aRANYA presents
Giving up on GODOT
Written by- Manav Kaul
Scene-1
(कबीर, नील, सूखी, नर्स, निरंजन, जीवन और सूरज सब एक स्पाट में बैठे हुए हैं और लाईट से सोर्स की तरफ देख रहे हैं। तभी म्युज़िक के साथ एनाउंसमेंट शुरु होती है जो नहरु की देश की आज़ादी की स्पीच से लेकर, देश की अभी तक की सारी घटनाओ का तेज़ी के साथ... घटित होने जैसा है। सुनते हुए सभी खड़े होते हैं.... एनाऊंस्मेंट के खुत्म होते ही सभी लाईट सोर्स को यूं देखते हैं मानों कुछ समझ नहीं आ रहा।)
निरंजन- ये नाटक है!
कबीर- नाटक?
नर्स- नाटक!
सूरज- क्या बोल रहे हो यार?
नील- नहीं.. नहीं ... नहीं नहीं।
जीवन- अगर ये नाटक है तो हम मारे जाएगें अंत में
सूखी- तो दर्शक? वो बचे रहेंगें?
निरंजन- ऎसा उन्हें लगता है।
कबीर- हम यहाँ ऎसे क्यों खड़े हैं?
नील- हाँ कर क्या रहे हैं?
निरंजन- इंतज़ार।
नर्स- इंतज़ार?
कबीर- किसका? (सारे उसकी तरफ देखते हैं.. वो वापिस लाईट की तरफ देखकर कहता है।) गोदो।
नर्स- हमें इंतज़ार करना है उसका अंत तक।
सूखी- क्योंकि ये डर है...
सूरज- कि वो आए।
निरंजन- देर तक दरवाज़ा खटखटाए..
नर्स- और हम यहाँ पर ना हो...।
सूखी- वो दूसरी तरफ चला जाएगा....
नील- क्योंकि इंतज़ार तो सभी कर रहे है।
नर्स- मैं उसकी आहट सुन सकती हूँ।
निरंजन- वो पास में ही है..
सूखी- कभी भी प्रगट हो सकता है..
सूरज- किसी भी क्षण..
नर्स- बस आया ही समझो..
सूखी- अभी..
निरंजन- यहीं..
नर्स- दिखा..
सूखी- दिखा..
सूरज- दिखा...
निरंजन- दिखा..।
black out…
Scene-2
नर्स- नाम क्या है इनका?
नील- कबीर।
नर्स- कबीर....? बस?
नील- इसने अपना सरनेम हटवा लिया था।
जीवन- ये सरनेम वगैराह नहीं मानता है।
नर्स- इसके मानने से क्या होता है हम सब तो मानते हैं।
सूरज- हे ना... वो ही तो मैं भी कह रहा था।
नर्स- तुम्हारे कहने पर इसको भर्ती मिल रही है। (सूरज से)
सूरज- इसे इलाज की ज़रुरत है... दोस्त है मेरा तो सोचा...
नील- नहीं.. ये मेरा दोस्त है... नहीं मैं दोस्त हूँ इनकी... पुरानी..।
नर्स- सिर्फ दोस्त?
सूरज- हाँ दोस्त... मतलब.. ये दोनों सिर्फ दोस्त है... मतलब ये और कबीर... और ये और मैं तो अब... शादी।
नील- श्शश... ।
जीवन- मैं इसके बचपन से इसके साथ हूँ।
नर्स- तुम्हारा नाम क्या है?
जीवन- जीवन।
नर्स- सरनेम। (जीवन चुप रहता है।) यहाँ मैं तुम्हारा नाम लिख रही हूँ.... सिर्फ जीवन, क्या करते हो तुम?
जीवन- काम।
नर्स- किसका काम?
जीवन- सबका।
सूखी- अरे वाह.... ये अभी-अभी आया है?
नील- ये कौन हैं?
सूखी- जैसे ये यहाँ अभी-अभी का मरीज़ है वैसे मैं यहाँ कभी-का की मरीज़ हूँ। ये पहला बिस्तर इनका है और वो आख़री बिस्तर मेरा है।
नील- ये ठीक तो हो जाएगा ना?
नर्स- पहले ये देखना पड़ेगा कि ये कितना बीमार है? मैं इनके टेस्ट की व्यवस्था करवाती हूँ.... जीवन आप मेरे साथ आईये कुछ फार्म भरने हैं।
जीवन- जी।
(सूखी कबीर को देखती हुई आपने बेड पर चली जाती है.... नील और सूरज एक बेंच पर जाकर ऎसे बैठते है मानों तस्वीर खिचवा रहे हो.. पुरानी श्वेत और श्याम तस्वीर की तरह दूर कहीं देखते हुए। कबीर उठकर दर्शकों की तरफ देखता है मानों नील और सूरज को देख रहा हो।)
कबीर- तुम लोग मुस्कुरा क्यों रहे हो?
नील- नहीं मुस्कुरा नहीं रहे... कहाँ मुस्कुरा रहे हैं? नहीं मुस्कुरा रहे।
कबीर- मुस्कुरा तो रहे हो?
सूरज- अबे नहीं मुस्कुरा रहे...।
नील- हम बहुत घबरा गए थे।
कबीर- क्यों?
नील- इतने सालों बाद तुम्हारे नंबर से फोन आया जीवन का... हम भागते हुए आए।
कबीर- मैं ठीक हूँ... मुझे कुछ नहीं हुआ है।
सूरज- कह रहे हैं तुम्हारे दिमाग़ में कुछ...
नील- शूशू...
सूरज- जीवन ने बताया था कि तुम जहाँ खड़े थे वहीं गिर गए थे।
कबीर- सूरज हो ना तुम?
सूरज- अरे! हाँ... अबे तेरा दोस्त सूरज.. और ये पहचान रहे हो कौन है? अरे मेरे ही करण तुम यहाँ....
नील- तुम्हें हाई डोज़ दिये हैं इसलिए तुम्हे कुछ फील नहीं हो रहा।
कबीर- मैं इतना ही फील कर पाता हूँ आजकल।
सूरज- यू शुड फील लकी... मेरे एक फोन पर... ये अस्पताल वाले खुद तुम्हें लेने आए।
नील- ये असल में अस्पताल नहीं है...
कबीर- मतलब...। फिर ये कौन सी जगह है..।
नील- अस्पताल जैसा ही है।
सूरज- शहर से दूर है.. और बहुत डिसिप्लीन वाला है।
कबीर- मुझॆ बहुत काम है...।
नील- तुम्हें इस वक़्त आराम की ज़रुरत है।
सूरज- अबे तुम्हारा सरनेम क्यों नहीं है बे? हमने कह दिया तुम हिंदु हो... हिंदु होने पर तुम सेफ हो हर जगह...
नील- हमने ऎसा कुछ नहीं कहा...
कबीर- मैं हिंदु नहीं हूँ।
नील- मैं जानती हूँ।
सूरज- मुसलमान हो? तब तो...
कबीर- नहीं।
सूरज- इसाई????
कबीर- नील, तुम तो उड़ने वाली थी
सूरज- क्या कह रहे हो बे?
कबीर- तुम तो उड़ने वाली थी ना?
नील- हाँ मैं उड़ूंगी।
सूरज- कौन उड़ेगा...? क्या उड़ेगा? कोई नहीं उड़ेगा... ये बीमार है।
(सूरज गुस्से में खड़ा हो जाता है। इस बीच निरंजन उठता है... वो कुछ ढ़ूढ़ रहा है.. उसे नहीं मिलता है।)
कबीर- तुम्हारी मूँछ कहाँ है?
सूरज- है तो मेरी मूंछ।
कबीर- नहीं मूछ नहीं है।
सूरज- पागल है क्या.... कुछ भी बोलता है... मूछ नहीं है... उड़ना है... है तो मूँछ। (चिल्लाता है।)
नील- हे तो इनकी मूँछ। BLACK OUT…
SCENE-3
(निरंजन पूरे कमरे में कुछ ढ़ूंढ रहा है। तभी नर्स प्रवेश करती है। वो वापिस अपने पलंग पर आ जाता है।)
निरंजन- तुमने मेरा चश्मा देखा?
(कबीर कुछ कहने को होता है तभी निरंजन उसे चुप कर देता है... नर्स बग़ल से निकलकर बाक़ी मरीज़ों के पास जाती है।)
निरंजन- मूँछ नहीं है रोहित...
कबीर- रोहित नहीं.... कबीर..
निरंजन- कबीर रोहित एक ही बात है... पर मूँछ नहीं है।
कबीर- हे ना.. तुमने भी देखा था ना। मुझे लगा मेरी तबियत ठीक नहीं है इसलिए।
निरंजन- तुम बस अपनी तबियत को ठीक मत कर लेना।
कबीर- पर तुमने उस वक़्त सबसे क्यों नहीं बोला कि मूँछ नहीं है।
निरंजन- इधर कुछ भी बोलना खतरनाक है... तुम्हें पता है कि असल में ये एक नाटक है।
कबीर- तुम्हें भी पता है ये नाटक है? मैं तो कब से कह रहा था कि ये नाटक चल रहा है... लोग अपने किरदारों को बहुत सीरियस्ली ले रहे हैं... जबकि उनका अमल विमल कमल एवंम इंद्रजीत होना महज़ एक्सीडेंट है। और कौन-कौन खेल रहे हैं ये नाटक?
निरंजन- सब लोग।
कबीर- तुम भी नाटक कर रहे हो ना?
निरंजन- दिक्कत यही है कि जो नाटक में है उसे कभी नहीं पता चलता कि वो असल में नाटक कर रहा है।
कबीर- तो किसे पता चलता है?
निरंजन- अगर तुम दर्शक हो तो... वो बहुत कम लोग ही... बहुत ही कम वक़्त के लिए हो पाते हैं।
कबीर- मैं दर्शन रहना चाहता हूँ।
निरंजन- मारे जाओगे।
कबीर- क्यों?
निरंजन- हर भेड़ को यही लगता है वो तो असल में शेर है... बाक़ी सब भेड हैं इसलिए कट रहीं हैं।
कबीर- तो शेर कौन है?
