शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016
शक्कर के पाँच दानेः मानव कौल, Shakkar ke paach daane (Hindi Script)
शक्कर के पाँच दानेः मानव कौल
अब मैं एक तरीके से मुस्कुराता हूँ
और एक तरीके से हंस देता हूँ
जी हाँ मैंने जिन्दा रहना सीख लिया है
अब जो जैसा दिखता है, मैं उसे वैसा ही देखता हूँ
जो नहीं दिखता वो मेरे लिए है ही नहीं
अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
मैं एक सफल मध्यमवर्गीय रास्ता हूँ
रोज घर से जाता हूँ, रोज घर को आता हूँ
अब मुझ पर कुछ असर नहीं होता
या यूं समझ लीजिये मेरी जीभ का स्वाद छीन गया है.
अब मुझे हर चीज एक जैसी सफेद दिखती है.
अब मुझे कुछ पता नहीं होता
पर सब जानता हूँ
का भाव मैं अपने चेहरे पर ले आता हूँ.
हर किस्से पर हंसना आह भरना मैं जानता हूँ
अब मैं खुश हूँ – नहीं, नहीं खुश नहीं अब मैं सुखी हूँ – सुखी.
क्योंकि अब मैं बस जिन्दा रहना चाहता हूँ.
अब ना तो मैं उड़ता हूँ, ना बहता हूँ, मैं रूक गया हूँ.
आप चाहे कुछ भी समझे, मैं अब तटस्थ हो गया हूँ
अब मैं यथार्थ हूँ, यथार्थ सा हूँ
“मुझे अपनी कल्पना की गोद में सर रखकर सो जाने दो
मैं उस संसार को देखना चाहता हूँ, जिसका ये संसार प्रतिबिम्ब है”
अब ये सब बेमानी लगता है. अब तो मेरा यथार्थ
मेरी ही पुरानी कल्पनाओं पे हंसता है.
अरे हाँ, आजकल मैं भी बहुत हंसता हूँ
कभी कभी लगता है यह हंसना बीमारी है
पर ये सोच कर फिर हंसी आ जाती है
अब सब चीज जिस जगह पर होनी चाहिए उस जगह पर है
ये सब काफी अच्छा लगता है
अच्छा नहीं ठीक — हाँ — ठीक लगता है.
पर …….. एक परेशानी है अजीब सी अधूरी …………. क्या बताऊं
आजकल मुझे रोना नहीं आता, अजीब लगता है ना
मुझे अब सुख या दुख से कोई, फर्क नहीं पड़ता.
क्योंकि वो जब भी आते हैं
एक झुंझलाहट या एक हंसी से तृप्त हो जाते हैं
अजीब बात है ना ……… नहीं नहीं …………. ये अजीब बात नहीं है
ये एक अजीब एहसास है
जैसा कि आप मर चुके हो और कोई यकीन न करे
रोज की तरह लोग आपसे बातें करें,
चाय पिलायें, आपके साथ घूमने जाऐं
और सिर्फ आपको ये पता हो कि आप अब जिन्दा नहीं है
मैं जानता हूँ, ये एक रूला देने वाला एहसास है
पर आप आश्चर्य करेंगे.
फिर भी, मुझे आजकल रोना नहीं आता है.
………….. नहीं नहीं नहीं …….. ये कविता मैंने नहीं लिखी ……… अपने बस की बात है ही नहीं मतलब ऐसे भारी
शब्दों को एक दूसरे से लड़ाना उनकी आपस में कुश्ती कराना और उस भीषण हिंसा से किसी एक बात को बाहर
निकालना. ये अपने आप में आश्चर्य है. मुझे तो पढ़ने और सुनने में ही पसीना आ जाता है. क्योंकि भाई मेरे लिए
कुश्ती और कविता में कोई खास अन्तर नहीं है, मुझे तो आज तक ये समझ में नहीं आया कि कुश्ती क्यों लड़ी जाती
है और कविता क्यों लिखी जाती है. मैंने जब पुंडलिक से पूछा कि ये कैसे होता है ? तो उसने जवाब दिया कि ‘कुश्ती
दरअसल बाहर से लड़ी जाती है और कविता अपने भीतर से लड़कर लिखी जाती है. मुझे उसकी बात कुछ समझ में
नहीं आई और मेरे मुँह से बस – हं – तिकला. पुंडलिक समझ गया. उसने कहा राजकुमार समस्य ये नहीं है कि तुम
ना समझ हो. समस्या ये है कि तुममें समझ की काफी कमी है.
(चींटिया दिखती हैं, वो चींटियों के साथ खेलता है, और फिर उठता है.)
समस्या – मैं समस्या के पहाड़ पर घूम रहा हूँ – क्या भाई क्या …………. समस्या क्या है ? यही तो समस्या है
…………. समस्या जब आती है तो अपने साथ अपना हल भी लाती है और हल के चलते ही समस्या फिर उग आती है.
कहते हैं जिसके जीवन में समस्या नहीं उसने समझो जीवन जीया ही नहीं. इसका मतलब मैंने अभी तक जीवन
जीया ही नहीं था. क्योंकि मेरे जीवन में कोई समस्या कभी रही नहीं. जबकि समस्या – इस शब्द को मैं बहुत पसंद
करता हूँ और हमेशा चाहता था कि मैं समस्याओं से घिरा रहूँ. चारों तरफ समस्याओं के पहाड़ हो जिनको चीरता हुआ
मैं उन्हें पार कर सकूं. पर मेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि मुझे कोई समस्या नसीब हो. कुछ दिक्कतें आई पर आप उसे
समस्या जैसा खुबसूरत शब्द नहीं दे सकते. पर आजकल मैं बहुत खुश हूँ. क्योंकि इस चिट्ठी के रूप में पहली बार
मेरे पास वो चीज आई हैं जिसे मैं समस्या कह सकता हूँ. आज मैं वो सारे वाक्य बोल सकता हूँ, जो मैं हमेशा से
बोलना चाहता था, पर थोड़ा गम्भीर होकर ……….. मैं आज …………. वैसे ये गम्भीर शब्द भी मुझे बहुत पसंद है.
गंभीर क्या शब्द है …………… नहीं ……………. पर पहले समस्या ……………. आज मैं समस्या में हूँ ………….. दुखी
हूँ ……… क्योंकि आज मैं एक भयानक समस्या से घिरा हूँ ………… क्या होगा मेरा ……………… कहीं मैं आत्महत्या
करने की तो नहीं सोच रहा हूँ ………… ओह ये समस्या है. कहाँ है मेरा चाकू.
हो गया ……………. अब समस्या, नहीं ……… नहीं ………… समस्या को अभी जाने दो. आपको मेरी समस्या अभी
समझ में नहीं आयेगी. आप कहेंगे ये भी कोई समस्या हैं ? पर भैया मेरे लिए समस्या है. इसलिए अभी समस्या नहीं
पहले पहली वाली बात. लड़नेवाली. आजकल मैं लड़ रहा हूँ. मैं अभी भी लड़ रहा हूँ. पिछले कई दिनों से लड़ रहा हूँ. तो
मुझे समझ में आया ये लड़ना मतलब अपने से लड़ना हो तो मैं बहुत पहले शुरू कर चुका हूँ. असल में मैंने लड़ना तब
शुरू किया था जब मेरी अकल दाड निकली थी. वैसे तो अकल दाड़ जिस उम्र में निकलनी चाहिए मेरी समझो कि ये
दस साल बाद ही निकली. उसी वक्त मुझे समझ में आने लगा मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे कम ही लोग पसंद करते
हैं. कम याने दो चार लोग ही. उनमें से एक है मेरी माँ. क्योंकि उसको मुझे डांटने और मुझ पर खीजने की ऐसी आदत
पड़ है कि वो मेरे बगैर रह ही नहीं सकती. मैं जब भी कुछ करता हूँ ………………. मतलब कुछ काम …………… उसके
बाद मैं तैयार हो जाता हूँ. माँ के अजीब से चेहरे की बनावट देखने को, वो झुर्रीदार चेहरे पर और गाढ़ी होती झुर्रीयां
और हाथ ऊपर करके अपने छोटे कद को विकाल दिखाने जैसे सारे माँ के नृत्यों का मैं आदि हो चुका हूँ. हम दोनों एक
दूसरे को बहुत पसंद करते हैं.
वैसे मैं एक मामूली कद का आदमी हूँ. पर चाहूँ तो थोड़ा लम्बा दिख सकता हूँ, थोड़े कसे हुए कपड़े और रघु के हील
वाले जूते पहनकर. कुछ लोग कहते हैं कि मैं रघु के जूते और लाल वाली चुस्त टी शर्ट पहनकर जब निकलता हूँ तो
ठीक ही दिखता हूँ. मैं हमेशा हर काम ठीक ही करता हूँ, और ये सब जानते हैं. जब स्कूल में रिजल्ट आता था तो माँ से
पूछो तो कहती थी हाँ ठीक ही रहा उसका रिजल्ट. मैं ठीक ठाक पैदा हुआ- ठीक ठाक पला बढ़ा, असल में मैं हमेशा
एक बिदू है उसी पे रहता हूँ. जो अच्छे और बूरे के एकदम ठीक बीच में होता है. जिसे आप शून्य और मैं ठीक कहता हूँ.
एक बार तो स्कूल की क्रिकेट टीम के चयन के लिए मुझे टीम में ले या ना ले इस पर दो घंटे की बहस हुई. पर पहली
बार मैंने अपने आप को महत्वपूर्ण समझा. बहस में आधे लोग कह रहे थे कि इसे ले सकते हैं ये बुरा नहीं खेलता. आधे
लोग कह रहे थे कि इसे ना लें क्योंकि ये अच्छा भी नहीं खेलता. मैंने अन्त में जवाब दिया – सर सर मैं ठीक ही
खेलता हूँ. किसी के समझ में नहीं आया अरे उनको शब्द नहीं मिल रहा था कि मैं कैसा खेलता हूँ. जब मैंने बताया कि
वो शब्द ठीक है – मैं ठीक ही खेलता हूँ. तो सब मुझपर बरस पड़े कहने लगे ठीक क्या होता है – ठीक क्या होता है –
ठीक कुछ नहीं होता है. तब से आज तक मैंने सिर्फ क्रिकेट खेलते हुए ही लोगों को दखा है. मेरे शरीर को देखकर बड़े से
बड़ा आदमी धोखा खा सकता है. कई तो ये भी सोचते होगें कि ये तो दौड़ भी नहीं सकता. तब मैं सबको आश्चर्य में
डाल देता हूँ – जब कोई भी खेल चाहे वो नया हो या पुंराना – मैं ठीक खेल के दिखा देता हूँ. पर समस्या यहीं से शुरू
होती है. मैं उस बिन्दु के आगे बढ़ ही नहीं पाता हूँ. मैं पहले दिन ही ठीक पे पहुंच जाता हूँ और सालों खेलने के बाद भी
ठीक पर ही रहता हूँ.
माँ बताती है कि जब मैं छोटा था तो बहुत मोटा था. लोग कहते थे कि पैदा होते ही अपने बाप को खा गया इसलिए
मोटा है. मुझे जब भी ये बात याद आती है तो मैं बहुत हंसता हूँ. अपने बाप को खालूं – गपर ………. गपर ………..
और हुप्प ………. मोटा हो जाउं ………………. फिर अचानक मैं दुबला होता गया उसका कारण भी माँ बताती है
………….. छोटे में मैंने रिन साबुन खा लिया था – बिस्कुट समझकर. चाट गया था ……… चप्पड …………… चप्पड़
………. जब थोड़ी ही दूर चला था और धिप्प गिर पड़ा. तब माँ की समझ में आया कि मैं बेहोश हो गया हूँ. माँ बताती
है. उसी समय उन्होंने मदर इण्डिया फिल्म देखी थी . उन्होंने मुझे गोद में उठाया और अस्पताल की ओर भाग ली.
मैंने मदर इण्डिया फिल्म नहीं देखी पर माँ भागी क्यों …….. असल में मेरी माँ …… माँ की भूमिका एक बार जी भर के
निभाना चाहती थी सो उन्होंने निभाई. १.५ किलोमीटर मुझ जैसे ताजे मोटे बच्चे को लेकर भागना. माँ पसीने पसीने
हो गई. डॉक्टर के पास पहुंची तो डॉक्टर ने माँ को डांट दिया. डॉक्टर ने कहा – भागने की वजह से आपके बेटे ने जो
रिन साबुन खाया था, वो अब झाग बनके चारों तरफ से निकल रहा है. माँ बताती है कि डॉक्टर ने दो मग्गे पानी
निकाला था पीठ में से. फिर डॉक्टर ने बताया कि एहतियात बरतना – बहुत कमजोर हो गया है. कई सालों तक
इसका ख्याल रखना होगा. जब तक १० साल का न हो जाए सर पर चोट नहीं आनी चाहिए – वगैरह.
शायद कपडे धोने के साबुन से ही मेरी अकल दाड़ देर से निकली. अच्छा किसी को कैसे पता चलता है कि उसमें अकल
आ गई ? क्योंकि ये कोई बल्ब तो है नहीं कि बटन दबाओ और कह दो कि अरे लाईट आ गई – अरे अकल आ गई.
कैसे पता चलता है ?? ये प्रश्न एक दिन पुडलिक ने मुझे पूछा. मुझे लगा वो मेरी अकल देखना चाहता है मैं डर गया.
मैंने ज्यदा सोचा नहीं, सोचत तो उसे लगता कि मेरे पास अकल ही नहीं है. बस थोड़ी देर में मैंने कहा अगर आपको
पुराना किया चूतियापा लगने लगे ना तो समझो आपको अकल आ गई. वो हंस दिया. मुझे लगा मैंने कुछ गलत कहा.
मैंने जल्दी में आगे जोड़ दिया और उसका एहसास आपको दाढ के यहाँ कहीं पीछे कोने मे होता है – ओह ! मैंने अपने
जीवन में इतना शर्मनाक पहले कभी महसूस नहीं किया था. पर वो हंसा – और हंसा …… इतना हंसा कि मैं पसीने
पसीने हो गया और फिर उसने अपना जवाब सुनाया – बाप रे बाप क्या जवाब था. एक-एक शब्द पहलवान का घूंसा
था जो मेरे मूख्र दिमाग पे पड़ रहा था – धम धम धम.
वो करीब दो घंटे लगातार बोलता रहा अब मैं दो घंटे तो नहीं बोल सकता सो मैं आपको मुख्य बातें बता देता हूँ उसने
कहा था
(कविता)
फूल ने जुम्बिश को तेरी
तेरी मेरी यहीं कहानी
समझ की भंवरा आया
समझ कि दाड़ में था दर्द
दाँत से हाथ निकलते ही
दर्द के मारे पैर बजे
छन छन छन छन छन
छन छन छन छन छन
लेकिन तेरे दिल ने मेरे
साइकिल के पहिये पर बैठा
पहिया पंक्चर, अकल सिकन्दर
घुटना दिमाग जब भी चलता
पंखे सी आवाज़ें करता
खर खर खर खर खर
धरती का बोझ
मेंढ़क का नाती
ओंस की बूंद
हाथी का दांत
अकल की दाड़
मुँह का निवाला
रात का चाँद
सुबह का सूरज
जैसा निकला,
सारी की सारी चिड़िया
फर फर फर फर फर
फर फर फर फर फर
उस दिन पुंडलिक मेरे सामने से कब उठा, कब रात हुई, कब सुबह हुई मुझे कुछ पता नहीं चला. अब मेरी ज़िंदगी का
एक ही उद्देश्य रह गया था कि पुडलिक को कुछ ऐसा कह दूं कि वो हतप्रभ रह जाए. मैं उसके माथे पर पसीना देखना
चाहता था.
वैसे पुंडलिक भी अजीब आदमी था वो अपना जन्म दिन नहीं बनाता था. कहता था मैं पैदा नहीं प्रकट हुआ हूँ. मेरे
लिए वो प्रकट ही हुआ था. वो मेरी माँ का भाई था और एक दिन अचानक मेरे घर रहने आ गया. मुझे विश्वास ही नहीं
हुआ. अरे मैं इतने सालो से अपनी माँ को जानता हूँ क्या मेरे अलावा भी माँ का कोई अपना हो सकता हैं? पता नहीं??
वो अपने को महान कवि कहता था और मुझे महान श्रोता. क्योकि मैं अकेला ही था पर मैं बहुत खुश था क्योंकि उसने
जब मुझे अपनी पहली कविता सुनाई, तब से ही उसका तो पता नहीं पर मैं महान होता गया. पर कवि और श्रोता का
हमारा सम्बन्ध थोड़ा उल्टा था, हर कविता सुनाने के बाद पुंडलिक मेरी तारीफ़ करने लगता था. क्योंकि उसको मेरे
चेहरे का हतप्रभ भाव बहुत पसंद था. मेरे पास तो वैसे भी भावों की काफी क़मी थी पर ये ऐसा भाव था जिसे मैं
पुंड़लिक के सामने सबसे ज्यादा चिपका देता था. क्योंकि उसकी सौ में से नब्बे बातें मेरी समझ में आती नहीं थी और
जों थोड़ी बहुत समझ में आती थी, उसे बोलने में मैं डर जाता था.
पुंडलिक वैसे तो कई बार मेरे सामने रोया था. उसको कुछ दुख था पता नहीं क्या पर कुछ था. लेकिन जब भी वो मेरे
सामने रोता था ना तो मुझे बड़ी हँसी आती थी. मुझे लगता था कि पुंडलिक को अपना रोना बहुत शर्मनाक लगता है
वो अपने रोने को अजीब तरीके से दबाता था. पुरे शरीर को विशेष मुद्रा में कड़क करके अपने मुंह को बंदरों जैसा
बिचकाता रहता था और एक अजीब सी तीखी आवाज़ निकालता था ………….. ई …………. ई …… ई …….. वो
अपनी माँ को बहुत चाहता था कहता था मैं अन्त तक उसके साथ रहा. मेरी माँ शायद अपनी माँ को नहीं चाहती थी.
