बुधवार, 19 जून 2024

त्रासदी (नाटक) Solo play ... Manav kaul, Traasadi











                                 aRANYA pRESENTS,

 

 

 

           

                                  त्रासदी...

 

 

 

 

 

                                         

 

 

 

 

                                 Written by- Manav Kaul

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

...

 

मुझे माँओं से बहुत शिकायत है। वो हमारे बचपन मेंअपने लाड़ मेंहमारे ऐसे नाम रख देती हैंकि हमें अपने बड़े होने पर उन घर के अपने नामों को छुपाना पड़ता है। कितने अजीब होते हैं ये नामचिट्टीमिलूटुन्नीछोटूचोटीनाटेभूरीसनी।

मेरे घर का नाम कोपल थाकोपलगाँव में मुझे आज भी सब कोपल ही बुलाते हैं। कोपल कामतलब क्या होता है आप जानते हैं?

मुझे भी नहीं पता था। मुझे याद है एक दिन माँ मुझे स्कूल छोड़ने जा रही थीमैं उनकी उंगली पड़ेहुए चल रहा था। उसी वक़्त मैंने उनसे पूछा था।

माँ ये कोपल का क्या मतलब होता हैमेरे सारे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं कि ये क्या नाम हैकोपलइससे अच्छा तो कपिल रख लेता।’ 

मेरी माँ मुझे एक पेड़ के पास ले गई और कहा, ‘इन पत्तों को छू’, मैं पत्तों को छूने गया तो उन्होंनेकहा कि, ‘नहीं बड़े वाले नहीं वो जो छोटे पत्ते हैं नाजो अभी अभी आए हैंहल्के पीले सेउन्हेंछू’,  मैंने छुआ।

ओहमाँ’, मैं आश्चर्यचकित रह गया।

हाँये कोपल हैंइन्हें कोपल कहते हैं।’ माँ ने कहा

पर ये तो कितने कमजोर हैं माँ।’, मैंने कहा

ये कमजोर नहीं है.. ये कोमल हैंजैसा तू है।’  

पता नहीं क्यों मैंने उस वक्त माँ से कहा था कि,

अगर यह कोमल-से दिखने वाले पत्ते मैं हूँ तो यह पेड़ आप हो।

मैं इस बात को बहुत पहले भूल चुका था।

अब मैं मुंबई में रहता था। यहीं जॉब करता हूँ। गाँव तो जाने कब का छूट चुका था।

 

कल ही की बात थीमैं आफिस था। महीने का अंत चल रहा थातो मेरे सिर पर बहुत काम था।मेरी डेस्क पर फाइलों का ढेर थासिर कंप्यूटर में घुसा पड़ा था। तभी मेरा फोन बजामैंने देखासोनी जी का फोन है। सोनी जीगाँव में हमारे पडोसी थे और मैं इस आदमी तो बिल्कुल भी पसंदनहीं करता था। मैंने फोन उठाया...

हेलोजी बोलिए। हेलोसोनी जीहेलोअरे बोलिए’

बेटा’

हाँअरे सोनी जीसुनाई दे रही है आवाज़बोलिए ना। आपको मेरी आवाज  रही है?

बेटातेरी माँ कल रात अचानक चल बसी हैं। तू जितनी जल्दी हो सके  जा।

(वक्फ़ाचुप्पीलंबी चुप

मैं कहना चाहता था किक्या कह रहे हैं आपक्या हुआ है माँ कोपर मुझे लगा मेरे पूछते ही वोअपना वही वाक्य फिर से दोहराएँगेऔर मैं उस वाक्य को दोबारा नहीं सुनना नहीं चाहता थासोमैंने कहामैंने कहा............ तभी सोनी जी की आवाज़ आई,  

तू है वहाँ... हेलोकोपलहेलो.. बेटा?’

हाँ मैं हूँ... यहाँ

तू बस जल्दी  जा बेटा

हाँ हाँ… Okay.. okay

मैं अपनी डेस्क पर वापस आया और काम करने लगा। बहुत सारा काम था। काम करते करतेलगा कि सब ठीक तो हैमैंने ऑफिस के आपने दोस्तों को देखे वो सब भी मस्ती कर रहे थेमुझेलगा शायद इस बीच कुछ घटा ही नहीं थाकोई फोन नहीं आया था। मैं भी पता नहीं क्या क्यासोचता रहता हूँऐसा थोड़ी हो सकता है। तभीकाम करते-करतेमुझे भीतर कुछखाली-खाली-सा लगने लगा। मैं रुक गया। देर तक अपनी डेस्क को ताकता रहा। मुझे कुछचाहिए थाकुछ है जो मुझे दिख नहीं रहा था। मैं अपनी डेस्क पर चीजें ऊपर नीचे करने करनेलगा। फाइलों में टटोलने लगाटेबल के दराज़ खोलकर ढूँढने लगा। पर मुझे जो चाहिए वो मिलनहीं रहा था। तभी मेरे दोस्त ने मुझे देखा और पूछा कि,

क्या बे.. क्या खोज रहा है?’ 

मैंने उसे देखा और अपने कंधे उचका दिये।

और तुझे इतना पसीना क्यों  रहा है?’, मेरे दोस्त ने पूछा

मैंने देखा मुझे बहुत पसीना  रहा हैइतना पसीना क्यों  रहा हैमेरी आँखें जल रही थीं। मैंनेअपनी बुशर्ट से पसीना पोंछा। मैं अपने दोस्त के पास गया और उससे कहा कि

देख मुझे कहीं बुख़ार तो नहीं है?’

उसने मेरा माथा देखामेरे गले पर हाथ रखा।

नहीं। बुख़ार तो नहीं है।क्या हुआ बे तुझे?’ उसने पूछा,

पता नहीं क्या हुआ मैंने उससे कहा कि

यार मेरी माँ नहीं रही।

और तब पहली बार उसकी आँखों में मैंने वो देखा जिसे मैं इतनी देर से खोज रहा था।

मैं सीधा अपने बॉस के केबिन में गया। उनसे कहा कि

बॉस मुझे छुट्टी चाहिए अभी।

मैंने उन्हें कारण बताया तो उन्होंने कहा किहाँ हाँबिल्कुलएक हफ़्ते की छुट्टी ले लो.. या ऐसाकरो तुम तेरवाँ ख़त्म करके आना.. नहीं नहींमैंने कहामैं एकदो दिन में  जाऊँगा वापस.. मैंइतने दिन क्या करूँगा गाँव में..  वो मुझे आश्चर्य से देखने लगे और उन्होंने कहा कि,

ठीक है’

ठीक है’, मैंने कहा।

मैंने अगले दिन की फ़्लाइट बुक की.. दोपहर की फ़्लाइट सस्ती थी.. और सुबह की बहुतमंहगी…..आजकल फ्लाइट कितनी महंगी हो गई हैंपर मुझे जल्दी जाना था सो,

मैंने सुबह की फ़्लाइट बुक की और मैं घर  गया था।

 

मैं बिल्कुल सुबह का आदमी नहीं हूँ। मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि लोग सुबह-सुबहउठते कैसे हैंक्या करते हैं? bloody morning person. आज मैं सुबह चार बजे से उठा हुआ हूँऔर मुझे समझ ही नहीं  रहा कि क्या करूँमेरी आँखें जल रही थींसिर भारी लग रहा थाऔर पसीना तो देखो कितना  रहा है। ऐसा नहीं हैं मैंने वापस सोने की कोशिश की पर जैसे हीआँखें बंद करता लगता कि कुछ छूट जाएगाकहीं फ्लाइट  छूट जाएइस डर से मैं तुरंत उठकरबैठ जाता। मैं नहा चुका था। आपना पूरा सामान बाँध चुका था पर सुबह होने का नाम ही नहीं लेरही थी। मैं अपने कमरे के चक्कर लगाने लगामुझे लगा चलता रहूँगा तो शायद वक्त जल्दीबीत जाए। तभी अपनी बुक शैल्फ पर मेरी निगाह एक किताब पर गई। क्या हो रहा है आज।आज पहली बार इतनी किताबों के बीच मेरी निगाह उसी एक किताब पर गई थी। मेक्सिम गोर्कीकी मदरपलाग्या निलोवना। गोर्की ने ये किताब अपनी माँ के लिए लिखी थीपलाग्यानिलोवना। जब मैंने इस किताब को पढ़ा थाबहुत पहलेतब मेरे भीतर एक बहुत ही रिरियातीसी इच्छा जागी थी किकाशमेरी माँ भी पलाग्या निलोवना की तरह महान माँ होती। मुझे लगाथा कि उन्होंने मुझे धोखा दिया है। उन्हें महान होना चाहिए थावह हो सकती थींफिर क्यों नहींहुईंएक तो हमारी माएँ महान क्यों नहीं हो पाती हैं

