aRANYA pRESENTS,
त्रासदी...
Written by- Manav Kaul
...
मुझे माँओं से बहुत शिकायत है। वो हमारे बचपन में, अपने लाड़ में, हमारे ऐसे नाम रख देती हैंकि हमें अपने बड़े होने पर उन घर के अपने नामों को छुपाना पड़ता है। कितने अजीब होते हैं ये नाम, चिट्टी, मिलू, टुन्नी, छोटू, चोटी, नाटे, भूरी, सनी।
मेरे घर का नाम कोपल था, कोपल, गाँव में मुझे आज भी सब कोपल ही बुलाते हैं। कोपल कामतलब क्या होता है आप जानते हैं?
मुझे भी नहीं पता था। मुझे याद है एक दिन माँ मुझे स्कूल छोड़ने जा रही थी, मैं उनकी उंगली पड़ेहुए चल रहा था। उसी वक़्त मैंने उनसे पूछा था।
‘माँ ये कोपल का क्या मतलब होता है? मेरे सारे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं कि ये क्या नाम है, कोपल, इससे अच्छा तो कपिल रख लेता।’
मेरी माँ मुझे एक पेड़ के पास ले गई और कहा, ‘इन पत्तों को छू’, मैं पत्तों को छूने गया तो उन्होंनेकहा कि, ‘नहीं बड़े वाले नहीं वो जो छोटे पत्ते हैं ना, जो अभी अभी आए हैं, हल्के पीले से, उन्हेंछू’, मैंने छुआ।
‘ओह! माँ’, मैं आश्चर्यचकित रह गया।
‘हाँ, ये कोपल हैं, इन्हें कोपल कहते हैं।’ माँ ने कहा
‘पर ये तो कितने कमजोर हैं माँ।’, मैंने कहा
‘ये कमजोर नहीं है.. ये कोमल हैं, जैसा तू है।’
पता नहीं क्यों मैंने उस वक्त माँ से कहा था कि,
‘अगर यह कोमल-से दिखने वाले पत्ते मैं हूँ तो यह पेड़ आप हो।’
मैं इस बात को बहुत पहले भूल चुका था।
अब मैं मुंबई में रहता था। यहीं जॉब करता हूँ। गाँव तो जाने कब का छूट चुका था।
कल ही की बात थी, मैं आफिस था। महीने का अंत चल रहा था, तो मेरे सिर पर बहुत काम था।मेरी डेस्क पर फाइलों का ढेर था, सिर कंप्यूटर में घुसा पड़ा था। तभी मेरा फोन बजा, मैंने देखासोनी जी का फोन है। सोनी जी, गाँव में हमारे पडोसी थे और मैं इस आदमी तो बिल्कुल भी पसंदनहीं करता था। मैंने फोन उठाया...
‘हेलो! जी बोलिए। हेलो, सोनी जी, हेलो, अरे बोलिए’
‘बेटा’
‘हाँ, अरे सोनी जी, सुनाई दे रही है आवाज़, बोलिए ना। आपको मेरी आवाज आ रही है?’
‘बेटा, तेरी माँ कल रात अचानक चल बसी हैं। तू जितनी जल्दी हो सके आ जा।’
(वक्फ़ा, चुप्पी, लंबी चुप)
मैं कहना चाहता था कि, क्या कह रहे हैं आप? क्या हुआ है माँ को? पर मुझे लगा मेरे पूछते ही वोअपना वही वाक्य फिर से दोहराएँगे, और मैं उस वाक्य को दोबारा नहीं सुनना नहीं चाहता था, सोमैंने कहा, मैंने कहा............ तभी सोनी जी की आवाज़ आई,
‘तू है वहाँ... हेलो, कोपल, हेलो.. बेटा?’
‘हाँ मैं हूँ... यहाँ’
‘तू बस जल्दी आ जा बेटा’
‘हाँ हाँ… Okay.. okay।’
मैं अपनी डेस्क पर वापस आया और काम करने लगा। बहुत सारा काम था। काम करते करतेलगा कि सब ठीक तो है, मैंने ऑफिस के आपने दोस्तों को देखे वो सब भी मस्ती कर रहे थे, मुझेलगा शायद इस बीच कुछ घटा ही नहीं था, कोई फोन नहीं आया था। मैं भी पता नहीं क्या क्यासोचता रहता हूँ? ऐसा थोड़ी हो सकता है। तभी, काम करते-करते, मुझे भीतर कुछखाली-खाली-सा लगने लगा। मैं रुक गया। देर तक अपनी डेस्क को ताकता रहा। मुझे कुछचाहिए था, कुछ है जो मुझे दिख नहीं रहा था। मैं अपनी डेस्क पर चीजें ऊपर नीचे करने करनेलगा। फाइलों में टटोलने लगा, टेबल के दराज़ खोलकर ढूँढने लगा। पर मुझे जो चाहिए वो मिलनहीं रहा था। तभी मेरे दोस्त ने मुझे देखा और पूछा कि,
‘क्या बे.. क्या खोज रहा है?’
मैंने उसे देखा और अपने कंधे उचका दिये।
‘और तुझे इतना पसीना क्यों आ रहा है?’, मेरे दोस्त ने पूछा
मैंने देखा मुझे बहुत पसीना आ रहा है, इतना पसीना क्यों आ रहा है? मेरी आँखें जल रही थीं। मैंनेअपनी बुशर्ट से पसीना पोंछा। मैं अपने दोस्त के पास गया और उससे कहा कि,
‘देख मुझे कहीं बुख़ार तो नहीं है?’
उसने मेरा माथा देखा, मेरे गले पर हाथ रखा।
‘नहीं। बुख़ार तो नहीं है।क्या हुआ बे तुझे?’ उसने पूछा,
पता नहीं क्या हुआ मैंने उससे कहा कि,
‘यार मेरी माँ नहीं रही।’
और तब पहली बार उसकी आँखों में मैंने वो देखा जिसे मैं इतनी देर से खोज रहा था।
मैं सीधा अपने बॉस के केबिन में गया। उनसे कहा कि,
‘बॉस मुझे छुट्टी चाहिए अभी।‘
मैंने उन्हें कारण बताया तो उन्होंने कहा कि, हाँ हाँ, बिल्कुल, एक हफ़्ते की छुट्टी ले लो.. या ऐसाकरो तुम तेरवाँ ख़त्म करके आना.. नहीं नहीं, मैंने कहा, मैं एक- दो दिन में आ जाऊँगा वापस.. मैंइतने दिन क्या करूँगा गाँव में.. वो मुझे आश्चर्य से देखने लगे और उन्होंने कहा कि,
‘ठीक है’
‘ठीक है’, मैंने कहा।
मैंने अगले दिन की फ़्लाइट बुक की.. दोपहर की फ़्लाइट सस्ती थी.. और सुबह की बहुतमंहगी…..आजकल फ्लाइट कितनी महंगी हो गई हैं? पर मुझे जल्दी जाना था सो,
मैंने सुबह की फ़्लाइट बुक की और मैं घर आ गया था।
मैं बिल्कुल सुबह का आदमी नहीं हूँ। मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि लोग सुबह-सुबहउठते कैसे हैं? क्या करते हैं? bloody morning person. आज मैं सुबह चार बजे से उठा हुआ हूँऔर मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि क्या करूँ? मेरी आँखें जल रही थीं, सिर भारी लग रहा थाऔर पसीना तो देखो कितना आ रहा है। ऐसा नहीं हैं मैंने वापस सोने की कोशिश की पर जैसे हीआँखें बंद करता लगता कि कुछ छूट जाएगा, कहीं फ्लाइट न छूट जाए, इस डर से मैं तुरंत उठकरबैठ जाता। मैं नहा चुका था। आपना पूरा सामान बाँध चुका था पर सुबह होने का नाम ही नहीं लेरही थी। मैं अपने कमरे के चक्कर लगाने लगा, मुझे लगा चलता रहूँगा तो शायद वक्त जल्दीबीत जाए। तभी अपनी बुक शैल्फ पर मेरी निगाह एक किताब पर गई। क्या हो रहा है आज।आज पहली बार इतनी किताबों के बीच मेरी निगाह उसी एक किताब पर गई थी। मेक्सिम गोर्कीकी मदर, पलाग्या निलोवना। गोर्की ने ये किताब अपनी माँ के लिए लिखी थी, पलाग्यानिलोवना। जब मैंने इस किताब को पढ़ा था, बहुत पहले, तब मेरे भीतर एक बहुत ही रिरियातीसी इच्छा जागी थी कि, काश! मेरी माँ भी पलाग्या निलोवना की तरह महान माँ होती। मुझे लगाथा कि उन्होंने मुझे धोखा दिया है। उन्हें महान होना चाहिए था, वह हो सकती थीं, फिर क्यों नहींहुईं? एक तो हमारी माएँ महान क्यों नहीं हो पाती हैं?
