऐ माँ… मैंने आपकी क़सम झूठी नहीं खाई थी। सच में, मैंने अपना कहानी संग्रह पूरा कर लिया था। उसका नाम त्रासदी रखा था। और उसके पहले पनने पर ही मैंने लिखा था.... आप के लिए।‘
तभी मुझे रोने की आवाज़ आई। मैंने देखा, सोनी जी दरवाज़े से टिककर रो रहे थे। सुधीर अर्थी का सामान ले आया। उसके साथ दो लोग और थे। शायद वो उसके दोस्त थे। चलो अच्छा है, अब माँ की शवयात्रा में सिर्फ हम तीन ही लोग नहीं होंगे। अब, इस पूरे गाँव से, माँ की शवयात्रा में हम पाँच लोग थे। सिर्फ़ पाँच। मेरी नास्तिक माँ।
जब हम शमशान पहुँचे तो उन्हें सूखी लकड़ियों के ऊपर लिटाया गया, उनके ऊपर और लकड़ियाँ रखी गई। मुझे लग रहा था कि उन लकड़ियों के बीच एक हरा घना पेड़ लेटा हुआ है। माँ की चिता के पास ही सोनी जी उकड़ूँ बैठे हुए थे। उनके कंधे उचक रहे थे। वो अभी भी रो रहे थे, वैसे ही सुबक सुबककर, किसी बच्चे की तरह। वो कितने कोमल दिखाई दे रहे थे। कोमल, कोपल। कोपल!
सुधीर जलती हुई लकड़ी लेकर मेरे पास आया और कहा,
‘चल चल, माँ को अग्नि देनी है।’
(तभी मैंने देखा एक हवाई जहाज़ हमारे ऊपर से गजरा। मैं उस हवाई जहाज़ को देखता रहा। फिर मैंने ख़ुद को देखा।)
इस जलतीं हुई लकड़ी को पकड़े हुए मैं एक सैनिक लग रहा था जिसका काम था मरने तक अपनी माँ पर पेहरा देना। मैं वही हो गया था… कठोर। कितना कठोर था मैं। न, मैं कोंपल नहीं था।
अत में माँ को अग्नि सोनी जी ने ही दी। बहुत मनाने के बाद। उन्हीं का हक़ बनता था।
जब हम वापस आए तो सोनी जी ने मुझे एक मोटी सी फाइल दी।
‘ये क्या है सोनी जी?’, मैंने पूछा
‘अरे तू ये नहीं जानता है? अरे तू जो वो सब लिखा करता था न बहुत सारा, देख तेरा माँ ने आज तक उसको कितना सँभालकर रखा है। इसका हर एक पन्ना मैं उसके मुँह से जाने कितनी बार सुन चुका हूँ। और जब वो सुनाती थी तो बाबा कैसे खिलखिलाया करती थी।’
(मैं सोनी जी को मुस्कुराते हुए देखने लगा। फिर मैंने फाइल अपने हाथ में ली।) मैं उस फाइल के पन्ने पलटकर देख रहा था। बचपन से आज तक का मेरा सारा झूठ माँ ने सहेजकर रखा था।
पेलाग्या निलोवना, मेरी माँ पेलाग्या निलोवना थी, मैं ही गोर्की नहीं हो पाया था। हमारी माएँ हैं पलाग्या निलोवना पर उनकी कहानियाँ कहीं लिखी ही नहीं गई। उन्हें कही दर्ज ही नहीं किया गया। और अगर उन्होंने ख़ुद करना चाहा तो उनके पेन तोड़ दिए गए। वह बस अपने पति के जर्जर होने और बच्चों से आती ख़बरों के बीच कहीं अदृश्य-सी बूढ़ी होती रहीं। ये हमारी माएँ थीं जो ज़ाया हो गई।
अगले दिन सुबह हम माँ की अस्थियाँ बटोरने पहुँचे। सोनी जी राख में माँ को टटोल रहे थे, उसी वक्त मैंने अपनी जेब से एक पन्ना निकाला। मैंने रात में एक झूठ माँ के लिए लिखा था। वही झूठ जिसे माँ बहुत पसंद करती थीं। मैं माँ के पास गया, राख को छुआ तो वो अभी भी गर्म थी।
‘माँ, मैंने एक नया झूठ लिखा है आपके लिए, सुनाऊँ….’
धूप, चेहरा जला रही है
परछाई, जूता खा रही है
शरीर, पानी फेंक रहा है
एक दरख़्त, पास आ रहा है
उसके आँचल में मैं पला हूँ
उसकी वात्सल्य की साँस पीकर आज मैं भी हरा हूँ
आप विश्वास नहीं करेंगे,
इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है…..
मैं उस पेड़ को……माँ कहता हूँ।
End...
End...