मुझे याद है मैंने कई दिनों तक अपनी माँ से ठीक से बात नहीं की थी। मेरी माँ की समझ ही नहींआया कि मैं क्यों उनसे नाराज़ हूँ। वो पूछतीक्या हुआ?, मैं कहता रहने दोअरे कोपल हुआक्यामैं कहतानाराज़ हूँ बस। उन्हें कभी पता ही नहीं चला कि मैं उनसे नाराज़ क्यों था।

अब लगता है कि मैं कौन सा गोर्की हो गया था।

मैंने घड़ी देखी बज चुके थे। मैंने अपना सामान उठाया और एयरपोर्ट के लिए रिक्शा पकड़लिया। बारिश बहुत हो रही थीसुबह का समय थासड़के खाली थींमैं अपने समय से बहुतपहले ही एयरपोर्ट पहुँच गया था। अपना सामान Check in करने के बाद… जैसे ही मैं एयरपोर्टमे घुसा तो मुझे पता चल गया कि मुझे क्या चाहिए थामुझे लगा कि अगर अभी मुझे एक गर्मकाफी मिल जाए तो ये आखों की जलन और सर का भारीपन सब खत्म हो जाएगा। मैं भाग केएक कैफ़े मे गया और एक गर्मा-गर्म कॉफी ली और अपनी फ्लाइट के गेट पर आकर मैं बैठगया।

मैंने घड़ी देखीअभी तो फ़्लाइट में बहुत टाइम है। लगता है एयरपोर्ट का AC काम नहीं कर रहाथामुझे कितना पसीना  रहा थाआँखें अभी भी जल रही थींसिर भारी लग रहा था। येकॉफी भी फ्राड़ बनाई हैहर काली कड़वी चीज़ कॉफी नहीं होती है।  

मैं बहुत देर से एक औरत को देख रहा था। वो एयरपोर्ट के बाथरूम के पास बहुत देर से खड़ी हुईथी।  वो भीतर जा रही है  ही कहीं औरवो बस वहीं खड़ी हुई थीं। उन्हें पता नहीं था शायदकि महिलाओं का बाथरूम दूसरी तरफ़ है। पता नहीं क्या चक्कर हैकोई उन्हें कुछ बता ही नहींरहा।

मैंने माँ से आखरी बार कब बात की थीअभी तो की थीकुछ दिन पहले। पाँच छे दिन हो गएशायदनहीं।

मैंने अपना फ़ोन निकाला और देखापंद्रह दिन पहले। मैं फ़ोन पर उनका नाम लिखा हुआ देखरहा था। उन्हें फोन कर दूँ अभीक्या दूसरी तरफ़ से उनकी आवाज़ आएगीक्यों नहीं आएगीक्या उनकी आवाज दूसरी तरफ़ से अब कभी नहीं आएगी

मैंने मैसेज मे जाकर उनका आखरी मैसेज देखा

तो क्या लिख रहा है आजकल?’ 

मैंने जवाब में लिखा थाऑफिस में हूँकाम में व्यस्त हूँ… फ़ोन करता हूँ। तीन रुख़े वाक्यमैंनेजान बूझकर लिखे थे। दो साल से मैंने माँ की शक्ल भी नहीं देखी थी। मैं उनसे नाराज़ था… बहुत नाराज़।

क्या आपके साथ भी यही होता हैजब आप किसी नए एयरपोर्ट के बाथरूम के बाहर खड़े होतेहो और आपकी समझ ही नहीं  रहा होता है कि कौन सा पुरुषों का बाथरूम है और कौन सामहिलाओं काहे नापता नहीं आजकल ये लोग कैसे-कैसे डिज़ाइन बना देते हैंकुछ पता हीनहीं चलता। एक बार तो मैं खुद महिलाओं के बाथरूम मे घुसते-घुसते बचा था। वो जो बहुत देरसे बाथरूम के बाहर खड़ी हैं उन्हें भी शायद यही confusion हो रहा है।  

मैंने काफी रखी और उठकर उस औरत के पास उसकी मदद करने गया।

सुनियेआंटीआपका बाथरूम... सुनिये

मैं जैसे ही उनके पास पहुँचामुझे उनके पास से एक ख़ुशबू आई… मैं इस ख़ुशबू को पहचानताथा… ये ख़ुशबू तो मेरी माँ की ख़ुश्बू थी ये उनके पास से कैसे  सकती थीये सिर्फ़ मेरी माँ केपास से आती थीये मेरी माँ की खुश्बू थी।

असल में मेरी माँ बहुत काम करती थीवो मेनबोर्ड स्कूल में टीचर थीं। उनकी तनख़्वाह कुछ सातसौ रुपय थी। टीचरी खत्म करके वो घर आकर कुछ ट्यूशन कर लेती थी जिससे ऊपर का कुछपैसा उन्हें मिल जाता थाडेढ़ सो-दो सौ रुपये। फिर वो घर का सारा काम निपटाकर जब मेरेपास आती थीं तो मैं उन्हें देखते ही  उनसे चिपक जाता। वो कहती,

छीक्या कर रहा हैदूर हटहटमैं एकदम पसीने पसीने हूँ। पहले मुझे नहा तो लेने दे।

नहीं मुझे अपकी ये ख़ुशबू बहुत पसंद है।’, मैं कहता

ख़ुशबू..ये ख़ुशबू है?’ वो आश्चर्य से पूछती।

हाँमाँ बताओ ना ये क्या ख़ुशबू है?’

हटहटदूर हट.... बेटा ये थकान हैमैं थक जाती हूँ

मैं मुँह बना देता तो वो प्यार से कहती कि, ‘अच्छा मुँह मत बनाये थकान की ख़ुश्बू हैबस

थकान की ख़ुशबूमुझे लगता था ये थकान की ख़ुशबू सिर्फ़ मेरी माँ के पास से आती है। पर येतो उनके पास से भी  रही थी।

जब रात में मुझे नींद नहीं आती थी तो मैं अपनी माँ के बिस्तर में घुस जाता था और उनके आंचलको पकड़कर कुछ गहरी साँसें लेताऔर मुझे इतनी अच्छी नींद आती थी। आह!

मेरी माँ जितना ज़्यादा थकती थीं मैं उतनी गहरी नींद सोता था।

मैं एक बार और वो थकान वाली खुशबू सूंघ लेना चाहता था।

मैं धीरे से उनके पास गया। अपनी आँखें बंद करके जैसे ही मैंने एक तेज़ ख़ुशबू भीतर जी खींचीतो वो पलट गई।

नमस्ते… अरेमाँ..आप यहाँ क्या कर रही हो माँमाँ मैं कोपल,  अरेक्या हुआमाँमाँ मैंअब आपसे नाराज़ नहीं हूँ… मैं था नाराज़.. पर अभी.. मैं ख़ुद आपको फ़ोन करने वाला था। माँकहाँ जा रही होआपको बाथरूम जाना है नावो उधर हैआप फिर ग़लत जा रही हैं। चलोचलोअरे चिल्ला क्यों रही हो… चलोमाँजिद्दी कहीं-कीचलो। आप जाइये ना बाथरूममैं हूँयहाँलाइये आपका बेग मुझे दीजिए.. दीजिए..  दीजिए बेग’  

तभी मैंने देखा हमारे आस-पास कुछ लोग जमा हो गए हैं। उसी वक़्त एक आवाज़ आई,

ओएक्या बात कर रहा है मेरी माँ से?’

 भाई सुन...

अरेमैं बेटा नहीं थाबेटा तो वो था। मेरे हाथ में उस औरत का बेग था.. मैंने वो बेग तुरंत उन्हेंवापस कर दिया और जल्दी में मैंने भीड़ से कहा कि,

‘Sorry Sorry, मुझे पता नहीं आज क्या हो रहा हैअसल में आज मेरी माँ……

पर तब तक देर हो चुकी थी। लोग मुझे धक्का देने लगेकुछ थप्पड़ भी पड़े.. मैं गिर पड़ा.. औरफिर वही हुआ जो भीड़ एक आदमी के साथ करती है।

कुछ देर में लड़खड़ातेसंभलते मैं वापस अपनी जगह  कर बैठ गया था।

पता नहीं क्यों पर मार खाकर मुझे बहुत अच्छा लगासच में। मेरी आँखों में अभी भी जलन थीपसीना अभी भी  रहा था पर मार खाने के बाद मेरा सिर का जो भारीपन था ना वो ख़त्म होचुका था। वाहपिटने के अपने फायदे भी हैं।  