पता नहीं पर पुडलिक ने मुझे ऐसा कहा था. माँ को चाहना – मैं आज तक नहीं समझ पाया कि माँ को चाहना क्या
होता है. जब मैं मेरी माँ को देखता था तो वो तो मुझे एक सूखी लकड़ी के समान औरत दिखती थी जो चुपचान घर में
ढूंढ़-ढूंढ़ के काम निकालती थी. अजीब लगता है ना कई सालों से एक ही घर में लगातार काम करते जाना मुझे तो
कभी कभी लगता था कि ये घर- घर नहीं है – एक नांव है ….. जिसमें जगह जगह पर गड्ढ़े हैं मेरी माँ उस नाव के
बीच में मग्गा लेके बैठी है. जिससे वो लगातार पानी को बाहर फेंक रही है.
(चींटियां दिखती है, वो चीटियों के साथ खेलता है, और फिर उठता है)
पुंडलिक कहता था कि तेरी माँ बहुत आलसी है रे! अरे ये क्या कह दिया उसने. वो हमेशा ही ऐसा कुछ बोल के चला
जाता था. मैं सोचता रहता था. धीरे-धीरे मुझे समझ में आया …. मदर इंडिया वाली घटना को छोड़ के मुझे लगा कि
मेरी माँ सचमुच आलसी है. ये बात मेरे नामकरण से सिद्ध होती है. अब बोलिये उन्होंने मेरा नाम राजू रखा जो
भारत में हर दूसरे आदमी का होता है. और ऊपर से स्कूल में दाखिला दिलाते वक्त माँ का वात्सल्य जागा और
उन्होंने राजू को आगे बढ़ाकर राजकुमार कर दिया. माँ बताती है कि दाखिले को फार्म भरते वक्त वो स्कूल क्लर्क मेरी
तरफ देखकर बहुत हंस रहा था. माँ को लगा दोष मेरी शकल का है. वैसे मेरे ख्याल से हर आदमी को अपना नाम खुद
रखने की आजादी होनी चाहिए.
वैसे मेरी माँ बड़ी रहस्यमय थी इस बात का मेरे अलावा किसी को पता नहीं है जब मेरी माँ अलमारी से अपना लाल
रिबन निकालती थी तब समझो की समय हो गया और वो उस रिबन को पहन के निकल जाती थी. असल में उन्हें
शौक था उन्हें अकेले फिल्म देखना बहुत अच्छा लगता था. कोई धार्मिक फिल्म नहीं सारी रोमाँस और मारधाड़
वाली. अब रोमाँस का तो पता नहीं पर शायद मारधाड़ का काफी असर पड़ गया था उन पर. क्योंकि उम्र के साथ साथ
उनका चेहरा मर्दाना होता जा रहा था. उनकी दाढ़ी मूंछें निकलने लगी थी और बाद बाद में वो मुझे डांटते वक्त कहती
थीं – कुते मैं तेरा खून पी जाऊंगी.
तभी पुंडलिक ने मुझे एक किताब दी – मदर मैक्सिम गोर्की की. मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. मुझे तो अभी तक
लगता था कि सारी माँए किसी नियम के तहत एक जैसा बर्ताव करती हैं. पर ये – ये क्या था. पुंडलिक ने बताया कि
ये कहानी सच्ची है. मैंने सोचा ऐसी माँ भी हो सकती है. मुझे याद आया पुंडलिक ने मुझसे कहा था कि वो अपनी माँ
को बहुत चाहता था अब बस मैं एक और माँ के बारे में जानना चाहता था – पुंडलिक की. मैंने पूछा पुंडलिक क्या
तुम्हारी माँ भी गोर्की की मदर जैसी है. मुझे लगा पुंडलिक के अदंर एक ज्वालामुखी था जो मेरे इस प्रश्न के जाते ही
फूट पड़ा. वो बोला बोला बोलता रहा. ऐसे ऐसे उदाहरण देता रहा, ऐसे ऐसे शब्दो का इस्तेमाल करता रहा कि कहानी
मुझे रोचक लगने लगी पर मेरी समझ में कुछ नहीं आया और मैंने उसी वक्त अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर दिया
……….. हतप्रभ भाव और ये देखकर वो कुछ धीमा हुआ और भारी आवाज़ में धीरे धीरे बोला जो मुझे समझ में आने
लगा. उसने कहा था – माँ के अन्तिम दिनों में मैंने पड़ना, लिखना घर से निकलना सब बंद कर दिया. मॅं सिर्फ माँ के
साथ रहता था उन्हें गीता सुनाता था, सालों तक मैं घर से नहीं निकला. गीता सुनते सुनते ही उनकी मृत्यु हो गई. वो
अचानक मर गई. मुझे बहुत अजीब लगा मैं खाली हो गया थां मुझे कुछ समझ में नहीं आया. तभी अचानक मेरी
आँखों के सामने उनका मुस्कराता हुआ चेहरा घूमने लगा और वो चेहरा पेड़ बन गया और मैंने पेड़ के नीचे बैठकर
लिखना शुरू किया.
धूप चेहरा जला रही है
परछाई जूता खा रही है
शरीर पानी फेंक रहा है
एक दरख्त पास आ रहा है
उसकी आंचल में मैं पला हूँ
उसकी वात्सल्य की सांस पीकर
आज मैं भी हरा हूँ
आप विश्वास नहीं करेंगे
पर इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है
मैं इसे माँ कहता हूँ
जब रात शोर ख चुकी होती है
जब हमारी घबराहट नींद को रात से छोटा कर देती है
जब हमारी कायरता सपनों में दखल देने लगती है
तब माथे पर उसकी उंगलियां हरकत करती हैं
और मैं सो जाता हूँ
और वो सो गया …………….. मैं अवाक सा बैठा रहा. अच्छा हुआ वो सो गया. क्योंकि मैं उसके सामने रोना नहीं
चाहता था. मैं भाग कर उसके कमरे से बाहर निकल आया और मुझे वो दिखी. सूखी-सी लकड़ी के समान औरत
जिसका चेहरा मर्दाना होता जा रहा था जो हाथ में मग्गा लिये पानी बाहर फेंक रही थी. मैं उपर से नीचे तक काँपने
लगा. मुझे लगा पहली बार मुझे मेरी माँ दिखी. मैं तुंरत भाग के उसके गले लग गया और बरबस मेरे मुँह से निकल
पड़ा – पेलागेया निलोबना माई मदर चटाक एक आवाज़ हुई. मेरा सर घूमने लगा. कई दिनों तक उसके वात्सल्य से
भरे हुए उँगलियों के निशान मैं अपने गालों पर महसूस करता रहा. पर इस घटना से मैं हारा नहीं. मैंने माँ को मदर
कहना नहीं छोड़ा. ये अलग बात हैं कि मैं मदर मन में बोलता था और उपर से माँ बोलता था. मदर मा मदर माँ ऐसे
वैसे माँ और मेरे बीच सारे संवाद सालों पहले तय हो गये थे. किसी भी घटना का उन संवादों पर कुछ असर नहीं हुआ
था.
पुंडलिक ने एक बार कहा था कि तुझमें और तेरे गाँव में कोई अंतर नहीं है. ये कहकर वो चल दिया. मेरी समझ में नहीं
आया ये क्या कह दिया उसने ? मैं सोचता रहा काफी समय बाद मेरी समझ में आया ये तो सच है. दरअसल मेरा गाँव
गाँव ही नहीं था और ना ही पूरी तरह शहर था. यहाँ के लोग ना तो बहुत अमीर थे और ना ही भूखे मर रहे थे. ये इतना
महत्वपूर्ण नहीं था कि देश के नक्शे में इसका जिक्र हो और ऐसा भी नहीं है कि ये है ही नहीं यहाँ के लोग कुछ करना
नहीं चाहते पर सभी अन्त में कुछ ना कुछ कर ही लेते हैं. यहाँ सब कुछ ठीक ठीक चलता है मेरी तरह – ठीक!
पुंडलिक कहता है कि ये गाँव ऐसा लगता है कि छूटे हुए लोगों से बसा है जैसे रेत का ट्रक चलते हुए काफी रेत पीछे
छोड़ जाता है ना वैसे ही रेत के समान छूटे हुए लोग इकट्ठे होकर ये गाँव बन गए.
मेरा गाँव हाईवे और जंगल के ठीक बीच में था. पर मेरा घर हाईवे के किनारे था. सड़क के उस तरफ एक ढाबा था.
जहाँ अजीब सी शक्ल के लोग हंसते और चिल्लाते हुए खाना खाते थे. लगता था कि आदमियों की आवाजें उनकी ना
होकर गाड़ियों की आवाजें हो गई है. वैसे मैं दिन में सड़क के उस तरफ कम ही जाता था. मेरा तो काम सुबह ५ बजे
का होता था. मैं मैं असल में ट्रक के पीछे कुछ लिखने जाता था. मुझे बस इतना पता है कि ये सारे ट्रक पूरे देश में हर
गाँव हर शहर में जगह जगह जाते हैं. मैं ट्रकों के पीछे छोटे छोटे अक्षरों में चॉक से कुछ लिख देता था. किसके लिए
पता नहीं. पर मेरे लिये ये अंतरिक्ष में संदेश भेजने जैसा था. मुझे पूरा विश्वास था कोई राजू राजकुमार छोटू, बंटी,
चिंटूं, राकेश जैसा साधारण नाम वाला साधारण आदमी मेरी तरह सुबह पाँच बजे उठकर मेरा संदेश पढ़ रहा हे.
क्योंकि मेरा सारा लिखा हुआ मेरे पास कभी वापस नहीं आता था. इसका मतलब कोई है जो मेरी बातों को पढ़कर
मिटा देता है जिससे कोई दूसरा ना पड़ सके. हमारी दोस्ती काफी बढ़ गई थी. मैं अब अपनी सारी बातें उसे कह देता
था पर संक्षेप में – घुमा फिरा कर चालाकी से. कहीं कोई दूसरा इसे पढ़कर हंसे ना और कहीं पुलिस घर पे आ गई तो –
क्योंकि मैंने तो इसमें रघु, माँ, पुंडलिक राधे सभी की गोपनीय बातें लिख दी थीं. लेकिन मैं बहुत चालाक था पुलिस
को कुछ पता नहीं चलता क्योंकि बहुत पहले मैंने ट्रक पर लिख दिया था. दोस्त अब से पुंडलिक = कवि, रघु = हीरो,
राधे = गाँधी की लाठी, माँ = मग्गेवाली औरत.
वैसे पाँच बजे उठने के मेरे दो मकसद होते थे. पहला ट्रक पर संदेश और दूसरा राधे से मुलाकात क्योंकि राधे रोज
सुबह पाँच बजे मेरे घर के सामने आता था उसका नाम राधे है भी कि नहीं ये भी मुझे मालूम नहीं. क्योंकि जब भी वो
मुझे देखता था तो राधे-राधे कहताथा और मैं भी जवाब में उसे राधे राधे कहता था. असल में हम दोनों एक दूसरे के
लिए राधे थे. राधे को मैं सोने वाला बूढ़ा कहता था. क्योंकि वो सोना बीनने का काम करता था असल में हमारे घर में
दो सोने चांदी की छोटी सी दुकानें थी. जिसका किराया हमें मिलता था. राधे रोज अपनी छोटी सी लोहे के दाँतवाली
झाडूं लेकर आता था और सोना बीनता था. सोना बीनते वक्त वो एक सफेद पोटली जैसा हो जाता था. जो मेरी आँखों
के सामने लुढ़कती रहती थी .काम करते वक्त वो एकदम चुप रहता था. सिर्फ उसकी सांसें लेने की आवाजें मुझे
सुनाई देती थी.
राधे को मैं सालों से जानता था मुझे लगता था कि वो किसी एक उम्र पर अटक गया है शायद उसके आगे बढ़ने की
गुंजाईश ही नहीं होती. वो सालों से बूढ़ा था मुझे विश्वास ही नहीं होता है कि राधे कभी बच्चा भी होगा. वो गाँव से
बाहर एक ही बार गया था और वो उसकी पहली और अंतिम यात्रा थी. वो गाँधीजी को देखने – सिर्फ देखने ने
साबरमती आश्रम गया था – यह उसके जीवन की एकमात्र उपलब्धि थी जिसे वो अब तक ५० से ज्यादा बार सुना
चुका है. हर बार जब वो गाँधीजी से मुलाकात कीघटलना सुनाता है तो गाँधीजी हर कहानी में राधेअस अलग अलग
बात कहते थे – कई बार गाँधी जी ने सिफर्ग् नमस्ते कहा और राधे लौट आया. और कर्ठ बार राधे गाँधीजी के साथ
खाना खा चुका है …. कई बार गाँधीजी उससे कुछ कहना चाहते थे पर रराधे को गाँव वापस आने की की जल्दी थी
….. और एक बार तो गाँधीजी ने राधे से कहा कि राधे – मैं बहुत थक चुका हूँ राधे अब तुम गाँधी बन जाओ.
सोना बीनते वक्त मैं राधे से कम ही बोलता था पर एक बार मैंने कहा राधे तुम सोना क्यों बीनते हो, तो राधे ने जवाब
दिया कि वो मरने के पहले एक बार वैष्णोदेवी माँ के दर्शन करना चाहता है. मैंने पूछा कितने पैसे चाहिए तुम्हें
वैष्णोदेवी जाने के लिए. उसने कहा कम से कम हजार तो लगेंगे ही. मैंने कहा तो तुम्हारे पास हजार रूपये नहीं है. राधे
ने कहा है ना ………… अरे ये क्या बात थी मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने कहा जब तुम माँ के दर्शन करना चाहते हो और
तुम्हारे पास पैसे भी है तो जाते क्यों नहीं ……………… राधे चुप हो गया …………… ये चुप्पी अजीब थी सो मैंने भी
टोका नहीं ……………….. राधे ने धीरे से कहा …………………
गाँधीजी से मिलने के कुछ समय बाद गाँधीजी की मृत्यु हो गई थीतब मुझे बहुत दुख हुआ . हमारे गाँव में गाँधी पार्क
और उनकी पत्थर की मूर्ति स्थापना हुई, मुझे लगा गाँधीजी ने जरूर मरते वक्त कहा हो कि मेरी मूर्ति राधे के गाँव में
जरूर लगाना ….. मैं घंटों उनकी मूर्ति के सामने खड़ा रहता था, गाँधीजी भी मेरी तरफ घंटों देखते रहते थे. मुझे लगा
वो मुझसे कुछ कहना चाहते हैं …………. पर चूंकि पार्क में बहुत भीड़ होती है इसलिए कुछ कह नहीं पा रहे हैं. …….
फिर एक रात वो मेरे सपने में आए . ……… असल में वो नहीं आये, उन्होंने ही मुझे अपने आश्रम में बुला लिया
………. मैंने देखा गाँधीजी और बहुत सारी भीड़ है उन्होंने मुझे देखा और बोला राधे …………. मैंने प्रणाम किया
उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और धीरे से कान में बोले ……… बेटा मैं नहीं जा पाया पर तू एक बार वैष्णो देवी जी
चला जा माँ से मिल आ मैं दंग रह गया ये गाँधीजी मुझसे क्या कह रहे हैं? मैंने गाँधीजी की तरफ देखा तो देखता क्या
हूँ ? गाँधीजी कबूतर बन गये और उड़ने लगे ……… अचानक नींद खुल गई सुबह होते ही मैं तुरत गाँधीजी से मिलने
गाँधी पार्क गया तो देखा वही कबूतर गाँधीजी के सर पर बैठा है ………………………. सपना सच्चा था ……………….
एकदम सच्चा …………. उस वक्त तक मैं एक बार ही गाँव के बाहर गया था सो बहुत डरा हुआ था. बहुत कोशिश की
पर उस वक्त मैं जा नहीं पाया और अब जाना भी नहीं चाहता …….. क्योंकि मैंने अपना पूरा जीवन चाहे जैसा भी हो
एक ही आशा में जिया है कि एक दिन मैं वैष्णव देवी जाउंगा ………… जरूर जाउंगा और अब अगर मैं चला गया तो
फिर मैं ये सारे दिन कैसे बिताउंगा. जिस आशा में मैं जिया हूँ. वो आशा पलते-पलते बड़ी हो गई है मेरे बेटे जैसी. अब
इस उम्र में मैं अपने बेटे की हत्या तो नहीं कर सकता ना.
चींटियां दिखती है, वो चींटियां के साथ खेलता है और फिर उठता है.