मुझे याद है मैंने कई दिनों तक अपनी माँ से ठीक से बात नहीं की थी। मेरी माँ की समझ ही नहींआया कि मैं क्यों उनसे नाराज़ हूँ। वो पूछती, क्या हुआ?, मैं कहता रहने दो, अरे कोपल हुआक्या? मैं कहता, नाराज़ हूँ बस। उन्हें कभी पता ही नहीं चला कि मैं उनसे नाराज़ क्यों था।
अब लगता है कि मैं कौन सा गोर्की हो गया था।
मैंने घड़ी देखी छ: बज चुके थे। मैंने अपना सामान उठाया और एयरपोर्ट के लिए रिक्शा पकड़लिया। बारिश बहुत हो रही थी, सुबह का समय था, सड़के खाली थीं, मैं अपने समय से बहुतपहले ही एयरपोर्ट पहुँच गया था। अपना सामान Check in करने के बाद… जैसे ही मैं एयरपोर्टमे घुसा तो मुझे पता चल गया कि मुझे क्या चाहिए था, मुझे लगा कि अगर अभी मुझे एक गर्मकाफी मिल जाए तो ये आखों की जलन और सर का भारीपन सब खत्म हो जाएगा। मैं भाग केएक कैफ़े मे गया और एक गर्मा-गर्म कॉफी ली और अपनी फ्लाइट के गेट पर आकर मैं बैठगया।
मैंने घड़ी देखी, अभी तो फ़्लाइट में बहुत टाइम है। लगता है एयरपोर्ट का AC काम नहीं कर रहाथा, मुझे कितना पसीना आ रहा था, आँखें अभी भी जल रही थीं, सिर भारी लग रहा था। येकॉफी भी फ्राड़ बनाई है, हर काली कड़वी चीज़ कॉफी नहीं होती है।
मैं बहुत देर से एक औरत को देख रहा था। वो एयरपोर्ट के बाथरूम के पास बहुत देर से खड़ी हुईथी। न वो भीतर जा रही है न ही कहीं और, वो बस वहीं खड़ी हुई थीं। उन्हें पता नहीं था शायदकि महिलाओं का बाथरूम दूसरी तरफ़ है। पता नहीं क्या चक्कर है? कोई उन्हें कुछ बता ही नहींरहा।
मैंने माँ से आखरी बार कब बात की थी? अभी तो की थी, कुछ दिन पहले। पाँच छे दिन हो गएशायद, नहीं।
मैंने अपना फ़ोन निकाला और देखा, पंद्रह दिन पहले। मैं फ़ोन पर उनका नाम लिखा हुआ देखरहा था। उन्हें फोन कर दूँ अभी? क्या दूसरी तरफ़ से उनकी आवाज़ आएगी? क्यों नहीं आएगी? क्या उनकी आवाज दूसरी तरफ़ से अब कभी नहीं आएगी?
मैंने मैसेज मे जाकर उनका आखरी मैसेज देखा,
‘तो क्या लिख रहा है आजकल?’
मैंने जवाब में लिखा था, ऑफिस में हूँ, काम में व्यस्त हूँ… फ़ोन करता हूँ। तीन रुख़े वाक्य, मैंनेजान बूझकर लिखे थे। दो साल से मैंने माँ की शक्ल भी नहीं देखी थी। मैं उनसे नाराज़ था… बहुत नाराज़।
क्या आपके साथ भी यही होता है? जब आप किसी नए एयरपोर्ट के बाथरूम के बाहर खड़े होतेहो और आपकी समझ ही नहीं आ रहा होता है कि कौन सा पुरुषों का बाथरूम है और कौन सामहिलाओं का? हे ना, पता नहीं आजकल ये लोग कैसे-कैसे डिज़ाइन बना देते हैं, कुछ पता हीनहीं चलता। एक बार तो मैं खुद महिलाओं के बाथरूम मे घुसते-घुसते बचा था। वो जो बहुत देरसे बाथरूम के बाहर खड़ी हैं उन्हें भी शायद यही confusion हो रहा है।
मैंने काफी रखी और उठकर उस औरत के पास उसकी मदद करने गया।
‘सुनिये, आंटी, आपका बाथरूम... सुनिये’
मैं जैसे ही उनके पास पहुँचा, मुझे उनके पास से एक ख़ुशबू आई… मैं इस ख़ुशबू को पहचानताथा… ये ख़ुशबू तो मेरी माँ की ख़ुश्बू थी ये उनके पास से कैसे आ सकती थी? ये सिर्फ़ मेरी माँ केपास से आती थी, ये मेरी माँ की खुश्बू थी।
असल में मेरी माँ बहुत काम करती थी, वो मेनबोर्ड स्कूल में टीचर थीं। उनकी तनख़्वाह कुछ सातसौ रुपय थी। टीचरी खत्म करके वो घर आकर कुछ ट्यूशन कर लेती थी जिससे ऊपर का कुछपैसा उन्हें मिल जाता था, डेढ़ सो-दो सौ रुपये। फिर वो घर का सारा काम निपटाकर जब मेरेपास आती थीं तो मैं उन्हें देखते ही उनसे चिपक जाता। वो कहती,
‘छी, क्या कर रहा है, दूर हट, हट, मैं एकदम पसीने पसीने हूँ। पहले मुझे नहा तो लेने दे।’
‘नहीं मुझे अपकी ये ख़ुशबू बहुत पसंद है।’, मैं कहता
‘ख़ुशबू..? ये ख़ुशबू है?’ वो आश्चर्य से पूछती।
‘हाँ, माँ बताओ ना ये क्या ख़ुशबू है?’
‘हट, हट, दूर हट.... बेटा ये थकान है, मैं थक जाती हूँ’
मैं मुँह बना देता तो वो प्यार से कहती कि, ‘अच्छा मुँह मत बना, ये थकान की ख़ुश्बू है, बस’
थकान की ख़ुशबू! मुझे लगता था ये थकान की ख़ुशबू सिर्फ़ मेरी माँ के पास से आती है। पर येतो उनके पास से भी आ रही थी।
जब रात में मुझे नींद नहीं आती थी तो मैं अपनी माँ के बिस्तर में घुस जाता था और उनके आंचलको पकड़कर कुछ गहरी साँसें लेता, और मुझे इतनी अच्छी नींद आती थी। आह!
मेरी माँ जितना ज़्यादा थकती थीं मैं उतनी गहरी नींद सोता था।
मैं एक बार और वो थकान वाली खुशबू सूंघ लेना चाहता था।
मैं धीरे से उनके पास गया। अपनी आँखें बंद करके जैसे ही मैंने एक तेज़ ख़ुशबू भीतर जी खींचीतो वो पलट गई।
‘नमस्ते… अरे! माँ.., आप यहाँ क्या कर रही हो माँ? माँ मैं कोपल, अरे, क्या हुआ? माँ, माँ मैंअब आपसे नाराज़ नहीं हूँ… मैं था नाराज़.. पर अभी.. मैं ख़ुद आपको फ़ोन करने वाला था। माँ, कहाँ जा रही हो, आपको बाथरूम जाना है ना, वो उधर है, आप फिर ग़लत जा रही हैं। चलोचलो, अरे चिल्ला क्यों रही हो… चलो, माँ, जिद्दी कहीं-की, चलो। आप जाइये ना बाथरूम, मैं हूँयहाँ, लाइये आपका बेग मुझे दीजिए.. दीजिए.. दीजिए बेग’
तभी मैंने देखा हमारे आस-पास कुछ लोग जमा हो गए हैं। उसी वक़्त एक आवाज़ आई,
‘ओए! क्या बात कर रहा है मेरी माँ से?’
‘ऐ भाई सुन...’