निरंजन- शेर वही है जो भेड़ों को कहता है कि तुम आज़ाद हो... ये पूरा हरा घांस का मैदान तुम्हारा है... बस इसके बाहर मत जाना वरना बहुत पिटोगे।
कबीर- मुझे यहाँ से निकलना है।
निरंजन- किसने रोका है?
कबीर- तो मैं जाऊं?
(कबीर एक तरफ जाता है दरवाज़ा खटकटाता है दरवाज़ा बंद है.. दूसरी तरफ जाता है वो दरवाज़ा भी बंद है... वापिस आता है तभी पहले दरवाज़े से नर्स अंदर आती है।)
नर्स- कैसा लग रहा है?
कबीर- जी... मैं दर्शक हूँ अभी... पर मुझे इस नाटक का हिस्सा नहीं होना है।
निरंजन- श्श्श्श... चुप।
नर्स- तुम्हें आराम की ज़रुरत है।(कबीर से) गोदो आया? (निरंजन से)
निरंजन- आने वाला है।
नर्स- हम भी इंतज़ार कर रहे हैं।
निरंजन- सुनिये ... असल में ये जूते बहुत काटते हैं.. क्या मैं नंगे पैर रह सकता हूँ?
नर्स- ऎलाऊड नहीं है। (कबीर से) तुम्हारे नाप के जूते हमने मंगवाए हैं।
(नर्स एग्ज़िट करती है।)
निरंजन- असल में हम सब खराब अभिनेता हैं। जैसे ये नर्स... उसे देखकर नहीं लगता कि वो असल में डॉक्टर की भूमिका निभाना चाहती थी... पर उसे नर्स बना दिया गया है। कितनी क्रूरता से काम करती है। देखो.... दो दरवाज़े हैं... मंच पर आने जाने का रास्ता... बीच में पूरा स्टेज खाली है... कुछ भी हो सकता है यहाँ। अब बताओ.... तुम नाटक में हो या... दर्शक हो...?
(तभी खिड़की की लाईट आती है.. कबीर को पहली बार खिड़की दिखती है... कबीर खुद ब खुद खिचता हुआ...खिड़की के पास जाता है, मानों उस तरफ उसका कोई अपना हो।)
कबीर- I feel a growing gap between my soul and my body. हम पूरी ज़िदग़ी लड़े हैं कि हम नाटक का हिस्सा नहीं होंगे। हम अपनी ही कहानी में ख़राब अभिनेता नहीं होंगे। पर क्या तटस्थ रहकर पूरी ज़िदग़ी काटी जा सकते है... क्या नाटक के अंत में हम ताली बजाकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं? शू शू शू..... मैं दर्शक हूँ... महज़ दर्शक।
निरंजन- यार चश्मा यहीं तो रखा था।
(दोनो खिड़की से मुड़कर देखते हैं कि पीछे सूखी अपने आसमान बनाने में एक अजीब सा धीमा नृत्य कर रही है... पर उसके हाथ आसमान के लिए छोटे पड़ जा रहे हैं.. निरंजन जाकर उसे एक स्टूल देता है और वो उसपर चढ़ जाती है.. कबीर उसके पास जाता है।)
कबीर- ये क्या कर रही हो तुम?
सूखी- शू शू शू। आसमान बना रही हूँ।
कबीर- आसमान... कमरे में..।
सूखी- हम सबका अपना खुला आसमान होना, हमारा हक़ है.. इसे कोई नहीं मार सकता।
कबीर- मैं मदद कराऊँ?
सूखी- तुम लोगों की मदद नहीं चाहिए हमें
कबीर- क्यों?
सूखी- ये हमारा आसमान है।
कबीर- मैं यहाँ कब से हूँ? (सूखी कबीर के पास आ जाती है... एकदम पास..। )
सूखी- कितना सारा जानना चाहते हो? क्या करोगे इतने सवालों का?
कबीर- मुझे हुआ क्या है?
सूखी- फिर सवाल?
कबीर- अरे पर क्या करुं मेरे पास बहुत से सवाल हैं... मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? किससे बात करुं? मुझे कब तक रहना है यहाँ? मुझे हुआ क्या है?
सूखी- वो सामने खिड़की देख रहे हो.... उसके बाहर जवाब पड़े हैं। कूदोगे तो कुछ मिलेगा।
कबीर- मेरे सारे सवालो के जवाब?
सूखी- ना... वहाँ जवाब हैं... अपने टुच्चे सवाल यहीं छोड़कर जाओ.. वो वहाँ काम नहीं आएगें।
कबीर- अरे फिर क्या मतलब हुआ?
सूखी- क्या मतलब क्या?... ये अस्पताल है..
कबीर- ये असपताल नहीं है..।
सूखी- पर तुम्हारा घर भी नहीं है। कूदना है तो कूदो नहीं तो भाड़ में जाओ।
(कबीर खिड़की की तरफ जाता है और उसके बाहर देखता है... उसे कुछ नहीं दिखता है। वापिस पलटकर देखता है सूखी उसके पलंग के पास लगी बेंच पर बैठी हुई है और उसके बगल में सूरज आकर बैठ गया है। कबीर खिड़की से बाहर कूदता है। वहाँ उसे नील बैठी दिखती है। सूखी और सूरज बिस्तर के पास बैठे है और कबीर से बात कर रहे हैं मानों कबीर बिस्तर पर लेटा है।)
सूखी- ये मुस्कुरा रहा है..।
सूरज- शायद ये ठीक होता जा रहा है।
कबीर- नील।
नील- ये तलाब तुम्हें याद है ना? इसी की तस्वीर कब से तुम्हारे कमरे में लगी देखी थी.. पर हम यहाँ कभी नहीं आए थे। कभी सिर झुकारक अपनी हाथ की रेखाएं टटोली हैं? तुम समझ रहे हो ना मैं क्या कहना चाह रही हूँ? एक उम्र पर आकर अपने हाथ की रेखाए टटोलने से बड़ी त्रासदी कोई नहीं हो सकती है।
सूरज- अरे यार ये कैसा पुरुष है? पुरुष होकर त्रासदी की बात कर रहा है। (सूरज स्टूल पर चढ़ार एक महान पुरुष की मुद्रा में खड़ा हो जाता है।)
सूखी- तुम फिर त्रासदी बात कर रहे हो? सब ठीक हो जाएगा कबीर।
कबीर- मैं त्रासदी लिख रहा हूँ।
नील- तुम्हें पता है ना कि मैं पैंतीस की होते ही उड़ जाऊँगी।
सूरज- ये बार-बार उडने की बात क्या हो रही है? तुम क्यों उड़ोगी...? ऎसा नहीं होगा।
सूखी- नहीं मतलब...
नील- नहीं उड़ूंगी या तुम ये बात भूल गए हो?
कबीर- मैं तो तुम्हें हमेशा उड़ते हुए देखना चाहता था।
सूखी- ये तुम्हारी नहीं मेरी उड़ान है.... मेरा आसमान है।
सूरज- पर हमारा जन्म-जन्म का साथ है। शादी मज़ाक है क्या?
नील- मैं अपनी शादी का कार्ड देने तुम्हारे घर गई थी।
कबीर- पर तुम्हें तो पता था कि मैं यहाँ हूँ।
नील- मेरी इच्छा थी कि मेरी जब भी शादी हो... मैं घर में आऊँ तुम्हें कार्ड देने।
कबीर- ये कैसी इच्छा है?
सूरज- ये कैसी इच्छा है?
(सूखी और कबीर अचानक खड़े हो जाते हैं....)
सूरज- तुम वो बात करो जो तुम यहाँ करने आई हो... शांत हो जाओ।
कबीर- तुम यहाँ क्यों आई हो?
सूरज- तुमपर कुछ इनका हिसाब बचा है।
कबीर- क्या हिसाब?
सूखी- जब तुम्हारी तबियत बिगड़ गई थी तो मैं हिसाब लगा रही थी। तुम्हरे ऊपर कुछ चीज़े निकलती हैं।
कबीर- जैसे? क्या चीज़े?
नील- जैसे मेरे पंख़... आसमान... छलांग।
सूखी- जाने दो ये बात.. जब तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगे तो उस बारे में मैं बात करुँगी।
सूरज- कर लो ये बातें इस तरह के लोग कभी ठीक नही होते।
कबीर- मुझे ठीक लग रहा है... तुम कह दो।
सूखी- मैं इस तरह नहीं कहना चाहती हूँ।
कबीर- किस तरह?
सूरज- जिस भी तरह है, कह दो यार अब।
सूखी- मतलब ये ठीक नहीं लगता है ना कि तुम अस्पताल में हो और मैं हिसाब लेकर बैठ गई।
कबीर- किसे अच्छा नहीं लगता? कौन देख रहा है? क्या यहा कोई और भी दर्शक है...
सूरज- बोलो...
कबीर- बोलो...
नील- मैं कल उड़ने वाली हूँ।
कबीर- कल
सूरज- क्या बकवास कर रही हो?
(नील मुड़कर सूखी को देखती है.. दोनों मुस्कुराकर एक दूसरे की तरफ बढ़ती है... और खिड़की के दोनों तरफ खड़ी हो जाती हैं।... मानों आईने के सामने खड़ी हो।सोखी खिड़की के आती रोशनी की तरफ देखती है.. नील मुड़ती है... दोनों बहुत धीमा नृत्य शुरु करते हैं।)
सूखी- कल तुम पैतिस की होने वाली हो? क्या तुम उड़ोगी?
नील- अगर तुम्हारा आसमान कल तक पूरा हुआ तो मैं भी अपने पंख ढ़ूंढ़ लूंगी।
सूखी- तुम्हारे पंख गायब हैं?
नील- जितनी कहानियाँ अब तक जी हैं उन हर कहानियों के अच्छे क्षणों में मैंने बुकमार्क की तरह पंख तोड़ तोड़कर रख लिये थे कि कहीं जीवन का वो हिस्सा भूल ना जाऊँ.... अपने ही जीये हुए प्रलोभनों में उड़ना बट गया।
सूखी- उन्हें बटोरने में तो बहुत वक़्त लगेगा।
नील- जब तक तुम सबकुछ नीला कर दोगी तब तक मेरे पास पंख होंगे।
सूखी- कल
नील- कल
सूरज- तुम उड़ नहीं सकती। तुम्हें इतनी आज़ादी दी है... अब तुम उसमें उड़ना चाहती हो.. चलो घर .. चुप चाप काम करो .. चलो...।
(सूखी हटती है.... कबीर अंदर आता है.... सूरज नील का हाथ पकड़कर उसे अंदर ख़ीचने को होता है... कबीर इसे रोक रहा होता है। नर्स का प्रवेश होता है।)
नर्स- क्या हो रहा है ये?
