बुधवार, 19 जून 2024

त्रासदी (नाटक) Solo play ... Manav kaul, Traasadi











aRANYA pRESENTS,

 

 

 

           

                                  त्रासदी...

 

 

 

 

 

                                          Written byManav Kaul

 

 

 

...

 

मुझे माँओं से बहुत शिकायत है। वो हमारे बचपन मेंअपने लाड़ मेंहमारे ऐसे नाम रख देती हैं कि हमें अपने बड़े होने पर उन घर के अपने नामों को छुपाना पड़ता है। कितने अजीब होते हैं ये नामचिट्टीमिलूटुन्नीछोटूचोटीनाटेभूरीसनी। 

मेरे घर का नाम कोपल थाकोपलगाँव में मुझे आज भी सब कोपल ही बुलाते हैं। कोपल का मतलब क्या होता है आप जानते हैं

मुझे भी नहीं पता था। मुझे याद है एक दिन माँ मुझे स्कूल छोड़ने जा रही थीमैं उनकी उंगली पड़े हुए चल रहा था। उसी वक़्त मैंने उनसे पूछा था।

माँ ये कोपल का क्या मतलब होता हैमेरे सारे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं कि ये क्या नाम हैकोपलइससे अच्छा तो कपिल रख लेता।’ 

मेरी माँ मुझे एक पेड़ के पास ले गई और कहा, ‘इन पत्तों को छू’, मैं पत्तों को छूने गया तो उन्होंने कहा कि, ‘नहीं बड़े वाले नहीं वो जो छोटे पत्ते हैं नाजो अभी अभी आए हैंहल्के पीले सेउन्हे छू’,  मैंने छुआ।

ओह! माँ’, मैं आश्चर्यचकित रह गया।

हाँइन्हें कोंपल कहते हैं।’ माँ ने कहा

पर माँ ये तो कितने कमजोर हैं माँ।’, मैंने कहा 



ये कमजोर नहीं है.. ये बहुत कोमल हैंजैसा तू है।’  



पता नहीं क्यों मैंने उस वक्त माँ से कहा था कि

अगर यह कोमल-से पत्ते मैं हूँ तो यह पेड़ आप हो।

मैं इस बात को बहुत पहले भूल चुका था।

अब मैं मुंबई में रहता था। यहीं जॉब करता हूँ। गाँव तो जाने कब का छूट चुका था।

 

कल ही की बात थीमैं आफिस था। महीने का अंत चल रहा थातो मेरे सिर पर बहुत काम था। मेरी डेस्क पर फाइलों का ढ़ेर थासिर कंप्यूटर में घुसा पड़ा था। तभी मेरा फोन बजामैंने देखा सोनी जी का फोन है। सोनी जीगाँव में हमारे पडोंसी थे और मैं इन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं करता था। मैंने फोन उठाया... 

हेलो! जी बोलिए। हेलोअरे बोलिए।

बेटा।

हाँअरे सोनीजीसुनाई दे रही है आवाज़बोलिए ना।‘ 

बेटातेरी माँ कल रात अचानक चल बसी हैं। तू जितनी जल्दी हो सके आ जा।

(वक्फ़ाचुप्पीलंबी चुप) 

मैं कहना चाहता था किक्या कह रहे हैं आपक्या हुआ है माँ कोपर मुझे लगा मेरे पूछते ही वो अपना वही वाक्य फिर से कहेंगे। और मैं उस वाक्य को दौबारा नहीं सुन सकता था। पर मुझे कुछ तो कहना ही था। पर क्या कहूँइस वक्त क्या कहा जाता है?  मैं कुछ बोलने गया तभी सोनी जी बोले,  



तू है वहाँ... हेलोकोपलहेलो.. बेटा?’