अरे, मैं बेटा नहीं था, बेटा तो वो था। मेरे हाथ में उस औरत का बेग था.. मैंने वो बेग तुरंत उन्हेंवापस कर दिया और जल्दी में मैंने भीड़ से कहा कि,
‘Sorry Sorry, मुझे पता नहीं आज क्या हो रहा है, असल में आज मेरी माँ……।’
पर तब तक देर हो चुकी थी। लोग मुझे धक्का देने लगे…कुछ थप्पड़ भी पड़े.. मैं गिर पड़ा.. औरफिर वही हुआ जो भीड़ एक आदमी के साथ करती है।
कुछ देर में लड़खड़ाते- संभलते मैं वापस अपनी जगह आ कर बैठ गया था।
पता नहीं क्यों पर मार खाकर मुझे बहुत अच्छा लगा, सच में। मेरी आँखों में अभी भी जलन थी, पसीना अभी भी आ रहा था पर मार खाने के बाद मेरा सिर का जो भारीपन था ना वो ख़त्म होचुका था। वाह! पिटने के अपने फायदे भी हैं।
तभी हमारी फ़्लाइट एनाऊंस हुई और मैं तुरंत जाकर लाइन में लग गया।
तो क्या लिख रहा है आजकल, माँ हमेशा पूछती थीं।
असल में, मेरी माँ शिद्दत से लेखक हो जाना चाहती थी। पर मेरे पिता को ये बात मंजूर नहीं थी।मेरी माँ लिखना चाहती थी, इसलिए मेरे पिता को कहीं भी घर मे पेन दिखता तो वो तोड़ देते।मुझे मेरे पिता बहुत कम ही याद हैं। मैं बहुत छोटा था जब वो चल बसे थे। पर मेरी माँ, जब भीमेरे पिताजी के बारे में बात करती थीं तो मुझे लगता था कि मेरे पिता असल में एक सैनिक हैं, जिनका काम था मेरी माँ पर पहरा देना। मेरे पिताजी जब तक जीवित थे उन्होंने माँ पर कड़कपहरा दिया था, like a true solder। मेरी माँ बहुत सुंदर थीं, ताँबई रंग, दुबला-पतला लंबा क़द, घने बाल, इसलिए पिताजी काम पर जाने के पहले घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकरजाते थे।
मैं अपने बाप से बहुत चिढ़ता था। क्रूर आदमी साला। कोई आदमी इतना क्रूर कैसे हो सकता है? माँ बताती हैं कि उसी क्रूरता के बीच कहीं मैं पैदा हुआ था और माँ ने सालों बाद कोमलता कोछुआ था, इसलिए उन्होंने मेरा नाम कोंपल रखा था। वो कहती थीं कि, सुन तू कोपल है, हमेशाकोमल ही रहना। अब ये नाम मुझे बहुत अच्छा लगता है... कोपल।
फिर जब पिताजी नहीं रहे तो मुझे लगा माँ अब खूब लिखेंगी.. पर ऐसा हुआ नहीं। मुझे बहुतअजीब लगा तो मैं एक दिन माँ के पास गया और उनसे कहा,
‘माँ आप क्या ये कोरे पन्नों से सामने पेन से खेलती रहती हो, आप लिखती क्यों नहीं हो? लिखो, आपको जो लिखना है, आपको पूरी आज़ादी है।’
तो वो कहती, ‘इतना आसान हैं क्या?, मेरे भीतर कई सालों का ग़ुस्सा भरा है बेटा, और गुस्साआदमी को कठोर बना देता है... मैं ग़ुस्सा नहीं लिखना चाहती हूँ। मैं कुछ अच्छा लिखना चाहतीहूँ।’
मेरी माँ एक शब्द भी नहीं लिख पाई थीं, इतना गुस्सा भरा था उनके भीतर। पर वो बहुत पढ़तीथीं, हाँ, बाप रे! वो हमेशा किताबों से घिरी रहती थीं।
और एक मैं था उनका गधा-बच्चा, जिसे पूरी आज़ादी थी पर मुझे न तो लिखना अच्छा लगता थाऔर न ही पढ़ना। मुझे तो समझ ही नहीं आता था कि इतनी मोटी मोटी किताबें लोग पढ़ते क्योंहैं? मैं तो किताबों का इस्तेमाल करता था सो जाने के लिए। मुझे लगता कि ये किताबें नहीं हैं, येनींद की गोलियाँ हैं, मुँह में डालते ही क्या गजब की नींद आती थी। खाओ और टप से सो जाओ।
पर मेरी माँ जिद्दी थीं, वो हर रात एक किताब मेरे सिरहाने रख दिया करती थी और कहती कि,
‘न, न, न, ऐसे नहीं, हमेशा पढ़कर ही सोना’
‘ठीक है माँ, पढ़कर ही सोऊँगा’
मैं किताब खोलता और पहला पन्ना तो क्या ज़रज़राते हुए पढ़ जाता, पर दूसरे पन्ने पर आते हीलगता कि किसी ने मेरी पलकों पर ये बड़े बड़े पत्थर रख दिए हैं। मैं पूरी ताकत लगाता कि, यारएक वाक्य, कुछ शब्द तो पढ़ लेने दे, पर क्या मजाल हैं कि आँखें खुली रहें। वो पट से बंद होजाती और मैं खर्राटे लेने लगता।
सुबह-सुबह माँ आ जाती,
‘तो सुनाओ वो कहानी जो रात में पढ़ी थी?’
मैं कहता, ठीक है माँ, मैं पहला पन्ना तो क्या ज़रज़राते हुए सुनाता और दूसरे पन्ने पर आते ही मैंएक झूठ शुरु कर देता, फिर उस झूठ को जैसे-कैसे घुमा फिराकर अपनी कहानी पूरी कर देताऔर मैं देखता कि माँ को मज़ा आ गया है। ये क्या चीटिंग हैं? अरे! जब माँ को मेरे झूठ पर हीमज़ा आ जा रहा है तो पढ़ना ही क्यों? मैंने तुरंत पढ़ना कर दिया बंद, अब मैं बढ़िया चादरतानकर सोता, सुबह एक अंगड़ाई लेकर उठता और माँ के सामने एक पूरी झूठी कहानी बनाकरसुना देता। माँ हंस हंस के लोट-पोट हो जाती। मेरी माँ क्या हंसती थीं, नहीं, नहीं वो हंसती नहींथी वो, कुछ लोग होते है न जो हंसते नहीं है... वो.. वो.. हाँ.. वो खिलखिलाती थीं... मेरी माँखिलखिलाती थीं।
फिर एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया,
‘कोपल’, भारी आवाज़ में
‘क्या माँ?’
‘इधर आ, इधर आ, इधर आ’
माँ जब भी मुझे ऐसे बुलाती थीं मैं समझ जाता था कि मुझसे कुछ बड़ी गड़बड़ी हुई है।
‘क्या हुआ माँ?’
‘सुन, तू जो मुझे कहानियाँ सुनाता है न,’
‘हाँ’
‘तू उन्हें लिख दिया कर।’
‘अरे! माँ, बड़ी मुश्किल से रात में जाग जागकर मैं वो कहानियाँ पढ़ता हूँ, उन्हें लिखना क्यों? वोतो पहले से ही किताबों में लिखी हुई हैं ना, उन्हें फिर से क्यों लिखना?’
‘चल झूठे, मैं जानती नहीं हूँ क्या, किताबों की कहानियाँ अलग हैं और जो तू सुनाता है वो अलग, सुन ना, मैं तुझे पढ़ना चाहती हूँ, तू लिख दिया कर ना।’
कितनी तेज़ औरत हैं ये... चालाक। मतलब इन्हें शुरु से पता था कि मैं झूठ बोल रहा हूँ, परबताया नहीं इन्होंने, बस मेरे मज़े ले रही थीं।
‘माँ, आप तो एकदम....’
‘क्या है?’
‘Sorry, अब आपको तो पता चल गया है कि ये सब झूठ है, इस झूठ को क्या लिखना?’
‘ये झूठ नहीं है’
‘माँ झूठ है’
‘नहीं है बेटा’
‘माँ मैं कह रहा हूँ कि सारा का सारा झूठ बोलता हूँ’
‘ये झूठ नहीं है ये तेरी कल्पना है… और ऐसे ही तो सब लिखते हैं।’
‘क्या मतलब? तो क्या ये किताबों में झूठ-झूठ लिखा हुआ है?’, मैंने उनसे पूछा था।
‘हाँ, झूठ, कल्पना, एक ही बात है।’
मेरे दिमाग़ में हो गया विस्फोट। मतलब आप समझ रहे हैं कि आपको अचानक पता चले कि इसदुनियाँ में जितनी किताबें है उसमें सब झूठ-झूठ लिखा हुआ है। भाई साब! तो क्या सब लोग झूठपेल रहे हैं। अगर सब लोग झूठ ही पेल रहे हैं तो मैं तो क्या गजब झूठ बोलता हूँ, मैं तो पैदाइशीझूठा आदमी हूँ। फिर क्या था, मैं रोज़ सुबह उठता और एक बढ़िया झूठी कहानी माँ कोलिखकर देता और माँ मेरा झूठ पढ़ती और खुश हो जाती। कितनी सही सेटिंग हो गई थी ये। नींदकी नींद, कहानी की कहानी और किताबों से छुटकारा।
पर मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब माँ के पैंतरे में फँस गया था। सोचिए मुझ जैसा गधा बच्चा, इस झूठ-मूठ के चक्कर में लिखने लगा था। मैं लिखता ही चला गया था, अपनी माँ के लिए।
आपको पता है मुझे विंडो सीट मिली थी प्लेन में, मुझे अचानक से विंडो सीट का मिलना किसीचमत्कार से कम नहीं लगता है, छोटे सुखद आश्चर्य जैसा कुछ। मुझे हवाई जहाज़ शुरु से हीबहुत पसंद थे। अरे मेरा छोड़िए मेरी माँ तो हवाई जहाज़ के पीछे पागल थी।
गाँव में, हमारे घर के ऊपर से जब भी हवाई जहाज़ गुजरता तो मैं और माँ दोनों घर से बाहर आजाते और आश्चर्य से उसे देखते। माँ के मुँह से निकलता… बेटा, हाईजाज...। फिर हम उसे टाटाकरते, टाटा टाटा टाटा टाटा टाटा, जब तक वो आँखों से ओझल नहीं हो जाता हम टाटा करतेरहते।
‘कोपल’, माँ कहती
‘क्या माँ?’
‘बेटा हाईजाज का दिखना बहुत शुभ होता है।’
‘हैं!’