मुझे याद है कि गाँधीजी के बारे में मैंने अपने स्कूल में पढ़ा था हमारे मा-साब. गाँव में टीचर को मा-साब कहते हैं. बड़े
नीरस ढंग से गाँधीजी के बारे में बताते थे. ना मा-साब को गाँधीजी के बारे में बताने में और ना ही हमको गाँधीजी के
बारे में सुनने में मजा आता था और मुझे तो बिल्कुल भी नहीं .क्योंकि तब तक मैं रघु के विशाल और चमकदार संसार
में प्रवेश कर चुका था. रघु…. रघु ……… रघु ………… रघु नहीं था वो एक चमत्कार था. वो बहुत खूबसूरत था उससे
सब डरते थे क्योंकि पहले तो उसके पिताजी पुलिस थे जो तबादले की वजह से हमारे गाँव में आ गये और दूसरा पूरे
गाँव में रघु ही था जो अंगे्रजी में थोड़ा बहुत बोल लेता था. हमारे स्कूल के मा-साब भी उससे डरते थे. क्योंकि उसकी
अंग्रेजी का हमारे हिंदी के मास्टरों के पास कोई जवाब नहीं था. मेरे लिए रघु कक्षा ९ से कक्षा ११ तक कृष्ण था
जिसकी बांसुरी पर मेरे जैसी कई गायें रघु के आगे पीछे मंडराती थी मेरे लिए वो हिरण, बब्बर शेर और घोड़े का
अजीब मिश्रण था. वो हमेशा क्लास में लेट आता था और उसके आने के पहले वो नहीं उसकी आवाज़ आती थी. घोड़े
जैसी टप ……….. टप …………. टप………….. ये उसके हील वाले लम्बे जूते थे. जैसे ही वो क्लास के दरवाजे पर
प्रकट होता था तो उसके बब्बर शेर जैसे बालों को देखकर मा-साब अपनी कुर्सी छोड़ देते थे. वो एकदम चुस्त कपड़े
पहनता था. वो बहुत अलग था पूरा गाँव एक तरफ औश्र रघु एक तरफ वो बहुत रंगीन था. और वो भारतीय नहीं
किसी विदेशी भगवान को मानता था, जिसकी तस्वीर उसने अपने घर मेंं चारों तरफ लगा के रखी थी. बार -बार वो
कहता था “वो भगवान है, वो भगवान है, वो भगवान है! एक बार वो कह रहा था उसके भगवान में फुर्ती है कि वो जब
सोने जाते हैं ना तो जैसे ही बटन बंद करते हैं तो बल्ब बाद में बुझता है पहले वो सो जाते हैं. एक दिन भीड़ में गाय
जैसी आवाज़ निकालकर मैंने रघु से पूछा – रघु कौनसा धर्म चलाते हैं तुम्हारे भगवान. वो हंसा बहुत हंसा काफी देर
हंसने के बाद उसने अंग्रेजी में एक शब्द कहा मेरी समझ में नहीं आया. मेरा और रघु का रिश्ता कृष्ण और उसकी गाय
जैसा ही था. हम दोनों ने कभी सीधे एक दूसरे से बात नहीं की थी. मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी. मैंने अपने ट्रक वाले
दोस्त से रघु के बारे में बहुत सारी लिखी थीं. मैं उस वक्त घर सिर्फ सोने जाता था. खाना पीना भूल चुका था. मैं बस
मैं बस रघु का पीछा किया करता था. उसके पास एक अजीब सी खूबसूरत लाल रंग की साइकिल थी. जब वो अपने
हील वाले जूते और लाल चुस्त टी शर्ट पहनकर साइकिल चलाता था क्या दिखता था. मैं उसके पीछे भागता रहता था.
उसकी साइकिल की घंटी की आवाज़ सुनने. जब वो अपनी साइकिल खड़ी करके कहीं जाता था तो मैं धीरे से उसकी
साइकिल की घंटी बजा देता था. क्या आवाज़ थी उसकी घंटी की. हमारे गाँव की साइकिलों जैसी नहीं जो टन टन
बजती थी. उसकी घंटी तो ट्रिंग ट्रिंग बजती थी. पर एक दिन उसने स्कूल में घोषणा कर दी कि वो गाँव छोड़कर जा
रहा है. क्योंकि उसके पिताजी का तबादला शहर हो गया है. मैं उसी वक्त क्लास में रो दिया और धीरे से नहीं जोर से
चिल्ला चिल्ला कर और कहता रहा – नहीं रघु नहीं तुम मुझे छोड़ के नहीं जा सकते. तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर
सकते हो ? नहीं – नहीं जब मैं चुप हुआ तो पूरी क्लास मेरे उपर हंस रही थी. मैं बर्दाश्त नहीं कर पाया. मैं उठा और
क्लास से निकल गया. पर जाते वक्त एक बार मैं रघु का चेहरा देखना चाहता था – कहीं वो भी मेरे उपर नहीं हंस रहा
है. पर मेरी हिम्मत नहीं हुई मुझे अपना किया बहुत बुरा और शर्मनाक लगने लगा. सुबह-सुबह उठा तो राधे से
लिपटकर खूब रोया. राधे ने मुझे समझाया और कहा – कोई बात नहीं ऐसा तो होता है रोते नहीं. जब मैं भी गाँधीजी
से विदा ले रहा था तो वो भी मेरा जाना बर्दाश्त नहीं कर पाये. उनकी आँखों में आंसू थे. मतलब वो समझ ही नहीं रहा
है कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ. तब पहली बार मैं राधे पर नाराज हुआ और उठकर सड़क के उस तरफ चला गया और
एक ट्रक के पास घंटों खड़ा रहा.
मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया. कुछ दिनों बाद एक हवलदार घर पर आया. मैं घबरा गया उसने माँ से पूछा राजकुमार है.
मेरे दिमाग में सीधे अपनी ट्रक वाली गलती याद आई. मैंने सोचा पकड़ा गया. अब सबको पता लग जाएगा कि मैं उन
सबके बारे में क्या सोचता हूँ. मुझे जेल में जाने का डर नहीं था लेकिन ये कल्पना ही अपने आप में बहुत डरावनी है
कि सबको पता लग जाए कि आप सब के बारे में क्या सोचते हैं? ये सबके सामने नंगा होने जैसा है. मैं डरते हुए उस
हवलदार के सामने गया. मैंने कहा – जी मैं ही राजकुमार हूँ. वो हंसा – उसने मुझे एक बैग दिया और कहा – ये रघु
साहब जाने से पहले आपको देने को कह गये थे – अच्छा नमस्ते. चला गया. मैंने बैग खोला तो देखता क्या हूँ उसमें
रघु के हील वाले जूते थे और उसके भगवान की फोटो.
राजकुमार ब्रूस ली की फोटो निकालता है उसे दण्डवत प्रणाम करता है.
रघु के जूते मैं ज्यादा पहन नहीं पाया क्योंकि वो मुझे काटते थे. लेकिन जब तक मेरा पैर सूज नहीं गया मैंने उन्हें
पहनना नहीं छोड़ा एक दिन पुंडलिक ने मेरा सूजा हुआ पैर देखा मुझे लगा उसे बहुत दुख होगा – पूछेगा क्या हुआ,
पर नहीं उसने कुछ नहीं पूछा सिर्फ मेरे पैर की तरफ देखा मुस्कुराया और पलट कर खिड़की की तरफ देखने लगा.
फिर धीरे से पलटा मुस्कुराया और बोला -
जूता जब काटता है तो ज़िंदगी काटना मुश्किल हो जाता है.
और जूता काटना जब बंद कर दे तो वक्त काटना मुश्किल हो जाता है.
उस दिन पहली बार मैंने अकेलापन महसूस किया. क्योंकि यहाँ कोई मेरे साथ नहीं रहता था. ऐसा वक्त मुझे याद
नहीं जब मैं बोल रहा हूँ कोई और सुन रहा हो. ये अलग बात है कि मेरे पास बोलने के लिए कुछ था ही नहीं. पर
पुंडलिक भी कभी मेरे साथ नहीं रहा हमेशा मैं ही उसके साथ रहा हूँ. राधे की गाँधी की बातें अभी तक खत्म नहीं हुई
थी. वहाँ भी मैं चुप रहता था. माँ की नाव में अभी तक पानी खत्म नहीं हुआ था. ट्रक वाला दोस्त था जिससे मैं अपनी
सारी बातें कह देता था. पर वहाँ उस तरफ वो इसे पढ़ रहा है इस बात पर मुझे पहली बार संदेह हुआ.
जूते घर के कोने में कई दिनों तक पड़े रहे वो कतई घर का हिस्सा नहीं लगते थे. बाद में घर ने उन्हें अपना हिस्सा
बना लिया और ये नेक काम मेरी माँ ने ही किया. उन्होंने उन लम्बे हील वाले जूतों को दो गमले का रूप दे दिया. मैं
देखता रहा. मुझे बहुत बुरा लगा. वो रघु के जूते थे. मेरे रघु के. पर मैंने कुछ नहीं कहा. क्योंकि जो संवाद हमारे बीच
पहले ही तय हो चुके थे. मैं उन्हें अब तोड़ना नहीं चाहता था.
(चींटियां दिखती हैं. वो चिंटियों के साथ खेलता है और फिर उठता है )
आप को लग रहा होगा कि मैं क्या कर रहा हूँ. मैं खेल रहा हूँ हाँ, सच में खेल रहा हूँ एक दिन क्या हुआ कि अचानक
घर पे बैठे बैठे मैंने एक रेल देखी चींटियों की रेल जो एक के पीछे एक रिद्म में चली जा रही थी. मैं उनका पीछा करता
गया कुछ समझ में नहीं आया कि वो कहाँ से आयी है और कहाँ को जा रही है. पर वो सब एक ही लाईन में चल रही
थी. मैं शक्कर के पाँच दाने ले आया. फिर वो खेल शुरू हुआ. मैंने घर का दरवाजा बंद करके पूरे बाहर को बंद कर दिया
तो भीतर की दुनिया मुझे साफ़ दिखने लगी. अब मैंने उस रेल के बगल में शक्कर के दाने जमाने शुरू किये पहले दो
दाने पास पास तीसरा दूर चौथा और दूर पाँचवा सबसे आखिर में. दो तीन चींटियां उन शक्कर के दानों की ओर मुड़ने
लगी रेल घूम चुकी थी जैसे ही चींटियां पाँचवे दाने पर पहुंचती थी मैं शुरू के दो दाने उठा लेता था और वो पाँचवे दाने
के आगे रख देता था इस तरह मैं उन चींटियों की रेल को किसी भी तरफ घुमा देता था. बड़ा मजा आता था कि कोई है
जो आपके इशारे पर घुम रहा है. सिर्फ शक्कर के पाँच दानों पर. ये मेरा सबसे पसंदीदा खेल था जो मैं रोज खेलता था.
पुंडलिक जबसे हमारे यहाँ आया था बहुत कम ही कहीं जाता था. कभी कभी शहर में अपने दोस्त ताराचंद जैसवाल को
मिलने जाता था और एक दिन में लौट आता था. मैं उसके सामने अपना चींटियों वाला खेल नहीं खेल पाता था ना, मैं
कभी गाँव से बाहर नहीं गया. क्योंकि राधे ने मुझे बताया था कि गाँव के बाहर बहुत खतरा है. बाहर जाकर खाना
भाषा लोग सब बदल जाते हैं. देखते नहीं हमारे गाँव के दोनों तरफ शहर है और उन शहरों की भीड़ कैसे हमारे गाँव
की सड़क पे दौड़ती रहती है. पुंडलिक जब मेरे साथ बात करता था तो मुझे लगता था वो राजु मेरा नाम लेकर अपने
से ही बात करता है. क्योंकि मैं कभी-कभी उठकर चला जाता था और जब वापिस आता था तो देखता था पुंडलिक
अभी भी राजू नाम ले लेकर बात कर रहा है. वो अजीब से अकेलेपन का शिकार था. ये मैंने नहीं सोचा उसी को खुद से
कहते हुए सुना है. एक बार वो एक अजीब सी चीज खुद को पढ़कर सुना रहा था – एक कुता अपनी ही दुम को काटने
की कोशिश करता है. तब एक तरह का कुता – चक्रवात शुरू होता है. जो तभी खत्म होता हैजब इस तूफान से कुता
कुते के रूप में निकल आता है. खालीपन – ये कुता मेरी और मैं उसकी आँखों में देखता हूँ.
पुंडलिक बताता है कि वो घोषित कवि हुआ करता था. उसने हर तरह की कविता लिखने की कोशिश की दर्द भरी
रोमाँस वाली, बच्चों पर, पर्यावरण पर, पत्थर पर, फूल पर पर किसी ने कौडी तक को नहीं पूछा. बाद बाद में तो लोग
उसे देखकर भागने लगते थे. पुंडलिक चिल्लाकर कहता था. नहीं भाई अब मैं कोई कविता नहीं सुनाउंगा. पर कोई भी
नहीं रूकता था. जो लोग रूक जाते थे पुंडलिक उन्हें घुमारिफराकर एक कविता सुना देता था. पुंडलिक बताता है कि
लोग उसका मजाब उडड़ाने लगत थे. जिस घर में वो घुसता था. वहाँ से ची,ा पुकार की आवाजें लोगों को बाहर तक
सुनाई देती थीं पुंडलिक ने बच्चों पर भी कविताएं लिखही थ्साी. सो मोहल्ले में बचें ने खेलना बंद कर दिया था. हर
बच्चा पुंडलिक नाम से डरता थ .लोग उसके घर पर सब्जी, किराना सब पहुंचा देते थो क्योंकि कोई भी आदमी किसी
भी बहाने से पुंडलिक की कोई भी कविता नहीं सुनना चाहता था छापना तो दूर की बात. आजकल पुंडलिक की कोई
भी कविता नहीं सुनना चाहता था. छापना तो दूर की बात. आजकल पुंडलिक अपनी कविताएँ सुना कर मेरी तारीफ
नहीं करता था बल्कि गुस्सा हो जाता था. एक बार कविता सुनाने के बाद उसने पूछा – क्यों कविता अच्छी नहीं लगी
तुम्हें? मैंने कहा – नहीं अच्छी थी. उसने कहा – तो फिर गुस्से में क्यों देख रहे हो ………. अरे अजीब बात है. उसी ने
मुझसे कहा था कि मैं तुझे गम्भीर श्रोता बनाना चाहता हूँ. वैसे भी आपको पता ही है कि गम्भीर शब्द मुझे कितना
पसंद है. गम्भीर क्या शब्द है. पर भैय्या जब आप हतप्रभ भाव पर थोड़ा गम्भीर भाव लाने की कोशिश करते हैं तो
आपका चेहरा थोड़ा ऐसा दिखने लगता है. पर मैं गम्भीर होने की पूरी कोशिश करता था.
(चींटियां दिखती हैं, वो चींटियां के साथ खेलता है और फिर उठता है)
एक दिन जब मैं अपना चींटियों वाला खेल खेल रहा था. तब अचानक मुझे लगना लगा कि मैं चींटी हो गया हूँ. मुझे
अजीब लगने लगा. मुझे लगा कि कहीं खेलते खेलते मेरी अकल भी चींटिंयों जैसी तो नहीं हो गई. तभी मेरी नजर
शक्कर के दानों पर पड़ी. तो देखता क्या हूँ, कि वो शक्कर के दाने, दाने ना होकर रघु, पुंडलिक, राधे, माँ और मेरा ट्रक
वाला दोस्त हो गये हैं. और मैं उनके पीछे भागने लगा. इसका मतलब ये हुआ कि कोई है जो कोई है जो मेरे साथ खेल
रहा है. जबकि मैं खेल नहीं रहा हूँ. जैसा कि मै चींटियों के साथ खेलता हूँ, जबकि चींटियां मेरे साथ नहीं खेल रही होती
है. क्या पता शायद चींटियां भी किसी के साथ खेल रही हो, जबकि वो चींटियों के साथ नहीं खेल रहा हो. मतलब सभी,
सभी के साथ खेल रहे हैं. इसका मतलब पुंडलिक भी मेरे साथ खेल रहा है.
अब आपको मेरी समस्या समझ में आयेगी ………….. समस्या ……… मेरे लिये बहुत बड़ी समस्या है जिसके लिए मैं
ये सब कर रहा हूँ. ये समस्या पुंडलिक के रूप में मेरे पास आई. दरअसल पुंडलिक अपना कविता संग्रह छपवाना
चाहता था. शहर में कोई ताराचंद जैसवाल उसका दोस्त था जो संग्रह छपवाने में पुंडलिक की मदद कर रहा था. वैसे
मैंने तो उसकी सारी कविताएँ सुनी थी. कुछ तो इत्ती बार कि आज भी मुझे जबानी याद है. समस्या की शुरूआत तब
हुई जब पुंडलिक घर छोड़ के जा रहा था. जाते वक्त मैंने देखा उसके एक हाथ में उसकी डायरी जिसमें वो कविताएँ
लिखता था और एक खत और दूसरे हाथ में मेरी माँ की फोटो और गीता थी. वो ये सब लेकर मेरे पास आया. मुझसे
कहा अपने दोनों हाथ इस पर रखो और कसम खाओ …………… कसम खाओ ……… अपनी माँ की इस गीता की मेरी
कविताओं की कि तुम मेरा कविता संग्रह जरूर छपवाओगे. मैं कसम खाउं. इससे पहले मैंने देखा कि उसने अपना
सामान भी बांध लिया था. मैंने कहा – कहाँ जा रहे हो पुंडलिक? हमारे गाँव से शहर वैसे भी बहुत दूर नहीं था मतलब
सामान बांधने जितना दूर तो बिलकुल भी नहीं था. मेरे सवाल का पुंडलिक ने कोई जवाब नहीं दिया. उसकी आवाज़
अज़ीब-सी होती जा रही थी. और वो कसम खाने पर जोर देता रहा सो मैंने कसम खा ली. विद्या माता की, धरती
माता की, कविताओं की कसम, गीता की कसम ….. और भी दो तीन कसमें मैंने जोश में अपनी तरफ से और खा ली.