हाँ मैं हूँ... यहाँ

जल्दी आ जा बेटा

हाँ हाँ… Okay.. okay

मैं सीधा अपनी डेस्क पर आया और वापस काम करने लगा। बहुत सारा काम था। मुझे लगा पहले मैं अपने सारे अधूरे पड़े काम खत्म कर लूँ। काम करते हुए लगा कि इस बीच कुछ घटा ही नहीं थाकोई फोन नहीं आया थाकुछ नहीं हुआ था। तभीकाम करते-करतेमुझे कुछ खाली-खाली-सा लगने लगा। मैं रुक गया। देर तक अपनी डेस्क को ताकता रहा। मुझे कुछ चाहिए थाकुछ है जो मुझे दिख नहीं रहा था। मैं अपनी डेस्क पर चीजें ऊपर नीचे करने करने लगा। टेबल के दराज़ खोलकर ढूँढने लगा। पर मुझे जो चाहिए वो मिल नहीं रहा था। तभी मेरे दोस्त ने मुझे देखा और पूछा कि,

क्या बे.. क्या खोज रहा है?’ 

मैंने उसे देखा और अपने कंधे उचका दिये।

और तुझे इतना पसीना क्यों आ रहा है?’, मेरे दोस्त ने पूछा 



मैंने देखामेरे माथे से पसीना टपक रहा हैमेरी आँखें जल रही है। मैंने अपनी बुशर्ट से पसीना पोंछा। मैं अपने दोस्त के पास गया और उससे कहा कि

मेरा माथा देख… कहीं मुझे बुख़ार तो नहीं है?’ 



नहीं। बुख़ार तो नहीं है।’ उसने मेरे माथे और गर्दन पर हाथ रखने के बाद कहा।

क्या हुआ बे तुझे?’ उसने पूछा

पता नहीं क्या हुआ मैंने उससे कहा कि

यार मेरी माँ नहीं रही।

और तब पहली बार उसकी आँखों में मैंने वो देखा जिसे मैं इतनी देर से खोज रहा था।

मैं सीधा अपने बॉस के केबिन में गया। उनसे कहा कि

बॉस मुझे छुट्टी चाहिए अभी।

मैंने उन्हें कारण बताया तो उन्होंने कहा किहाँ हाँबिल्कुलएक हफ़्ते की छुट्टी ले लो.. या ऐसा करो तुम तेरवाँ ख़त्म करके आना..नहीं नहींमैंने कहामैं एक- दो दिन में आ जाऊँगा वापस.. मैं इतने दिन क्या करूँगा गाँव में..  वो मुझे आश्चर्य से देखने लगे और उन्होंने कहा कि

‘ठीक है।‘ 

‘ठीक है’मैंने कहा। 

मैंने अगले दिन की फ़्लाइट बुक की.. दोपहर की फ़्लाइट सस्ती थी.. और सुबह की बहुत मंहगी….. पर मुझे जल्दी जाना था सो,

मैंने सुबह की फ़्लाइट बुक कर दी और मैं घर आ गया था। 

 

मैं बिल्कुल सुबह का आदमी नहीं हूँ। मुझे सुबह उठना पसंद नहीं है। पर पता नहीं क्या हुआ आज मैं सुबह चार बजे से उठा हुआ था। सुबह कितनी धीमी गति से होती है इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था। मैं नहा चुका था। पूरा सामान बाँध चुका था पर सुबह होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मुझे पसीना आ रहा थामेरी आँखें जल रही थीसिर भारी था। पर आँख बंद करते ही लगता कि कुछ छूट रहा है और मैं फिर उठकर खड़ा हो जाताकहीं फ़्लाइट तो नहीं छूट जाएगीनहीं फ़्लाइट नहीं छूटनी चाहिए। मैं अपने कमरे में मंडराने लगा। तभी अपनी रेक पर मेरी निगाह एक किताब पर गई। क्या हो रहा है आज। आज पहली बार इतनी किताबों के बीच मेरी निगाह उसी किताब पर गई। मेक्सिम गोर्की की मदर।पलाग्या निलोवना। गोर्की ने ये किताब अपनी माँ के लिए लिखी थी। पलाग्या निलोवना,  जब मैंने इस किताब को पढ़ा थाबहुत पहलेतब मेरे भीतर एक बहुत ही रिरियाती हुई इच्छा जागी थी कि काश! मेरी माँ भी पलाग्या निलोवना की तरह महान माँ होती। मुझे लगा था कि उन्होंने मुझे धोखा दिया है। उन्हें महान होना चाहिए थावह हो सकती थींफिर क्यों नहीं हुईंहमारी माएँ महान क्यों नहीं हो पाती हैं?  