‘हाँ, ये ले एक रूपये.. जा पेड़े ले आ।’
हवाई जहाज़ दिखने पर हमारे यहाँ पेड़े आते थे। पर हम ज़्यादा पेड़े खा नहीं पाते थे, क्योंकि उसवक्त हमारे घर के ऊपर से महीने दो महीनों में एक-आध हवाईजहाज़ बमुश्किल गुजरता था।फिर पता नहीं क्या हुआ, मेरे बड़े होते होते, हमारे घर के ऊपर से हवाई जहाज़ के गुजरने कीतादाद बढ़ने लगी। पेड़े बहुत महँगे थे, हम बताशों पर आ गए। और कभी कभी तो हमारे गाँव सेएक ही दिन में दो हवाई जहाज़ गुज़र जाते। भाई, बताशे भी तो पूरे महीने चलाने होते थे। ऐसाथोड़ी हर हवाई जहाज़ पर एक बताशा मुँह में रख लिया। इतने पैसे थोड़ी थे। ये दो हवाई जहाजोंके चक्कर में हम फंस गए थे तभी माँ को एक तरकीब सूझी। अब हमारे घर के ऊपर से जैसे हीदूसरा हवाई जहाज़ गुजरता मैं और मेरी माँ ऐसा बिहेव करते कि... हमममममम... हमें तो कुछसुनाई नहीं दे रहा, पता नहीं क्या आवाज़ आ रही है ऊपर से। मैं पूछता माँ से, कुछ हो रहा हैक्या? माँ तुरंत कहती कि, पीछे से कोई टेक्टर जा रहा है शायद। हम सुनते ही नहीं।
अरे, ये तरकीब बहुत काम आई। मैंने बताया था ना कि मेरी माँ को सात सौ रुपये तनख्वाहमिलती थी, जैसे ही एक तारीख़ को माँ को तनख्वाह मिलती वो सारे पैसों को लाकर सीधाभगवान की अलमारी में रख देती थीं और फिर मुझसे कहती कि,
‘कोपल, बस बहुत हुआ, इस बार इन पैसों को पूरा महीना चलाना हैं, चाहे कुछ भी हो जाए’
मैं कहता, ‘ठीक है माँ, एकदम, महीने की आखरी तारीख़ तक ये चलाएँगे’,
क्या ख़ाक चलाएँगे! वो पैसे हर बार की तरह, बीस से पच्चीस तारीख़ के आस पास कहीं अपनादम तोड़ देते। और महीने का आख़री हफ़्ता हम ऐसे गुज़ारते मानो हमारे घर के ऊपर से गड़गड़ाताहुआ दुखों भरा दूसरा हवाई जहाज़ हुआ गुजर रहा हो, गड़गड़गड़- दुख ही दुख, गड़गड़गड़- दुखही दुख, गड़गड़गड़- दुख ही दुख, और तब ये तरकीब काम आती। हम उस दुख को देखते ही नहीं, हम उसे सुनते ही नहीं। महीने के आख़री हफ़्ते का दुख यूँ आता, हम उसे पीठ दिखा देते और यूवो दुख, बिना दिखे गुजर जाता। और फिर ख़ुशियों भरी एक तारीख़ आती और भगवान कीअलमारी वापस पैसे आ जाते। माँ आपने बालों में हाथ फेरते हुए कहती कि, बेटा, दुखों को अगरदेखो नहीं तो वो असल में हैं ही नहीं।
एक दिन मैंने माँ से पूछा,
‘माँ’, उन्हीं की तरह गंभीर आवाज में
‘क्या है?’
‘इधर आओ, इधर आओ, इधर आओ’
‘एक दूंगी रख कर’
‘अरे ऐसे ही पूछना था कुछ’
‘पूछ?’
‘गंभीर सवाल है।’
‘गंभीर सवाल मुझे अच्छे लगते हैं।’
‘अच्छा तो ये सुनो, माँ हम इसे भगवान की अलमारी क्यों कहते हैं? इसमें भगवान तो है नहीं।ख़ाली पड़ी है अलमारी।’
‘क्योंकि ये भगवान तेरे बाप के साथ चले गए’
‘हैं! बस ऐसे उठे और चले गए?’
‘हाँ, मैं तो नास्तिक हूँ ना।’
‘छी.. क्या? आप नास्तिक हो?’
‘हाँ।’
अरे, माएँ कहाँ नास्तिक होती हैं? कौन सी माँ नास्तिक है। ये क्या हो रहा है मेरे घर में।
‘नहीं माँ।’
‘हाँ, मैं नास्तिक हूँ।’
‘पर मैं नहीं हूँ’
मैंने तुरंत ऊपर देखकर भगवान से कहा कि, मैं नहीं हूँ, बस ये ही हैं, इनकी बातों में मत आना, अपनी सेटिंग एकदम सही चल रही है।
तभी माँ ने कहाँ कि, ‘तू भी नास्तिक है।’
‘माँ! पाप लगेगा, क्या कह रही हो। मैं नहीं हूँ।’
‘हम सब इस दुनिया में ज़्यादा नास्तिक हैं कम आस्तिक हैं।’
‘क्या!’
‘हाँ, देख इस दुनिया में लगभग दस धर्म है। है ना?’
‘हाँ’
‘उसमें से नौ तो तू नहीं मानता है, बस एक मानता है न, हैं न?’
‘हाँ’
‘तो उन नौ धर्मों के लिए तो हम सब नास्तिक हुए न। मैं तो बस एक और धर्म नहीं मानती हूँ।’
अब कर लो इनसे बात। देखा कैसे घुमाती है बातों को। पर मैं भी कोपल हूँ ऐसे हारने वाला नहींथा। मैंने पूछा,
’तो… तो इसका क्या मतलब… आप कह रही हो कि मैं भागवान को नहीं मानूँ। नहीं मानूँ?’
‘तुम तो मानोगे’
‘ओ,ओ... रुको, रुको, रुको मैं क्यों मानूँगा?’
‘क्योंकि तुम पुरूष हो।’
‘छी, नहीं, माँ में आपका बेटा हूँ। मैं कोई पुरुष-वुरुष नहीं हूँ।’
‘अरे गधे, मेरे बेटे होने पर साथ साथ तू पुरुष भी तो है, और हर धर्म में मुख्य भूमिका तो पुरुषों कीही है… तो वो तो मानेंगे। मेरी तो आज तक समझ नहीं आया कि ये औरतें क्यों मानती हैं धर्मको, क्योंकि उनका तो हर धर्म में सपोर्टिंग रोल है…। अब मैं नहीं कर सकती ये सपोर्टिंग रोल।मेरा अब कहीं भी सपोर्टिंग रोल नहीं है। मेरे जीवन में मेरी भूमिका मुख्य है।’
पता नहीं क्यों मुझे ये बात बहुत बुरी लग रही थी। मैंने पूछा,
‘और मैं? मैं कहा हूँ आपके जीवन में?’
‘तुम अहम किरदार हो।’
‘अहम! मैं मुख्य नहीं हूँ। मैं आपका इकलौता बेटा, आपके जीवन में मुख्य नहीं है?’
‘न, मुख्य तो कोई नहीं है, मैं मेरे जीवन में मुख्य हूँ, जैसे तुम्हारे जीवन में तुम।’
माँ एकदम सहजता से ये सब कह रही थीं और मेरी आँखों में एकदम कोने कोने तक आँसू जमाहो गए थे। पर मैंने ख़ुद से कहा कि, नहीं कोपल नहीं, रोना नहीं है। एक नास्तिक के सामने तो हमेंकभी नहीं रोना है।
‘माँ मैं आपके सामने तो आंसू की एक बूंद नहीं गिराऊँगा कभी’
मैं सीधा अपने पक्के दोस्त सुधीर के घर चला गया था।
‘सुधीर, सुधीर’, मैंने उसे आवाज़ लगाई, वो मेरे एकदम पक्का दोस्त था, बचपन से, बहुत हीअच्छा लड़का है।
‘सुधीर नीचे आ।’ जैसे ही वो नीचे आया मैंने उससे कहा कि,
‘चल, मुझे तुझसे ज़रूरी बात करनी है, हनुमान मंदिर चलते हैं।’
हम दोनों हनुमान मंदिर के चबूतरे पर जाकर बैठ गए। मैंने सुधीर को सब कुछ बताया, आप लोगोंको वहाँ होना था, तो आप देखते कि क्या ग़ुस्सा हुआ था सुधीर। उसकी आँखें लाल हो गई थींऔर चेहरा पीला। मैंने कहा,
‘क्या बात है यार सुधीर, बहुत सही गुस्सा होता है यार तू तो।’
‘हाँ यार कोपल भई, तेरे घर तो यार बड़ी ट्रेजडी हो गई है यार।’
तभी मेरी इच्छा हुई कि, बजरंगबली से जाकर माँ की शिकायत कर दूँ क्या? पर फिर लगा कि, बजरंगबली एक नास्तिक का क्या उखाड़ लेंगे? तभी सुधीर बोला,
‘कोपल यार तेरे लिए तो बहुत ही बेड फीलिंग्स हो रही है यार।’
‘हे ना।’
‘और यार कोपल, एक माँ जो होती है न, वो तो यार, अपने बच्चे के ऊपर, अपना पूरा का पूराजीवन न्योछावर कर देती है और चूँ तक नहीं करती। चूँ भी नहीं करती है माँ भाई, और बता एकतेरी माँ हैं, कैसे निकली यार, ये तो सही नहीं है।’
‘हाँ यार कैसी निकल गई माँ यार’
‘और भाई नास्तिक… यार कुछ भी चल रहा है तेरे घर में, नास्तिक-पास्तिक, छी… क्या मतलबहै, माँ होके नास्तिक.. छी छी छी।’
‘छी छी छी।’
मैंने भी उसकी छी में अपनी छी मिला दी। तभी मैंने देखा कि सुधीर उठकर खड़ा हो गया और मेरेसामने ग़ुस्से में चक्कर काटने लगा। क्या बात है मतलब पक्का दोस्त हो तो ऐसे, वो मेरी बात परमुझसे भी ज्यादा गुस्सा था। मैंने कहा,
‘सुधीर भाई लब यू। क्या बात है सुधीर, बहुत ही सही, एकदम पक्का दोस्त है यार तू मेरा, गजबभाई।‘
‘कोपल भाई, तेरे से एक बात कहनी थी।’
‘बोल ना भाई।’
‘अब तूने ही अपनी माँ की बात छेड़ी है इसीलिए बता रिया हूँ, अगर तुझे बुरा न लगे तो।’
‘यार मेरी माँ नास्तिक हैं…. इससे बुरा क्या हो सकता है भई।’
‘सही कह रहा है।’
‘बोल भई।’
‘यार कोपल भाई, तेरी माँ के बारे में गाँव वाले बहुत ही गंदी गंदी बातें करते हैं यार।’
‘क्या मतलब।’
‘कहते हैं यार, कि तेरे घर में कोई भी आ जा रहा होता है’
‘अरे, कौन आता है, गुप्ता जी आते हैं… अवस्थी जी आते हैं… सोनी जी… जानता तो है तूसबको।’
‘हाँ पर वो तो सब अकेले आते हैं… वो अपनी लुगाईयों के साथ थोड़ी आते हैं’
‘लुगाई?’