मेरा क्या जाता था. कविता संग्रह पुंडलिक का था, ताराचंद जैसवाल उसे छापने वाला था. मैं कौन था? असल में मैं
कोई भी नहीं था पर मेरी एक बात समझ में नहीं आई कि पुंडलिक मुझे कसम खाने की क्यों कह रहा है कि तुम मेरा
कविता संग्रह छपवाना. असल में कसम खा कर मैं इस चक्कर में पूरी तरह से फंस चुका था. कसम की रसम पूरी होते
ही पुंडलिक का चेहरा खिल उठा. उसने माँ की फोटो और गीता एक कोने में फेंक दी. और अपना सामान उठाकर
निकल गया. दरवाजे पर पहुंचकार उसे ध्यान आया कि मैंने उससे कुछ पूछा था – कहाँ जा रहे हो पुंडलिक ? वो
पलटा और बोला – पहले शहर जाकर तारचंद जैसवाल को ये कविताएँ और ये चिट्ठी दूंगा जिसमें मैंने इन कविताओं
और तुम्हारे बारे में सब कुछ लिख दिया है. उसके बाद वहीं से सीधे तीर्थयात्रा और फिर सन्यास ये कहकर वो मेरे गले
लग गया और कान में धीरे से बोला – मै तुम्हें कुछ देना चाहता था,मेरे जाने के बाद वो तुम्हें मिल जाएगा. धन्यवाद.
नमस्ते. और वो चला गया.
कविताओं के बारे में तो ठीक है पर मेरे बारे में चिठ्ठी में क्यों लिखा है ? मुझे वो क्या देना चाहता है और क्यों ?? मैने
तो सिर्फ उसकी कविताऐं सुनी थी और आधी से ज्यादा तो समझ में भी नहीं आई. अगर सुनने वाले का चिठ्ठी
विठ्ठी में जिक्र होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, पर एैसा नहीं था मैं पूरी तरह फंस चुका था। कैसे पुंडलिक ने मुझे
इस समस्या में फंसाया इसका पता कुछ दिन पहले आई ताराचंद जैसवाल की चिठ्ठी से लगा. मतलब पुंडलिक मेरे
साथ ऐसा कैसे कर सकता है, मुझे यकीन नहीं हुआ. मैं मानता हूँ मैं बहुत उपयोगी आदमी नहीं हूॅं, पर मेरा उपयोग
कोई ऐसे कर सकता है इसका विश्रवास मुझे नहीं हुआ. पता है पुंडलिक ने मेरे साथ क्या किया? ताराचंद जैसवाल की
चिठ्ठी में क्या लिखा था? ? ये रही उनकी चिठ्ठी. वैसे चिठ्ठी तो काफी बड़ी है. पर मुख्य बातें आपको सुना देता हूँ।
(पढ़ता है ) राजकुमार ……….. कवि हृदय महान कवि को मेरा नमस्कार. आपकी कविताएं पढ़कर काफी खुशी हुई.
पुंडलिक आपकी कविताओं के बारे में पहले भी मुझे बता चुके हैं. सारे लोग आपकी कविताओं की तारीफ कर रहे हैं.
अगले महीने तक संग्रह छप जाएगा पर एक परेशानी है, संग्रह में एक कविता कम पड़ रही है ऐसा मैं नहीं हमारे
संपादक महोदय सोचते हैं. आप तो बड़े कवि हैं इस संग्रह के बाद तो आपका नाम बड़े बड़े कवियों के साथ लिया
जाएगा. कृपया कर एक कविता जल्द से जल्द भेजने का कष्ट करें. मेरी बेटी आपकी कविताओं की दीवानी है. शादी
करने के बारे में क्या विचार है आपका ? पुंडलिक आपकी काफी तारीफ़ करता था दर्शन कब होंगे. संग्रह में आप
अपना नाम राजकुमार ही लिखेंगे या कोई उपनाम भी जोड़ेंगे. बता दीजिएगा. आपका अपना ताराचंद जैसवाल.
मतलब अब समस्या एक भयानक रूप ले चुकी है मैंने कसम क्यों खाई. अब पछता रहा हूँ कसम की छोड़ो मैं तो खुद
चाहता हूँ कि पुंडलिक का कविता संग्रह छपे. मगर इस तरह से ……….. नहीं … मैंने क्या क्या नहीं किया, मैं कई
दिनों से पुंडलिक की किताबों की तलाशी ले रहा हूँ. कि कहीं वो चार लाईन – दो लाईन – एक लाईन लिखी छोड़ गया
हो. पर कहीं कुछ नहीं मिला. फिर मैंने पेन उठा लिया और पुंडलिक की तरह सोचते हुए लिखना शुरू किया
…………….. खर-खर, फर-फर, छर-छर ……… मैं इसके आगे बढ़ ही नहीं पाया ……………. असल में मेरे जीवन में
ऐसा कुछ हुआ ही नहीं ……… जिसके बारे में मैं लिखूं या जिससे लडूं. मुझे सब कुछ याद है जो अभी तक हुआ है पर
यकीन मानिये – वो कुछ नहीं हुआ जैसा है. जैसा कि पुंडलिक कहता था कि कविता लिखने के लिए जरूरी है अपने
जीवन अपने अनुभवों को याद करके, उनसे लड़के, उनका सामना करके जो बात कही या लिखी जाए वही कविता है.
वाह ………. वाह ……….. ना तो ये बात मुझे तब समझ आयी थी ना अब समझ में आती है. मतलब कुश्ती अब
समझ में आ जाती है पर कविता अभी भी मेरे लिए आश्चर्य है. क्या लड़ना ……………. किससे लड़ना ……………..
भीतर की खुदाई ये मेरे समझ के परे की बात तब भी थी अब भी है. पर अब मेरे पास दूसरा कोई चारा नहीं. मुझे ये
काम अब करना ही है. पर ऐसा नहीं है मैं लिखना शुरू कर चुका हूँ. चार दिन पहले ही मैंने वो खत जो ताराचंद
जैसवाल को मुझे भेजना है उसकी शुरूआत और अन्त लिख दिया है. (पढ़ता है)
शुरूआत – नमस्कार ताराचंद जी. नमस्ते. कैसे हैं आप ? मैं ठीक हूँ. आप अच्छे होंगे. मेरी कविता निम्नानुसार है -
अंत – उपर्युक्त कविता ठीक है. मैं भी ठीक हूँ. गलती माफ़ ये कविता भेजने के बाद मैं ये घर, ये गाँव , ये शहर, ये
देश छोड़कर जा रहा हूँ. मेरा पीछा करने की कोशिश मत करना. कविता संग्रह जरूर छापना, आपको कसम है.
आपका आज्ञाकारी कवि राजकुमार “गम्भीर”.
गम्भीर ……………….. गम्भीर ………………… शब्द मैंने जोड़ दिया वैसे तो मुझे समस्या शब्द भी अच्छा लगता है
पर कवि राजकुमार समस्या गम्भीर ये नाम शायद अच्छा नहीं होगा. सो मैंने समस्या निकाल दिया. कवि राजकुमार
गम्भीर नाम ठीक है. इतना काम मैंने तो कर दिया – कविता कैसे लिखूं ? लिखना ही है सभी रास्ते बंद है सीधी
लम्बी सड़क है. छुपने के लिए कोई पगडंडी, गली, कुचा कुछ भी नही है. सो मुझे आगे बढ़ना है और लिखना है. अगर
एक कसम खाई होती तो कसम से मैं वो कसम शायद तोड़ भी देता. पर जोश में खाई हुई सारी कसमें अब भूत बनकर
मेरे ही पीछे पड़ गईं. अरे गाँधीजी मेरी रक्षा करो, ओ भगवान मेरी रक्षा करो ……… नहीं नहीं मेरी रक्षा ये नहीं कर
सकते. एक कवि ही कवि की रक्षा कर सकता है. अब सिर्फ पुंडलिक ही मुझे बचा सकता है. उसने कहा थ्ज्ञा कि अपने
से लड़ो सो मैं लड़ रहा हूँ.
पुंडलिक ने जब मुझे अपनी माँ के बारे में बताया कि कैसे उनके अंतिम दिनों में उसने उनकी सेवा की तो मैं भी
कल्पना करने लगा कि मैं माँ के अंतिम दिनों में माँ के लिए क्या क्या करूंगा. सबसे पहले तो मैं उनका मग्गा उनके
हाथ से छीनकर कहीं दूर फेंक आऊंगा. और एक बार अपने हाथों से उन्हें लाल रिबन पहना कर फिल्म दिखाने ले
जाउंगा. क्योंकि मेरी बड़ी इच्छा थी ये देखने की कि माँ फिल्म कैसे देखती होंगी. कैसे टिकट की लाईन में लगती
होगी. इन्टरवल में क्या करती होगी और उनके लाल रिबन का फिल्म देखने से क्या ताल्लुक है. पर मेरी ये सारी
इच्छाएँ, इच्छाएँ ही रह गई. क्योंकि एक सुबह जब मैं उठा तो देखा माँ अपने पलंग पर नहीं थी वो दरवाजे के पास
जमीन पर औंधी पड़ी थी और उनके बालों में लाल रिबन बंधा हुआ था. मैंने कहा माँ – माँ पर वो उठी नहीं फिर मैंने
मदर भी बोला पर वो हिली भी नहीं. मैं डर गया. मैं पुंडलिक को उठाने गया पर उसके पहले मैंने माँ के बालों से लाल
रिबन निकालकर अपनी जेब में रख लिया. मैं नहीं चाहता था कि उनकी फिल्म देखनेवाली बात किसी और को पता
चले. पुंडलिक आया. उसने घोषणा कर दी कि तैयारी कर लो तेरी माँ मर गई. ऐसा कैसे हो गया – कौनसी तैयारी और
ये संभव कैसे हो सकता है. मुझे दुख नहीं आश्चर्य हो रहा था क्योंकि मुझे अपनी नहीं चिन्ता इस घर की थी. क्या ये
घर कुछ नहीं कहेगा. क्योंकि माँ हमारे साथ नहीं इस घर के साथ रहती थी. शायद घर को पहले खत्म होना चाहिए
था. शायद इसलिए माँ पलंग पे नहीं नीचे जमीन पर घर की गोद में मरी थी. तैयारी कर लो कहकर पुंडलिक चला
गया. मुझे अकेला माँ के साथ छोड़ के. मैं क्या करता ? मैंने उन्हें पलटाया उनके सर के नीचे एक तकिया रखा और
उनकी सूखी कड़क देह को देखने लगा ………………. इसी ने मुझे पैदा किया है – अजीब लगता है ना. पुंडलिक अर्थी
का सामान और कुछ लोगों को लेकर आया. मैं रो नहीं रहा था पर सभी लोग मुझसे कह रहे थे. घबराओं नहीं ऐसा
होता है – सब ठीक हो जाएगा वगैरह वगैरह. फिर मेरा सिर मुंडवाया गया और मैंने माँ को अग्नि दी. मैं अपनी माँ को
जलते हुए देख रहा था. अचानक लकड़ियों के बीच मुझे उनका हाथ दिखा. मुझे लगा वो अपना मग्गा माँग रही है.
मेरी इच्छा हुई कि उनका मग्गा लाकर उनके हाथों में पकड़ा दूं या कम से कम अपनी जेब से लाल रिबन निकालकर
उनकी चिता में ही डाल दूं. पर मेरी हिम्मत नहीं हुई. मैं चुपचाप उनका जलना देखता रहा. वो जलती हुई लकड़ियों के
बीच मेरी माँ है जो जल रही है. जब मैं घर लौट रहा था तो लगा शायद घर नहीं होगा. वो गिर चुका होगा या कहीं न
कहीं कोई दरार तो जरूर पड़ी होगी. पर ऐसा कुछ नहीं था. सब कुछ सामान्य था.
धूप चेहरा जला रही है
परछाई जूता खा रही है
शरीर पानी फेंक रहा है
एक दरख्त पास आ रहा है
उसकी आंचल में मैं पला हूँ
उसकी वात्सल्य की साँस पीकर
आज मैं भी हरा हूँ.
आप विश्वास नहीं करेंगे
पर इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है.
मैं इसे माँ कहता हूँ.
आजकल राधे काफी उदास रहता था. वो अपना काफी समय गाँधी पार्क में गाँधीजी के साथ बिताता था. कहता था
आजकल वो और गाँधीजी काफी बातें करते हैं. पर गाँधीजी ने मेरी बात समझकर मुझे माफ भी कर दिया अब
गाँधीजी वैष्णोदेवी जाने की जिद कम ही करते हैं. पर वो उदास था क्योंकि आजकल इस गाँव में वैष्णोदेवी जाने का
मौसम था. लोग वैष्णोदेवी जा रहे थे वहाँ से लौट के आ रहे थे पर लोग राधे को भगा देते थे. राधे का भी एकदिन
अचानक आना बंद हो गया था. घर के सामने धूल ही धूल जमा हो गई थी. राधे आ नहीं रहा था मुझे लगा इस धूल में
राधे का कितना सारा सोना बिखरा पड़ा होगा. मैंने झाडू लगाकर वो सारी धूल इक्ट्ठी कर ली सोचा जब राधे आयेगा
तो ये सारी धूल उसे दे दूगा. वो बहुत खुश होगा. पर राधे नहीं आया. फिर अचानक एक दिन वो आ गया मैंने पूछा राधे
कहाँ थे इतने दिनों? वो कुछ नहीं बोला – चुपचाप बैठा रहा. मैंने कहा मैं गाँधी पार्क भी गया था. तुमको देखने पर तुम
वहाँ भी नहीं दिखे तब भी वो चुप रहा. शायद वो जवाब नहीं देना चाहता था. सो मैं भी चुपचाप बैठा रहा. और मैंने जो
इतने दिनों से धूल जमा करके रखी थी उसे लेने से भी राधे ने मना कर दिया. उसने कहा कि अब ये मेरे किसी काम
की नहीं है. ये कहते ही वो एक सफेद पोटली बन गया और मेरे सामने लुढ़कने लगा. जब राधे इतने दिनों नहीं आया
था तब मैंने पहली बार अपने जीवन में किसी का ना होना महसूस किया था. वैसे तो पुंडलिक भी चला गया था माँ भी
नहीं रही. पर उनके जाने के बाद उनका ना होना मैंने कभी महसूस नहीं किया. जब तक राधे नहीं आया था मुझे ऐसा
लग रहा था मानो मेरे अंदर इतनी खाली जगह छूट गई है कि मुझे अपनी ही आवाज़ गूंजती हुई सुनाई दे रही थी.
बस यही है जो है. इसके अलावा मेरे जीवन में ऐसा कुछ नहीं हुआ है. जिसका जिक्र किया जा सके. कुछ छुटपुट बातें
और है जैसे एक कुता घर के पिछवाड़े रोज मुझसे मिलने आने लगा. मैं भी शाम को उसके साथ समय बिताने लगा.
अभी कुछ ही दिन हुए थे. मैं अभी उसका नाम रखने की सोच ही रहा था कि उसने अचानक आना बंद कर दिया.
बस अब राधे है. मेरा ट्रक वाला दोस्त है और मैं हूँ. हम तीनों है और खुश हैं. लड़ाई खत्म. बस इतना ही मेरे साथ हुआ
है. मतलब इतना ही हुआ है जो मुझे याद है जिसे सुनाया जा सके. पर इतने के बाद भी मेरी समझ में ये नहीं आया
इसमें ऐसा क्या है जो कविता है . पुंडलिक कवि है कविता नहीं है. मेरी माँ भी मेरी माँ ही है. वो गोर्की की या पुंडलिक
की माँ जैसी नहीं है. मेरी माँ के साथ घटनाएं हैं कविता नहीं है. राधे राधे है. जो गाँधी पार्क में लगी गाँधीजी की मूर्ति
की लाठी है. उससे ज्यादा राधे कुछ नही है. ट्रक वाला दोस्त के बारे में मैं चुप रहना ही पसंद करता हूँ. रघु मेरे लिए
चमत्कार था, चमत्कार है और चमत्कार रहेगा वो मेरा रघु है. पर कविता, वो तो कही नहीं है. मैं अपने से जितना लड़
सकता था लड़ा. ये कविता कहाँ छुपी है. इतनी सारी कसमें खा चुका हूँ. क्या होगा उनका ? ताराचंद जैसवाल वहाँ
इंतजार कर रहा है. मैं यहाँ एक शब्द भी नहीं लिख पा रहा हूँ. पुंडलिक मुझे माफ कर देना. मुझसे नहीं होगा. कसम
वसम चूल्हे में भसम ……………. सड़ी सुपारी बन में डाली सीताजी ने कसम उतारी. नहीं नहीं ये कुछ काम नहीं
करेगा ये सब मैं अपने आपको बहलाने के लिए कर रहा हूँ. मैं एक तरह का खेल अपने साथ खेल रहा हूँ. ये खेल कब
तक चलेगा. मुझे लिखना है और मैं अभी लिखकर रहूँगा.
तैयार ………… अब ताराचंद जैसवाल ये रही आपकी चिट्ठी पूरी तरह पूरी. अब आपको जो समझना हो समझो.
(पढ़ता है)
शुरूआत – नमस्कार ताराचंद जी. नमस्ते. कैसे हैं आप ? आप अच्छे होंगे. मेरी कविता निम्नानुसार है ……………
शक्कर के पाँच दानें जादू है
जिनके पीछे चींटियां भागती है दो दानों पर पहुंचती है
तीन आगे दिखती हैं. सारी चींटियों को बुला लेती हैं.
पाँचवे दाने पर पहुंच जाती है पर पीछे के दो दानों को भूल जाती है
फिर वही दो दाने आगे मिलते हैं. वो जादू में फंस जाती है.
और घूमती रहती है. ये खेल कभी खत्म नहीं होता.
क्योंकि चींटियां तलाश रही हैं खेल नहीं रही हैं.
जादूगर एक है जो खेल रहा है.