मुझे याद है मैंने कई दिनों तक अपनी माँ से ठीक से बात नहीं की थी। मेरी माँ की समझ ही नहीं आया कि मैं क्यों उनसे नाराज़ हूँ। वो पूछतीक्या हुआ कोपल... मैं कहता... जाने दो आप नहीं समझोगी।

अब लगता है कि मैं कौन सा गोर्की हो गया था।

मैंने घड़ी देखी छ: बज चुके थे। मैंने अपना सामान उठाया और एयरपोर्ट के लिए रिक्शा पकड़ लिया। बारिश बहुत हो रही थीसुबह का समय थासड़के खाली थींमैं अपने समय से बहुत पहले ही एयरपोर्ट पहुँच गया। Check in करने के बाद… जैसे ही मैं एयरपोर्ट मे घुसा तो मुझे पता चल गया कि मुझे क्या चाहिए थामुझे लगा कि अगर अभी मुझे एक गर्म काफी मिल जाए तो ये आखों की जलन और सर का भारीपन सब खत्म हो जाएगा। मैं भाग के एक कैफ़े मे गया और वहाँ से एक कॉफी ली और अपनी फ्लाइट के गेट पर आकर मैं बैठ गया था।

मैंने घड़ी देखीअभी तो फ़्लाइट में बहुत टाइम है। लगता है एयरपोर्ट का AC काम नहीं कर रहा थामुझे कितना पसीना आ रहा थाआँखें अभी भी जल रही थींसिर भारी लग रहा था। 

एयरपोर्ट के बाथरूम के पास बहुत देर से एक औरत खड़ी हुई थी। न तो वो भीतर जा रही है न ही कहीं और जा रही है। वो बस वहीं खड़ी हुई है। जबकि महिलाओं का बाथरूम इस तरफ़ है। पता नहीं क्या चक्कर हैकोई उन्हें कुछ बता ही नहीं रहा। 

मैंने माँ से आखरी बार कब बात की थीमैंने अपना फ़ोन निकाला और देखा पंद्रह दिन पहलेमैं फ़ोन पर उनका नाम देख रहा था। क्या अगर मैं उन्हें अभी फोन कर दूँ तो दूसरी तरफ़ से उनकी आवाज़ आएगीक्यों नहीं आएगीक्या वो आज के बाद कभी भी दूसरी तरफ़ नहीं होंगीमैंने मैसेज मे जाकर उनका आखरी मैसेज देखा 

तो क्या लिख रहा है आजकल?’ 

मैंने जवाब में लिखा थाऑफिस में हूँकाम में व्यस्त हूँ… फ़ोन करता हूँ। तीन एकदम रुख़े वाक्यमैंने जान बूझकर लिखे थे। क़रीब दो साल से मैं माँ से मिला नहीं थाउनकी शक्ल तक नहीं देखी थी। मैं उनसे नाराज़ था… बहुत नाराज़।

वैसे क्या ये आपके साथ भी होता हैजब आप किसी नए एयरपोर्ट के बाथरूम के बाहर खड़े होते हो और आपकी समझ ही नहीं आ रहा होता है कि कौन सा पुरुषों का बाथरूम है और कौन सा महिलाओं काहे नापता नहीं आजकल कैसे डिज़ाइन करते हैं ये लोगकुछ पता ही नहीं चलता। एक बार तो मैं महिलाओं के बाथरूम मे घुसते-घुसते बचा था। शायद वो महिला भी कनफ्यूज़ हो रहीं हैं। 

मैंने काफी रखी और उठकर उस औरत के पास उसकी मदद करने गया।

मैं जैसे ही उनके पास पहुँचामुझे उनके पास से एक ख़ुशबू आई… मैं इस ख़ुशबू को पहचानता था… ये ख़ुशबू तो सिर्फ़ मेरी माँ के पास से आती थीये मेरी माँ की खुश्बू थी।