तभी हमारी फ़्लाइट एनाऊंस हुई और मैं तुरंत जाकर लाइन में लग गया।

तो क्या लिख रहा है आजकलमाँ हमेशा पूछती थीं।

असल मेंमेरी माँ शिद्दत से लेखक हो जाना चाहती थी। पर मेरे पिता को ये बात मंजूर नहीं थी।मेरी माँ लिखना चाहती थीइसलिए मेरे पिता को कहीं भी घर मे पेन दिखता तो वो तोड़ देते।मुझे मेरे पिता बहुत कम ही याद हैं। मैं बहुत छोटा था जब वो चल बसे थे। पर मेरी माँजब भीमेरे पिताजी के बारे में बात करती थीं तो मुझे लगता था कि मेरे पिता असल में एक सैनिक हैंजिनका काम था मेरी माँ पर पहरा देना। मेरे पिताजी जब तक जीवित थे उन्होंने माँ पर कड़कपहरा दिया था, like a true solder मेरी माँ बहुत सुंदर थींताँबई रंगदुबला-पतला लंबा क़दघने बालइसलिए पिताजी काम पर जाने के पहले घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकरजाते थे।

मैं अपने बाप से बहुत चिढ़ता था। क्रूर आदमी साला। कोई आदमी इतना क्रूर कैसे हो सकता हैमाँ बताती हैं कि उसी क्रूरता के बीच कहीं मैं पैदा हुआ था और माँ ने सालों बाद कोमलता कोछुआ थाइसलिए उन्होंने मेरा नाम कोंपल रखा था। वो कहती थीं किसुन तू कोपल हैहमेशाकोमल ही रहना। अब ये नाम मुझे बहुत अच्छा लगता है... कोपल।

फिर जब पिताजी नहीं रहे तो मुझे लगा माँ अब खूब लिखेंगी.. पर ऐसा हुआ नहीं। मुझे बहुतअजीब लगा तो मैं एक दिन माँ के पास गया और उनसे कहा,

माँ आप क्या ये कोरे पन्नों से सामने पेन से खेलती रहती होआप लिखती क्यों नहीं होलिखोआपको जो लिखना हैआपको पूरी आज़ादी है।

तो वो कहती, ‘इतना आसान हैं क्या?, मेरे भीतर कई सालों का ग़ुस्सा भरा है बेटाऔर गुस्साआदमी को कठोर बना देता है... मैं ग़ुस्सा नहीं लिखना चाहती हूँ। मैं कुछ अच्छा लिखना चाहतीहूँ।

मेरी माँ एक शब्द भी नहीं लिख पाई थींइतना गुस्सा भरा था उनके भीतर। पर वो बहुत पढ़तीथींहाँबाप रेवो हमेशा किताबों से घिरी रहती थीं।

और एक मैं था उनका गधा-बच्चाजिसे पूरी आज़ादी थी पर मुझे  तो लिखना अच्छा लगता थाऔर  ही पढ़ना। मुझे तो समझ ही नहीं आता था कि इतनी मोटी मोटी किताबें लोग पढ़ते क्योंहैंमैं तो किताबों का इस्तेमाल करता था सो जाने के लिए। मुझे लगता कि ये किताबें नहीं हैंयेनींद की गोलियाँ हैंमुँह में डालते ही क्या गजब की नींद आती थी। खाओ और टप से सो जाओ।

पर मेरी माँ जिद्दी थींवो हर रात एक किताब मेरे सिरहाने रख दिया करती थी और कहती कि

ऐसे नहींहमेशा पढ़कर ही सोना’ 

ठीक है माँपढ़कर ही सोऊँगा

मैं किताब खोलता और पहला पन्ना तो क्या ज़रज़राते हुए पढ़ जातापर दूसरे पन्ने पर आते हीलगता कि किसी ने मेरी पलकों पर ये बड़े बड़े पत्थर रख दिए हैं। मैं पूरी ताकत लगाता कियारएक वाक्यकुछ शब्द तो पढ़ लेने देपर क्या मजाल हैं कि आँखें खुली रहें। वो पट से बंद होजाती और मैं खर्राटे लेने लगता।

सुबह-सुबह माँ  जाती,

तो सुनाओ वो कहानी जो रात में पढ़ी थी?’ 

मैं कहताठीक है माँ,  मैं पहला पन्ना तो क्या ज़रज़राते हुए सुनाता और दूसरे पन्ने पर आते ही मैंएक झूठ शुरु कर देताफिर उस झूठ को जैसे-कैसे घुमा फिराकर अपनी कहानी पूरी कर देताऔर मैं देखता कि माँ को मज़ा  गया है। ये क्या चीटिंग हैंअरेजब माँ को मेरे झूठ पर हीमज़ा  जा रहा है तो पढ़ना ही क्यों?  मैंने तुरंत पढ़ना कर दिया बंदअब मैं बढ़िया चादरतानकर सोतासुबह एक अंगड़ाई लेकर उठता और माँ के सामने एक पूरी झूठी कहानी बनाकरसुना देता। माँ हंस हंस के लोट-पोट हो जाती। मेरी माँ क्या हंसती थींनहींनहीं वो हंसती नहींथी वोकुछ लोग होते है  जो हंसते नहीं है... वो.. वो.. हाँ.. वो खिलखिलाती थीं... मेरी माँखिलखिलाती थीं।

फिर एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया,

कोपल’, भारी आवाज़ में

क्या माँ?’

इधर इधर इधर 

माँ जब भी मुझे ऐसे बुलाती थीं मैं समझ जाता था कि मुझसे कुछ बड़ी गड़बड़ी हुई है।

क्या हुआ माँ?’ 

सुनतू जो मुझे कहानियाँ सुनाता है ,’

हाँ

तू उन्हें लिख दिया कर।

अरेमाँबड़ी मुश्किल से रात में जाग जागकर मैं वो कहानियाँ पढ़ता हूँउन्हें लिखना क्योंवोतो पहले से ही किताबों में लिखी हुई हैं नाउन्हें फिर से क्यों लिखना?’  

चल झूठेमैं जानती नहीं हूँ क्याकिताबों की कहानियाँ अलग हैं और जो तू सुनाता है वो अलगसुन नामैं तुझे पढ़ना चाहती हूँतू लिख दिया कर ना।

कितनी तेज़ औरत हैं ये... चालाक। मतलब इन्हें शुरु से पता था कि मैं झूठ बोल रहा हूँपरबताया नहीं इन्होंनेबस मेरे मज़े ले रही थीं।  

माँआप तो एकदम....

क्या है?’

‘Sorry, अब आपको तो पता चल गया है कि ये सब झूठ हैइस झूठ को क्या लिखना?’

ये झूठ नहीं है’

माँ झूठ है

नहीं है बेटा

माँ मैं कह रहा हूँ कि सारा का सारा झूठ बोलता हूँ

ये झूठ नहीं है ये तेरी कल्पना है… और ऐसे ही तो सब लिखते हैं।

क्या मतलबतो क्या ये किताबों में झूठ-झूठ लिखा हुआ है?’, मैंने उनसे पूछा था।

हाँझूठकल्पनाएक ही बात है।

मेरे दिमाग़ में हो गया विस्फोट। मतलब आप समझ रहे हैं कि आपको अचानक पता चले कि इसदुनियाँ में जितनी किताबें है उसमें सब झूठ-झूठ लिखा हुआ है। भाई साबतो क्या सब लोग झूठपेल रहे हैं। अगर सब लोग झूठ ही पेल रहे हैं तो मैं तो क्या गजब झूठ बोलता हूँमैं तो पैदाइशीझूठा आदमी हूँ। फिर क्या थामैं रोज़ सुबह उठता और एक बढ़िया झूठी कहानी माँ कोलिखकर देता और माँ मेरा झूठ पढ़ती और खुश हो जाती। कितनी सही सेटिंग हो गई थी ये। नींदकी नींदकहानी की कहानी और किताबों से छुटकारा।

पर मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब माँ के पैंतरे में फँस गया था। सोचिए मुझ जैसा गधा बच्चाइस झूठ-मूठ के चक्कर में लिखने लगा था। मैं लिखता ही चला गया थाअपनी माँ के लिए।

 

आपको पता है मुझे विंडो सीट मिली थी प्लेन में,  मुझे अचानक से विंडो सीट का मिलना किसीचमत्कार से कम नहीं लगता हैछोटे सुखद आश्चर्य जैसा कुछ। मुझे हवाई जहाज़ शुरु से हीबहुत पसंद थे। अरे मेरा छोड़िए मेरी माँ तो हवाई जहाज़ के पीछे पागल थी।

गाँव मेंहमारे घर के ऊपर से जब भी हवाई जहाज़ गुजरता तो मैं और माँ दोनों घर से बाहर जाते और आश्चर्य से उसे देखते। माँ के मुँह से निकलता… बेटाहाईजाज... फिर हम उसे टाटाकरते,  टाटा टाटा टाटा टाटा टाटाजब तक वो आँखों से ओझल नहीं हो जाता हम टाटा करतेरहते।

कोपल’, माँ कहती

क्या माँ?

बेटा हाईजाज का दिखना बहुत शुभ होता है।

हैं!