‘अरे मतलब, बीबियों के साथ थोड़ी आते है। और यार, ग्यारह बजे, बारह बजे रात तक हंसी ठट्ठेकी आवाज़ें तेरे घर से आ रही होती है यार।’
‘अरे पगले, पर वो आवाज़ें तो इसलिए आती है कि हमारे घर के खिड़की दरवाज़े हमेशा खुलेरहते हैं।’
‘तूने तो कहा था कि तू तो सो जाता है जल्दी, तो तुझे क्या पता खिड़की दरवाज़े कब तक खुलेरहते है और कब बंद हो जाते हैं।’
‘क्या मतलब है सुधीर, कुत्ते।क्या कहना चाह रहा है तू?’
‘अरे वाह भाई, अभी लब यू, अभी सीधा कुत्ते पर आ गया। वाह! यार मैं थोड़ी के रिया हूँ… ये तोगाँव में लोग कह रहे हैं कि, तेरी माँ बहुत गुलछर्रे उड़ाती है।’
गुलछर्रे, हनुमान मंदिर के उस चबूतरे पर मैंने पहली बार ये शब्द सुना था। आज भी मैं कभीगुलछर्रे शब्द सुनता हूँ तो माँ का चेहरा मेरी आँखों के सामने कौंध जाता है। गुलछर्रे, ये शब्द सचमें कितना क्रूर है। मैं उस दिन हनुमान मंदिर पर बैठ नहीं पाया था। मैंने अपने घर की तरफ दौड़लगा थी। मैं सीधा अपनी माँ के पास पहुँचा और कहा.... पर क्या कहूँ? कौन सा शब्द? वो कौनसे वाक्य हैं? इस किस्म के संवाद के, हमारे पास, शब्द ही नहीं थे, वो वाक्य बने ही नहीं थे। मैंकुछ नहीं कह पाया था। मैं बस उनके अगल बगल मंडराता रहा। इसमें हफ्तों महीनों गुजर गएथे। पर मैं उनसे कुछ कह ही नहीं पाया था। बस मेरा गुस्सा बढ़ता रहा था। एक दिन मुझे लगाकि गुस्से में मेरा सिर फट जाएगा। जब मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं एक दिन सीधा घर पहुँचाऔर माँ को मैंने आवाज़ लगाई,
‘माँ, इधर आओ, यहाँ आओ, मुझे आपसे जरूरी बात करनी हैं, अभी, आप बाहर आओ।’
मैं चीखने लगा था, माँ बाहर आई और उन्हें कहा,
‘क्या हुआ.. बोल बेटा’
‘माँ मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि.....’
मैं लड़खड़ाने लगा था। पर मुझे आज माँ से बात करनी ही थी, मैंने पूछा...
‘माँ आप… आप… आप.. माँ… आप… आप इतनी सुंदर क्यों हो? क्यों हो आप इतनी सुंदर? आप बाक़ी माँओं जैसी माँ क्यों नहीं हो? जैसी बाक़ी माँए हैं गाँव में, आपने सुधीर की माँ कोदेखा है, बंटी की, राजू-छोटू की, सलीम की… आपने पिंकी की माँ को देखा है? कैसी दिखती हैंवो? और आप खुद को देखो कैसी दिखती हो... देखो... सुंदर कहीं की।’
कुछ देर में माँ मेरे पास आई और उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा,
‘मैं समझती हूँ बेटा पर मैं क्या करूँ तू बता? तू ही बोल क्या करूँ मैं?’
मैं रोने लगा था।
‘मुझे नहीं पता क्या करना है क्या नहीं करना है। और आप ये स्लीव-लेस वाला ब्लाउज़ क्योंपहनती हो? जानबूझकर न, ताकि आपके पूरे कंधे दिखें? है ना? और मैंने देखा है जब आप स्कूलजाती हो तो जान बूझकर साड़ी भी ऐसे पहनती तो ताकी आपका पूरा पेट दिखता रहे…मैं जानतानहीं हूँ क्या? और आपको क्या लगता है मैं रात में सो जाता हूँ। नहीं माँ मैं सब सुन रहा होता हूँ, सब दिखता है मुझे... आप.. आप जो भी...’
‘कोंपल!….’ माँ चीख़ पड़ी, ‘चुप हो जा बेटा, चुप हो जा..’
माँ की आँखों मे डर था। मुझे लगा उन्होंने कोई भूत देख लिया हो। मैंने पूछा,
‘माँ, क्या हुआ? माँ’
माँ ने कहा कि,
‘तू सुन रहा है खुद को? तू कितना अपने बाप जैसा सुनाई देने लगा है’
एक ही आदमी तो था जिससे मैं चिढ़ता था... मेरा बाप.. मैं उसके जैसा नहीं होना चाहता था, कभी भी नहीं।
फिर इस विषय पर मैंने अपनी माँ से कभी कोई भी बात नहीं की। माँ को पता था कि मैं बहुतनाराज़ हूँ उनसे इ, उनके जीवन में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आया। घर में वैसे ही हसीं ठट्ठे कामाहौल बना रहा, लोगों का आना जाना लगा रहा। मैंने सोचा, वाह माँ क्या बात है आपको कोईफर्क ही नहीं पड़ता है।
एक दिन मैंने देखा, माँ पूरी बाँह का ब्लाउज़ पहनकर स्कूल जा रही हैं। मैं तुरंत घर भागा औरउनके सारे स्लीव-लेस ब्लाउज़ उठाए और घर से दूर जाकर एक कूड़ेदान में फेंक दिए। अब पताचलेगा माँ को कोपल से पंगा लेने का मतलब। माँ शाम को घर आई और उन्हें एक भी ब्लाउज़नहीं दिखा। अब बोलो, अब बोलो। पर माँ ने मुझसे कुछ नहीं कहा। जैसे मैंने कुछ किया ही नहींहो। ये क्या है?