कबीर- क्या कर रहे हो... छोड़ो उसे।
सूरज- तुम मुझे छोडो। नर्स ये फिर पगला रहा है।
(सूखी नर्स को देखकर अपने पलंग पर चली जाती है।... नर्स उसे छोड़कर कबीर की तरफ आती है। ट्रे से पहले कबीर को हाथो पर मारती है फिर सिर पर... कबीर वहीं गिर जाता है। नील छूटकर वहीं खिड़की के नीचे बैठ जाती है। सूरज हकबकाकर नर्स को देखता है।)
सूरज- मैं इसे देखने आया था... पता नहीं क्या बड़बड़ा रहा था फिर भागता हुआ खिड़की से बाहर कूदने की कोशिश करने लगा।
नर्स- क्यों?
निरंजन- कह रहा था वो उड़ जाएगा।(किताब से पढ़ता है।)
सूरज- कौन उड़ेगा.. कोई नहीं उड़ेगा.. जिसने उड़ने की बात की तो मैं उसका मुँह तोड़ दूंगा।
नर्स- अस्पताल में उड़ना मना है। (ब्लैक आऊट)
Scene- 4
(जीवन टहल रहा है। निरंजन अपना चश्मा ढ़ूंढ़ रहा है और कबीर अपने बिस्तर पर लेटा हुआ है।)
निरंजन- मेरा चश्मा देखा है क्या?
जीवन- आपके सिर पर पड़ा है।
(निरंजन चश्मा उठाकर पटक देता है। और उठकर घूमने लगता है।)
निरंजन- क्यों? क्यों बताया? क्या ज़रुरत थी?
जीवन- आपने मुझे काम दिया और मैंने कर दिया।
निरंजन- अब मैं अपने ख़ाली वक़्त में क्या करुंगा ये भी बता दो।
जीवन- आपने ढूंढ़ा और पाया।
निरंजन- पा लेने के बाद की बोरियत से ढूंढते रह्ने की थकान बड़ी है।
जीवन- आप इसे फिर खो सकते हैं। (वक़्फा)
निरंजन- तुम्हारा नाम क्या है?
जीवन- जीवन।
निरंजन- तुम जीवन के भेष में गोदो तो नहीं।
जीवन- गोदो... वो ...
निरंजन- वो आता ही होगा...।
जीवन- जीवन के भेष में?
निरंजन- तुम बताओ?
जीवन- क्या?
निरंजन- तुम गोदो हो?
जीवन- मैं जीवन हूँ
निरंजन- कैसे आए यहाँ?
जीवन- मैं इधर से आया...।
निरंजन- क्यों?
जीवन- अपने दोस्त को देखने... ये कबीर।
निरंजन- कल रात इन्हें बहुत पड़ी है। ये खिड़की से भागना चाह रहे थे। पिछवाड़े में ये बड़े-बड़े इग्जेक्शन ठुके हैं... इन्हें जल्दी होश ना आने वाला है... आप बाद में आना।
जीवन- मेरे पास टाईम है।
निरंजन- अरे इन्हें शायद आज होश ही ना आए।
जीवन- मेरे पास जितना टाईम है उतना पूरा मुझे यहीं रहना पड़ेगा।
निरंजन- क्यों?
जीवन- मेरे महत्वपूर्ण काम की दो पर्चियाँ कोरी निकली हैं.. उन दो पर्चियों का टाईम है मेरे पास।
निरंजन-ये काम करने का अच्छा तरीक़ा है।
जीवन- मुझे ये ही तरीका आता है।
निरंजन- कब से कर रहे हो ये काम?
जीवन- बचपन से...मैं बचपन से ही व्यस्त हूँ। लोग काम देते रहे और मैं बड़ा होता रहा।
निरंजन- मतलब कोई भी आदमी अपना काम पर्ची पर लिखकर तुम्हारी जेब में डाल सकता है?
जीवन- हाँ... पहले लोग काम कह देते थे और मैं भूल जाता था। फिर वो लिखकर देने लगे... और मेरी जेब में डाल देते, जिन्हें मैं समय रहते पूरा करता चलता हूँ। अब तो मैं अपने खुद के काम की भी पर्चियाँ लिखकर अपनी जेब में रख लेता हूँ।
निरंजन- लोग बड़े बदमाश हैं... वो मज़े लेने के लिए कोरी पर्चियाँ भी डाल देते हैं?
जीवन- नहीं... ये मेरी चालाकी है... मैं कुछ कोरी पर्चियाँ किसी महत्वपूर्ण काम की तरह जेब में रख लेता हूँ। और जब किसी काम के लिए कोई पर्ची निकालता हूँ और वो कोरी निकलती है तो मैं खुश हो जाता हूँ। तब मैं किसी महत्वपूर्ण काम की तरह, कुछ भी नहीं करता हूँ। काम के वक़्त काम ना करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी है।
निरंजन- तुम मेरा एक काम करोगे?
जीवन- तुम्हारा चश्मा तो मिल गया है।
निरंजन- एक बहुत महत्वपूर्ण काम है... उस काम से हम सब जुड़े हुए हैं।
जीवन- मैं भी..
निरंजन- हाँ... अरे तुम तो जीवन हो तुमसे तो सबकुछ जुड़ा है।
जीवन- जब इतना महत्वपूर्ण है तो लिख दो। मैं समय रहते पूरा कर लूंगा।
(जीवन निरंजन को एक कोरी पर्ची देता है। निरंजन लिखता है।)
निरंजन- मुझे इस किताब की शुरुआत और अंत चाहिये।
जीवन- कौन सी किताब है ये...?
निरंजन- वेटिंग फॉर गोदो!
जीवन- पर इसकी शुरुआत और अंत तो बेकेट ने लिखा ही नहीं है।
निरंजन- ऎसा कैसे हो सकता है...? गोदो का आना ज़रुरी है... तुम इसकी शुरुआत और अंत ढूंढ दो...बस।
जीवन- ठीक है मैं समय रहते ये काम कर दूंगा... यहाँ मेरा समय समाप्त हुआ मैं जाता हूँ। सुनों कबीर बहुत कोमल है इसका ख़्याल रखना।
(जीवन पर्ची जेब में रखता है और चला जाता है। निरंजन किताब पढ़ने लगता है। कबीर उठता है और खिड़की के पास जाता है। निरंजन कुछ देर में उसके पीछे आकर खड़ा हो आता है।)
कबीर- मुझे तारों को देखने बहुत अच्छा लगता है। जब भी उन्हें देखता हूँ तो लगता है कि हमारे पुरखे हमें, अपनी चमकती आँखों से देख रहे है। संयम जैसी शांति को थामे हुए, हम इंसानों के गुनाहो को माफ़ किये जा रहे है। कितने धोखे हमने लगातार दिये है अपने ही पुरखों को... इस प्रकृति को, ये मानकर कि माफ़ करना तो उनका धर्म है। और हम, ना तो अपना धर्म समझ पाए और ना ही माफ़ी मांगने और माफ़ कर देने का हुनर ही सीख पाए। कभी-कभी घुटने टेक देने का मन करता है कि मैं उसी प्रजाति का हिस्सा हूँ जो यहाँ आए, जिन्होंने सबकुछ खत्म किया फिर अंत में मेरा-तेरा के चक्कर में, वो नहीं रहे।
निरंजन- क्या बोल रहे हो भाई।
(तभी निरंजन उठता है और वो दरवाज़े की तरफ जाता है मानों किसी का इंतज़ार कर रहा हो। कबीर उसके पास जाता है।)
कबीर- तुम्हें कोई देखने आने वाला है?
निरंजन- बाहर कोई नहीं है।
कबीर- मतलब?
निरंजन- जैसे तुम्हें पता है कि मूँछ नहीं है... (दर्शको से..) मूँछ है, मूँछ है.. मूँछ है... (दस बार) लगातार कहा जाने वाला झूठ सच जैसा सुनाई देने लगता है ना।
कबीर- तो तुम किस की राह देख रहे हो?
निरंजन- गोदो... उसे आ जाना चाहिए अब तक। उसे पता है ना कि हम उसका इंतज़ार कर रहे हैं।
कबीर- हम... मतलब मैं भी...?
निरंजन- हाँ हम। (कबीर खिड़की के पास आता है)
कबीर- दर्शक बने रहना आसान नहीं है...तुम्हारा देखना...
निरंजन- और नहीं देखना भी..
कबीर- आपको उस कहानी का हिस्सा बना देता है.. ठीक है... मैं इस अभिनय के संसार में बतौर कबीर प्रवेश करता हूँ।
(यह कहते ही कबीर वापिस निरंजन के पास जाता और दोनों अभिनय शुरु करते हैं।)
कबीर- गोदो आता ही होगा।
निरंजन- पर उसने पूरे यक़ीन से नहीं कहा था कि वो आएगा ही।
कबीर- और अगर वो नहीं आया तो?
निरंजन- तो हम कल फिर यहीं उसका इंतज़ार करेंगें।
कबीर- और परसो.. फिर नरसों
निरंजन- हाँ बिल्कुल।
कबीर- ये थका देने वाला काम है।
निरंजन- क्या उसने यहीं आने को कहा था?
कबीर- यहाँ नहीं तो कहाँ?
निरंजन- इसी अस्पताल के इसी वार्ड में?
कबीर- मुझे ठीक-ठीक पता नहीं है।
सूखी- मुझे विश्वास है कि वो यहीं आएगा।
निरंजन- शू शू शू... चुप।
सूखी- तुम अभी-अभी यहाँ आए हो... इसलिए तुम्हारा विश्वास हिल जाता है... मैं कभी-से यहाँ हूँ... इसलिए मुझे पूरा विश्वास है कि वो आएगा।
निरंजन- रुको उसने कहा था कि वो आएगा... (किताब पढ़कर जवाब देता है।) रविवार को।
कबीर- आज रविवार है?