हाँये ले एक रूपये.. जा पेड़े ले आ।

हवाई जहाज़ दिखने पर हमारे यहाँ पेड़े आते थे। पर हम ज़्यादा पेड़े खा नहीं पाते थेक्योंकि उसवक्त हमारे घर के ऊपर से महीने दो महीनों में एक-आध हवाईजहाज़ बमुश्किल गुजरता था।फिर पता नहीं क्या हुआमेरे बड़े होते होतेहमारे घर के ऊपर से हवाई जहाज़ के गुजरने कीतादाद बढ़ने लगी। पेड़े बहुत महँगे थेहम बताशों पर  गए। और कभी कभी तो हमारे गाँव सेएक ही दिन में दो हवाई जहाज़ गुज़र जाते। भाईबताशे भी तो पूरे महीने चलाने होते थे। ऐसाथोड़ी हर हवाई जहाज़ पर एक बताशा मुँह में रख लिया। इतने पैसे थोड़ी थे। ये दो हवाई जहाजोंके चक्कर में हम फंस गए थे तभी माँ को एक तरकीब सूझी। अब हमारे घर के ऊपर से जैसे हीदूसरा हवाई जहाज़ गुजरता मैं और मेरी माँ ऐसा बिहेव करते कि... हमममममम... हमें तो कुछसुनाई नहीं दे रहापता नहीं क्या आवाज़  रही है ऊपर से। मैं पूछता माँ सेकुछ हो रहा हैक्यामाँ तुरंत कहती किपीछे से कोई टेक्टर जा रहा है शायद। हम सुनते ही नहीं।

अरेये तरकीब बहुत काम आई। मैंने बताया था ना कि मेरी माँ को सात सौ रुपये तनख्वाहमिलती थीजैसे ही एक तारीख़ को माँ को तनख्वाह मिलती वो  सारे पैसों को लाकर सीधाभगवान की अलमारी में रख देती थीं और फिर मुझसे कहती कि,

कोपलबस बहुत हुआइस बार इन पैसों को पूरा महीना चलाना हैंचाहे कुछ भी हो जाए

मैं कहता, ‘ठीक है माँएकदममहीने की आखरी तारीख़ तक ये चलाएँगे’,

क्या ख़ाक चलाएँगेवो पैसे हर बार की तरहबीस से पच्चीस तारीख़ के आस पास कहीं अपनादम तोड़ देते। और महीने का आख़री हफ़्ता हम ऐसे गुज़ारते मानो हमारे घर के ऊपर से गड़गड़ाताहुआ दुखों भरा दूसरा हवाई जहाज़ हुआ गुजर रहा होगड़गड़गड़दुख ही दुखगड़गड़गड़दुखही दुखगड़गड़गड़दुख ही दुखऔर तब ये तरकीब काम आती। हम उस दुख को देखते ही नहींहम उसे सुनते ही नहीं। महीने के आख़री हफ़्ते का दुख यूँ आताहम उसे पीठ दिखा देते और यूवो दुखबिना दिखे गुजर जाता। और फिर ख़ुशियों भरी एक तारीख़ आती और भगवान कीअलमारी वापस पैसे  जाते। माँ आपने बालों में हाथ फेरते हुए कहती किबेटादुखों को अगरदेखो नहीं तो वो असल में हैं ही नहीं।   

एक दिन मैंने माँ से पूछा

माँ’, उन्हीं की तरह गंभीर आवाज में

क्या है?’ 

इधर आओइधर आओइधर आओ’

एक दूंगी रख कर’

अरे ऐसे ही पूछना था कुछ’ 

पूछ?’

गंभीर सवाल है।

गंभीर सवाल मुझे अच्छे लगते हैं।

अच्छा तो ये सुनोमाँ हम इसे भगवान की अलमारी क्यों कहते हैंइसमें भगवान तो है नहीं।ख़ाली पड़ी है अलमारी।

क्योंकि ये भगवान तेरे बाप के साथ चले गए

हैंबस ऐसे उठे और चले गए?’

हाँमैं तो नास्तिक हूँ ना।’ 

छी.. क्याआप नास्तिक हो?’

हाँ।

अरेमाएँ कहाँ नास्तिक होती हैंकौन सी माँ नास्तिक है। ये क्या हो रहा है मेरे घर में।

नहीं माँ।

हाँमैं नास्तिक हूँ।

पर मैं नहीं हूँ

मैंने तुरंत ऊपर देखकर भगवान से कहा किमैं नहीं हूँबस ये ही हैंइनकी बातों में मत आनाअपनी सेटिंग एकदम सही चल रही है।

तभी माँ ने कहाँ कि, ‘तू भी नास्तिक है।’ 

माँपाप लगेगाक्या कह रही हो। मैं नहीं हूँ।

हम सब इस दुनिया में ज़्यादा नास्तिक हैं कम आस्तिक हैं।’ 

क्या!

हाँदेख इस दुनिया में लगभग दस धर्म है। है ना?’

हाँ

उसमें से नौ तो तू नहीं मानता हैबस एक मानता है हैं ?’

हाँ

तो उन नौ धर्मों के लिए तो हम सब नास्तिक हुए न। मैं तो बस एक और धर्म नहीं मानती हूँ।

अब कर लो इनसे बात। देखा कैसे घुमाती है बातों को। पर मैं भी कोपल हूँ ऐसे हारने वाला नहींथा। मैंने पूछा,

तो… तो इसका क्या मतलब… आप कह रही हो कि मैं भागवान को नहीं मानूँ। नहीं मानूँ?’ 

तुम तो मानोगे

,... रुकोरुकोरुको मैं क्यों मानूँगा?’

क्योंकि तुम पुरूष हो।

छीनहींमाँ में आपका बेटा हूँ। मैं कोई पुरुष-वुरुष नहीं हूँ।

अरे गधेमेरे बेटे होने पर साथ साथ तू पुरुष भी तो हैऔर हर धर्म में मुख्य भूमिका तो पुरुषों कीही है… तो वो तो मानेंगे। मेरी तो आज तक समझ नहीं आया कि ये औरतें क्यों मानती हैं धर्मकोक्योंकि उनका तो हर धर्म में सपोर्टिंग रोल है अब मैं नहीं कर सकती ये सपोर्टिंग रोल।मेरा अब कहीं भी सपोर्टिंग रोल नहीं है। मेरे जीवन में मेरी भूमिका मुख्य है।

पता नहीं क्यों मुझे ये बात बहुत बुरी लग रही थी। मैंने पूछा

और मैंमैं कहा हूँ आपके जीवन में?’

तुम अहम किरदार हो।’ 

अहममैं मुख्य नहीं हूँ। मैं आपका इकलौता बेटाआपके जीवन में मुख्य नहीं है?’

मुख्य तो कोई नहीं हैमैं मेरे जीवन में मुख्य हूँजैसे तुम्हारे जीवन में तुम।

माँ एकदम सहजता से ये सब कह रही थीं और मेरी आँखों में एकदम कोने कोने तक आँसू जमाहो गए थे। पर मैंने ख़ुद से कहा किनहीं कोपल नहींरोना नहीं है। एक नास्तिक के सामने तो हमेंकभी नहीं रोना है।

माँ मैं आपके सामने तो आंसू की एक बूंद नहीं गिराऊँगा कभी

मैं सीधा अपने पक्के दोस्त सुधीर के घर चला गया था।

सुधीरसुधीर’, मैंने उसे आवाज़ लगाईवो मेरे एकदम पक्का दोस्त थाबचपन सेबहुत हीअच्छा लड़का है।

सुधीर नीचे आ।’ जैसे ही वो नीचे आया मैंने उससे कहा कि,

चल,  मुझे तुझसे ज़रूरी बात करनी हैहनुमान मंदिर चलते हैं।

हम दोनों हनुमान मंदिर के चबूतरे पर जाकर बैठ गए। मैंने सुधीर को सब कुछ बतायाआप लोगोंको वहाँ होना थातो आप देखते कि क्या ग़ुस्सा हुआ था सुधीर। उसकी आँखें लाल हो गई थींऔर चेहरा पीला। मैंने कहा

क्या बात है यार सुधीरबहुत सही गुस्सा होता है यार तू तो।

हाँ यार कोपल भईतेरे घर तो यार बड़ी ट्रेजडी हो गई है यार।’ 

तभी मेरी इच्छा हुई किबजरंगबली से जाकर माँ की शिकायत कर दूँ क्यापर फिर लगा किबजरंगबली एक नास्तिक का क्या उखाड़ लेंगे?  तभी सुधीर बोला

कोपल यार तेरे लिए तो बहुत ही बेड फीलिंग्स हो रही है यार।

हे ना।

और यार कोपलएक माँ जो होती है वो तो यारअपने बच्चे के ऊपरअपना पूरा का पूराजीवन न्योछावर कर देती है और चूँ तक नहीं करती। चूँ भी नहीं करती है माँ भाईऔर बता एकतेरी माँ हैंकैसे निकली यारये तो सही नहीं है।

हाँ यार कैसी निकल गई माँ यार’ 