फिर मैंने देखा माँ एक दिन नया स्लीव-लेस ब्लाउज़ पहने हुए हैं। वाह! मौक़ा मिलते ही मैंने उसब्लाउज़ को कूड़े दान में फेंक दिया। ब्लाउज़ कहाँ ग़ायब हो रहें है, ये न कभी माँ पूछती और नएब्लाउज़ के दिखने पर मैं भी चुप रहता। अजीब सा मूक युद्ध चलने लगा था हमारे बीच, कोईकिसी से कुछ बोल नहीं रहा था और कोई भी हार मानने को राज़ी नहीं था। न वो और न ही मैं। मैंजब तक गाँव में रहा ये युद्ध कभी ख़त्म नहीं हुआ था।
युद्ध, हिंसा आदमी को जल्दी बड़ा कर देती है, माँ कहती थीं। लड़ते-लड़ते मुझे पता ही नहीं चलाकब मैं बड़ा हो गया था।। मेरी अजीब सी छतरी-छतरी दाड़ी मूँछ उग आई थीं।
फिर एक अच्छी खबर आई। मेरा जॉब लग गया मुंबई में। गाँव में सबने कहा कि, अरे कोपल है नउसका जॉब लग गया है बंबई में। घर में पेड़े आए, बहुत सारे पेड़े। मैंने कुछ ज़्यादा ही खा लिएऔर मेरा पेट ख़राब हो गया। अच्छी चीज ज़्यादा मिल जाए तो पचती नहीं है।
फिर मुझे लगा ये कितना अच्छा मौक़ा है, माँ को फँसाने का। इससे माँ नहीं बच सकती थीं।
मैं सीधा माँ के पास गया और कहा,
‘माँ क्या रखा है इस गाँव में, यहाँ फालतू के लोग, फालतू की बातें करते रहते हैं। बंबई ग़ज़बशहर है। वहाँ किसी से किसी को कोई मतलब ही नहीं है। चलो माँ अब से हम दोनों वहीं रहेंगे।वहाँ आपको जैसे रहना है रहो, जो कहना है वो करो, खुली छूट है आपको।’
माँ ने कहा कि, ’तू बंबई जा, तेरे को वहाँ जैसे रहना है रह, जो करना है कर, खुली छूट हो तेरे को, मैं तो यहाँ वैसे ही रह रही हूँ जैसा मुझे रहना है।’
‘माँ कभी तो मेरी बात सुनो… लोग क्या कहेंगे कि जैसे ही मुझे बंबई में जॉब मिला मैं अपनी माँको अकेला छोड़कर भाग गया।’
‘तो उन लोगों को कहना कि तेरी माँ विकलांग नहीं है, उसके हाथ पैर सही चलते हैं, उन्हें ज़िंदारहने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं है।’
मेरी माँ मेरी बातों में नहीं फँसी। ज़िद्दी औरत है अब क्या बताऊँ।
‘ठीक है रहो, जैसे रहना है आपको, पर कम से कम आप ये गुल…… आप ये स्लीव-लेसब्लाउज़ पहनना तो बंद कर दो, प्लीज़।’
माँ मेरी तरफ़ मुसकुरा के देखने लगी। मुझे लगा उन्हें पता चल गया है मैं उनसे क्या कहना चाहताथा। वो मेरे पास आई और उन्होंने कहा,
‘ठीक है बेटा, छोड़ दिया, अब से, तेरे लिए, मैं कभी नहीं पहनूँगी ये स्लीव-लेस ब्लाउज़… कभीभी नहीं। खुश है तू, खुश है?’
मैं उन्हें देखता रहा फिर मैंने हाँ में सिर हिला दिया। माँ ने कहा,
‘पर तुझे भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।’
‘बोलो माँ।’
‘तुझे अपना कहानी संग्रह पूरा करना पड़ेगा।’
‘चोर, चोरी चोरी मेरी कहानियाँ पढ़ रही थीं। आपको कैसे पता कि मैं लिख रहा हूँ।’
‘तेरी माँ हूँ, इतनी चोरी का तो हक़ है मुझे, क़सम का कि तू अपना कहानी संग्रह पूरा करेगा, खाक़सम।’
मुझे अच्छी तरह याद है वो दोपहर का वक़्त था। माँ आँगन में खड़ी थीं। उनके पीछे एक हरा घनापेड़ था। तब मैंने अपनी माँ के सिर पर हाथ रखकर क़सम खाई थी कि, ‘माँ मुझे आपकी क़समहै, मैं अपना कहनी संग्रह ज़रूर पूरा करूँगा।’
बंबई आते ही मैं काम में बुरी तरह व्यस्त हो गया था। नया जॉब था, बहुत काम करना पड़ रहाथा। उसी वक्त से माँ की तबियत भी खराब रहने लगी थी। उन्हें खांसी के दौरे पड़ते थे। पर हरबार फोन आते ही उनका पहला सवाल वही होता कि, क्या लिख रहा है आजकल। मैंने उनकोनहीं बताया था कि अपनी सारी व्यस्तता के बावजूद, मैंने अपना कहानी संग्रह पूरा कर लिया था।मैंने उसका नाम त्रासदी रखा था। उस कहानी संग्रह के पहले पृष्ठ पर ही मैंने लिखा था… माँ केलिए। मुझे लगा जब से कहानी संग्रह प्रकाशित होगा तो मैं उसकी पहली प्रति लेकर सीधा गाँवजाऊँगा और इसे माँ की गोदी में रख दूँगा और कहूँगा कि, देखो, नहीं ऐसे नहीं, पहले पहला पन्नाखोलो, देखा क्या लिखा है….. आपके लिए….. सरप्राइज़।
हमारा प्लेन समय पर उतरा था। मेरा गाँव एयरपोर्ट से करीब सत्तर किलोमीटर दूर था। मुझे अभीभी पसीना आ रहा था, आँखें जल रही थी, पर मार का असर इतना कमाल था कि मेरा सर अभीतक हल्का बना हुआ था। मैंने एक टैक्सी की और गाँव की तरफ चल दिया। मैं अपने गाँवआख़री बार दो साल पहले आया था, वो मेरी माँ से आखिरी मुलाकात थी। दो साल पहलेकितना असहनीय दिन था वो...
मुझे अभी भी याद है, मैं ऑफिस में था जब मुझे सुधीर का फ़ोन आया था। मेरे फोन उठाते हीउसने कहा कि..
‘यार कोपल, कैसे यार तूने इजाज़त दे दी?’
‘क्या इजाज़त दे दी मैंने?’
‘अरे यार ये सही थोड़ी है, कैसे सोनी जी तेरी माँ के साथ रह सकते हैं?’
‘क्या? कौन साथ रहने लगा है? क्या बोल रहा है?’
‘ओ भाई! तेरे को नहीं पता?’
‘नहीं’
‘अरे भाई साब, सोनी जी तेरी माँ के साथ रहने लगे हैं। तेरे ही घर में। मुझे लगा तूने कहा होगासोनी जी को कि माँ का ख़्याल रखना, दवाई अस्पताल देख लेना, पर यार वो तो साथ ही रहनेलगे हैं। गाँव में कैसी-कैसी बातें हो रही है और तेरे को कुछ पता ही नहीं है। यार सब कह रहे हैंकि…’
सुधीर लगातार बोले जा रहा था। पर मुझे सिर्फ एक ही वाक्य सुनाई दे रहा था कि, माँ अबखुलम-खुल्ला गुलछर्रे उड़ाने लगी हैं। मैं उनके जीवन में मुख्य नहीं हूँ मैं जानता हूँ, पर अहम तोहूँ। उन्हें पता नहीं कि मैं यहाँ बंबई में अकेला रहता हूँ, मुझ तक ख़बर पहुँचेगी तो कैसा लगेगामुझे? उन्हें किसी की चिंता नहीं है। उन्हें बस मज़ा करना है। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया, मैं सीधाअपने गाँव गया, और जैसे ही अपने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो देखा, मेरे घर का दरवाज़ासोनी जी ने खोला। मेरी इच्छा तो हुई उनसे कहने की कि, क्या कर रहा है तू मेरे घर में, निकलयहाँ से…. पर मैंने देखा वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे मानो मुझे चिढ़ा रहे हों।उन्होंने कहा,
’अरे कोपल! तुम आ रहे हो तुमने बताया भी नहीं। आ जाओ, सुनिये, देखिए कौन आया है, आपका लाड़ला लेखक , कोपल! आ जाओ.. जाओ अंदर जाओ माँ अंदर है।’
मैं इस आदमी की आवाज भी नहीं सुनना चाहता था। मैं सीधा माँ के कमरे में चला गया औरकमरे में घुसते ही मुझे क्या दिखा, माँ के कमरे मे खूँटी पर सोनी जी के कपड़े टंगे हुए हैं, मेरी माँके कमरे में। मैंने गुस्से में अपनी आँखें बंद की और माँ के पैर छुए। जैसे ही मैंने आँखें खोली तोदेखा माँ बहुत दुबली हो गई थी, उनका शरीर जर्जर हो गया था। मैं उनके बग़ल में बैठा,
“क्या हो गया माँ? रहने दीजिए, उठने की क्या ज़रूरत है। क्या हुआ है माँ?”
तभी मुझे सोनी जी की आवाज़ आई, वह दरवाज़े पर खड़े थे।
‘डॉक्टर ने आराम करने को कहा है पर कहाँ मानती हैं ये। मैंने कहा कि कोंपल को बता देते हैं, तोकहने लगी नहीं नहीं वो अकेला रहता है वो बेकार में वो परेशान होगा, मैंने कहा जाओ उसकेसाथ रहो थोड़ा हवा पानी बदलेगा तो अच्छा ही होगा, पर नहीं, सुनती ही नहीं हैं, भइया बहुतपरेशान हो गया हूँ मैं तो, खैर, चाय बना दूँ तुम्हारे लिए? तुमने तो कुछ खाया भी नहीं होगा, जल्दीके कुछ बना देता हूँ तुम्हारे लिए? बताओ क्या खाओगे?’
ये आदमी चुप ही नहीं होगा, इसकी समझ ही नहीं आ रहा है कि इसके कपड़े मेरी माँ के बेडरूममें टंगे हैं, ये आदमी हमारे किचन में खाना बना रहा है, और ये कौन होते हैं मुझे बताने वाला किमेरी माँ कैसी है, कैसी नहीं है!
मैंने गुस्से में कहा, ‘आप रहने दीजिए, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’
माँ ने तुरंत मेरे गालों को पकड़ा और कहा,
‘नहीं बेटा नहीं, बेटा गुस्सा नहीं करते, ग़ुस्सा आदमी को कठोर बनाता है, कठोर नहीं बनना हैतुझे, तू कोपल है, वो सब छोड़ बेटा, पहले तू ये बता आजकल क्या लिख रहा है?’