अंत -
उपर्युक्त कविता ठीक है. मैं भी ठीक हूँ. गलती माफ, ये कविता भेजन के बाद मैं ये घर, ये गाँव , ये शहर, ये देश
छोड़कर जा रहा हूँ. मेरा पीछा करने की कोशिश मत करना. कविता संग्रह जरूर छापना – आपको कसम है.
आपका आज्ञाकारी
कवि राजकुमार गम्भीर.
ठीक है न ………….. ?
(चींटियों का खेल खेलना शुरू करता है)
ब्लैक आऊट
Page 1 of 16शक्कर के पाँच दानेः मानव कौल अब मैं एक तरीके से मुस्कुराता हूँ और एक तरीके से हंस देता हूँ जी हाँ मैंने जिन्दा रहना सीख लिया है अब जो जैसा दिखता है, मैं उसे वैसा ही देखता हूँ जो नहीं दिखता वो मेरे लिए है ही नहीं अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता मैं एक सफल मध्यमवर्गीय रास्ता हूँ रोज घर से जाता हूँ, रोज घर को आता हूँ अब मुझ पर कुछ असर नहीं होता या यूं समझ लीजिये मेरी जीभ का स्वाद छीन गया है. अब मुझे हर चीज एक जैसी सफेद दिखती है. अब मुझे कुछ पता नहीं होता पर सब जानता हूँ का भाव मैं अपने चेहरे पर ले आता हूँ. हर किस्से पर हंसना आह भरना मैं जानता हूँ अब मैं खुश हूँ – नहीं, नहीं खुश नहीं अब मैं सुखी हूँ – सुखी. क्योंकि अब मैं बस जिन्दा रहना चाहता हूँ. अब ना तो मैं उड़ता हूँ, ना बहता हूँ, मैं रूक गया हूँ. आप चाहे कुछ भी समझे, मैं अब तटस्थ हो गया हूँ अब मैं यथार्थ हूँ, यथार्थ सा हूँ “मुझे अपनी कल्पना की गोद में सर रखकर सो जाने दो मैं उस संसार को देखना चाहता हूँ, जिसका ये संसार प्रतिबिम्ब है” अब ये सब बेमानी लगता है. अब तो मेरा यथार्थ मेरी ही पुरानी कल्पनाओं पे हंसता है. अरे हाँ, आजकल मैं भी बहुत हंसता हूँ कभी कभी लगता है यह हंसना बीमारी है पर ये सोच कर फिर हंसी आ जाती है अब सब चीज जिस जगह पर होनी चाहिए उस जगह पर है ये सब काफी अच्छा लगता है अच्छा नहीं ठीक — हाँ — ठीक लगता है. पर …….. एक परेशानी है अजीब सी अधूरी …………. क्या बताऊं
Page 2 of 16आजकल मुझे रोना नहीं आता, अजीब लगता है ना मुझे अब सुख या दुख से कोई, फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि वो जब भी आते हैं एक झुंझलाहट या एक हंसी से तृप्त हो जाते हैं अजीब बात है ना ……… नहीं नहीं …………. ये अजीब बात नहीं है ये एक अजीब एहसास है जैसा कि आप मर चुके हो और कोई यकीन न करे रोज की तरह लोग आपसे बातें करें, चाय पिलायें, आपके साथ घूमने जाऐं और सिर्फ आपको ये पता हो कि आप अब जिन्दा नहीं है मैं जानता हूँ, ये एक रूला देने वाला एहसास है पर आप आश्चर्य करेंगे. फिर भी, मुझे आजकल रोना नहीं आता है. ………….. नहीं नहीं नहीं …….. ये कविता मैंने नहीं लिखी ……… अपने बस की बात है ही नहीं मतलब ऐसे भारी शब्दों को एक दूसरे से लड़ाना उनकी आपस में कुश्ती कराना और उस भीषण हिंसा से किसी एक बात को बाहर निकालना. ये अपने आप में आश्चर्य है. मुझे तो पढ़ने और सुनने में ही पसीना आ जाता है. क्योंकि भाई मेरे लिए कुश्ती और कविता में कोई खास अन्तर नहीं है, मुझे तो आज तक ये समझ में नहीं आया कि कुश्ती क्यों लड़ी जाती है और कविता क्यों लिखी जाती है. मैंने जब पुंडलिक से पूछा कि ये कैसे होता है ? तो उसने जवाब दिया कि ‘कुश्ती दरअसल बाहर से लड़ी जाती है और कविता अपने भीतर से लड़कर लिखी जाती है. मुझे उसकी बात कुछ समझ में नहीं आई और मेरे मुँह से बस – हं – तिकला. पुंडलिक समझ गया. उसने कहा राजकुमार समस्य ये नहीं है कि तुम ना समझ हो. समस्या ये है कि तुममें समझ की काफी कमी है. (चींटिया दिखती हैं, वो चींटियों के साथ खेलता है, और फिर उठता है.) समस्या – मैं समस्या के पहाड़ पर घूम रहा हूँ – क्या भाई क्या …………. समस्या क्या है ? यही तो समस्या है …………. समस्या जब आती है तो अपने साथ अपना हल भी लाती है और हल के चलते ही समस्या फिर उग आती है. कहते हैं जिसके जीवन में समस्या नहीं उसने समझो जीवन जीया ही नहीं. इसका मतलब मैंने अभी तक जीवन जीया ही नहीं था. क्योंकि मेरे जीवन में कोई समस्या कभी रही नहीं. जबकि समस्या – इस शब्द को मैं बहुत पसंद करता हूँ और हमेशा चाहता था कि मैं समस्याओं से घिरा रहूँ. चारों तरफ समस्याओं के पहाड़ हो जिनको चीरता हुआ मैं उन्हें पार कर सकूं. पर मेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि मुझे कोई समस्या नसीब हो. कुछ दिक्कतें आई पर आप उसे समस्या जैसा खुबसूरत शब्द नहीं दे सकते. पर आजकल मैं बहुत खुश हूँ. क्योंकि इस चिट्ठी के रूप में पहली बार मेरे पास वो चीज आई हैं जिसे मैं समस्या कह सकता हूँ. आज मैं वो सारे वाक्य बोल सकता हूँ, जो मैं हमेशा से बोलना चाहता था, पर थोड़ा गम्भीर होकर ……….. मैं आज …………. वैसे ये गम्भीर शब्द भी मुझे बहुत पसंद है. गंभीर क्या शब्द है …………… नहीं ……………. पर पहले समस्या ……………. आज मैं समस्या में हूँ ………….. दुखी
Page 3 of 16हूँ ……… क्योंकि आज मैं एक भयानक समस्या से घिरा हूँ ………… क्या होगा मेरा ……………… कहीं मैं आत्महत्या करने की तो नहीं सोच रहा हूँ ………… ओह ये समस्या है. कहाँ है मेरा चाकू. हो गया ……………. अब समस्या, नहीं ……… नहीं ………… समस्या को अभी जाने दो. आपको मेरी समस्या अभी समझ में नहीं आयेगी. आप कहेंगे ये भी कोई समस्या हैं ? पर भैया मेरे लिए समस्या है. इसलिए अभी समस्या नहीं पहले पहली वाली बात. लड़नेवाली. आजकल मैं लड़ रहा हूँ. मैं अभी भी लड़ रहा हूँ. पिछले कई दिनों से लड़ रहा हूँ. तो मुझे समझ में आया ये लड़ना मतलब अपने से लड़ना हो तो मैं बहुत पहले शुरू कर चुका हूँ. असल में मैंने लड़ना तब शुरू किया था जब मेरी अकल दाड निकली थी. वैसे तो अकल दाड़ जिस उम्र में निकलनी चाहिए मेरी समझो कि ये दस साल बाद ही निकली. उसी वक्त मुझे समझ में आने लगा मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे कम ही लोग पसंद करते हैं. कम याने दो चार लोग ही. उनमें से एक है मेरी माँ. क्योंकि उसको मुझे डांटने और मुझ पर खीजने की ऐसी आदत पड़ है कि वो मेरे बगैर रह ही नहीं सकती. मैं जब भी कुछ करता हूँ ………………. मतलब कुछ काम …………… उसके बाद मैं तैयार हो जाता हूँ. माँ के अजीब से चेहरे की बनावट देखने को, वो झुर्रीदार चेहरे पर और गाढ़ी होती झुर्रीयां और हाथ ऊपर करके अपने छोटे कद को विकाल दिखाने जैसे सारे माँ के नृत्यों का मैं आदि हो चुका हूँ. हम दोनों एक दूसरे को बहुत पसंद करते हैं. वैसे मैं एक मामूली कद का आदमी हूँ. पर चाहूँ तो थोड़ा लम्बा दिख सकता हूँ, थोड़े कसे हुए कपड़े और रघु के हील वाले जूते पहनकर. कुछ लोग कहते हैं कि मैं रघु के जूते और लाल वाली चुस्त टी शर्ट पहनकर जब निकलता हूँ तो ठीक ही दिखता हूँ. मैं हमेशा हर काम ठीक ही करता हूँ, और ये सब जानते हैं. जब स्कूल में रिजल्ट आता था तो माँ से पूछो तो कहती थी हाँ ठीक ही रहा उसका रिजल्ट. मैं ठीक ठाक पैदा हुआ- ठीक ठाक पला बढ़ा, असल में मैं हमेशा एक बिदू है उसी पे रहता हूँ. जो अच्छे और बूरे के एकदम ठीक बीच में होता है. जिसे आप शून्य और मैं ठीक कहता हूँ. एक बार तो स्कूल की क्रिकेट टीम के चयन के लिए मुझे टीम में ले या ना ले इस पर दो घंटे की बहस हुई. पर पहली बार मैंने अपने आप को महत्वपूर्ण समझा. बहस में आधे लोग कह रहे थे कि इसे ले सकते हैं ये बुरा नहीं खेलता. आधे लोग कह रहे थे कि इसे ना लें क्योंकि ये अच्छा भी नहीं खेलता. मैंने अन्त में जवाब दिया – सर सर मैं ठीक ही खेलता हूँ. किसी के समझ में नहीं आया अरे उनको शब्द नहीं मिल रहा था कि मैं कैसा खेलता हूँ. जब मैंने बताया कि वो शब्द ठीक है – मैं ठीक ही खेलता हूँ. तो सब मुझपर बरस पड़े कहने लगे ठीक क्या होता है – ठीक क्या होता है – ठीक कुछ नहीं होता है. तब से आज तक मैंने सिर्फ क्रिकेट खेलते हुए ही लोगों को दखा है. मेरे शरीर को देखकर बड़े से बड़ा आदमी धोखा खा सकता है. कई तो ये भी सोचते होगें कि ये तो दौड़ भी नहीं सकता. तब मैं सबको आश्चर्य में डाल देता हूँ – जब कोई भी खेल चाहे वो नया हो या पुंराना – मैं ठीक खेल के दिखा देता हूँ. पर समस्या यहीं से शुरू होती है. मैं उस बिन्दु के आगे बढ़ ही नहीं पाता हूँ. मैं पहले दिन ही ठीक पे पहुंच जाता हूँ और सालों खेलने के बाद भी ठीक पर ही रहता हूँ. माँ बताती है कि जब मैं छोटा था तो बहुत मोटा था. लोग कहते थे कि पैदा होते ही अपने बाप को खा गया इसलिए मोटा है. मुझे जब भी ये बात याद आती है तो मैं बहुत हंसता हूँ. अपने बाप को खालूं – गपर ………. गपर ……….. और हुप्प ………. मोटा हो जाउं ………………. फिर अचानक मैं दुबला होता गया उसका कारण भी माँ बताती है ………….. छोटे में मैंने रिन साबुन खा लिया था – बिस्कुट समझकर. चाट गया था ……… चप्पड …………… चप्पड़ ………. जब थोड़ी ही दूर चला था और धिप्प गिर पड़ा. तब माँ की समझ में आया कि मैं बेहोश हो गया हूँ. माँ बताती
Page 4 of 16है. उसी समय उन्होंने मदर इण्डिया फिल्म देखी थी . उन्होंने मुझे गोद में उठाया और अस्पताल की ओर भाग ली. मैंने मदर इण्डिया फिल्म नहीं देखी पर माँ भागी क्यों …….. असल में मेरी माँ …… माँ की भूमिका एक बार जी भर के निभाना चाहती थी सो उन्होंने निभाई. १.५ किलोमीटर मुझ जैसे ताजे मोटे बच्चे को लेकर भागना. माँ पसीने पसीने हो गई. डॉक्टर के पास पहुंची तो डॉक्टर ने माँ को डांट दिया. डॉक्टर ने कहा – भागने की वजह से आपके बेटे ने जो रिन साबुन खाया था, वो अब झाग बनके चारों तरफ से निकल रहा है. माँ बताती है कि डॉक्टर ने दो मग्गे पानी निकाला था पीठ में से. फिर डॉक्टर ने बताया कि एहतियात बरतना – बहुत कमजोर हो गया है. कई सालों तक इसका ख्याल रखना होगा. जब तक १० साल का न हो जाए सर पर चोट नहीं आनी चाहिए – वगैरह. शायद कपडे धोने के साबुन से ही मेरी अकल दाड़ देर से निकली. अच्छा किसी को कैसे पता चलता है कि उसमें अकल आ गई ? क्योंकि ये कोई बल्ब तो है नहीं कि बटन दबाओ और कह दो कि अरे लाईट आ गई – अरे अकल आ गई. कैसे पता चलता है ?? ये प्रश्न एक दिन पुडलिक ने मुझे पूछा. मुझे लगा वो मेरी अकल देखना चाहता है मैं डर गया. मैंने ज्यदा सोचा नहीं, सोचत तो उसे लगता कि मेरे पास अकल ही नहीं है. बस थोड़ी देर में मैंने कहा अगर आपको पुराना किया चूतियापा लगने लगे ना तो समझो आपको अकल आ गई. वो हंस दिया. मुझे लगा मैंने कुछ गलत कहा. मैंने जल्दी में आगे जोड़ दिया और उसका एहसास आपको दाढ के यहाँ कहीं पीछे कोने मे होता है – ओह ! मैंने अपने जीवन में इतना शर्मनाक पहले कभी महसूस नहीं किया था. पर वो हंसा – और हंसा …… इतना हंसा कि मैं पसीने पसीने हो गया और फिर उसने अपना जवाब सुनाया – बाप रे बाप क्या जवाब था. एक-एक शब्द पहलवान का घूंसा था जो मेरे मूख्र दिमाग पे पड़ रहा था – धम धम धम. वो करीब दो घंटे लगातार बोलता रहा अब मैं दो घंटे तो नहीं बोल सकता सो मैं आपको मुख्य बातें बता देता हूँ उसने कहा था (कविता) फूल ने जुम्बिश को तेरी तेरी मेरी यहीं कहानी समझ की भंवरा आया समझ कि दाड़ में था दर्द दाँत से हाथ निकलते ही दर्द के मारे पैर बजे छन छन छन छन छन छन छन छन छन छन लेकिन तेरे दिल ने मेरे साइकिल के पहिये पर बैठा पहिया पंक्चर, अकल सिकन्दर घुटना दिमाग जब भी चलता पंखे सी आवाज़ें करता
Page 5 of 16खर खर खर खर खर धरती का बोझ मेंढ़क का नाती ओंस की बूंद हाथी का दांत अकल की दाड़ मुँह का निवाला रात का चाँद सुबह का सूरज जैसा निकला, सारी की सारी चिड़िया फर फर फर फर फर फर फर फर फर फर उस दिन पुंडलिक मेरे सामने से कब उठा, कब रात हुई, कब सुबह हुई मुझे कुछ पता नहीं चला. अब मेरी ज़िंदगी का एक ही उद्देश्य रह गया था कि पुडलिक को कुछ ऐसा कह दूं कि वो हतप्रभ रह जाए. मैं उसके माथे पर पसीना देखना चाहता था. वैसे पुंडलिक भी अजीब आदमी था वो अपना जन्म दिन नहीं बनाता था. कहता था मैं पैदा नहीं प्रकट हुआ हूँ. मेरे लिए वो प्रकट ही हुआ था. वो मेरी माँ का भाई था और एक दिन अचानक मेरे घर रहने आ गया. मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. अरे मैं इतने सालो से अपनी माँ को जानता हूँ क्या मेरे अलावा भी माँ का कोई अपना हो सकता हैं? पता नहीं?? वो अपने को महान कवि कहता था और मुझे महान श्रोता. क्योकि मैं अकेला ही था पर मैं बहुत खुश था क्योंकि उसने जब मुझे अपनी पहली कविता सुनाई, तब से ही उसका तो पता नहीं पर मैं महान होता गया. पर कवि और श्रोता का हमारा सम्बन्ध थोड़ा उल्टा था, हर कविता सुनाने के बाद पुंडलिक मेरी तारीफ़ करने लगता था. क्योंकि उसको मेरे चेहरे का हतप्रभ भाव बहुत पसंद था. मेरे पास तो वैसे भी भावों की काफी क़मी थी पर ये ऐसा भाव था जिसे मैं पुंड़लिक के सामने सबसे ज्यादा चिपका देता था. क्योंकि उसकी सौ में से नब्बे बातें मेरी समझ में आती नहीं थी और जों थोड़ी बहुत समझ में आती थी, उसे बोलने में मैं डर जाता था. पुंडलिक वैसे तो कई बार मेरे सामने रोया था. उसको कुछ दुख था पता नहीं क्या पर कुछ था. लेकिन जब भी वो मेरे सामने रोता था ना तो मुझे बड़ी हँसी आती थी. मुझे लगता था कि पुंडलिक को अपना रोना बहुत शर्मनाक लगता है वो अपने रोने को अजीब तरीके से दबाता था. पुरे शरीर को विशेष मुद्रा में कड़क करके अपने मुंह को बंदरों जैसा बिचकाता रहता था और एक अजीब सी तीखी आवाज़ निकालता था ………….. ई …………. ई …… ई …….. वो अपनी माँ को बहुत चाहता था कहता था मैं अन्त तक उसके साथ रहा. मेरी माँ शायद अपनी माँ को नहीं चाहती थी. पता नहीं पर पुडलिक ने मुझे ऐसा कहा था. माँ को चाहना – मैं आज तक नहीं समझ पाया कि माँ को चाहना क्या होता है. जब मैं मेरी माँ को देखता था तो वो तो मुझे एक सूखी लकड़ी के समान औरत दिखती थी जो चुपचान घर में ढूंढ़-ढूंढ़ के काम निकालती थी. अजीब लगता है ना कई सालों से एक ही घर में लगातार काम करते जाना मुझे तो