और भाई नास्तिक… यार कुछ भी चल रहा है तेरे घर मेंनास्तिक-पास्तिकछी… क्या मतलबहैमाँ होके नास्तिक.. छी छी छी।

छी छी छी।

मैंने भी उसकी छी में अपनी छी मिला दी। तभी मैंने देखा कि सुधीर उठकर खड़ा हो गया और मेरेसामने ग़ुस्से में चक्कर काटने लगा। क्या बात है मतलब पक्का दोस्त हो तो ऐसेवो मेरी बात परमुझसे भी ज्यादा गुस्सा था। मैंने कहा,

सुधीर भाई लब यू। क्या बात है सुधीरबहुत ही सहीएकदम पक्का दोस्त है यार तू मेरागजबभाई।

कोपल भाईतेरे से एक बात कहनी थी।

बोल ना भाई।

अब तूने ही अपनी माँ की बात छेड़ी है इसीलिए बता रिया हूँ,  अगर तुझे बुरा  लगे तो।’ 

यार मेरी माँ नास्तिक हैं…. इससे बुरा क्या हो सकता है भई।

सही कह रहा है।

बोल भई।

यार कोपल भाईतेरी माँ के बारे में गाँव वाले बहुत ही गंदी गंदी बातें करते हैं यार।’ 

क्या मतलब।’ 

कहते हैं यारकि तेरे घर में कोई भी  जा रहा होता है’   

अरेकौन आता हैगुप्ता जी आते हैं… अवस्थी जी आते हैं… सोनी जी… जानता तो है तूसबको।’ 

हाँ पर वो तो सब अकेले आते हैं… वो अपनी लुगाईयों के साथ थोड़ी आते हैं’

लुगाई?’

अरे मतलबबीबियों के साथ थोड़ी आते है। और यारग्यारह बजेबारह बजे रात तक हंसी ठट्ठेकी आवाज़ें तेरे घर से  रही होती है यार।

अरे पगलेपर वो आवाज़ें तो इसलिए आती है कि हमारे घर के खिड़की दरवाज़े हमेशा खुलेरहते हैं।’ 

तूने तो कहा था कि तू तो सो जाता है जल्दीतो तुझे क्या पता खिड़की दरवाज़े कब तक खुलेरहते है और कब बंद हो जाते हैं।

क्या मतलब है सुधीरकुत्ते।क्या कहना चाह रहा है तू?’

अरे वाह भाईअभी लब यूअभी सीधा कुत्ते पर  गया। वाहयार मैं थोड़ी के रिया हूँ… ये तोगाँव में लोग कह रहे हैं कितेरी माँ बहुत गुलछर्रे उड़ाती है।

गुलछर्रेहनुमान मंदिर के उस चबूतरे पर मैंने पहली बार ये शब्द सुना था। आज भी मैं कभीगुलछर्रे शब्द सुनता हूँ तो माँ का चेहरा मेरी आँखों के सामने कौंध जाता है। गुलछर्रेये शब्द सचमें कितना क्रूर है। मैं उस दिन हनुमान मंदिर पर बैठ नहीं पाया था। मैंने अपने घर की तरफ दौड़लगा थी। मैं सीधा अपनी माँ के पास पहुँचा और कहा....  पर क्या कहूँ?  कौन सा शब्दवो कौनसे वाक्य हैंइस किस्म के संवाद केहमारे पासशब्द ही नहीं थेवो वाक्य बने ही नहीं थे। मैंकुछ नहीं कह पाया था। मैं बस उनके अगल बगल मंडराता रहा। इसमें हफ्तों महीनों गुजर गएथे। पर मैं उनसे कुछ कह ही नहीं पाया था। बस मेरा गुस्सा बढ़ता रहा था। एक दिन मुझे लगाकि गुस्से में मेरा सिर फट जाएगा। जब मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं एक दिन सीधा घर पहुँचाऔर माँ को मैंने आवाज़ लगाई

माँइधर आओयहाँ आओमुझे आपसे जरूरी बात करनी हैंअभीआप बाहर आओ।

मैं चीखने लगा थामाँ बाहर आई और उन्हें कहा,

क्या हुआ.. बोल बेटा

माँ मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि.....

मैं लड़खड़ाने लगा था। पर मुझे आज माँ से बात करनी ही थीमैंने पूछा...

माँ आप… आप… आप.. माँ… आप… आप इतनी सुंदर क्यों होक्यों हो आप इतनी सुंदरआप बाक़ी माँओं जैसी माँ क्यों नहीं होजैसी बाक़ी माँए हैं गाँव मेंआपने सुधीर की माँ कोदेखा हैबंटी कीराजू-छोटू कीसलीम की… आपने पिंकी की माँ को देखा हैकैसी दिखती हैंवोऔर आप खुद को देखो कैसी दिखती हो... देखो...  सुंदर कहीं की।

कुछ देर में माँ मेरे पास आई और उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा

मैं समझती हूँ बेटा पर मैं क्या करूँ तू बतातू ही बोल क्या करूँ मैं?’

मैं रोने लगा था।

मुझे नहीं पता क्या करना है क्या नहीं करना है। और आप ये स्लीव-लेस वाला ब्लाउज़ क्योंपहनती होजानबूझकर ताकि आपके पूरे कंधे दिखेंहै नाऔर मैंने देखा है जब आप स्कूलजाती हो तो जान बूझकर साड़ी भी ऐसे पहनती तो ताकी आपका पूरा पेट दिखता रहेमैं जानतानहीं हूँ क्याऔर आपको क्या लगता है मैं रात में सो जाता हूँ। नहीं माँ मैं सब सुन रहा होता हूँसब दिखता है मुझे... आप.. आप जो भी...

कोंपल!….’ माँ चीख़ पड़ी, ‘चुप हो जा बेटाचुप हो जा..

माँ की आँखों मे डर था। मुझे लगा उन्होंने कोई भूत देख लिया हो। मैंने पूछा,

माँक्या हुआमाँ’ 

माँ ने कहा कि,

तू सुन रहा है खुद कोतू कितना अपने बाप जैसा सुनाई देने लगा है

एक ही आदमी तो था जिससे मैं चिढ़ता था... मेरा बाप.. मैं उसके जैसा नहीं होना चाहता थाकभी भी नहीं।

फिर इस विषय पर मैंने अपनी माँ से कभी कोई भी बात नहीं की। माँ को पता था कि मैं बहुतनाराज़ हूँ उनसे ,  उनके जीवन में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आया। घर में वैसे ही हसीं ठट्ठे कामाहौल बना रहालोगों का आना जाना लगा रहा। मैंने सोचावाह माँ क्या बात है आपको कोईफर्क ही नहीं पड़ता है।

एक दिन मैंने देखामाँ पूरी बाँह का ब्लाउज़ पहनकर स्कूल जा रही हैं। मैं तुरंत घर भागा औरउनके सारे स्लीव-लेस ब्लाउज़ उठाए और घर से दूर जाकर एक कूड़ेदान में फेंक दिए। अब पताचलेगा माँ को कोपल से पंगा लेने का मतलब। माँ शाम को घर आई और उन्हें एक भी ब्लाउज़नहीं दिखा। अब बोलोअब बोलो। पर माँ ने मुझसे कुछ नहीं कहा। जैसे मैंने कुछ किया ही नहींहो। ये क्या है?

फिर मैंने देखा माँ एक दिन नया स्लीव-लेस ब्लाउज़ पहने हुए हैं। वाहमौक़ा मिलते ही मैंने उसब्लाउज़ को कूड़े दान में फेंक दिया। ब्लाउज़ कहाँ ग़ायब हो रहें हैये  कभी माँ पूछती और नएब्लाउज़ के दिखने पर मैं भी चुप रहता। अजीब सा मूक युद्ध चलने लगा था हमारे बीचकोईकिसी से कुछ बोल नहीं रहा था और कोई भी हार मानने को राज़ी नहीं था।  वो और  ही मैं। मैंजब तक गाँव में रहा ये युद्ध कभी ख़त्म नहीं हुआ था।

युद्धहिंसा आदमी को जल्दी बड़ा कर देती हैमाँ कहती थीं। लड़ते-लड़ते मुझे पता ही नहीं चलाकब मैं बड़ा हो गया था।। मेरी अजीब सी छतरी-छतरी दाड़ी मूँछ उग आई थीं।

फिर एक अच्छी खबर आई। मेरा जॉब लग गया मुंबई में। गाँव में सबने कहा किअरे कोपल है उसका जॉब लग गया है बंबई में। घर में पेड़े आएबहुत सारे पेड़े। मैंने कुछ ज़्यादा ही खा लिएऔर मेरा पेट ख़राब हो गया। अच्छी चीज ज़्यादा मिल जाए तो पचती नहीं है।