‘मैं कुछ भी नहीं लिख रहा हूँ माँ। क्योंकि मैं कभी कुछ लिखना चाहता ही नहीं था, आप लिखनाचाहती थीं, मैं नहीं।’
मैंने ये सीधा माँ की आँखों में देखते हुए कहा था।
‘मुझे बाज़ार में कुछ काम है,’ सोनी जी ने कहा, ‘मैं आता हूँ, तुम, माँ बेटे आराम से बैठकर बातेंकरो।’
‘हाँ जाओ, मरो (मैंने फुसफुसाया)’
पर माँ ने उन्हें रोक दिया,
‘सोनी जी, वापस आइये, आपको अभी बाज़ार जाने की ज़रूरत नहीं है। आप यहीं रहिए। बेटातुम बाहर के कमरे में बैठो, मैं हाथ मुँह धोकर आती हूँ।’
मैंने सोनी जी को देखा, फिर माँ को देखा...
‘क्या? मैं बाहर जाऊँ?’ मैंने पूछा
‘हाँ, तुम बाहर बैठो, मैं आती हूँ। सोनी जी जरा हाथ दीजिए, उठाइये, आराम से।’
मैं बाहर के कमरे में आकर बैठ गया। यहाँ पर हमारे यहाँ मेहमान आकर बैठते थे। माँ और सोनीजी भीतर कमेरे में थे। मैंने देखा घर बहुत साफ़ दिख रहा था। नए पर्दे लगे हुए थे, नई चद्दरें थीं।तभी मेरी निगाह भगवान की अलमारी पर गई, वहाँ भगवान की अलमारी में भगवान थे और बाहरअगरबत्ती भी जल रही थी। बहुत सही माँ, क्या बात है।
तभी माँ हाथ मुँह धोकर आई और मेरे सामने आकर बैठ गई। वो इस बीमारी में भी कितनी सुंदरदिखाई दे रही थीं। सोनी जी माँ के पीछे खड़े हुए थे।
‘तू अचानक आ गया, बता देता तो कुछ बनवा देती तेरे लिए। सोनी जी बहुत अच्छा खाना बनातेहैं।’
‘माँ मैं आपको लेने आया हूँ। चलो उठो, अपना सामान बाँधो, अब हम बंबई में रहेंगे। मैंने शामकी फ़्लाइट के टिकिट्स भी बुक करा दिए हैं। अब मैं आपकी एक भी नहीं सुनूँगा… आप मेरेसाथ ही रहेंगी अब से, बस बहुत हुआ।’
‘अरे बाबा, देखो, सोनी जी, कितना प्यार करता है मुझसे, माँ को कुछ भी हुआ तो एकदम तड़पउठता है। गाँव में सब लोग कहेंगे कि वैसे बहुत व्यस्त रहता है बंबई में पर अगर माँ पर बात आईतो भइया, वो सब कुछ छोड़-छाड़कर चला आता है। इतना प्यार करता है माँ से।’
‘माँ आप कुछ भी कह लो हम शाम को साथ चल रहे हैं। मैं आपकी एक नहीं सुनूँगा’
‘ज़बरदस्ती ले जाएगा?’
‘हाँ।’
‘मेरी रज़ामंदी नहीं लेगा?’
‘नहीं।’
‘रख पाएगा मुझे तू अपने साथ?’
‘क्यों नहीं रखूँगा? आप मेरी माँ हो।’
‘वो माँ जो तुझे गाँव में रहकर शर्मिंदा कर रही है। कैसी माँ है ये? उसे क्यों रखना अपने साथ।’
‘ये क्या कह रही हो आप?’
‘इसलिए आया है ना तू?’
‘हाँ मैं इसीलिए आया हूँ… क्योंकि मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि…’
‘क्या?....कि मैं खुश रहूँ।’
‘नहीं…।’
‘तो क्या बर्दाश्त नहीं कर सकता?’
‘मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि आप ये.. ये… ये…।’
तभी माँ को अचानक खाँसी का दौरा पड़ा। मैं कुछ करता उससे पहले सोनी जी ने माँ को सँभालाऔर वो उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। मैं उठने वाला था। मैं माँ के पास जाना चाहता था, परवहाँ मेरी जगह ही नहीं थी। कुछ देर में माँ की खाँसी शांत हुई। पूरे घर मे अचानक गहरी चुप छागई थी। माँ ने कहा,
‘कोंपल’
‘हाँ माँ’
‘बेटा मैंने पूरा जीवन बहुत सी दुकानें खोल रखी थीं।’
‘दुकानें?’
‘हाँ, अच्छी बेटी की, अच्छी माँ की, अच्छी बीवी की, अच्छी औरत की, अच्छी टीचर की… जानेकितनी दुकानें खोल रखी थीं। मैं कब से लोगों को वही बेच रही थी जो लोग ख़रीदना चाहते थे।पर लोगों की अपेक्षाएँ ही ख़त्म नहीं होती हैं। अब इस उम्र में मैं और कितनी दुकानें खोलूँ? इससब में मेरे पास मेरे लिए ज़रा सी, एक टपरी भर की भी जगह नहीं है। असल में किसी को कोईफ़र्क़ नहीं पड़ता कि यहाँ एक औरत के जीने के लिए हमने ज़रा सी भी जगह नहीं छोड़ी है। सोबेटा मैंने बहुत पहले अपनी सारी दुकानों के शटर गिरा दिए हैं। मैं अब किसी को कुछ नहीं बेचरही हूँ। न लोगों को और न ही तुझे।’
तभी एक हवाई जहाज़ हमारे घर के ऊपर से गुजरा। मैंने कहा, माँ… हाईजाज… मैंने और माँ नेतुरंत ऊपर देखा, फिर एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे।
‘कितनी तेज़ आवाज़ आ रही है लग रहा है कि बहुत नीचे से जा रहा है, है न’
तभी सोनी जी भागकर किचन से बताशे ले आए। उन्होंने एक बताशा माँ को दिया और एक मेरीतरफ बढ़ाया,
‘मैं ऑफ शुगर हूँ। मैं नहीं खा सकता इसे, मैं आजकल डायटिंग कर कर रहा हूँ ना।’
‘हाँ.. सही है। इसमें तो शक्कर ही शक्कर होती है और क्या’, सोनी जी ने बताशे को देखते हुएकहा
फिर उन्होंने मेरा वाला बताशा अपने मुँह में रख लिया। माँ ने कहा,
‘तू कितना बदल गया है बेटा। पर ठीक है शहर में रहता है वहाँ के तो रंग ढंग ही अलग हैं। सुन नाशाम को खाने पर बात करेंगे, मुझे थकान लग रही है, मैं थोड़ा आराम कर लेती हूँ। सोनी जी मुझेज़रा अंदर छोड़ दो। और हाँ आज दाल तड़का बनाना कोपल के लिए। बहुत अच्छी बनाते हैं ये’,
ये कहते हुए माँ, सोनी जी की मदद से अंदर चली गई।
सोनी जी अच्छी दाल-तड़का बनाते हैं, माँ के कमरे में उनके कपड़े लटके हुए थे, भगवान कीअलमारी में भगवान थे, माँ और सोनी जी मेरे सामने बताशे खा रहे थे। मुझे लगा मेरे हाथों सेसारा कुछ छूट चुका है।
सीनी जी वापस आए और उन्होंने कहा,
’कोपल बेटा, वो ऐसी नहीं है, असल में बीमारी की वजह से थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई हैं।’
‘चिड़चिड़ी हो गई है या धार्मिक हो गई हैं… वो भागवान में मानने लगी हैं।’
‘नहीं वो तो भगवान की अलमारी ख़ाली रहती थी इसलिए मैंने एक दिन एक पत्थर लाकर उसमेंरख दिया, अरे कुछ तो रहे उसमें, वो तो भइया अभी भी... एकदम नास्तिक हैं। पर अच्छी है बहुत, हे ना। ऐ कोपल जानता है न तू?’
‘क्या?’