Page 6 of 16कभी कभी लगता था कि ये घर- घर नहीं है – एक नांव है ….. जिसमें जगह जगह पर गड्ढ़े हैं मेरी माँ उस नाव के बीच में मग्गा लेके बैठी है. जिससे वो लगातार पानी को बाहर फेंक रही है. (चींटियां दिखती है, वो चीटियों के साथ खेलता है, और फिर उठता है) पुंडलिक कहता था कि तेरी माँ बहुत आलसी है रे! अरे ये क्या कह दिया उसने. वो हमेशा ही ऐसा कुछ बोल के चला जाता था. मैं सोचता रहता था. धीरे-धीरे मुझे समझ में आया …. मदर इंडिया वाली घटना को छोड़ के मुझे लगा कि मेरी माँ सचमुच आलसी है. ये बात मेरे नामकरण से सिद्ध होती है. अब बोलिये उन्होंने मेरा नाम राजू रखा जो भारत में हर दूसरे आदमी का होता है. और ऊपर से स्कूल में दाखिला दिलाते वक्त माँ का वात्सल्य जागा और उन्होंने राजू को आगे बढ़ाकर राजकुमार कर दिया. माँ बताती है कि दाखिले को फार्म भरते वक्त वो स्कूल क्लर्क मेरी तरफ देखकर बहुत हंस रहा था. माँ को लगा दोष मेरी शकल का है. वैसे मेरे ख्याल से हर आदमी को अपना नाम खुद रखने की आजादी होनी चाहिए. वैसे मेरी माँ बड़ी रहस्यमय थी इस बात का मेरे अलावा किसी को पता नहीं है जब मेरी माँ अलमारी से अपना लाल रिबन निकालती थी तब समझो की समय हो गया और वो उस रिबन को पहन के निकल जाती थी. असल में उन्हें शौक था उन्हें अकेले फिल्म देखना बहुत अच्छा लगता था. कोई धार्मिक फिल्म नहीं सारी रोमाँस और मारधाड़ वाली. अब रोमाँस का तो पता नहीं पर शायद मारधाड़ का काफी असर पड़ गया था उन पर. क्योंकि उम्र के साथ साथ उनका चेहरा मर्दाना होता जा रहा था. उनकी दाढ़ी मूंछें निकलने लगी थी और बाद बाद में वो मुझे डांटते वक्त कहती थीं – कुते मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तभी पुंडलिक ने मुझे एक किताब दी – मदर मैक्सिम गोर्की की. मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. मुझे तो अभी तक लगता था कि सारी माँए किसी नियम के तहत एक जैसा बर्ताव करती हैं. पर ये – ये क्या था. पुंडलिक ने बताया कि ये कहानी सच्ची है. मैंने सोचा ऐसी माँ भी हो सकती है. मुझे याद आया पुंडलिक ने मुझसे कहा था कि वो अपनी माँ को बहुत चाहता था अब बस मैं एक और माँ के बारे में जानना चाहता था – पुंडलिक की. मैंने पूछा पुंडलिक क्या तुम्हारी माँ भी गोर्की की मदर जैसी है. मुझे लगा पुंडलिक के अदंर एक ज्वालामुखी था जो मेरे इस प्रश्न के जाते ही फूट पड़ा. वो बोला बोला बोलता रहा. ऐसे ऐसे उदाहरण देता रहा, ऐसे ऐसे शब्दो का इस्तेमाल करता रहा कि कहानी मुझे रोचक लगने लगी पर मेरी समझ में कुछ नहीं आया और मैंने उसी वक्त अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर दिया ……….. हतप्रभ भाव और ये देखकर वो कुछ धीमा हुआ और भारी आवाज़ में धीरे धीरे बोला जो मुझे समझ में आने लगा. उसने कहा था – माँ के अन्तिम दिनों में मैंने पड़ना, लिखना घर से निकलना सब बंद कर दिया. मॅं सिर्फ माँ के साथ रहता था उन्हें गीता सुनाता था, सालों तक मैं घर से नहीं निकला. गीता सुनते सुनते ही उनकी मृत्यु हो गई. वो अचानक मर गई. मुझे बहुत अजीब लगा मैं खाली हो गया थां मुझे कुछ समझ में नहीं आया. तभी अचानक मेरी आँखों के सामने उनका मुस्कराता हुआ चेहरा घूमने लगा और वो चेहरा पेड़ बन गया और मैंने पेड़ के नीचे बैठकर लिखना शुरू किया. धूप चेहरा जला रही है परछाई जूता खा रही है शरीर पानी फेंक रहा है
Page 7 of 16एक दरख्त पास आ रहा है उसकी आंचल में मैं पला हूँ उसकी वात्सल्य की सांस पीकर आज मैं भी हरा हूँ आप विश्वास नहीं करेंगे पर इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है मैं इसे माँ कहता हूँ जब रात शोर ख चुकी होती है जब हमारी घबराहट नींद को रात से छोटा कर देती है जब हमारी कायरता सपनों में दखल देने लगती है तब माथे पर उसकी उंगलियां हरकत करती हैं और मैं सो जाता हूँ और वो सो गया …………….. मैं अवाक सा बैठा रहा. अच्छा हुआ वो सो गया. क्योंकि मैं उसके सामने रोना नहीं चाहता था. मैं भाग कर उसके कमरे से बाहर निकल आया और मुझे वो दिखी. सूखी-सी लकड़ी के समान औरत जिसका चेहरा मर्दाना होता जा रहा था जो हाथ में मग्गा लिये पानी बाहर फेंक रही थी. मैं उपर से नीचे तक काँपने लगा. मुझे लगा पहली बार मुझे मेरी माँ दिखी. मैं तुंरत भाग के उसके गले लग गया और बरबस मेरे मुँह से निकल पड़ा – पेलागेया निलोबना माई मदर चटाक एक आवाज़ हुई. मेरा सर घूमने लगा. कई दिनों तक उसके वात्सल्य से भरे हुए उँगलियों के निशान मैं अपने गालों पर महसूस करता रहा. पर इस घटना से मैं हारा नहीं. मैंने माँ को मदर कहना नहीं छोड़ा. ये अलग बात हैं कि मैं मदर मन में बोलता था और उपर से माँ बोलता था. मदर मा मदर माँ ऐसे वैसे माँ और मेरे बीच सारे संवाद सालों पहले तय हो गये थे. किसी भी घटना का उन संवादों पर कुछ असर नहीं हुआ था. पुंडलिक ने एक बार कहा था कि तुझमें और तेरे गाँव में कोई अंतर नहीं है. ये कहकर वो चल दिया. मेरी समझ में नहीं आया ये क्या कह दिया उसने ? मैं सोचता रहा काफी समय बाद मेरी समझ में आया ये तो सच है. दरअसल मेरा गाँव गाँव ही नहीं था और ना ही पूरी तरह शहर था. यहाँ के लोग ना तो बहुत अमीर थे और ना ही भूखे मर रहे थे. ये इतना महत्वपूर्ण नहीं था कि देश के नक्शे में इसका जिक्र हो और ऐसा भी नहीं है कि ये है ही नहीं यहाँ के लोग कुछ करना नहीं चाहते पर सभी अन्त में कुछ ना कुछ कर ही लेते हैं. यहाँ सब कुछ ठीक ठीक चलता है मेरी तरह – ठीक! पुंडलिक कहता है कि ये गाँव ऐसा लगता है कि छूटे हुए लोगों से बसा है जैसे रेत का ट्रक चलते हुए काफी रेत पीछे छोड़ जाता है ना वैसे ही रेत के समान छूटे हुए लोग इकट्ठे होकर ये गाँव बन गए. मेरा गाँव हाईवे और जंगल के ठीक बीच में था. पर मेरा घर हाईवे के किनारे था. सड़क के उस तरफ एक ढाबा था. जहाँ अजीब सी शक्ल के लोग हंसते और चिल्लाते हुए खाना खाते थे. लगता था कि आदमियों की आवाजें उनकी ना होकर गाड़ियों की आवाजें हो गई है. वैसे मैं दिन में सड़क के उस तरफ कम ही जाता था. मेरा तो काम सुबह ५ बजे का होता था. मैं मैं असल में ट्रक के पीछे कुछ लिखने जाता था. मुझे बस इतना पता है कि ये सारे ट्रक पूरे देश में हर गाँव हर शहर में जगह जगह जाते हैं. मैं ट्रकों के पीछे छोटे छोटे अक्षरों में चॉक से कुछ लिख देता था. किसके लिए
Page 8 of 16पता नहीं. पर मेरे लिये ये अंतरिक्ष में संदेश भेजने जैसा था. मुझे पूरा विश्वास था कोई राजू राजकुमार छोटू, बंटी, चिंटूं, राकेश जैसा साधारण नाम वाला साधारण आदमी मेरी तरह सुबह पाँच बजे उठकर मेरा संदेश पढ़ रहा हे. क्योंकि मेरा सारा लिखा हुआ मेरे पास कभी वापस नहीं आता था. इसका मतलब कोई है जो मेरी बातों को पढ़कर मिटा देता है जिससे कोई दूसरा ना पड़ सके. हमारी दोस्ती काफी बढ़ गई थी. मैं अब अपनी सारी बातें उसे कह देता था पर संक्षेप में – घुमा फिरा कर चालाकी से. कहीं कोई दूसरा इसे पढ़कर हंसे ना और कहीं पुलिस घर पे आ गई तो – क्योंकि मैंने तो इसमें रघु, माँ, पुंडलिक राधे सभी की गोपनीय बातें लिख दी थीं. लेकिन मैं बहुत चालाक था पुलिस को कुछ पता नहीं चलता क्योंकि बहुत पहले मैंने ट्रक पर लिख दिया था. दोस्त अब से पुंडलिक = कवि, रघु = हीरो, राधे = गाँधी की लाठी, माँ = मग्गेवाली औरत. वैसे पाँच बजे उठने के मेरे दो मकसद होते थे. पहला ट्रक पर संदेश और दूसरा राधे से मुलाकात क्योंकि राधे रोज सुबह पाँच बजे मेरे घर के सामने आता था उसका नाम राधे है भी कि नहीं ये भी मुझे मालूम नहीं. क्योंकि जब भी वो मुझे देखता था तो राधे-राधे कहताथा और मैं भी जवाब में उसे राधे राधे कहता था. असल में हम दोनों एक दूसरे के लिए राधे थे. राधे को मैं सोने वाला बूढ़ा कहता था. क्योंकि वो सोना बीनने का काम करता था असल में हमारे घर में दो सोने चांदी की छोटी सी दुकानें थी. जिसका किराया हमें मिलता था. राधे रोज अपनी छोटी सी लोहे के दाँतवाली झाडूं लेकर आता था और सोना बीनता था. सोना बीनते वक्त वो एक सफेद पोटली जैसा हो जाता था. जो मेरी आँखों के सामने लुढ़कती रहती थी .काम करते वक्त वो एकदम चुप रहता था. सिर्फ उसकी सांसें लेने की आवाजें मुझे सुनाई देती थी. राधे को मैं सालों से जानता था मुझे लगता था कि वो किसी एक उम्र पर अटक गया है शायद उसके आगे बढ़ने की गुंजाईश ही नहीं होती. वो सालों से बूढ़ा था मुझे विश्वास ही नहीं होता है कि राधे कभी बच्चा भी होगा. वो गाँव से बाहर एक ही बार गया था और वो उसकी पहली और अंतिम यात्रा थी. वो गाँधीजी को देखने – सिर्फ देखने ने साबरमती आश्रम गया था – यह उसके जीवन की एकमात्र उपलब्धि थी जिसे वो अब तक ५० से ज्यादा बार सुना चुका है. हर बार जब वो गाँधीजी से मुलाकात कीघटलना सुनाता है तो गाँधीजी हर कहानी में राधेअस अलग अलग बात कहते थे – कई बार गाँधी जी ने सिफर्ग् नमस्ते कहा और राधे लौट आया. और कर्ठ बार राधे गाँधीजी के साथ खाना खा चुका है …. कई बार गाँधीजी उससे कुछ कहना चाहते थे पर रराधे को गाँव वापस आने की की जल्दी थी ….. और एक बार तो गाँधीजी ने राधे से कहा कि राधे – मैं बहुत थक चुका हूँ राधे अब तुम गाँधी बन जाओ. सोना बीनते वक्त मैं राधे से कम ही बोलता था पर एक बार मैंने कहा राधे तुम सोना क्यों बीनते हो, तो राधे ने जवाब दिया कि वो मरने के पहले एक बार वैष्णोदेवी माँ के दर्शन करना चाहता है. मैंने पूछा कितने पैसे चाहिए तुम्हें वैष्णोदेवी जाने के लिए. उसने कहा कम से कम हजार तो लगेंगे ही. मैंने कहा तो तुम्हारे पास हजार रूपये नहीं है. राधे ने कहा है ना ………… अरे ये क्या बात थी मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने कहा जब तुम माँ के दर्शन करना चाहते हो और तुम्हारे पास पैसे भी है तो जाते क्यों नहीं ……………… राधे चुप हो गया …………… ये चुप्पी अजीब थी सो मैंने भी टोका नहीं ……………….. राधे ने धीरे से कहा ………………… गाँधीजी से मिलने के कुछ समय बाद गाँधीजी की मृत्यु हो गई थीतब मुझे बहुत दुख हुआ . हमारे गाँव में गाँधी पार्क और उनकी पत्थर की मूर्ति स्थापना हुई, मुझे लगा गाँधीजी ने जरूर मरते वक्त कहा हो कि मेरी मूर्ति राधे के गाँव में
Page 9 of 16जरूर लगाना ….. मैं घंटों उनकी मूर्ति के सामने खड़ा रहता था, गाँधीजी भी मेरी तरफ घंटों देखते रहते थे. मुझे लगा वो मुझसे कुछ कहना चाहते हैं …………. पर चूंकि पार्क में बहुत भीड़ होती है इसलिए कुछ कह नहीं पा रहे हैं. ……. फिर एक रात वो मेरे सपने में आए . ……… असल में वो नहीं आये, उन्होंने ही मुझे अपने आश्रम में बुला लिया ………. मैंने देखा गाँधीजी और बहुत सारी भीड़ है उन्होंने मुझे देखा और बोला राधे …………. मैंने प्रणाम किया उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और धीरे से कान में बोले ……… बेटा मैं नहीं जा पाया पर तू एक बार वैष्णो देवी जी चला जा माँ से मिल आ मैं दंग रह गया ये गाँधीजी मुझसे क्या कह रहे हैं? मैंने गाँधीजी की तरफ देखा तो देखता क्या हूँ ? गाँधीजी कबूतर बन गये और उड़ने लगे ……… अचानक नींद खुल गई सुबह होते ही मैं तुरत गाँधीजी से मिलने गाँधी पार्क गया तो देखा वही कबूतर गाँधीजी के सर पर बैठा है ………………………. सपना सच्चा था ………………. एकदम सच्चा …………. उस वक्त तक मैं एक बार ही गाँव के बाहर गया था सो बहुत डरा हुआ था. बहुत कोशिश की पर उस वक्त मैं जा नहीं पाया और अब जाना भी नहीं चाहता …….. क्योंकि मैंने अपना पूरा जीवन चाहे जैसा भी हो एक ही आशा में जिया है कि एक दिन मैं वैष्णव देवी जाउंगा ………… जरूर जाउंगा और अब अगर मैं चला गया तो फिर मैं ये सारे दिन कैसे बिताउंगा. जिस आशा में मैं जिया हूँ. वो आशा पलते-पलते बड़ी हो गई है मेरे बेटे जैसी. अब इस उम्र में मैं अपने बेटे की हत्या तो नहीं कर सकता ना. चींटियां दिखती है, वो चींटियां के साथ खेलता है और फिर उठता है. मुझे याद है कि गाँधीजी के बारे में मैंने अपने स्कूल में पढ़ा था हमारे मा-साब. गाँव में टीचर को मा-साब कहते हैं. बड़े नीरस ढंग से गाँधीजी के बारे में बताते थे. ना मा-साब को गाँधीजी के बारे में बताने में और ना ही हमको गाँधीजी के बारे में सुनने में मजा आता था और मुझे तो बिल्कुल भी नहीं .क्योंकि तब तक मैं रघु के विशाल और चमकदार संसार में प्रवेश कर चुका था. रघु…. रघु ……… रघु ………… रघु नहीं था वो एक चमत्कार था. वो बहुत खूबसूरत था उससे सब डरते थे क्योंकि पहले तो उसके पिताजी पुलिस थे जो तबादले की वजह से हमारे गाँव में आ गये और दूसरा पूरे गाँव में रघु ही था जो अंगे्रजी में थोड़ा बहुत बोल लेता था. हमारे स्कूल के मा-साब भी उससे डरते थे. क्योंकि उसकी अंग्रेजी का हमारे हिंदी के मास्टरों के पास कोई जवाब नहीं था. मेरे लिए रघु कक्षा ९ से कक्षा ११ तक कृष्ण था जिसकी बांसुरी पर मेरे जैसी कई गायें रघु के आगे पीछे मंडराती थी मेरे लिए वो हिरण, बब्बर शेर और घोड़े का अजीब मिश्रण था. वो हमेशा क्लास में लेट आता था और उसके आने के पहले वो नहीं उसकी आवाज़ आती थी. घोड़े जैसी टप ……….. टप …………. टप………….. ये उसके हील वाले लम्बे जूते थे. जैसे ही वो क्लास के दरवाजे पर प्रकट होता था तो उसके बब्बर शेर जैसे बालों को देखकर मा-साब अपनी कुर्सी छोड़ देते थे. वो एकदम चुस्त कपड़े पहनता था. वो बहुत अलग था पूरा गाँव एक तरफ औश्र रघु एक तरफ वो बहुत रंगीन था. और वो भारतीय नहीं किसी विदेशी भगवान को मानता था, जिसकी तस्वीर उसने अपने घर मेंं चारों तरफ लगा के रखी थी. बार -बार वो कहता था “वो भगवान है, वो भगवान है, वो भगवान है! एक बार वो कह रहा था उसके भगवान में फुर्ती है कि वो जब सोने जाते हैं ना तो जैसे ही बटन बंद करते हैं तो बल्ब बाद में बुझता है पहले वो सो जाते हैं. एक दिन भीड़ में गाय जैसी आवाज़ निकालकर मैंने रघु से पूछा – रघु कौनसा धर्म चलाते हैं तुम्हारे भगवान. वो हंसा बहुत हंसा काफी देर हंसने के बाद उसने अंग्रेजी में एक शब्द कहा मेरी समझ में नहीं आया. मेरा और रघु का रिश्ता कृष्ण और उसकी गाय जैसा ही था. हम दोनों ने कभी सीधे एक दूसरे से बात नहीं की थी. मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी. मैंने अपने ट्रक वाले दोस्त से रघु के बारे में बहुत सारी लिखी थीं. मैं उस वक्त घर सिर्फ सोने जाता था. खाना पीना भूल चुका था. मैं बस