फिर मुझे लगा ये कितना अच्छा मौक़ा हैमाँ को फँसाने का। इससे माँ नहीं बच सकती थीं।

मैं सीधा माँ के पास गया और कहा,

माँ क्या रखा है इस गाँव मेंयहाँ फालतू के लोगफालतू की बातें करते रहते हैं।  बंबई ग़ज़बशहर है। वहाँ किसी से किसी को कोई मतलब ही नहीं है। चलो माँ अब से हम दोनों वहीं रहेंगे।वहाँ आपको जैसे रहना है रहोजो कहना है वो करोखुली छूट है आपको।

माँ ने कहा कि, ’तू बंबई जातेरे को वहाँ जैसे रहना है रहजो करना है करखुली छूट हो तेरे कोमैं तो यहाँ वैसे ही रह रही हूँ जैसा मुझे रहना है।

माँ कभी तो मेरी बात सुनो… लोग क्या कहेंगे कि जैसे ही मुझे बंबई में जॉब मिला मैं अपनी माँको अकेला छोड़कर भाग गया।’ 

तो उन लोगों को कहना कि तेरी माँ विकलांग नहीं हैउसके हाथ पैर सही चलते हैंउन्हें ज़िंदारहने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं है।’ 

मेरी माँ मेरी बातों में नहीं फँसी। ज़िद्दी औरत है अब क्या बताऊँ।

ठीक है रहोजैसे रहना है आपकोपर कम से कम आप ये गुल…… आप ये स्लीव-लेसब्लाउज़ पहनना तो बंद कर दोप्लीज़।

माँ मेरी तरफ़ मुसकुरा के देखने लगी। मुझे लगा उन्हें पता चल गया है मैं उनसे क्या कहना चाहताथा। वो मेरे पास आई और उन्होंने कहा

ठीक है बेटाछोड़ दियाअब सेतेरे लिएमैं कभी नहीं पहनूँगी ये स्लीव-लेस ब्लाउज़… कभीभी नहीं। खुश है तूखुश है?’ 

मैं उन्हें देखता रहा फिर मैंने हाँ में सिर हिला दिया। माँ ने कहा,

पर तुझे भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।

बोलो माँ।

तुझे अपना कहानी संग्रह पूरा करना पड़ेगा।

चोरचोरी चोरी मेरी कहानियाँ पढ़ रही थीं। आपको कैसे पता कि मैं लिख रहा हूँ।

तेरी माँ हूँइतनी चोरी का तो हक़ है मुझेक़सम का कि तू अपना कहानी संग्रह पूरा करेगाखाक़सम।

मुझे अच्छी तरह याद है वो दोपहर का वक़्त था। माँ आँगन में खड़ी थीं। उनके पीछे एक हरा घनापेड़ था। तब मैंने अपनी माँ के सिर पर हाथ रखकर क़सम खाई थी कि, ‘माँ मुझे आपकी क़समहैमैं अपना कहनी संग्रह ज़रूर पूरा करूँगा।

बंबई आते ही मैं काम में बुरी तरह व्यस्त हो गया था। नया जॉब थाबहुत काम करना पड़ रहाथा। उसी वक्त से माँ की तबियत भी खराब रहने लगी थी। उन्हें खांसी के दौरे पड़ते थे। पर हरबार फोन आते ही उनका पहला सवाल वही होता किक्या लिख रहा है आजकल। मैंने उनकोनहीं बताया था कि अपनी सारी व्यस्तता के बावजूदमैंने अपना कहानी संग्रह पूरा कर लिया था।मैंने उसका नाम त्रासदी रखा था। उस कहानी संग्रह के पहले पृष्ठ पर ही मैंने लिखा था… माँ केलिए। मुझे लगा जब से कहानी संग्रह प्रकाशित होगा तो मैं उसकी पहली प्रति लेकर सीधा गाँवजाऊँगा और इसे माँ की गोदी में रख दूँगा और कहूँगा किदेखोनहीं ऐसे नहींपहले पहला पन्नाखोलोदेखा क्या लिखा है….. आपके लिए….. सरप्राइज़।

 

हमारा प्लेन समय पर उतरा था। मेरा गाँव एयरपोर्ट से करीब सत्तर किलोमीटर दूर था। मुझे अभीभी पसीना  रहा थाआँखें जल रही थीपर मार का असर इतना कमाल था कि मेरा सर अभीतक हल्का बना हुआ था। मैंने एक टैक्सी की और गाँव की तरफ चल दिया। मैं अपने गाँवआख़री बार दो साल पहले आया थावो मेरी माँ से आखिरी मुलाकात थी। दो साल पहलेकितना असहनीय दिन था वो...

 

मुझे अभी भी याद हैमैं ऑफिस में था जब मुझे सुधीर का फ़ोन आया था। मेरे फोन उठाते हीउसने कहा कि..

यार कोपलकैसे यार तूने इजाज़त दे दी?’ 

क्या इजाज़त दे दी मैंने?’

अरे यार ये सही थोड़ी हैकैसे सोनी जी तेरी माँ के साथ रह सकते हैं?’

क्याकौन साथ रहने लगा हैक्या बोल रहा है?’ 

 भाईतेरे को नहीं पता?’ 

नहीं

अरे भाई साबसोनी जी तेरी माँ के साथ रहने लगे हैं। तेरे ही घर में। मुझे लगा तूने कहा होगासोनी जी को कि माँ का ख़्याल रखनादवाई अस्पताल देख लेनापर यार वो तो साथ ही रहनेलगे हैं। गाँव में कैसी-कैसी बातें हो रही है और तेरे को कुछ पता ही नहीं है। यार सब कह रहे हैंकि…’

सुधीर लगातार बोले जा रहा था। पर मुझे सिर्फ एक ही वाक्य सुनाई दे रहा था किमाँ अबखुलम-खुल्ला गुलछर्रे उड़ाने लगी हैं।  मैं उनके जीवन में मुख्य नहीं हूँ मैं जानता हूँपर अहम तोहूँ। उन्हें पता नहीं कि मैं यहाँ बंबई में अकेला रहता हूँमुझ तक ख़बर पहुँचेगी तो कैसा लगेगामुझेउन्हें किसी की चिंता नहीं है। उन्हें बस मज़ा करना है। मुझे बहुत ग़ुस्सा आयामैं सीधाअपने गाँव गयाऔर जैसे ही अपने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो देखामेरे घर का दरवाज़ासोनी जी ने खोला। मेरी इच्छा तो हुई उनसे कहने की किक्या कर रहा है तू मेरे घर मेंनिकलयहाँ से…. पर मैंने देखा वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे मानो मुझे चिढ़ा रहे हों।उन्होंने कहा,

अरे कोपलतुम  रहे हो तुमने बताया भी नहीं।  जाओ,  सुनियेदेखिए कौन आया हैआपका लाड़ला लेखक कोपल जाओ.. जाओ अंदर जाओ माँ अंदर है।

मैं इस आदमी की आवाज भी नहीं सुनना चाहता था। मैं सीधा माँ के कमरे में चला गया औरकमरे में घुसते ही मुझे क्या दिखा,  माँ के कमरे मे खूँटी पर सोनी जी के कपड़े टंगे हुए हैंमेरी माँके कमरे में।  मैंने गुस्से में अपनी आँखें बंद की और माँ के पैर छुए। जैसे ही मैंने आँखें खोली तोदेखा माँ बहुत दुबली हो गई थीउनका शरीर जर्जर हो गया था। मैं उनके बग़ल में बैठा,

क्या हो गया माँरहने दीजिएउठने की क्या ज़रूरत है। क्या हुआ है माँ?”

तभी मुझे सोनी जी की आवाज़ आईवह दरवाज़े पर खड़े थे।

डॉक्टर ने आराम करने को कहा है पर कहाँ मानती हैं ये। मैंने कहा कि कोंपल को बता देते हैंतोकहने लगी नहीं नहीं वो अकेला रहता है वो बेकार में वो परेशान होगामैंने कहा जाओ उसकेसाथ रहो थोड़ा हवा पानी बदलेगा तो अच्छा ही होगापर नहींसुनती ही नहीं हैंभइया बहुतपरेशान हो गया हूँ मैं तोखैरचाय बना दूँ तुम्हारे लिएतुमने तो कुछ खाया भी नहीं होगाजल्दीके कुछ बना देता हूँ तुम्हारे लिएबताओ क्या खाओगे?’

ये आदमी चुप ही नहीं होगाइसकी समझ ही नहीं  रहा है कि इसके कपड़े मेरी माँ के बेडरूममें टंगे हैंये आदमी हमारे किचन में खाना बना रहा हैऔर ये कौन होते हैं मुझे बताने वाला किमेरी माँ कैसी हैकैसी नहीं है!

मैंने गुस्से में कहा, ‘आप रहने दीजिएमुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’ 

माँ ने तुरंत मेरे गालों को पकड़ा और कहा,

नहीं बेटा नहींबेटा गुस्सा नहीं करतेग़ुस्सा आदमी को कठोर बनाता हैकठोर नहीं बनना हैतुझेतू कोपल हैवो सब छोड़ बेटापहले तू ये बता आजकल क्या लिख रहा है?’ 