‘कितनी अच्छी है तेरी माँ। है न’
(मैं देर तक सोनी जी को देखता रहा। मुझे विश्वास नहीं हुआ।) मुझे सोनी जी की आँखों में प्रेमदिखा।
अबे मेरी माँ है वो साले…
मैं ये नहीं देख सकता था। ये मेरे बर्दाश्त के बाहर था। मैं वहाँ एक पल भी नहीं रुक पाया था। मैंतुरंत वापस बंबई आ गया।
जब मैं मुंबई वापस पहुँचा था तो माँ से मैंने कोई बातचीत नहीं की। उनका भी मुझे कोई मेसेज, फ़ोन, कुछ नहीं आया था। मैंने सोच सही है करो जिसे जो करना है, जिसे जैसा जीना है जिए... मेरी बला से। फिर कई महीनों बाद एक दिन अचानक माँ का मेसेज आता है,
‘कैसा है कोंपल? मेरी तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है, पर तू चिंता मत कर सोनी जी बहुतख्याल रखते हैं। सुन न बेटा, तू झूठ बोल रहा था न? तूने लिखना तो नहीं छोड़ा है न, वो मतछोड़ना बेटा, वो तेरी कल्पना है, और कल्पना ही सच है, यथार्थ के चक्कर में मत पड़ना वो तोझूठ है। और अगर कुछ नया लिखे तो मुझे भी बता देना कि क्या लिख रहा है आजकल।’
मेरे पास एक लोहे की बाल्टी हुआ करती थी। मैं बाथरूम से वो लोहे की बाल्टी लाया। उसे अपनेकमरे के बीचों-बीच रखा। फिर अपना कहानी संग्रह लेकर आया, त्रासदी, उसके टुकड़े टुकड़ेकरके मैंने बाल्टी में डाले और आग लगा दी।
माँ के लिए।
इस बात को दो साल बीत चुके थे। दो साल से मैंने अपनी माँ की शक्ल भी नहीं देखी थी, अबपता नहीं कैसी दिखती…….।
‘भैया Ac चालू कर दो बहुत गर्मी है।’
‘Ac चालू ही है।’
टेक्सी ड्रायवर ने कहा,
‘ओ.. ठीक है। sorry, मुझे आज पता नहीं क्या हो रहा है, बहुत पसीना आ रहा है।’
टेक्सी गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी।
‘आप क्या पहली बार इस गाँव में आए हैं?’, टेक्सीवाले ने पूछा
‘नहीं… यहाँ मेरा अपना घर है।’
‘अच्छा तो घर वालों से मिलने आए हैं?’
‘हाँ।’
‘आपका कौन रहता है यहाँ?’
‘माँ। मेरी माँ रहती हैं।’
मैं, माँ रहती थीं, नहीं बोल पाया। इतनी जल्दी, थीं, कैसे बोल दें? वो टैक्सी वाला कांच में मुझेबार-बार देख रहा था। मैंने सिर नीचे कर लिया। जैसे ही टेक्सी हमारे घर पर आकर रूकी मैंनेएक काला चश्मा लगा लिया। टेक्सी से उतरते ही मुझे सुधीर सामने खड़ा दिखा। उसने मुझेदेखते ही गले लगा लिया।
‘तू ठीक है कोपल?’
‘हाँ मैं ठीक हूँ।’ मैंने कहा।
‘जा जा माँ अंदर हैं, मैं तेरा सामान लेकर आता हूँ।’
उसने इतनी सहजता से कहा कि मुझे लगा मैं जैसे ही घर में घुसूँगा मुझे वहाँ मेरी माँ मुस्कुरातीहुई खड़ी दिख जाएँगी। अगर उन्होंने पूछ लिया कि, कहाँ था दो साल? क्यों नहीं आया मुझसेमिलने तो मैं क्या कहूँ कि मैं व्यस्त था?
सुधीर ने पीछे से आवाज़ दी कि, जा न अंदर।
‘हाँ बस जा रहा हूँ’
मैं घर में घुसा तो बाहर वाले कमरे के बीचों-बीच माँ का शरीर रखा हुआ था। उनके सर के बग़लमें एक थाली थी जिसमें राख रखी हुई थी। अगरबत्ती और दूब की वजह से पूरे कमरे में धुआँफैला हुआ था। सोनी जी उनके बग़ल में बैठे थे। मैं माँ के पास गया, पर सोनी जी से थोड़ा दूरबैठा। सोनी जी मुझे देखते ही मेरे पास आ गए। कुछ देर में उन्होंने अपना सिर मेरे कंधे पर टीकादिया और रोने लगे…. बच्चों की तरह, सुबक-सुबक के। मैंने अपने कंधे को झटका दिया तबकहीं वो मुझसे दूर हुए। कुछ देर में वो उठकर कमरे से बाहर चले गए।
मैंने माँ के चेहरे को देखा,
‘माँ, माँ, मैं आ गया, देर हो गई, बहुत देर हो गई,’
उन्हें देखकर ऐसा लगा वो गहरी नींद सो रही हैं, वो अभी अपनी आँखें खोलेंगी और कहेंगी अरेकोपल तू आ गया, अब जल्दी से बता दे क्या लिख रहा है आजकल? वो अभी भी माँओं जैसी माँनहीं लग रही थीं। वो इस वक़्त भी बेहद खूबसूरत लग रही थीं। मैंने उनके गालों हो हल्के सेछुआ। वो बहुत ठंडे थे। मैंने उनके माथे को छुआ…..
‘माँ, ऐ माँ… मैंने आपकी क़सम झूठी नहीं खाई थी। सच में, मैंने अपना कहानी संग्रह पूरा करलिया था। उसका नाम त्रासदी रखा था। और उसके पहले पनने पर ही मैंने लिखा था.... आप केलिए। अरे आप तो ये कसम-वसम मानती भी नहीं हो फिर क्या मतलब है इसका। चलो उठो।माँ’
तभी मुझे रोने की आवाज़ आई। मैंने देखा, सोनी जी दरवाज़े से टिककर रो रहे थे। सुधीर अर्थीका सामान ले आया। उसके साथ दो लोग और थे। शायद वो उसके दोस्त थे। चलो अच्छा है, अब माँ की शव-यात्रा में हम तीन की बजाए पाँच लोग होंगे। इस पूरे गाँव से, सच में, माँ कीशव-यात्रा में बस हम पाँच लोग थे। मेरी नास्तिक माँ।
जब हम शमशान पहुँचे तो उन्हें सूखी लकड़ियों के ऊपर लिटाया गया, उनके ऊपर और लकड़ियाँरखी गई। मुझे लग रहा था कि उन लकड़ियों के बीच एक हरा घना पेड़ लेटा हुआ है। माँ कीचिता के पास ही सोनी जी उकड़ूँ बैठे हुए थे। उनके कंधे उचक रहे थे। वो अभी भी रो रहे थे, वैसेही सुबक सुबककर, किसी बच्चे की तरह। वो कितने कोमल दिखाई दे रहे थे। कोमल, कोपल।कोपल!
सुधीर जलती हुई लकड़ी लेकर मेरे पास आया और कहा,
‘चल चल, माँ को अग्नि देनी है।’
(तभी मैंने देखा एक हवाई जहाज़ हमारे ऊपर से गजरा। मैं उस हवाई जहाज़ को देखता रहा औरमाँ की चिता को। फिर मैंने ख़ुद को देखा।)
इस जलतीं हुई लकड़ी को पकड़े हुए मैं एक सैनिक लग रहा था। मैं वही हो गया था जिसका माँको डर था… कठोर। कितना कठोर था मैं। न, मैं कोपल नहीं था, मैं नहीं था कोपल।
अंत में बहुत मन्नऊव्वल के बाद माँ को अग्नि सोनी जी ने ही दी। उन्हीं का हक़ बनता था।
जब हम घर वापस आए तो सोनी जी ने मुझे एक मोटी सी फाइल दी।
‘ये क्या है सोनी जी?’, मैंने पूछा
‘अरे तू ये नहीं जानता है? तू जो वो सब लिखा करता था न बहुत सारा, देख तेरा माँ ने आज तकउसको कितना सँभालकर रखा है। इसका हर एक पन्ना मैं उसके मुँह से जाने कितनी बार सुनचुका हूँ। और जब वो सुनाती थी तो बाबा कैसे खिलखिलाया करती थी।’
(मैं सोनी जी को मुस्कुराते हुए देखने लगा। फिर मैंने फाइल अपने हाथ में ली।) मैं अपने झूठ कोदेख रहा था। माँ ने मेरे सारे झूठ को कितना सँभालकर रखा था।
पेलाग्या निलोवना, मेरी माँ पेलाग्या निलोवना थी, मैं ही गोर्की नहीं हो पाया था। हमारी माएँ हैंपलाग्या निलोवना पर उनकी कहानियाँ कहीं लिखी ही नहीं गई। उन्हें कहीं दर्ज ही नहीं कियागया। और अगर उन्होंने ख़ुद लिखना चाहा तो उनके पेन तोड़ दिए गए। वह बस अपने पति केजर्जर होने और बच्चों से आती ख़बरों के बीच कहीं अदृश्य-सी बूढ़ी होती रहीं। ये हमारी माएँ थींजो ज़ाया हो गई।
अगले दिन सुबह हम माँ की अस्थियाँ बटोरने पहुँचे। मैंने देखा, सोनी जी राख में माँ को टटोल रहेथे, उसी वक्त मैंने अपनी जेब से एक पन्ना निकाला। मैंने कल रात एक झूठ माँ के लिए लिखाथा। वही झूठ जिसे माँ बहुत पसंद करती थीं। मैं माँ के पास गया, राख को छुआ तो वो अभी भीगर्म थी।
‘माँ, मैंने एक नया झूठ लिखा है आपके लिए, सुनाऊँ….’
धूप, चेहरा जला रही है
परछाई, जूता खा रही है
शरीर, पानी फेंक रहा है
एक दरख़्त, पास आ रहा है
उसके आँचल में मैं पला हूँ
उसकी वात्सल्य की साँस पीकर आज मैं भी हरा हूँ
आप विश्वास नहीं करेंगे,
इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है…..
मैं उस पेड़ को……माँ कहता हूँ।
End...