निरंजन- शायद... नहीं शनिवार... तुम जवान हो तुम्हें पता होना चाहिए।
कबीर- मुझे तो ये तक नहीं पता कि मैं यहाँ कब से हूँ।
निरंजन- अगर आज सोमवार है तो वो कल आकर चला गया होगा?
कबीर- पर कल भी तो हम यहीं थे।
निरंजन- पक्का?
कबीर- हम और कहाँ हो सकते हैं।
निरंजन- शायद मैं बाथरुम गया हूँ और तुम खिड़की से बाहर तो तुम जाते रहते हो।
कबीर- तो वो इंतज़ार करता हमारा... जैसे हम उसका सालों से इंतज़ार कर रहे हैं।
निरंजन- वो बहुत व्यस्त रहता है... वो इंतज़ार नहीं कर सकता... और अगर वो आ गया है तो फिर नहीं आएगा।
कबीर- आज कौन सा वार है पता कर करते हैं।
सूखी- आज बुधवार है... और वो रविवार को नहीं आया था मैं थी यहाँ।
कबीर- मैं अच्छा अभिनेता नहीं हूँ।
निरंजन- हम सब ख़राब अभिनेता है।
कबीर- मैंने पूरी ज़िदगी इंतज़ार किया है कि एक दिन सब कुछ बदलेगा..। मैं अब और इंतज़ार नहीं कर सकता... ये सब छलावा है।
सूखी- सुनों तुम भाग जाओ यहाँ से...।
निरंजन- नहीं... बाहर कुछ भी नहीं है।
सूखी- सुनों... मेरी मानों भाग जाओ... तुम अभी-अभी के मरीज़ हो....।
निरंजन- चुप हो जाओ।
सूखी- और मैं कभी का की मरीज़ हूँ।
निरंजन- ये तो सालों से कभी-का की मरीज़ हो।
सूखी- इसकी किस्मत अच्छी है कि मैं कभी का के बिस्तर पर डटी हुई हूँ। मेरी तबियत ठीक नहीं रहती.. मैं ज़्यादा दिन नहीं टिकूंगी। एक बार मेरा बिस्तर ख़ाली हो गया तो घड़ी के कांटे की तरह सब कुछ एक मिनिट आगे बढ़ जाएगा। तुम इनके बेड पर आ जाओगे और ये सामने वाले बेड पर चले जाएंगें। यक़ीन मानों तुम्हारे इसके बिस्तरे पर आते ही तुम्हें सब कुछ सही लगने लगेगा। ये बैचेनी ख़त्म हो जाएगी...। तुम इस नाटक में फस जाओगे।
निरंजन- हम सब इसी नाटक में हैं... इसी का हिस्सा हैं।
कबीर- फिर यहाँ.. मेरे बिस्तर पर कौन आएगा...?
सूखी- यहाँ एक नया अभी-अभी का मरीज़ होगा...।
कबीर- और तुम...?
निरंजन- ये जा चुकी होगी।
कबीर- कहाँ।
सूखी- नाटक की आख़री एग्ज़िट।
कबीर- क्या अभी मैं दर्शक हूँ?
निरंजन- यहाँ कोई दर्शन नहीं है। जो खुद को दर्शक कहता है वो मुग़ालते में है।
कबीर- मुझे ये नाटक नहीं खेलना है... मैं जाना चाहता हूँ।
निरंजन- सुना गोदो आता ही होगा।
सूखी- हाँ गोदो ज़रुर आएगा।
(कबीर भागकर दरवाज़े की तरफ जाता है। उसे ठोकता है वो बाहर से बंद है... वो दूसरी तरफ जाता है वहाँ भी वो बंद है। तभी नर्स भीतर आती है। तीनों अपनी-अपनी जगह दुबक जाते हैं। नर्स बीच में आती है मानों सभा संभोदित कर रही हो।)
नर्स- कहाँ जा रहे हो? क्या हो रहा है? हम तुम लोगों के लिए इतनी महनत कर रहे हैं और तुम लोगों को कोई परवाह नहीं है। तुम लोगों को ठीक होना है कि नहीं? जब तक ठीक नहीं होगे तब तक ठीक से बाहर की दुनियाँ में शामिल नहीं होगे। तुम सबका ठीक होना ज़रुरी है। जब सारे आवाज़ लगाए तो तुम्हारी आवाज़ सबकी आवाज़ में शामिल होनी चाहिए.. कोई संशय नहीं होना चाहिए.. कोई विचार नहीं.. एक चीख़.. एक रंग.. एक आवाज़.. तुम लोगों का सुर हिला है। ये अस्पताल नहीं है.. लेकिन तुम मरीज़ हो... इसलिए टेस्ट चल रहे हैं... मिलावट है... खून में.. डीएनए की तफतीश चल रही है... किसकी तरफ हो..? किधर के हो..? चमड़ी इतनी मोटी कैसे हो गई? चमड़ी पतली करनी है... मारो तो चीख़ निकलनी चाहिए..। बाहर तक लोगों को गलती सुनाई देनी चाहिए। गलत कुछ नहीं होगा... सब सही करना है... तोड़ना है मरोड़ना और धो पोंछ के सुखा देना है। वो जो आने वाला है... वो हमारी तरफ आएगा... वो सारा कुछ ठीक करके जाएगा... हर कोई एक इंतज़ार में है... ये आवज़े जो बाहर से आ रही है, इंतज़ार की हैं। ये जो सारी चप्पले लेफ्ट जा रही हैं... इनकी आवाज़ आनी बंद होनी चाहिए... ये राईट वाली आवाज़ों पर ध्यान दो.. ये जो बूट की आवाज़े हैं। चप्पल ज़्यादा नहीं चलेगी.. टूट जाएगी.. कांटे धुसेंगें... इतिहास गवाह है कि कहानीयाँ सिर्फ बूट वालों की ही सही हैं... चप्पल चिल्लर है.. मारे जाते हैं। तो जो दोनों कान से सुनना चाहते हो वो नहीं चलेगा... एक कान...(नर्स राईट वाले कान की तरफ इशारा करती है।) जब एक कान से सब सही सुनाई दे रहा है... तो दो की क्यों ज़रुरत है... बस उससे ही सब सुनों और अपना सुर ठीक करो... वरना धो पोंछ कर सुखा दिया जाएगा। Black out…
Scene-5
(नील और सूखी... खिड़की के इस तरफ लेटे हुए हैं... और दोनों की हंसी की आवाज़ आती है.. फिर वो दोनों चुप हो जाते हैं।)
नील- कौन हंस रहा है?
सूखी- मैं तो नहीं हंसी।
नील- अरे तू?
सूखी- तू नहीं मैं।
नील- क्या तुम्हें सब याद है?
सूखी- सारा कुछ।
नील- कहाँ से?
सूखी- शुरु से।
नील- तुम्हें पता है कबूतर को पालतु बनाने के लिए उसके कोमल परों के नीचे रबर बांध देते हैं...
सूखी- जो रबर हम अपनी चोटी में लगाते हैं?
नील- हाँ... फिर वो कबूतर घर के काम करना सीख जाता है। (दोनों हंसती हैं)
सूखी- मैं ख़ाना अच्छा बनाती हूँ।
नील- मैं घर अच्छा सजाती हूँ।
सूखी- मुझे गाना गाना आता है।
नील- मुझे साड़ी में फॉल और पीको करना आता है।
सूखी- मैं आईब्रो बना लेती हूँ।
नील- एक दिन मैंने माँ का कूबड़ देखा.. पूछा ये क्या है?
सूखी- उन्होंने कहा कि ये मेरे पंख थे जो सूखकर कूबड़ बन गए है।
(दोनो हंसती हैं)
(कबीर खिड़की पर खड़ा है... । पीछे जीवन और निरंजन है।)
कबीर- मैं अभी-का हूँ और कभी-का की लड़की पीछे आसमान बना रही है। मैं उससे पूछाना चाह रहा था कि क्या मेरा आसमान भी होगा तुम्हारे आसमान में? पर मैंने नहीं पूछा। My birth is my fatal accident, वही तय हो गया था कि सबके खुले आसमान में हमारा आसमान नहीं होता है। The value of a man was reduced to his immediate identity and nearest possibility. To a vote. To a number. To a thing. Never was a man treated as a mind. As a glorious thing made up of star dust. In every field, in studies, in streets, in politics, and in dying and living.
जीवन- अमल विमल कमल कबीर। (नील और सूखी जो खिड़की के उस तरफ लेटे हैं हंसते है।)
कबीर- अमल विमल कमल, कबीर की जगह नहीं है यहाँ।
निरंजन- अगर इसकी शुरुआत और अंत नहीं मिला तो हमें पता ही नही चलेगा कि असल में हुआ क्या था।
जीवन- असल में क्या हुआ था?
निरंजन- असल में मैं जूतों में जकड़ा हुआ महसूस करता हूँ।
जीवन- बाहर सब चप्प्ल छोड़कर जूते पहनते जा रहे है।
निरंजन- दोनों सदनों में नया रुल पास हुआ है कि घरों में भी चप्पल पहनना एलाऊड नहीं है।
कबीर- लोग कहते हैं... जूते पहनने से सभ्य महसूस होता है।
जीवन- पैर हमारे काबू में रहते हैं।
निरंजन- पर घरों में जूते पहना हिंसा है।
कबीर- हिंसा नहीं त्रासदी, कितना वक़्त हो गया है, हम इन्हीं चीज़ो के लिए लड़ रहे है।
निरंजन- बार-बार हम घूमकर वहीं आ जाते हैं जहाँ से शुरु किया था।
कबीर- मुझे कुत्ते जैसा महसूस हो रहा है... कुत्ता जो अपनी ही पूंछ काटने की कोशिश करता है।
जीवन- जीवन असल में कुत्ता चक्रवात में फसा हुआ है...।
निरंजन- जीवन तुम हमें छोड़ दो... भाग जाओ यहाँ से..।
जीवन- जीवन कैसे भाग सकता है?