मैं कुछ भी नहीं लिख रहा हूँ माँ। क्योंकि मैं कभी कुछ लिखना चाहता ही नहीं थाआप लिखनाचाहती थींमैं नहीं।’ 

मैंने ये सीधा माँ की आँखों में देखते हुए कहा था।

मुझे बाज़ार में कुछ काम है,’ सोनी जी ने कहा, ‘मैं आता हूँतुममाँ बेटे आराम से बैठकर बातेंकरो।’ 

हाँ जाओमरो (मैंने फुसफुसाया)

पर माँ ने उन्हें रोक दिया

सोनी जीवापस आइयेआपको अभी बाज़ार जाने की ज़रूरत नहीं है। आप यहीं रहिए। बेटातुम बाहर के कमरे में बैठोमैं हाथ मुँह धोकर आती हूँ।

मैंने सोनी जी को देखाफिर माँ को देखा... 

क्यामैं बाहर जाऊँ?’ मैंने पूछा

हाँतुम बाहर बैठोमैं आती हूँ। सोनी जी जरा हाथ दीजिएउठाइयेआराम से।

मैं बाहर के कमरे में आकर बैठ गया। यहाँ पर हमारे यहाँ मेहमान आकर बैठते थे। माँ और सोनीजी भीतर कमेरे में थे। मैंने देखा घर बहुत साफ़ दिख रहा था। नए पर्दे लगे हुए थेनई चद्दरें थीं।तभी मेरी निगाह भगवान की अलमारी पर गईवहाँ भगवान की अलमारी में भगवान थे और बाहरअगरबत्ती भी जल रही थी। बहुत सही माँक्या बात है।

तभी माँ हाथ मुँह धोकर आई और मेरे सामने आकर बैठ गई। वो इस बीमारी में भी कितनी सुंदरदिखाई दे रही थीं। सोनी जी माँ के पीछे खड़े हुए थे।  

तू अचानक  गयाबता देता तो कुछ बनवा देती तेरे लिए। सोनी जी बहुत अच्छा खाना बनातेहैं।

माँ मैं आपको लेने आया हूँ। चलो उठोअपना सामान बाँधोअब हम बंबई में रहेंगे। मैंने शामकी फ़्लाइट के टिकिट्स भी बुक करा दिए हैं। अब मैं आपकी एक भी नहीं सुनूँगा… आप मेरेसाथ ही रहेंगी अब सेबस बहुत हुआ।

अरे बाबादेखोसोनी जीकितना प्यार करता है मुझसेमाँ को कुछ भी हुआ तो एकदम तड़पउठता है। गाँव में सब लोग कहेंगे कि वैसे बहुत व्यस्त रहता है बंबई में पर अगर माँ पर बात आईतो भइयावो सब कुछ छोड़-छाड़कर चला आता है। इतना प्यार करता है माँ से।’ 

माँ आप कुछ भी कह लो हम शाम को साथ चल रहे हैं। मैं आपकी एक नहीं सुनूँगा

ज़बरदस्ती ले जाएगा?’

हाँ।

मेरी रज़ामंदी नहीं लेगा?’

नहीं।

रख पाएगा मुझे तू अपने साथ?’

क्यों नहीं रखूँगाआप मेरी माँ हो।

वो माँ जो तुझे गाँव में रहकर शर्मिंदा कर रही है। कैसी माँ है येउसे क्यों रखना अपने साथ।

ये क्या कह रही हो आप?’

इसलिए आया है ना तू?’

हाँ मैं इसीलिए आया हूँ… क्योंकि मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि…’

क्या?....कि मैं खुश रहूँ।

नहीं

तो क्या बर्दाश्त नहीं कर सकता?’

मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि आप ये.. ये… ये

तभी माँ को अचानक खाँसी का दौरा पड़ा। मैं कुछ करता उससे पहले सोनी जी ने माँ को सँभालाऔर वो उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। मैं उठने वाला था। मैं माँ के पास जाना चाहता थापरवहाँ मेरी जगह ही नहीं थी। कुछ देर में माँ की खाँसी शांत हुई। पूरे घर मे अचानक गहरी चुप छागई थी। माँ ने कहा

कोंपल

हाँ माँ

बेटा मैंने पूरा जीवन बहुत सी दुकानें खोल रखी थीं।

दुकानें?’

हाँअच्छी बेटी कीअच्छी माँ कीअच्छी बीवी कीअच्छी औरत कीअच्छी टीचर की… जानेकितनी दुकानें खोल रखी थीं। मैं कब से लोगों को वही बेच रही थी जो लोग ख़रीदना चाहते थे।पर लोगों की अपेक्षाएँ ही ख़त्म नहीं होती हैं। अब इस उम्र में मैं और कितनी दुकानें खोलूँइससब में मेरे पास मेरे लिए ज़रा सीएक टपरी भर की भी जगह नहीं है। असल में किसी को कोईफ़र्क़ नहीं पड़ता कि यहाँ एक औरत के जीने के लिए हमने ज़रा सी भी जगह नहीं छोड़ी है। सोबेटा मैंने बहुत पहले अपनी सारी दुकानों के शटर गिरा दिए हैं। मैं अब किसी को कुछ नहीं बेचरही हूँ।  लोगों को और  ही तुझे।’ 

तभी एक हवाई जहाज़ हमारे घर के ऊपर से गुजरा। मैंने कहामाँ… हाईजाज…  मैंने और माँ नेतुरंत ऊपर देखाफिर एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे।

कितनी तेज़ आवाज़  रही है लग रहा है कि बहुत नीचे से जा रहा हैहै 

तभी सोनी जी भागकर किचन से बताशे ले आए। उन्होंने एक बताशा माँ को दिया और एक मेरीतरफ बढ़ाया,

मैं ऑफ शुगर हूँ। मैं नहीं खा सकता इसेमैं आजकल डायटिंग कर कर रहा हूँ ना।’ 

हाँ.. सही है। इसमें तो शक्कर ही शक्कर होती है और क्या’, सोनी जी ने बताशे को देखते हुएकहा

फिर उन्होंने मेरा वाला बताशा अपने मुँह में रख लिया। माँ ने कहा,

तू कितना बदल गया है बेटा। पर ठीक है शहर में रहता है वहाँ के तो रंग ढंग ही अलग हैं। सुन नाशाम को खाने पर बात करेंगेमुझे थकान लग रही हैमैं थोड़ा आराम कर लेती हूँ। सोनी जी मुझेज़रा अंदर छोड़ दो। और हाँ आज दाल तड़का बनाना कोपल के लिए। बहुत अच्छी बनाते हैं ये’,

ये कहते हुए माँसोनी जी की मदद से अंदर चली गई।

सोनी जी अच्छी दाल-तड़का बनाते हैं,  माँ के कमरे में उनके कपड़े लटके हुए थेभगवान कीअलमारी में भगवान थेमाँ और सोनी जी मेरे सामने बताशे खा रहे थे। मुझे लगा मेरे हाथों सेसारा कुछ छूट चुका है।

सीनी जी वापस आए और उन्होंने कहा,

कोपल बेटावो ऐसी नहीं हैअसल में बीमारी की वजह से थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई हैं।’ 

चिड़चिड़ी हो गई है या धार्मिक हो गई हैं… वो भागवान में मानने लगी हैं।’ 

नहीं वो तो भगवान की अलमारी ख़ाली रहती थी इसलिए मैंने एक दिन एक पत्थर लाकर उसमेंरख दियाअरे कुछ तो रहे उसमें,  वो तो भइया अभी भी... एकदम नास्तिक हैं। पर अच्छी है बहुतहे ना।  कोपल जानता है  तू?’

क्या?’

कितनी अच्छी है तेरी माँ। है ’ 

(मैं देर तक सोनी जी को देखता रहा। मुझे विश्वास नहीं हुआ।मुझे सोनी जी की आँखों में प्रेमदिखा।

अबे मेरी माँ है वो साले

मैं ये नहीं देख सकता था। ये मेरे बर्दाश्त के बाहर था। मैं वहाँ एक पल भी नहीं रुक पाया था। मैंतुरंत वापस बंबई  गया।

जब मैं मुंबई वापस पहुँचा था तो माँ से मैंने कोई बातचीत नहीं की। उनका भी मुझे कोई मेसेजफ़ोनकुछ नहीं आया था। मैंने सोच सही है करो जिसे जो करना हैजिसे जैसा जीना है जिए... मेरी बला से। फिर कई महीनों बाद एक दिन अचानक माँ का मेसेज आता है,

कैसा है कोंपलमेरी तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती हैपर तू चिंता मत कर सोनी जी बहुतख्याल रखते हैं। सुन  बेटातू झूठ बोल रहा था तूने लिखना तो नहीं छोड़ा है वो मतछोड़ना बेटावो तेरी कल्पना हैऔर कल्पना ही सच हैयथार्थ के चक्कर में मत पड़ना वो तोझूठ है। और अगर कुछ नया लिखे तो मुझे भी बता देना कि क्या लिख रहा है आजकल।

मेरे पास एक लोहे की बाल्टी हुआ करती थी। मैं बाथरूम से वो लोहे की बाल्टी लाया। उसे अपनेकमरे के बीचों-बीच रखा। फिर अपना कहानी संग्रह लेकर आयात्रासदीउसके टुकड़े टुकड़ेकरके मैंने बाल्टी में डाले और आग लगा दी।

माँ के लिए।

इस बात को दो साल बीत चुके थे। दो साल से मैंने अपनी माँ की शक्ल भी नहीं देखी थीअबपता नहीं कैसी दिखती…….