Page 10 of 16मैं बस रघु का पीछा किया करता था. उसके पास एक अजीब सी खूबसूरत लाल रंग की साइकिल थी. जब वो अपने हील वाले जूते और लाल चुस्त टी शर्ट पहनकर साइकिल चलाता था क्या दिखता था. मैं उसके पीछे भागता रहता था. उसकी साइकिल की घंटी की आवाज़ सुनने. जब वो अपनी साइकिल खड़ी करके कहीं जाता था तो मैं धीरे से उसकी साइकिल की घंटी बजा देता था. क्या आवाज़ थी उसकी घंटी की. हमारे गाँव की साइकिलों जैसी नहीं जो टन टन बजती थी. उसकी घंटी तो ट्रिंग ट्रिंग बजती थी. पर एक दिन उसने स्कूल में घोषणा कर दी कि वो गाँव छोड़कर जा रहा है. क्योंकि उसके पिताजी का तबादला शहर हो गया है. मैं उसी वक्त क्लास में रो दिया और धीरे से नहीं जोर से चिल्ला चिल्ला कर और कहता रहा – नहीं रघु नहीं तुम मुझे छोड़ के नहीं जा सकते. तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो ? नहीं – नहीं जब मैं चुप हुआ तो पूरी क्लास मेरे उपर हंस रही थी. मैं बर्दाश्त नहीं कर पाया. मैं उठा और क्लास से निकल गया. पर जाते वक्त एक बार मैं रघु का चेहरा देखना चाहता था – कहीं वो भी मेरे उपर नहीं हंस रहा है. पर मेरी हिम्मत नहीं हुई मुझे अपना किया बहुत बुरा और शर्मनाक लगने लगा. सुबह-सुबह उठा तो राधे से लिपटकर खूब रोया. राधे ने मुझे समझाया और कहा – कोई बात नहीं ऐसा तो होता है रोते नहीं. जब मैं भी गाँधीजी से विदा ले रहा था तो वो भी मेरा जाना बर्दाश्त नहीं कर पाये. उनकी आँखों में आंसू थे. मतलब वो समझ ही नहीं रहा है कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ. तब पहली बार मैं राधे पर नाराज हुआ और उठकर सड़क के उस तरफ चला गया और एक ट्रक के पास घंटों खड़ा रहा. मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया. कुछ दिनों बाद एक हवलदार घर पर आया. मैं घबरा गया उसने माँ से पूछा राजकुमार है. मेरे दिमाग में सीधे अपनी ट्रक वाली गलती याद आई. मैंने सोचा पकड़ा गया. अब सबको पता लग जाएगा कि मैं उन सबके बारे में क्या सोचता हूँ. मुझे जेल में जाने का डर नहीं था लेकिन ये कल्पना ही अपने आप में बहुत डरावनी है कि सबको पता लग जाए कि आप सब के बारे में क्या सोचते हैं? ये सबके सामने नंगा होने जैसा है. मैं डरते हुए उस हवलदार के सामने गया. मैंने कहा – जी मैं ही राजकुमार हूँ. वो हंसा – उसने मुझे एक बैग दिया और कहा – ये रघु साहब जाने से पहले आपको देने को कह गये थे – अच्छा नमस्ते. चला गया. मैंने बैग खोला तो देखता क्या हूँ उसमें रघु के हील वाले जूते थे और उसके भगवान की फोटो. राजकुमार ब्रूस ली की फोटो निकालता है उसे दण्डवत प्रणाम करता है. रघु के जूते मैं ज्यादा पहन नहीं पाया क्योंकि वो मुझे काटते थे. लेकिन जब तक मेरा पैर सूज नहीं गया मैंने उन्हें पहनना नहीं छोड़ा एक दिन पुंडलिक ने मेरा सूजा हुआ पैर देखा मुझे लगा उसे बहुत दुख होगा – पूछेगा क्या हुआ, पर नहीं उसने कुछ नहीं पूछा सिर्फ मेरे पैर की तरफ देखा मुस्कुराया और पलट कर खिड़की की तरफ देखने लगा. फिर धीरे से पलटा मुस्कुराया और बोला - जूता जब काटता है तो ज़िंदगी काटना मुश्किल हो जाता है. और जूता काटना जब बंद कर दे तो वक्त काटना मुश्किल हो जाता है. उस दिन पहली बार मैंने अकेलापन महसूस किया. क्योंकि यहाँ कोई मेरे साथ नहीं रहता था. ऐसा वक्त मुझे याद नहीं जब मैं बोल रहा हूँ कोई और सुन रहा हो. ये अलग बात है कि मेरे पास बोलने के लिए कुछ था ही नहीं. पर पुंडलिक भी कभी मेरे साथ नहीं रहा हमेशा मैं ही उसके साथ रहा हूँ. राधे की गाँधी की बातें अभी तक खत्म नहीं हुई
Page 11 of 16थी. वहाँ भी मैं चुप रहता था. माँ की नाव में अभी तक पानी खत्म नहीं हुआ था. ट्रक वाला दोस्त था जिससे मैं अपनी सारी बातें कह देता था. पर वहाँ उस तरफ वो इसे पढ़ रहा है इस बात पर मुझे पहली बार संदेह हुआ. जूते घर के कोने में कई दिनों तक पड़े रहे वो कतई घर का हिस्सा नहीं लगते थे. बाद में घर ने उन्हें अपना हिस्सा बना लिया और ये नेक काम मेरी माँ ने ही किया. उन्होंने उन लम्बे हील वाले जूतों को दो गमले का रूप दे दिया. मैं देखता रहा. मुझे बहुत बुरा लगा. वो रघु के जूते थे. मेरे रघु के. पर मैंने कुछ नहीं कहा. क्योंकि जो संवाद हमारे बीच पहले ही तय हो चुके थे. मैं उन्हें अब तोड़ना नहीं चाहता था. (चींटियां दिखती हैं. वो चिंटियों के साथ खेलता है और फिर उठता है ) आप को लग रहा होगा कि मैं क्या कर रहा हूँ. मैं खेल रहा हूँ हाँ, सच में खेल रहा हूँ एक दिन क्या हुआ कि अचानक घर पे बैठे बैठे मैंने एक रेल देखी चींटियों की रेल जो एक के पीछे एक रिद्म में चली जा रही थी. मैं उनका पीछा करता गया कुछ समझ में नहीं आया कि वो कहाँ से आयी है और कहाँ को जा रही है. पर वो सब एक ही लाईन में चल रही थी. मैं शक्कर के पाँच दाने ले आया. फिर वो खेल शुरू हुआ. मैंने घर का दरवाजा बंद करके पूरे बाहर को बंद कर दिया तो भीतर की दुनिया मुझे साफ़ दिखने लगी. अब मैंने उस रेल के बगल में शक्कर के दाने जमाने शुरू किये पहले दो दाने पास पास तीसरा दूर चौथा और दूर पाँचवा सबसे आखिर में. दो तीन चींटियां उन शक्कर के दानों की ओर मुड़ने लगी रेल घूम चुकी थी जैसे ही चींटियां पाँचवे दाने पर पहुंचती थी मैं शुरू के दो दाने उठा लेता था और वो पाँचवे दाने के आगे रख देता था इस तरह मैं उन चींटियों की रेल को किसी भी तरफ घुमा देता था. बड़ा मजा आता था कि कोई है जो आपके इशारे पर घुम रहा है. सिर्फ शक्कर के पाँच दानों पर. ये मेरा सबसे पसंदीदा खेल था जो मैं रोज खेलता था. पुंडलिक जबसे हमारे यहाँ आया था बहुत कम ही कहीं जाता था. कभी कभी शहर में अपने दोस्त ताराचंद जैसवाल को मिलने जाता था और एक दिन में लौट आता था. मैं उसके सामने अपना चींटियों वाला खेल नहीं खेल पाता था ना, मैं कभी गाँव से बाहर नहीं गया. क्योंकि राधे ने मुझे बताया था कि गाँव के बाहर बहुत खतरा है. बाहर जाकर खाना भाषा लोग सब बदल जाते हैं. देखते नहीं हमारे गाँव के दोनों तरफ शहर है और उन शहरों की भीड़ कैसे हमारे गाँव की सड़क पे दौड़ती रहती है. पुंडलिक जब मेरे साथ बात करता था तो मुझे लगता था वो राजु मेरा नाम लेकर अपने से ही बात करता है. क्योंकि मैं कभी-कभी उठकर चला जाता था और जब वापिस आता था तो देखता था पुंडलिक अभी भी राजू नाम ले लेकर बात कर रहा है. वो अजीब से अकेलेपन का शिकार था. ये मैंने नहीं सोचा उसी को खुद से कहते हुए सुना है. एक बार वो एक अजीब सी चीज खुद को पढ़कर सुना रहा था – एक कुता अपनी ही दुम को काटने की कोशिश करता है. तब एक तरह का कुता – चक्रवात शुरू होता है. जो तभी खत्म होता हैजब इस तूफान से कुता कुते के रूप में निकल आता है. खालीपन – ये कुता मेरी और मैं उसकी आँखों में देखता हूँ. पुंडलिक बताता है कि वो घोषित कवि हुआ करता था. उसने हर तरह की कविता लिखने की कोशिश की दर्द भरी रोमाँस वाली, बच्चों पर, पर्यावरण पर, पत्थर पर, फूल पर पर किसी ने कौडी तक को नहीं पूछा. बाद बाद में तो लोग उसे देखकर भागने लगते थे. पुंडलिक चिल्लाकर कहता था. नहीं भाई अब मैं कोई कविता नहीं सुनाउंगा. पर कोई भी नहीं रूकता था. जो लोग रूक जाते थे पुंडलिक उन्हें घुमारिफराकर एक कविता सुना देता था. पुंडलिक बताता है कि लोग उसका मजाब उडड़ाने लगत थे. जिस घर में वो घुसता था. वहाँ से ची,ा पुकार की आवाजें लोगों को बाहर तक सुनाई देती थीं पुंडलिक ने बच्चों पर भी कविताएं लिखही थ्साी. सो मोहल्ले में बचें ने खेलना बंद कर दिया था. हर
Page 12 of 16बच्चा पुंडलिक नाम से डरता थ .लोग उसके घर पर सब्जी, किराना सब पहुंचा देते थो क्योंकि कोई भी आदमी किसी भी बहाने से पुंडलिक की कोई भी कविता नहीं सुनना चाहता था छापना तो दूर की बात. आजकल पुंडलिक की कोई भी कविता नहीं सुनना चाहता था. छापना तो दूर की बात. आजकल पुंडलिक अपनी कविताएँ सुना कर मेरी तारीफ नहीं करता था बल्कि गुस्सा हो जाता था. एक बार कविता सुनाने के बाद उसने पूछा – क्यों कविता अच्छी नहीं लगी तुम्हें? मैंने कहा – नहीं अच्छी थी. उसने कहा – तो फिर गुस्से में क्यों देख रहे हो ………. अरे अजीब बात है. उसी ने मुझसे कहा था कि मैं तुझे गम्भीर श्रोता बनाना चाहता हूँ. वैसे भी आपको पता ही है कि गम्भीर शब्द मुझे कितना पसंद है. गम्भीर क्या शब्द है. पर भैय्या जब आप हतप्रभ भाव पर थोड़ा गम्भीर भाव लाने की कोशिश करते हैं तो आपका चेहरा थोड़ा ऐसा दिखने लगता है. पर मैं गम्भीर होने की पूरी कोशिश करता था. (चींटियां दिखती हैं, वो चींटियां के साथ खेलता है और फिर उठता है) एक दिन जब मैं अपना चींटियों वाला खेल खेल रहा था. तब अचानक मुझे लगना लगा कि मैं चींटी हो गया हूँ. मुझे अजीब लगने लगा. मुझे लगा कि कहीं खेलते खेलते मेरी अकल भी चींटिंयों जैसी तो नहीं हो गई. तभी मेरी नजर शक्कर के दानों पर पड़ी. तो देखता क्या हूँ, कि वो शक्कर के दाने, दाने ना होकर रघु, पुंडलिक, राधे, माँ और मेरा ट्रक वाला दोस्त हो गये हैं. और मैं उनके पीछे भागने लगा. इसका मतलब ये हुआ कि कोई है जो कोई है जो मेरे साथ खेल रहा है. जबकि मैं खेल नहीं रहा हूँ. जैसा कि मै चींटियों के साथ खेलता हूँ, जबकि चींटियां मेरे साथ नहीं खेल रही होती है. क्या पता शायद चींटियां भी किसी के साथ खेल रही हो, जबकि वो चींटियों के साथ नहीं खेल रहा हो. मतलब सभी, सभी के साथ खेल रहे हैं. इसका मतलब पुंडलिक भी मेरे साथ खेल रहा है. अब आपको मेरी समस्या समझ में आयेगी ………….. समस्या ……… मेरे लिये बहुत बड़ी समस्या है जिसके लिए मैं ये सब कर रहा हूँ. ये समस्या पुंडलिक के रूप में मेरे पास आई. दरअसल पुंडलिक अपना कविता संग्रह छपवाना चाहता था. शहर में कोई ताराचंद जैसवाल उसका दोस्त था जो संग्रह छपवाने में पुंडलिक की मदद कर रहा था. वैसे मैंने तो उसकी सारी कविताएँ सुनी थी. कुछ तो इत्ती बार कि आज भी मुझे जबानी याद है. समस्या की शुरूआत तब हुई जब पुंडलिक घर छोड़ के जा रहा था. जाते वक्त मैंने देखा उसके एक हाथ में उसकी डायरी जिसमें वो कविताएँ लिखता था और एक खत और दूसरे हाथ में मेरी माँ की फोटो और गीता थी. वो ये सब लेकर मेरे पास आया. मुझसे कहा अपने दोनों हाथ इस पर रखो और कसम खाओ …………… कसम खाओ ……… अपनी माँ की इस गीता की मेरी कविताओं की कि तुम मेरा कविता संग्रह जरूर छपवाओगे. मैं कसम खाउं. इससे पहले मैंने देखा कि उसने अपना सामान भी बांध लिया था. मैंने कहा – कहाँ जा रहे हो पुंडलिक? हमारे गाँव से शहर वैसे भी बहुत दूर नहीं था मतलब सामान बांधने जितना दूर तो बिलकुल भी नहीं था. मेरे सवाल का पुंडलिक ने कोई जवाब नहीं दिया. उसकी आवाज़ अज़ीब-सी होती जा रही थी. और वो कसम खाने पर जोर देता रहा सो मैंने कसम खा ली. विद्या माता की, धरती माता की, कविताओं की कसम, गीता की कसम ….. और भी दो तीन कसमें मैंने जोश में अपनी तरफ से और खा ली. मेरा क्या जाता था. कविता संग्रह पुंडलिक का था, ताराचंद जैसवाल उसे छापने वाला था. मैं कौन था? असल में मैं कोई भी नहीं था पर मेरी एक बात समझ में नहीं आई कि पुंडलिक मुझे कसम खाने की क्यों कह रहा है कि तुम मेरा कविता संग्रह छपवाना. असल में कसम खा कर मैं इस चक्कर में पूरी तरह से फंस चुका था. कसम की रसम पूरी होते ही पुंडलिक का चेहरा खिल उठा. उसने माँ की फोटो और गीता एक कोने में फेंक दी. और अपना सामान उठाकर निकल गया. दरवाजे पर पहुंचकार उसे ध्यान आया कि मैंने उससे कुछ पूछा था – कहाँ जा रहे हो पुंडलिक ? वो