निरंजन- जीवन इस सबके बीच कैसे रह सकता है?
कबीर- बाहर तो भीड़ है... जो बटी हुई है... और बाटने पर तुली हुई है...इस तरफ भी और उस तरफ भी।
जीवन- तो तुम भीड़ में मिल जाओ।
कबीर- भीड में मिल जाना समर्पण करना है... । देश की सेवा के नाम पर उनके सामने सिर झुकाना है।
निरंजन- सुनो... जीवन गोदो खोज रहा है।
कबीर- मैं एक दानव बन गया हूं। मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था। कार्ल सगान की तरह सायेंस का लेखक। जीवन तुम्हें वो तलाब वाली तस्वीर याद है जो मेरे घर में लगी थी?
जीवन- हाँ।
कबीर- ये दीवार में जो खिड़की रहती है ना... वो तलाब इस खिड़की के उस तरफ है...।
जीवन- पर तुम्हें तैरना कहाँ आता है।
कबीर- इधर ढूबने से तो बहतर है।
निरंजन- पर गोदो आता ही होगा।
कबीर- उससे कह देना मैं थक गया था… मुझे माफ़ कर दे...।
जीवन- मैं लाऊँगा गोदो को तुम एक पर्ची पे लिख दो। मैंने आज तक तुम्हारे सारे किये हैं।
कबीर- बिना गांधी के गोदो क्या कर लेगा?
जीवन- जीवन गांधी खोज रहा है... मिलेगा जल्दी।
निरंजन- कबीर तुम हार नहीं सकते...
जीवन- पर तुम जाओगे कहाँ?
कबीर- From shadows to the stars.
(कबीर खिड़की के दूसरी तरफ चला जाता है... वहाँ उसे नील और सूखी लेटे हुए दिखाई देते हैं.. वो बीच स्टेज में बैठकर उन्हें देखता है मानों सपना देख रहा हो।)
नील- तुम्हें दोपहरे याद हैं?
सूखी- हाँ.. सारी की सारी।
नील- वो आज़ाद दोपहरे कितनी ज़्यादा ख़ाली लगती थी।
सूखी- और कितना पास में लगता था उस वक़्त आसमान।
नील- सारी दौपहरे ख़ाली और अपनी।
सूखी- मुक्त होने का ख़्वाब उन सफेद, बनते बिगड़ते बादलों में पहली बार देखा था।
नील- जाने कितनी गहरी संशय से भरी रातों में अपने आसमान पर शक हुआ था।
सूखी- जाने कितनी बार एक बार उड़ने की छलांगे लगाकर हमने अपने घुटने फोड़े थे।
नील- पैंतिस क्या है?
सूखी- हाँ पैतिस ही क्यों?
नील- पैतिस कम नहीं है।
सूखी- पैतिस ज़्यादा भी नहीं है।
नील- पैतिस बीच है...
सूखी- जो जी चुके
नील- और बचे हुए के बीच।
सूखी- अपेक्षित टूट के झड़ चुका है। सुनो।
नील- हाँ।
सूखी- गोदो स्त्री है।
नील- मुझे भी लगता है।
सूखी- वो पुरुष नहीं हो सकता।।
नील- मैं उड़के सबसे पहले गोदो के पास जाऊँगी...
सूखी- उससे कहना कि हम उसके इंतज़ार में ज़ाया हो गए।
(पीछे सूरज, नर्स के कहने पर सूखी का आसमान तोड़ देता है। सूखी और नील अपने फटे हुए आसमान के नीचे आकर खड़ी हो जाती है। नर्स कबीर के बिस्तर पर आती है...। कबीर वहाँ नहीं है... नर्स निरंजन से पूछती है।)
नर्स- ओए... ये कहा गया
निरंजन- वो तो गया। (खिड़की की तरफ इशारा करता है।)
नर्स- तुम क्या कर रहे थे?
निरंजन- गोदो का इंतज़ार
नर्स- वो भी तो इंतज़ार में था फिर क्यों गया।
निरंजन- खुद जाकर पूछ लो
सूरज- पर खिड़की के उस पार तो कुछ भी नहीं है।
निरंजन- मैं तो कह रहा था पर वो अभी-अभी का मरीज़ है ना, बात मनना अभी कहाँ आता है उसे।
नर्स- कबीर करता क्या है?
सूरज- सवाल करता है। यही तो बीमारी है इसकी... फिर पगला जाता है।
नर्स- अरे मतलब जीवन में क्या करता है? काम?
सूरज- लेखक है…. (इसपर सूरज और नर्स हंसते है।)
नर्स- लेखक कोई काम होता है? इतनी किताबें पड़ी है.. उसे अभी तक पढ़ा नहीं है और इन्हें अपनी अलग किताब लिखनी है।
सूरज- हाँ पहले पढ़ो सारा कुछ... हमारे पुरखों ने कितनी सुंदर कहानियाँ लिखी है..। मैं एक जोक सुनाऊँ?
नर्स- ह्म्म्म्म्म..।
सूरज- एक बार एक लेखक होता है उसे पॉटी नहीं होती... वो सब कुछ ट्राई करता है.. फिर एक बडे डॉक्टर के पास जाता है... डॉक्टर उसकी तकलीफ सुनता है फिर पूछता है कि तुम करते क्या हो... वो कहता है कि मैं लेखक हूँ... तो डॉक्टर उसे दस रुपये देता है और कहता है बेटा पहले कुछ ख़ा लो।
(ये कहते ही सूरज अकेला बहुत ज़ोर से हंसता है। नर्स चलती हुई खिड़की के पास आती है। खिड़की के उस तरफ अब जीवन खड़ा है।)
नर्स- इसके घर से कुछ किताबें मिली हैं हमें।
निरंजन- गोदो?
नर्स- नहीं, वार एंड पीस,मंटो,ईस्मत, मार्क्स, अंबेड़कर, और चप्पल.. जूते नहीं थे उसके पास.. ।
सूरज- इसने एक पर्ची पर लिखकर जीवन से गांधी लाने को कहा था। मैं तभी समझ गया था ये बीमार है।
नर्स- जीवन लाया।
सूरज- क्या?
नर्स- गांधी।
सूरज- (हंसता है...) गांधी कहा मिलेगा अब? इस बार गोडसे दिवस पर जीवन का सिर झुका होगा।
नर्स- खिड़की के उस तरफ क्या है?
निरंजन- ये बस दीवार में एक खिड़की रहती थी है.... ।
सूरज- अरे उस तरफ कुछ नहीं है। अरे सुनिये... आप उस तरफ मत जाईये।
(नर्स खिड़की के उस तरफ कूदती है..... उसे वहाँ जीवन खड़ा दिखता है और उसे देखकर डरने लगती है.. जीवन नर्स के करीब आता है।)
नर्स- पापा..
जीवन- बेटी...।
नर्स- मैं बहुत अच्छा करुंगी.. बहुत आगे बढूंगी.. मै लड़कियॊं की तरह कमज़ोर नहीं हूँ.. मै आपको अच्छा बेटा बनकर दिखाऊंगी ?
जीवन- बेटी कहानी ग़लत जा रही है।
नर्स- कहानी सही जा रही है... सही जा रही है कहानी।
(नर्स जीवन को धक्का देती है जीवन गिर जाता है। तभी एनाऊंसमेंट होती है...)
आवाज़- “सभी लोगों को सूचित किया जाता है कि.. ख़तरा हर जगह और हर किसी से है। मार-काट, कर्फ्यू, कर, कत्ल, गोली, खून, देश-द्रोह और हिंसा धर्म है। तो कोई भी, किसी को भी, कहीं से भी मार सकता है। अपनी जान के आप खुद ज़िम्मेदार हैं। बाहर नहीं भीतर चुप चाप रहे। सब कुछ ठीक होने तक, जय देश, जय प्रदेश, जय जात, जय पात।“
(सभी दरवाज़े पर जाते हैं ... सारे दरवाज़े बंद है...थोड़ी घबराहट होती है। सूरज अपना मोबाईल निकालता है।)
(यहाँ lockdow जैसी स्थिति हो जाती है, इसे आप covid के lockdown से भी जोड़ सकते हैं। साथ ही GODOT का interpretation भी अपने निर्देशन के हिसाब से तय कर सकते हैं)
सूरज- अरे सिग्नल नहीं है... हम कश्मीर में आ गए हैं क्या?
(आपस में अलग-अलग ग्रुप बनते हैं, थोड़ी भगदड़ भी मचती है.....इसी भगदड़ के बीच कबीर खड़ा होता है।)
कबीर- हम सब अपनी कहानियों में नायक हैं... और नायक बने रहने के लिए हमें लगातार खलनायक की ज़रुरत होती है... जितना बड़ा खलनायक का डर होगा, हम उतने ही बड़े नायक होंगे... अच्छे खलनायक की भूख हम सबको एक दिन मार देगी। मैं यहाँ नहीं हूँ, मैं तो बहुत पहले जा चुका हूँ। इस नाटक को भी यहीं खत्म हो जाना चाहिए था। पर जब तक हम लोग साथ रहना नहीं सीख़ेगें, हमारे नाटक कैसे ख़त्म हो सकते हैं।
अब ये लोग यहाँ फसे हुए हैं... हफ्तो से.. महिनों से.. शायद सालों से...।
निरंजन- कौन सी तारीख़ है आज...
सूरज- हम कब तक यूं ही एक दूसरे के साथ पड़े रहेंगें?
नील- क्या टाईम हुआ है।
सूखी- हम कब से हैं यहाँ?
नर्स- मुझे डर लग रहा है।
जीवन- डरने की ज़रुरत नहीं है..।
निरंजन- हाँ जीवन है हमारे साथ..।
सूरज- जाहिल साले।
नर्स- मुझे इन लोगों से डर है।
सूखी- और हमें तुम सब से।
कबीर- हम सब भी तो एक दूसरे से डरे हुए,फसे पड़े है... है ना... because, Hell is other people.
(कबीर चला जाता है। जिस स्पाट पर वो था वहाँ निरंजन और सूखी रैंगते हुए आते हैं।)
सूखी- गोदो आया था क्या?