भैया Ac चालू कर दो बहुत गर्मी है।

‘Ac चालू ही है।

टेक्सी ड्रायवर ने कहा

.. ठीक है। sorry, मुझे आज पता नहीं क्या हो रहा हैबहुत पसीना  रहा है।

टेक्सी गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी।

आप क्या पहली बार इस गाँव में आए हैं?’, टेक्सीवाले ने पूछा

नहीं… यहाँ मेरा अपना घर है।’ 

अच्छा तो घर वालों से मिलने आए हैं?’ 

हाँ।

आपका कौन रहता है यहाँ?’

माँ। मेरी माँ रहती हैं।

मैंमाँ रहती थींनहीं बोल पाया। इतनी जल्दीथींकैसे बोल देंवो टैक्सी वाला कांच में मुझेबार-बार देख रहा था। मैंने सिर नीचे कर लिया। जैसे ही टेक्सी हमारे घर पर आकर रूकी मैंनेएक काला चश्मा लगा लिया। टेक्सी से उतरते ही मुझे सुधीर सामने खड़ा दिखा। उसने मुझेदेखते ही गले लगा लिया।

तू ठीक है कोपल?’

हाँ मैं ठीक हूँ।’ मैंने कहा।

जा जा माँ अंदर हैंमैं तेरा सामान लेकर आता हूँ।

उसने इतनी सहजता से कहा कि मुझे लगा मैं जैसे ही घर में घुसूँगा मुझे वहाँ मेरी माँ मुस्कुरातीहुई खड़ी दिख जाएँगी। अगर उन्होंने पूछ लिया किकहाँ था दो सालक्यों नहीं आया मुझसेमिलने तो मैं क्या कहूँ कि मैं व्यस्त था?

सुधीर ने पीछे से आवाज़ दी किजा  अंदर।

हाँ बस जा रहा हूँ

मैं घर में घुसा तो बाहर वाले कमरे के बीचों-बीच माँ का शरीर रखा हुआ था। उनके सर के बग़लमें एक थाली थी जिसमें राख रखी हुई थी। अगरबत्ती और दूब की वजह से पूरे कमरे में धुआँफैला हुआ था। सोनी जी उनके बग़ल में बैठे थे। मैं माँ के पास गयापर सोनी जी से थोड़ा दूरबैठा। सोनी जी मुझे देखते ही मेरे पास  गए। कुछ देर में उन्होंने अपना सिर मेरे कंधे पर टीकादिया और रोने लगे…. बच्चों की तरहसुबक-सुबक के। मैंने अपने कंधे को झटका दिया तबकहीं वो मुझसे दूर हुए। कुछ देर में वो उठकर कमरे से बाहर चले गए।

मैंने माँ के चेहरे को देखा,

माँमाँमैं  गयादेर हो गईबहुत देर हो गई,’

उन्हें देखकर ऐसा लगा वो गहरी नींद सो रही हैंवो अभी अपनी आँखें खोलेंगी और कहेंगी अरेकोपल तू  गयाअब जल्दी से बता दे क्या लिख रहा है आजकल?  वो अभी भी माँओं जैसी माँनहीं लग रही थीं। वो इस वक़्त भी बेहद खूबसूरत लग रही थीं। मैंने उनके गालों हो हल्के सेछुआ। वो बहुत ठंडे थे। मैंने उनके माथे को छुआ…..

माँ माँ… मैंने आपकी क़सम झूठी नहीं खाई थी। सच मेंमैंने अपना कहानी संग्रह पूरा करलिया था। उसका नाम त्रासदी रखा था। और उसके पहले पनने पर ही मैंने लिखा था.... आप केलिए। अरे आप तो ये कसम-वसम मानती भी नहीं हो फिर क्या मतलब है इसका। चलो उठो।माँ

तभी मुझे रोने की आवाज़ आई। मैंने देखासोनी जी दरवाज़े से टिककर रो रहे थे। सुधीर अर्थीका सामान ले आया। उसके साथ दो लोग और थे। शायद वो उसके दोस्त थे। चलो अच्छा हैअब माँ की शव-यात्रा में  हम तीन की बजाए पाँच लोग होंगे। इस पूरे गाँव से,  सच मेंमाँ कीशव-यात्रा में बस हम पाँच लोग थे। मेरी नास्तिक माँ।  

जब हम शमशान पहुँचे तो उन्हें सूखी लकड़ियों के ऊपर लिटाया गयाउनके ऊपर और लकड़ियाँरखी गई। मुझे लग रहा था कि उन लकड़ियों के बीच एक हरा घना पेड़ लेटा हुआ है। माँ कीचिता के पास ही सोनी जी उकड़ूँ बैठे हुए थे। उनके कंधे उचक रहे थे। वो अभी भी रो रहे थेवैसेही सुबक सुबककरकिसी बच्चे की तरह। वो कितने कोमल दिखाई दे रहे थे। कोमलकोपल।कोपल!

सुधीर जलती हुई लकड़ी लेकर मेरे पास आया और कहा

चल चलमाँ को अग्नि देनी है।

(तभी मैंने देखा एक हवाई जहाज़ हमारे ऊपर से गजरा। मैं उस हवाई जहाज़ को देखता रहा औरमाँ की चिता को। फिर मैंने ख़ुद को देखा।)

इस जलतीं हुई लकड़ी को पकड़े हुए मैं एक सैनिक लग रहा था। मैं वही हो गया था जिसका माँको डर था… कठोर। कितना कठोर था मैं। मैं कोपल नहीं थामैं नहीं था कोपल।

अंत में बहुत मन्नऊव्वल के बाद माँ को अग्नि सोनी जी ने ही दी। उन्हीं का हक़ बनता था।

जब हम घर वापस आए तो सोनी जी ने मुझे एक मोटी सी फाइल दी।

ये क्या है सोनी जी?’, मैंने पूछा

अरे तू ये नहीं जानता हैतू जो वो सब लिखा करता था  बहुत सारादेख तेरा माँ ने आज तकउसको कितना सँभालकर रखा है। इसका हर एक पन्ना मैं उसके मुँह से जाने कितनी बार सुनचुका हूँ। और जब वो सुनाती थी तो बाबा कैसे खिलखिलाया करती थी।

(मैं सोनी जी को मुस्कुराते हुए देखने लगा। फिर मैंने फाइल अपने हाथ में ली।मैं अपने झूठ कोदेख रहा था। माँ ने मेरे सारे झूठ को कितना सँभालकर रखा था।

पेलाग्या निलोवनामेरी माँ पेलाग्या निलोवना थीमैं ही गोर्की नहीं हो पाया था। हमारी माएँ हैंपलाग्या निलोवना पर उनकी कहानियाँ कहीं लिखी ही नहीं गई। उन्हें कहीं दर्ज ही नहीं कियागया। और अगर उन्होंने ख़ुद लिखना चाहा तो उनके पेन तोड़ दिए गए। वह बस अपने पति केजर्जर होने और बच्चों से आती ख़बरों के बीच कहीं अदृश्य-सी बूढ़ी होती रहीं। ये हमारी माएँ थींजो ज़ाया हो गई।

अगले दिन सुबह हम माँ की अस्थियाँ बटोरने पहुँचे। मैंने देखासोनी जी राख में माँ को टटोल रहेथेउसी वक्त मैंने अपनी जेब से एक पन्ना निकाला। मैंने कल रात एक झूठ माँ के लिए लिखाथा। वही झूठ जिसे माँ बहुत पसंद करती थीं। मैं माँ के पास गयाराख को छुआ तो वो अभी भीगर्म थी।

माँमैंने एक नया झूठ लिखा है आपके लिएसुनाऊँ….’

धूपचेहरा जला रही है

परछाईजूता खा रही है

शरीरपानी फेंक रहा है

एक दरख़्तपास  रहा है

उसके आँचल में मैं पला हूँ

उसकी वात्सल्य की साँस पीकर आज मैं भी हरा हूँ

आप विश्वास नहीं करेंगे,

इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है…..

मैं उस पेड़ को……माँ कहता हूँ।

End...