Page 13 of 16पलटा और बोला – पहले शहर जाकर तारचंद जैसवाल को ये कविताएँ और ये चिट्ठी दूंगा जिसमें मैंने इन कविताओं और तुम्हारे बारे में सब कुछ लिख दिया है. उसके बाद वहीं से सीधे तीर्थयात्रा और फिर सन्यास ये कहकर वो मेरे गले लग गया और कान में धीरे से बोला – मै तुम्हें कुछ देना चाहता था,मेरे जाने के बाद वो तुम्हें मिल जाएगा. धन्यवाद. नमस्ते. और वो चला गया. कविताओं के बारे में तो ठीक है पर मेरे बारे में चिठ्ठी में क्यों लिखा है ? मुझे वो क्या देना चाहता है और क्यों ?? मैने तो सिर्फ उसकी कविताऐं सुनी थी और आधी से ज्यादा तो समझ में भी नहीं आई. अगर सुनने वाले का चिठ्ठी विठ्ठी में जिक्र होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, पर एैसा नहीं था मैं पूरी तरह फंस चुका था। कैसे पुंडलिक ने मुझे इस समस्या में फंसाया इसका पता कुछ दिन पहले आई ताराचंद जैसवाल की चिठ्ठी से लगा. मतलब पुंडलिक मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकता है, मुझे यकीन नहीं हुआ. मैं मानता हूँ मैं बहुत उपयोगी आदमी नहीं हूॅं, पर मेरा उपयोग कोई ऐसे कर सकता है इसका विश्रवास मुझे नहीं हुआ. पता है पुंडलिक ने मेरे साथ क्या किया? ताराचंद जैसवाल की चिठ्ठी में क्या लिखा था? ? ये रही उनकी चिठ्ठी. वैसे चिठ्ठी तो काफी बड़ी है. पर मुख्य बातें आपको सुना देता हूँ। (पढ़ता है ) राजकुमार ……….. कवि हृदय महान कवि को मेरा नमस्कार. आपकी कविताएं पढ़कर काफी खुशी हुई. पुंडलिक आपकी कविताओं के बारे में पहले भी मुझे बता चुके हैं. सारे लोग आपकी कविताओं की तारीफ कर रहे हैं. अगले महीने तक संग्रह छप जाएगा पर एक परेशानी है, संग्रह में एक कविता कम पड़ रही है ऐसा मैं नहीं हमारे संपादक महोदय सोचते हैं. आप तो बड़े कवि हैं इस संग्रह के बाद तो आपका नाम बड़े बड़े कवियों के साथ लिया जाएगा. कृपया कर एक कविता जल्द से जल्द भेजने का कष्ट करें. मेरी बेटी आपकी कविताओं की दीवानी है. शादी करने के बारे में क्या विचार है आपका ? पुंडलिक आपकी काफी तारीफ़ करता था दर्शन कब होंगे. संग्रह में आप अपना नाम राजकुमार ही लिखेंगे या कोई उपनाम भी जोड़ेंगे. बता दीजिएगा. आपका अपना ताराचंद जैसवाल. मतलब अब समस्या एक भयानक रूप ले चुकी है मैंने कसम क्यों खाई. अब पछता रहा हूँ कसम की छोड़ो मैं तो खुद चाहता हूँ कि पुंडलिक का कविता संग्रह छपे. मगर इस तरह से ……….. नहीं … मैंने क्या क्या नहीं किया, मैं कई दिनों से पुंडलिक की किताबों की तलाशी ले रहा हूँ. कि कहीं वो चार लाईन – दो लाईन – एक लाईन लिखी छोड़ गया हो. पर कहीं कुछ नहीं मिला. फिर मैंने पेन उठा लिया और पुंडलिक की तरह सोचते हुए लिखना शुरू किया …………….. खर-खर, फर-फर, छर-छर ……… मैं इसके आगे बढ़ ही नहीं पाया ……………. असल में मेरे जीवन में ऐसा कुछ हुआ ही नहीं ……… जिसके बारे में मैं लिखूं या जिससे लडूं. मुझे सब कुछ याद है जो अभी तक हुआ है पर यकीन मानिये – वो कुछ नहीं हुआ जैसा है. जैसा कि पुंडलिक कहता था कि कविता लिखने के लिए जरूरी है अपने जीवन अपने अनुभवों को याद करके, उनसे लड़के, उनका सामना करके जो बात कही या लिखी जाए वही कविता है. वाह ………. वाह ……….. ना तो ये बात मुझे तब समझ आयी थी ना अब समझ में आती है. मतलब कुश्ती अब समझ में आ जाती है पर कविता अभी भी मेरे लिए आश्चर्य है. क्या लड़ना ……………. किससे लड़ना …………….. भीतर की खुदाई ये मेरे समझ के परे की बात तब भी थी अब भी है. पर अब मेरे पास दूसरा कोई चारा नहीं. मुझे ये काम अब करना ही है. पर ऐसा नहीं है मैं लिखना शुरू कर चुका हूँ. चार दिन पहले ही मैंने वो खत जो ताराचंद जैसवाल को मुझे भेजना है उसकी शुरूआत और अन्त लिख दिया है. (पढ़ता है) शुरूआत – नमस्कार ताराचंद जी. नमस्ते. कैसे हैं आप ? मैं ठीक हूँ. आप अच्छे होंगे. मेरी कविता निम्नानुसार है -
Page 14 of 16अंत – उपर्युक्त कविता ठीक है. मैं भी ठीक हूँ. गलती माफ़ ये कविता भेजने के बाद मैं ये घर, ये गाँव , ये शहर, ये देश छोड़कर जा रहा हूँ. मेरा पीछा करने की कोशिश मत करना. कविता संग्रह जरूर छापना, आपको कसम है. आपका आज्ञाकारी कवि राजकुमार “गम्भीर”. गम्भीर ……………….. गम्भीर ………………… शब्द मैंने जोड़ दिया वैसे तो मुझे समस्या शब्द भी अच्छा लगता है पर कवि राजकुमार समस्या गम्भीर ये नाम शायद अच्छा नहीं होगा. सो मैंने समस्या निकाल दिया. कवि राजकुमार गम्भीर नाम ठीक है. इतना काम मैंने तो कर दिया – कविता कैसे लिखूं ? लिखना ही है सभी रास्ते बंद है सीधी लम्बी सड़क है. छुपने के लिए कोई पगडंडी, गली, कुचा कुछ भी नही है. सो मुझे आगे बढ़ना है और लिखना है. अगर एक कसम खाई होती तो कसम से मैं वो कसम शायद तोड़ भी देता. पर जोश में खाई हुई सारी कसमें अब भूत बनकर मेरे ही पीछे पड़ गईं. अरे गाँधीजी मेरी रक्षा करो, ओ भगवान मेरी रक्षा करो ……… नहीं नहीं मेरी रक्षा ये नहीं कर सकते. एक कवि ही कवि की रक्षा कर सकता है. अब सिर्फ पुंडलिक ही मुझे बचा सकता है. उसने कहा थ्ज्ञा कि अपने से लड़ो सो मैं लड़ रहा हूँ. पुंडलिक ने जब मुझे अपनी माँ के बारे में बताया कि कैसे उनके अंतिम दिनों में उसने उनकी सेवा की तो मैं भी कल्पना करने लगा कि मैं माँ के अंतिम दिनों में माँ के लिए क्या क्या करूंगा. सबसे पहले तो मैं उनका मग्गा उनके हाथ से छीनकर कहीं दूर फेंक आऊंगा. और एक बार अपने हाथों से उन्हें लाल रिबन पहना कर फिल्म दिखाने ले जाउंगा. क्योंकि मेरी बड़ी इच्छा थी ये देखने की कि माँ फिल्म कैसे देखती होंगी. कैसे टिकट की लाईन में लगती होगी. इन्टरवल में क्या करती होगी और उनके लाल रिबन का फिल्म देखने से क्या ताल्लुक है. पर मेरी ये सारी इच्छाएँ, इच्छाएँ ही रह गई. क्योंकि एक सुबह जब मैं उठा तो देखा माँ अपने पलंग पर नहीं थी वो दरवाजे के पास जमीन पर औंधी पड़ी थी और उनके बालों में लाल रिबन बंधा हुआ था. मैंने कहा माँ – माँ पर वो उठी नहीं फिर मैंने मदर भी बोला पर वो हिली भी नहीं. मैं डर गया. मैं पुंडलिक को उठाने गया पर उसके पहले मैंने माँ के बालों से लाल रिबन निकालकर अपनी जेब में रख लिया. मैं नहीं चाहता था कि उनकी फिल्म देखनेवाली बात किसी और को पता चले. पुंडलिक आया. उसने घोषणा कर दी कि तैयारी कर लो तेरी माँ मर गई. ऐसा कैसे हो गया – कौनसी तैयारी और ये संभव कैसे हो सकता है. मुझे दुख नहीं आश्चर्य हो रहा था क्योंकि मुझे अपनी नहीं चिन्ता इस घर की थी. क्या ये घर कुछ नहीं कहेगा. क्योंकि माँ हमारे साथ नहीं इस घर के साथ रहती थी. शायद घर को पहले खत्म होना चाहिए था. शायद इसलिए माँ पलंग पे नहीं नीचे जमीन पर घर की गोद में मरी थी. तैयारी कर लो कहकर पुंडलिक चला गया. मुझे अकेला माँ के साथ छोड़ के. मैं क्या करता ? मैंने उन्हें पलटाया उनके सर के नीचे एक तकिया रखा और उनकी सूखी कड़क देह को देखने लगा ………………. इसी ने मुझे पैदा किया है – अजीब लगता है ना. पुंडलिक अर्थी का सामान और कुछ लोगों को लेकर आया. मैं रो नहीं रहा था पर सभी लोग मुझसे कह रहे थे. घबराओं नहीं ऐसा होता है – सब ठीक हो जाएगा वगैरह वगैरह. फिर मेरा सिर मुंडवाया गया और मैंने माँ को अग्नि दी. मैं अपनी माँ को जलते हुए देख रहा था. अचानक लकड़ियों के बीच मुझे उनका हाथ दिखा. मुझे लगा वो अपना मग्गा माँग रही है. मेरी इच्छा हुई कि उनका मग्गा लाकर उनके हाथों में पकड़ा दूं या कम से कम अपनी जेब से लाल रिबन निकालकर उनकी चिता में ही डाल दूं. पर मेरी हिम्मत नहीं हुई. मैं चुपचाप उनका जलना देखता रहा. वो जलती हुई लकड़ियों के बीच मेरी माँ है जो जल रही है. जब मैं घर लौट रहा था तो लगा शायद घर नहीं होगा. वो गिर चुका होगा या कहीं न कहीं कोई दरार तो जरूर पड़ी होगी. पर ऐसा कुछ नहीं था. सब कुछ सामान्य था.
Page 15 of 16धूप चेहरा जला रही है परछाई जूता खा रही है शरीर पानी फेंक रहा है एक दरख्त पास आ रहा है उसकी आंचल में मैं पला हूँ उसकी वात्सल्य की साँस पीकर आज मैं भी हरा हूँ. आप विश्वास नहीं करेंगे पर इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है. मैं इसे माँ कहता हूँ. आजकल राधे काफी उदास रहता था. वो अपना काफी समय गाँधी पार्क में गाँधीजी के साथ बिताता था. कहता था आजकल वो और गाँधीजी काफी बातें करते हैं. पर गाँधीजी ने मेरी बात समझकर मुझे माफ भी कर दिया अब गाँधीजी वैष्णोदेवी जाने की जिद कम ही करते हैं. पर वो उदास था क्योंकि आजकल इस गाँव में वैष्णोदेवी जाने का मौसम था. लोग वैष्णोदेवी जा रहे थे वहाँ से लौट के आ रहे थे पर लोग राधे को भगा देते थे. राधे का भी एकदिन अचानक आना बंद हो गया था. घर के सामने धूल ही धूल जमा हो गई थी. राधे आ नहीं रहा था मुझे लगा इस धूल में राधे का कितना सारा सोना बिखरा पड़ा होगा. मैंने झाडू लगाकर वो सारी धूल इक्ट्ठी कर ली सोचा जब राधे आयेगा तो ये सारी धूल उसे दे दूगा. वो बहुत खुश होगा. पर राधे नहीं आया. फिर अचानक एक दिन वो आ गया मैंने पूछा राधे कहाँ थे इतने दिनों? वो कुछ नहीं बोला – चुपचाप बैठा रहा. मैंने कहा मैं गाँधी पार्क भी गया था. तुमको देखने पर तुम वहाँ भी नहीं दिखे तब भी वो चुप रहा. शायद वो जवाब नहीं देना चाहता था. सो मैं भी चुपचाप बैठा रहा. और मैंने जो इतने दिनों से धूल जमा करके रखी थी उसे लेने से भी राधे ने मना कर दिया. उसने कहा कि अब ये मेरे किसी काम की नहीं है. ये कहते ही वो एक सफेद पोटली बन गया और मेरे सामने लुढ़कने लगा. जब राधे इतने दिनों नहीं आया था तब मैंने पहली बार अपने जीवन में किसी का ना होना महसूस किया था. वैसे तो पुंडलिक भी चला गया था माँ भी नहीं रही. पर उनके जाने के बाद उनका ना होना मैंने कभी महसूस नहीं किया. जब तक राधे नहीं आया था मुझे ऐसा लग रहा था मानो मेरे अंदर इतनी खाली जगह छूट गई है कि मुझे अपनी ही आवाज़ गूंजती हुई सुनाई दे रही थी. बस यही है जो है. इसके अलावा मेरे जीवन में ऐसा कुछ नहीं हुआ है. जिसका जिक्र किया जा सके. कुछ छुटपुट बातें और है जैसे एक कुता घर के पिछवाड़े रोज मुझसे मिलने आने लगा. मैं भी शाम को उसके साथ समय बिताने लगा. अभी कुछ ही दिन हुए थे. मैं अभी उसका नाम रखने की सोच ही रहा था कि उसने अचानक आना बंद कर दिया. बस अब राधे है. मेरा ट्रक वाला दोस्त है और मैं हूँ. हम तीनों है और खुश हैं. लड़ाई खत्म. बस इतना ही मेरे साथ हुआ है. मतलब इतना ही हुआ है जो मुझे याद है जिसे सुनाया जा सके. पर इतने के बाद भी मेरी समझ में ये नहीं आया इसमें ऐसा क्या है जो कविता है . पुंडलिक कवि है कविता नहीं है. मेरी माँ भी मेरी माँ ही है. वो गोर्की की या पुंडलिक की माँ जैसी नहीं है. मेरी माँ के साथ घटनाएं हैं कविता नहीं है. राधे राधे है. जो गाँधी पार्क में लगी गाँधीजी की मूर्ति की लाठी है. उससे ज्यादा राधे कुछ नही है. ट्रक वाला दोस्त के बारे में मैं चुप रहना ही पसंद करता हूँ. रघु मेरे लिए चमत्कार था, चमत्कार है और चमत्कार रहेगा वो मेरा रघु है. पर कविता, वो तो कही नहीं है. मैं अपने से जितना लड़
Page 16 of 16सकता था लड़ा. ये कविता कहाँ छुपी है. इतनी सारी कसमें खा चुका हूँ. क्या होगा उनका ? ताराचंद जैसवाल वहाँ इंतजार कर रहा है. मैं यहाँ एक शब्द भी नहीं लिख पा रहा हूँ. पुंडलिक मुझे माफ कर देना. मुझसे नहीं होगा. कसम वसम चूल्हे में भसम ……………. सड़ी सुपारी बन में डाली सीताजी ने कसम उतारी. नहीं नहीं ये कुछ काम नहीं करेगा ये सब मैं अपने आपको बहलाने के लिए कर रहा हूँ. मैं एक तरह का खेल अपने साथ खेल रहा हूँ. ये खेल कब तक चलेगा. मुझे लिखना है और मैं अभी लिखकर रहूँगा. तैयार ………… अब ताराचंद जैसवाल ये रही आपकी चिट्ठी पूरी तरह पूरी. अब आपको जो समझना हो समझो. (पढ़ता है) शुरूआत – नमस्कार ताराचंद जी. नमस्ते. कैसे हैं आप ? आप अच्छे होंगे. मेरी कविता निम्नानुसार है …………… शक्कर के पाँच दानें जादू है जिनके पीछे चींटियां भागती है दो दानों पर पहुंचती है तीन आगे दिखती हैं. सारी चींटियों को बुला लेती हैं. पाँचवे दाने पर पहुंच जाती है पर पीछे के दो दानों को भूल जाती है फिर वही दो दाने आगे मिलते हैं. वो जादू में फंस जाती है. और घूमती रहती है. ये खेल कभी खत्म नहीं होता. क्योंकि चींटियां तलाश रही हैं खेल नहीं रही हैं. जादूगर एक है जो खेल रहा है. अंत - उपर्युक्त कविता ठीक है. मैं भी ठीक हूँ. गलती माफ, ये कविता भेजन के बाद मैं ये घर, ये गाँव , ये शहर, ये देश छोड़कर जा रहा हूँ. मेरा पीछा करने की कोशिश मत करना. कविता संग्रह जरूर छापना – आपको कसम है. आपका आज्ञाकारी कवि राजकुमार गम्भीर. ठीक है न ………….. ? (चींटियों का खेल खेलना शुरू करता है) ब्लैक आऊट
Find in document
शक्कर के पाँच दानेः मानव कौल.docx
Open with Google Docs
सदस्यता लें
संदेश (Atom)