निरंजन- अगर वो होता तो हमें यहाँ से निकाल लेता..।
सूखी- इन्होंने मेरा आसमान तोड़ दिया है...
निरंजन- हमें चुप रहना चाहिए वरना हम मारे जाएंगें।
सूखी- मैं क्यों चुप रहूँ... इनकी वजह से हम यहाँ फसे पडे हैं
नर्स- क्या? हमारी वजह से..?
जीवन- हाँ... सब तुम लोगो का ही तो किया धरा है।
नर्स- पर गलती तो तुम्हारी थी ना?
नील- इनकी क्या गलती है?
सूरज- अच्छा तुम बताओ.. सबसे पहले किसकी गलती थी?
नील- किसके पहले?
सूरज- सबसे पहले बहुत पहले... बोलो? फस गई ना... अब बोलो?
जीवन- पहले मलतब, हम यहाँ कितना पीछे जा रहे हैं?
नर्स- जिसको जितना याद है।
निरंजन- इतिहास किसने देखा है?
सूखी- इतिहास किसका है ये कौन तय करेगा।
सूरज- हमारा इतिहास है क्योंकि हम यहाँ पहले से थे?
नील- किसके पहले?
नर्स- सबके।
निरंजन- हम सबके?
सूखी- इतिहास हम सबसे बिलकुल बराबर मात्रा में जुडा है।
(नर्स और सूरज सूखी पर बरस पड़ते हैं... नील और निरंजन सूखी का साथ देती है.... जीवन बोलता है।)
जीवन- सही तो बोल रही है वो...
नर्स- क्या सही बोल रही है? (सब जीवन की तरफ आते हैं।)
जीवन- मान लो तुम इतिहास हो
नील- क्या?
निरजन- ये क्यो?
सूरज- ठीक है.. तुम इतिहास हो।
नर्स- अरे चलो ठीक है मैं इतिहास... आगे बोलो।
जीवन- तो मेरे लिए तो तुम पीठ करके खड़ी हो..।
निरंजन- जबकि मैं इतिहास का चहरा देख रहा हूँ।
नील- इतिहास को कौन कहाँ से देख रहा है..।
नर्स- मैं यहाँ से..।
सूरज- मैं यहाँ से..
निरंजन- मैं यहा से..
नील- मैं यहा से..
जीवन- मैं यहा से...
सूखी- मैं यहाँ से..
(तभी कुछ सोचकर नर्स अपनी जगह बदलती है।)
नर्स- नहीं.. नहीं.. मैं यहाँ से...
सूरज- मैं भी यहाँ से...
निरंजन- मैं भी यहाँ से..
नील- मैं भी यहाँ से...
जीवन- मैं यहाँ से..
सूखी- मैं भी यहाँ से...
जीवन- और अब जीवन को इतिहास दिख ही नहीं रहा है...।
नर्स- मुझे दिख रहा है क्योंकि मैंने किताबों में पढ़ा है
सूरज- मैंने वट्सेप पर..
निरंजन- आधा
नील- एक कान से...
सूखी- सिर्फ चप्पले
नर्स- सिर्फ जूता।
जीवन- पर, नंगे पैर जिन्होंने जिया है उनका नाम भी नहीं है कहीं।
सूरज- देखो उधर सही है..
नील- नहीं इधर सत्य है।
नर्स- ये तुम लोगों को दिख क्यों नहीं रहा..
जीवन- अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीयकरण।
नील- मुष्टीकरण, तुष्टीकरण, पुष्टीकरण
निरंजन- नमक तेल हल्दी जीरा हींग।
नर्स- एतराज़, आक्षेप, अनुशासन
सूरज- गद्दी पर आजन्म वज्रासन।
सूखी- गुटनिर्पेक्ष सत्ता सापेक्ष जोड़-तोड़।
निरंजन- छल-छंद मिथ्या होड़म होड़।
नर्स- बकवास।
जीवन- उद्घाटन।
नील- मारण
सूखी- मोहन।
सूरज- उच्चाटन।
निरंजन- बचाओ।
नर्स- हटाओ।
सूखी- घेराओ।
सूरज- निभाओ।
जीवन- कहानी ग़लत जा रही है।
(एक सीटी के साथ म्यूज़िक आता है और ब्लैक आउट हो जाता है। लाईट आती है तो सब छितर बितर बैठे हुए हैं... बहुत वक़्त से...।)
जीवन- एक बार फिर से कोशिश करें?
निरंजन- शू शू... हमें चुप रहना चाहिए।
नर्स- कहाँ से...?
निरंजन- नहीं.. शू शू...।
जीवन- शुरु से...।
सूरज- ऎ चल।
नील- चल क्या? मैं तैयार हूँ सूरज।
सूरज- सबसे पहले मेरी बात का जवाब दो... सबसे पहले किसकी गलती थी...।
नील- अरे यार... किसके पहले..?
सूरज- सबसे पहले.. बहुत पहले।
सूखी- अबे कितना पहले...?
(निरजन उठता है और एक लाईन खिचता है।)
निरंजन- अरे यार... चुप... हम लोगों को सबसे पहले साथ रहना आना चाहिए... साथ रहेगें तो यहाँ से निकल सकते हैं... चलो साथ आगे बढ़ते हैं.. आ जाओ।
नर्स- इतना आसान है क्या?
नील- पर शुरुआत तो कहीं से होनी चाहिए ना?
सूखी- एक कदम तो आगे बढ़ाना है... सब साथ हो लेंगें।
नर्स- तो रुके क्यों हो बढ़ाओ...
सूखी- अच्छा ये भी हम ही करें
निरंजन- मुझे अकेले आगे नहीं बढ़ना।
नील- हम जहाँ है वो तो ठीक कर लेते हैं पहले।
जीवन- मैं बढ़ाता हूँ कदम (वो आगे बढ़ता है.. पर कोई उसका साथ नहीं देता..)
निरंजन- अरे जीवन आगे बढ़ गया।
जीवन- आ जाओ।
(सूखी, नील और निरंजन... जीवन के साथ आगे आ जाते हैं।)
नील- आ जाओ।
सूरज- हम नहीं आ सकते, हम तुम जैसे नहीं हैं।
नर्स- हाँ हम तुमसे अलग हैं।
निरंजन- अरे अभी तो हम साथ थे।
नर्स- हम तुम लोगों के साथ कभी नहीं थे।
जीवन- अरे आ जाओ।
सूरज- मैं आ जाता पर... जो हमारे साथ बुरा हुआ है उसका क्या?
जीवन- मतलब आपके साथ हुआ है?
नर्स- मेरे-इसके साथ नहीं.. हमारे जैसों के साथ।
जीवन- हम सभी तो एक जैसे हैं।
सूरज- एक जैसा ही तो बनाने का प्रयत्न है।
निरंजन- तो हम सब एक जैसे ही तो हैं... इंसान।
नर्स- एक जैसे?
नील- देखो सूरज एक जैसे।
सूरज- नहीं नहीं.. एक जैसे नहीं है.... खलनायक को नायक से अलग करना पड़ेगा।
(सूरज उन चारो के इर्द गिर्द चक्कर लगाने लगता है। अपनी लाईन पर नर्स भी दूसरी तरफ से उन चारों के चक्कर लगाना शुरु करती है। मानों चारों को घेर लिया हो।)
निरंजन- जिस चश्में से आप देख रहे हैं उसका नंबर ग़लत है।
सूखी- आज के चश्में से पुराना कैसे दिख सकता है?
नर्स- हर खलनायक को उसके अपराध की सज़ा तो मिलनी चाहिए।
जीवन- अतीत की सज़ा तो वर्तमान वैसे भी भुगत रहा है।
सूरज- हम क्यों भुक्ते?
नर्स- हम देंगें सज़ा...।
निरंजन- फिर भविष्य को जब चश्मा चढ़ा होगा तो हम भी आज के खलनायक दिखगे।
नील- फिर आज की सज़ा हमारे भविष्य के बच्चे भुक्तेगें।
सूखी- ये गोल चक्कर कब खत्म होगा?
जीवन- माफ करने से..
नर्स- हम क्यों माफी मांगे..।
सूरज- मर जाऊँगा माफ़ी नहीं मागूंगा।
नील- मर जा।
सूखी- माफ़ी।
निरंजन- माफ़ी काफ़ी नहीं है।
सूरज- तू मांग।
सूखी- चल।
निरंजन- हट।
नील- भग।
निरंजन- थू।
नर्स- लाईफ में कोई माफी माँग सकता है क्या?
जीवन- माफी..!
नील- अब तक का सारा किया धरा माफ हो सकता है?
जीवन- क्या इस धरती से माफ़ी मांग सकते है.. जानवरों से.. नदी से.. हिमालय से..।
सूरज- वहट द फ़क मैन।
नर्स- वहट आर यू टाकिंग एबाउट????
सूखी- बहुत हुआ अब हम गोल-गोल नहीं घूमेगें।
नर्स- धरती गोल है।
सूरज- चंद्रमा गोल है..
नर्स- रोटी गोल है।
सूरज- तुम्हारे गांधी का चश्मा गोल है।
नील- ये चक्कर कभी खत्म नहीं होगा।
नर्स- देखो अब हम एक जैसे हैं।
चारों- नहीं।
सूरज- हाँ एक दम जैसे हैं।
चारों- नहीं।
नर्स- एक कदम बढ़ाओ.. देखो एक जैसे..।
(सूखी, नील और निरंजन, जीवन को देखते हैं।)
जीवन- कहानी गलत जा रही है।
ब्लैक आऊट।
(सभी लोग सईक्लो पर एक लाईन से बैठे हैं... सूरज हाथ उठाता है सभी उसकी तरफ देखते हैं।)
सूरज- एक बार फिर कोशिश करते हैं।
निरंजन- हमें चुप-चाप गोदो का इंतज़ार करना चाहिए... अगर एक दूसरे से बोलेंगें तो मारे जाएगें।
जीवन- हाँ हमें चुप रहना चाहिए।
नर्स- तो जीवन डर गया?
नील- (हाथ उठाती है।) मैं तैयार हूँ।
नर्स- शुरु करों।
सूरज- मुझे अभी तक इस बात का जवाब नहीं मिला कि सबसे पहले किसकी गलती थी।
(सभी हंसने लगते हैं। और अपनी हंसी रोक नहीं पाते।)
नील- किसके पहले?
सूरज- सबसे... पहले .. बहुत पहले।
निरंजन- ग़लत ये है कि हम सब ठीक होते जा रहे हैं।
सूरज- हाँ सब ठीक ही तो है।
जीवन- सही तो चल ही रहा है।
नील- इतना बुरा भी नहीं है।
सूखी- जो बुरा बोल रहे हैं वो अफ़वाह फैला रहे हैं।
निरंजन- देश को बदनाम करने के लिए लोग कुछ भी बोलते हैं।
सूरज- असल में सारा कुछ ठीक ठाक ही है।
नर्स- और यहीं तो उद्देश्य है।
(सब चुप हो जाते हैं... नर्स कुछ देर तक हंसती है.. फिर चुप हो जाती है।)
सूखी- हमे सब ठीक लगने लगा है...।
नील- मेरा ना उड़ पाना...
निरंजन- गोदो के अंत का ना मिल पाना।
जीवन- जीवन का व्यर्थ बीत जाना..।
सूखी- मेरे आसमान का स्याह हो जाना।
सूरज- रोज़ सुबह उठकर आफिस जाना और आफिस से वापस घर लौट आना।
नर्स- और इन सब में गोदो का ना आना।
सूरज- गोदो आएगा।
जीवन- और वो आकर हमारा आज देखेगा तो लोट जाएगा।
सूरज- हम उसको भागने नहीं देंगें।
नील- हाँ वो जा नहीं सकता...
नर्स- हमारा इंतज़ार ज़ाया नहीं जा सकता।
सूखी- मुझे बहुत कुछ उससे पूछना है।
सूरज- वो आकर हमें सारे जवाब देगा।
निरंजन- तुम लोग चुप नहीं रह सकते हो ना...? क्या सवाल है तुम्हारे..? पूछो? सारा कुछ पूछ लो? मैं हूँ गोदो! पर नहीं तुम नहीं मानोगे। तुम्हारे गोदो का तो पहले हिंदु होना ज़रुरी है... या मुस्लमान। और छोटी जात का गोदो तो चलेगा ही नहीं तुम्हें। तुम लोगो ने अपने जीवन में कभी कोई इंसान देखा है.. बिना जात धर्म देश का चश्मा लगाए? इसलिए गोदो कभी नहीं आएगा.. कभी नहीं आएगा।
जीवन- कबीर सही कहता था... गोदो बिना गांधी के नहीं आएगा।
नर्स- गोदो आएगा.. उसे आना पड़ेगा...
नील- उसके आते ही मैं पहले उसे दबोच लूंगी।
सूखी- मैं उसे बांध दूंगी अपने आसमान से...।
नर्स- जब तक उसे तक़लीफ नहीं होगी तब तक उसे हमारी तकलीफ़े समझ नहीं आएगी।
जीवन- हमारी तकलीफ़े...? क्या है हमारी तकलीफ़े? हमारी तकलीफो का तो अंत ही नहीं है।
सूरज- अच्छा... तुम्हें पता है? धर्म की रक्षा कितना महनत का काम है।
नील- कूबड़ के विरुद्ध दौड़ना कितना थका देने वाला काम है।
सूखी- मेरे आसमान टूटने का दुख उसे चखना पड़ेगा।
सूरज- हम सालों से भुगत रहे हैं..
सूखी- वो भी भुगतेगा...।
जीवन- अरे वो क्यों भुक्तेगा?
नर्स- इतना कि उसके आँसू निकल आए..
नील- नहीं आँसू काफ़ी नहीं होगें।
नीरंजन- हमें उसके आते ही हम उसे मार देना चाहिए।
(सब लोग डर कर निरंजन को देखते हैं कि उसने ये क्या कह दिया। फिर वो इस बारे में सोचते हैं और उन्हें सही लगता है निरंजन का कहा।)
सूरज- हाँ।
नील- हाँ।
नर्स- हाँ... मार देना चाहिए।
सूखी- फिर हमारा कहा उसका कहा होगा...
नर्स- हम सब बदल देंगें..
सूरज- इतिहास को..
सूखी- इंसान को..
नील- उसके कहे को...
नर्स- हमारे सुने को...
जीवन- जो हमारे साथ नहीं है क्या हम सबको मार देंगें?
सूरज- और कहेंगें उसका आदेश था।
निरंजन- क्या तुम्हें लगता है कि ये सही है?
सूरज- बिल्कुल ठीक..
सूखी- हाँ..
नर्स- न रहेगा बांस ना बजेगी बसुरी...
नील- मारो सालों को
सूरज- मारो...
निरंजन- मारो..
सूखी- मारो...
(सभी एक साथ बोलते हैं “मारो.. सब चुप हो जाते हैं... एक दूसरे को देखते हैं। सभी जीवन को देखते हैं।)
जीवन- ये हम क्या कह रहे हैं... मारो...।
नर्स- (सभी नर्स को देखते हैं) मैंने नहीं कहा..
सूरज- (सभी सूरज को देखते हैं) मैं यहाँ था ही नहीं..
नील- (सभी नील को देखते हैं।) मैं यह नहीं कह सकती...
सूखी- (सभी सूखी को देखते हैं।) अरे... मुझे मारा गया है...मेरा आसमान तोड़ा गया है.. मैं कैसे?
निरंजन- (सभी निरंजन को देखते हैं।) जो भी कह रहे थे वो सब दूसरे धर्म के थे... देश द्रोही साले...।
(सभी रुक जाते हैं... फिर से वपिस अपनी-अपनी जगह पर आते हैं)
नील- क्या हम असल में इतने बुरे हैं... हम गोदो को ही मारने जा रहे थे।
सूरज- नहीं.. हम सब भीतर से बहुत अच्छे हैं।
सूखी- मैं नहीं मानती कि तुम लोग अच्छॆ हो।
निरंजन- अगर हम चुप रहेगें तो.... सब एक दूसरे के लिए अच्छे रहेगें....
नर्स- परिस्थितियाँ हमें बुरा बनाती है।
निरंजन- शू शू... चुप रहो।
सूरज- देखो हम अच्छी बातें कर सकते हैं।
निरंजन- लो फिर शुरु हो गया। चलो.. करो... मैं भी बकवास में शामिल हूँ।
(तभी सबको एक स्पाट दिखता है। जीवन उस स्पाट के पास जाता है।)
जीवन- चलो.. फिर से शुरु करते हैं...
सूरज- तो पहले बताओ कि सबसे पहले किसकी गलती...
नर्स- नहीं सूरज.... मान लो सारा गलत पीछे है और सही आगे पड़ा है।
नील- हाँ... ये सही है.।
सूरज- हाँ अगर हम अच्छी बातें करेगें तो हम सब आदर्श बालक हो सकते हैं।(वो जीवन को स्पाट में धक्का देती है।)
जीवन- (जीवन अच्छी बात करता है) असल में हम ही ने सारा कुछ ग़लत कर रखा है।
नर्स- हाँ... हम ही गलत हैं।
निरंजन- हम सभी एक दूसरे के लिए ग़लत हैं।
सूरज- हमने उसके आने के दरवाज़ों पर लाशे बिछा रखी हैं।
नील- हमें एक नई शुरुआत करनी पड़ेगी...।
नर्स- साफ जगह बनानी पड़ेगी।
जीवन- कि गोदो आ पाए...।
सूखी- सारे बुरे को माफ करना होगा।
निरंजन- दूसरों की कहानियाँ सुननी ज़रुरी हैं।
सूखी- इतिहास को दैत्य नहीं बनने देना है।
नील- इतिहास दादी की कहानियाँ है।
सूरज- खुल में उड़ने की आज़ादी हमारा अधिकार है।
नर्स- खुला आसमान सबका मौलिक अधिकार है।
सूखी- जितना हमारा है उतना सबका है।
जीवन- वरना बदले का तो कोई अंत नहीं है।
निरंजन- बदला.... फिर बदले का भी बदला... और फिर एक और बदला।
सूरज- बदला कुछ भी नहीं बदल सकता है।
नर्स- हम बदलेंगें।
जीवन- आज
सूखी- अभी
निरंजन- इसी वक़्त से....।
नर्स- an eye for an eye will make the whole world blind.
नील- एक आँख के बदले दूसरी आँख अंत में सबको अंधा कर देगी।
(अंधेरा हो जाता है और अचानक सबको दिखना बंद हो जाता है।)
जीवन- जीवन को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
सूरज- इतना अंधेरा... क्या हुआ... ? दिख नहीं रहा कुछ।
नर्स- मुझे भी।
सूखी- मुझे ठीक नहीं लग रहा है।
निरंजन- किसी को कुछ दिख रहा है?
नील- नहीं...।
नर्स- ऎसा कैसे हो गया हम सब अंधे कैसे हो सकते हैं?
जीवन- ये ग़लत है।
सूरज- एकदम ग़लत...।
सूखी- पर हम किससे कह रहे हैं कि ये ग़लत है? यहाँ कोई नहीं है।
निरंजन- दर्शक?
जीवन- मतलब..?
निरंजन- ये नाटक है... दर्शक हमें देख सकते हैं।
जीवन- नहीं।
निरंजन- दर्शक बने रहना कठिन है...पर कुछ लोग होंगे जो अभी भी नाटक का हिस्सा नहीं होंगें।
नर्स- दर्शकों में कोई तो होगा जिसे अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ता...
सूखी- जिसे दिख रहा हो।
नील- धुंधला ही सही..।
निरंजन- कोई है...
नर्स- हमें मदद चाहिए..
सूरज- पर मदद सिर्फ हमें जूते वालों से चाहिए..
नर्स- चुप... कोई भी .. चप्पल,, नंगे पैर.. कैसा भी हो...?
नील- गांधी.. गोडसे।
सूरज- थप्पड़
सूखी- फूल
निरंजन- हसिया
जीवन- झाडू
नर्स- लालटेन
निरंजन- लूला
नील- लंगड़ा
सूखी- कूबड़ा
जीवन- काला
नर्स- सफैद
सूरज- बस हमारे जैसा अंधा नहीं होना चाहिए।
नर्स- चुप... नहीं सही कह रहा है.. बस अंधा नहीं चलेगा। (वक़्फा... सब इंतज़ार करते हैं।)
सूखी- अब हम क्या करेंगें?
सूरज- पता नहीं...।
नर्स- कहानी ग़लत जा रही है..। (वक़्फा... पर कुछ नहीं होता।)
नील- कहानी ग़लत जा रही है। (वक़्फा.. पर कुछ नहीं होता।)
सूरज- हम वापिस नहीं जा पा रहे हैं... जीवन तुम बोलो..।
जीवन- कहानी ग़लत जा रही है। (सब चुप.... वक़्फा।)
निरंजन- शू.. शू.. शू.. मैं कह रहा था चुप रहो.. चुप रहो... देख लो... अब हम नर्क में हैं।
नील- चुप रहो.. देखो कुछ हो रहा है।
सूखी- कुछ नहीं हो रहा... हम फस गए हैं।
जीवन- कहानी ग़लत जा चुकी है।
नर्स- यहाँ से वापसी असंभव है...।
सूरज- मुझे वापिस जाना है?
सूखी- हाँ...वापिस।
निरंजन- वापिस... एकदम पीछे जा सकते हैं क्या?
नील- हाँ ... वहाँ से जहाँ से ये सारा कुछ शुरु हुआ है?
नर्स- चौराहा... जहाँ से हमने एक तरफ जाना शुरु किया।
जीवन- हम चौराहे से कहीं नहीं गए...। हमने चौराहे पर खड़े रहकर बाकी रास्तों पर सिर्फ कीचड़ उछाली है।
निरंजन- हमारे सारे रास्ते बंद हो चुके हैं..।
सूखी- हम अभी भी चौराहे पर ही हैं।
सूरज- एक सीधी सड़क क्यों नहीं हो सकती..? मुझे चौराहों से नफ़रत है।
जीवन- सुनो... (सब चुप हो जाते हैं.... )
नर्स- कोई आया क्या.??
जीवन- मुझे पता है हम कहाँ से आए हैं... मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है..।
नील- चलो तो फिर.. तुम आगे चलो हम तुम्हारे पीछे-पीछे आते हैं।
(जीवन उठता है सब एक दूसरे के कपडे पकड़े हुए उसके पीछे चलते हैं।)
सूरज- थोड़ा जल्दी चलो...। (जीवन हल्का दौड़ने लगता है.. सभी उसी की तरफ दौड़ने लगते हैं।)
सूखी- हाँ ... हमें जल्दी पहुँचना है।
नर्स- थोड़ा और तेज़...
जीवन- आगे कुछ दिख नहीं रहा है...।
सूरज- जीवन को कुछ नहीं दिख रहा ऎसा कैसे हो सकता है..।
नर्स- मैं आगे आगे चलती हूँ...
नील- तो तुम फिर जीवन को बताओगी कि कहाँ जाना है? इसी वजह से तो हम अंधे हो गए।
निरंजन- जीवन जहाँ ले जा रह है.. चुप-चाप चलो..।
सूखी- पर देखा जाए तो ये ग़लत है...
निधी- क्या?
सूखी- अभी तो हम अच्छे हुए थे।
निरंजन- हाँ... एक दूसरे से प्रेम की अच्छी बातें करने लगे थे।
नील- अभी तो हम बदल रहे थे।
सूरज- फिर अंधे क्यों ?
नर्स- हाँ.. पहले अंधे होते तो समझ में भी आता... पर अब क्यों?
सूरज- मुझे डर लग रहा है।
नर्स- मुझे अंधे होने का डर बचपन से था।
जीवन- मुझे दो जेबों की शर्ट पहन्ने का डर है।
निरंजन- मैं गोदो का अंत कभी नहीं पढ़ पाऊँगा।
सूखी- हमारा आसमान..
नील- हमारी उड़ान...
जीवन- रुको... रुको..
निरंजन- क्या हुआ??
जीवन- मुझे लगता है कि हम गोल-गोल घूम रहे हैं... हम यहीं से दो बार निकल चुके हैं।
सूरज- तुम पगला गए हो क्या?
नील- झूठ मत बोलो।
निरंजन- क्या बोल रहा है बे।
नर्स- हम कई दिनों से बस गोल-गोल घूम रहे है? और तुम अब बता रहे हो?
जीवन- मुझे शक़ हुआ था पहले.. पर लगा कि जीवन का वहम होगा।
नील- हमने जीवन पर भरोसा किया और उसने घोखा दिया।
सूखी- मेरी तबियत बिगड़ती जा रही है। मैं और धोखे बर्दाशत नहीं कर सकती...।
जीवन- एक बार और कोशिश करते हैं।
निरंजन- हम वैसे भी अंधे हो चुके हैं.. और ऊपर से गोल-गोल घूमकर मारे जाएगें।
सूरज- तुमने जान बूझकर ऎसा किया है।
नील- हमें सबक सिखाने के लिए?
सूखी- हमें खुद का गुलाम बनाने के लिए?
नर्स- हम जीवन के गुलाम नहीं है...।
निरंजन- तुम्हें लगता है कि तुम शेर हो.. और हम सब भेड़े हैं... आसानी से कट जाएगीं?
जीवन- मैं शेर नहीं हूँ... मैं तो जीवन हूँ... तुम्हारा जीवन।
नर्स- क्यों किया ऎसा?
सूरज- कारण बताओ...?
नील- हमें जवाब चाहिए..
सूखी- बोलो..
सूरज- बोलो..
निरंजन- बोलो...
जीवन- क्या कर रहे हो तुम लोग... क्या कर रहे हो... रुको.. रुको...रुको...! (सभी जीवन को दबोच लेते हैं.... गुथम-गुत्था हो जाते हैं... हमें ज़्यादा कुछ दिखता नहीं अंत में एक तेज़ आवाज़ से सभी रुक जाते हैं.... जीवन बीच में पड़ा हुआ है और बाक़ी सारे लोग डरकर उससे दूर कोने में दुबक जाते हैं।) निरंजन- जीवन हिल नहीं रहा था।
सूरज- उसकी सांस भी नहीं आ रही थी।
सूखी- क्या हमने जीवन को मार दिया?
नील- हम गुस्से में थे पर .... हम जीवन को कैसे मार सकते हैं।
नर्स- हम.... मैंने नहीं मारा... मैं तो देख भी नहीं सकती..।
सूरज- तो क्या हम देख सकते हैं?
सूखी- हम सबने मिलकर जीवन को मारा है। मुझे ठीक नहीं लग रहा है।
निरंजन- हमें क्या यहाँ मज़ा आ रहा है?
सूखी- नहीं मतलब.. मैं... मुझे। (सूखी गिर जाती है।)
नर्स- देखों बहाने मत करो... हम सब जीवन को मारने के बराबर के हिस्सेदार है... कोई ना कम ना ज़्यादा।
निरंजन- मौत के दिखते ही कैसे हम सब एक हो जाते हैं।
सूरज- एक नहीं है... यूं समझो जंगल में आग लगी है इसलिए शेर और बकरी साथ रह रहे हैं।
नील- तो तुम बक़री हो... ?
नर्स- अरे शेर बकरी क्या फर्क पड़ता है... इस वक़्त हम सब एक है। ये कौन है?
सूरज- कौन?
नील- इसे क्या हुआ?
निरंजन- उठो..। (सब लोग सूखी को छूते ही चुप हो जाते है...। उठते हैं और बीच स्टेज पर आकर रोने लगते हैं.... फिर भागना शुरु करते हैं पर दीवार से टकरा जाते हैं... फिर कभी एक दूसरे से...। वो किसी भी तरह यहाँ से निकलना चाहते हैं... पर कहीं भी कोई दिशा नहीं दिखती। अंत में वापिस चीखकर भागना चाहते हैं.. पर टकराकर ढ़ेर हो जाते हैं। कुछ देर की चुप्पी के बाद।)
निरंजन- मैं अब ये जूते बर्दाश्त नहीं कर सकता।
नर्स- मैं भी..।
(सभी जूते निकालते है और एक अजीब किस्म की आज़ादी का अनुभव करते हैं।)
निरंजन- अब जब हम अंधे हो गए हैं तो गोदो का इंतज़ार समझ में आता है... पर जब हमें दिखता था तब हम इंतज़ार क्यों कर रहे थे?
सूरज- क्योंकि उसे सब पता है।
निरंजन- पर हम भी तो सब देख सकते थे?
नील- मुझॆ आँखे नहीं चाहिए..
नर्स- मूझे नहीं देखना।
निरंजन- मैं हिल नहीं पा रहा हूँ।
सूरज- मुझे सांस लेने में तक़लीफ हो रही है।
नील- सब छूटता हुआ नज़र आ रहा है।
नर्स- शायद हमारा यही अंत है...
सूरज- सब कुछ...
नर्स- दूर...
नील- चुप...
निरंजन- शांत..
सूरज- मौन..
नर्स- अंत...
निरंजन- आख़री एग्ज़िट।
नील- मैं किसी का भी इंतज़ार त्यागती हूँ।
नर्स- मैं भी।
निरंजन- मैं भी।
सूरज- मैं भी।
नर्स- अलविदा कहने के पहले मैं एक आखरी काम करना चाहती हूँ..। शायद ये बहुत पहले हमें कर लेना चाहिए था..। हो सके तो मुझे माफ कर दो। (धीरे-धीरे लाईट आना शुरु होती है।)
निरंजन- मैं भी यही सोच रहा था... मुझे माफ कर दो..
निधी- मुझे माफ कर दो..। (सबको दिखने भी लगता है पर अब दिखना और नहीं दिखना कोई मतलब नहीं रखता।)
सूरज- माफी मुझे सबसे मांगनी चाहिए...।
निरंजन- माफ कर दो..।
सूरज- माफी..।
निधी- माफी।
नर्स- माफी।
(लाईट पूरी तरह आती है और दर्शकों पर भी.... जीवन और सूखी खड़े होते हैं...सभी माफी मांगते हैं... फिर पीछे से कबीर भी आता है.... अंतिम नमस्कार करते हैं।)
The end….