मेरी माँ बहुत काम करती थीवो मनबोर्ड स्कूल में टीचर थीं। उनकी तनख़्वाह कुछ सात सौ रुपय थी। टीचरी खत्म करके वो घर आकर कुछ ट्युशन कर लेती थी जिससे ऊपर का कुछ पैसा उन्हें मिल जाता था। फिर वो घर का सारा काम निपटाकर जब मेरे पास आती थीं तो मैं उनसे चिपक जाता। वो कहती,

छीक्या कर रहा हैमैं एकदम पसीने पसीने हूँ। हट मुझे पहले नहा लेने दे।



नहीं मुझे अपकी ये ख़ुशबू बहुत पसंद है।’, मैं कहता



ख़ुशबू..ये ख़ुशबू है?’ वो आश्चर्य से पूछती। 



हाँये किसकी ख़ुशबू है माँ?’ 



उन्होंने कहा था कि, ‘ये थकान है बेटामैं बहुत थक जाती हूँ। ये थकान की ख़ुशबू है।’ 

मुझे लगता था ये थकान की ख़ुशबू सिर्फ़ मेरी माँ के पास से आती है। पर ये तो उनके पास से भी आ रही थी जो औरत बाथरूम के पास खड़ी थी। 



जब रात में मुझे नींद नहीं आती थी तो मैं अपनी माँ के पास जाता था और उनके साड़ी के पल्लू को सूंघता था और मुझे नींद आ जाती थी। 

मेरी माँ जितना थकती थीं मैं उतनी गहरी नींद सोता था।

मैं एक बार और वो थकान वाली खुशबू सूंघ लेना चाहता था।मैं धीरे से उनके पास गया। अपनी आँखें बंद करते जैसे ही मैंने एक तेज़ ख़ुशबू भीतर जी खींची वो पलट गई।

नमस्ते… अरे! माँ..आप यहाँ क्या कर रही हो माँमाँ मैं कोपल,  अरेक्या हुआमाँमाँ मैं अब आपसे नाराज़ नहीं हूँ… मैं था नाराज़.. पर अभी.. मैं ख़ुद आपको फ़ोन करने वाला था। माँकहाँ जा रही होआपको बाथरूम जाना है नावो उधर हैआप फिर ग़लत जा रही हैं। चलो चलोअरे चिल्ला क्यों रही हो… चलोमाँजिद्दी कहीं-कीचलो। आप जाइये ना बाथरूममैं हूँ यहाँलाइये आपका बेग मुझे दीजिए.. दीजिए..  दीजिए बेग’  

तभी मैंने देखा हमारे आस-पास कुछ लोग जमा हो गए हैं। उसी वक़्त एक आवाज़ आई,

क्या हो गया भईमेरी माँ से क्या कह रहा है?’

मैं बेटा नहीं थाबेटा तो कोई और था। मेरे हाथ में उस औरत का बेग था.. मैंने वो बेग तुरंत उन्हें वापस कर दिया और जल्दी में मैंने भीड़ से कहा कि

Sorry Sorryमुझे पता नहीं आज क्या हो रहा हैअसल मे आज मेरी माँ……’ 

पर तब तक देर हो चुकी थी। लोग मुझे धक्का देने लगेकुछ थप्पड़ भी पड़े.. मैं गिर पड़ा.. और फिर वही हुआ जो भीड़ एक आदमी के साथ करती है। मैंने ख़ुद की आँखें बंद की शरीर को ढीला छोड़ दिया। जो भी मुझपे हो रहा था मैंने उसे होने दिया।

कुछ देर में लड़खड़ाते- संभलते मैं वापस अपनी जगह आ कर बैठ गया था।

पता नहीं क्यों पर मार खाकर मुझे बहुत अच्छा लगासच में। मेरी आँखों में अभी भी जलन थीपसीना अभी भी आ रहा था पर मार खाने के बाद मेरा सिर का जो भारीपन था ना वो ख़त्म हो चुका था। वाह! पिटने के अपने फायदे भी हैं।  

तभी हमारी फ़्लाइट एनाऊंस हुई और मैं तुरंत जाकर लाइन में लग गया।

तो क्या लिख रहा है आजकलमाँ हमेशा पूछती थीं।असल मेंमेरी माँ शिद्दत से लेखक हो जाना चाहती थी। पर मेरे पिता को ये मंजूर नहीं था। इसलिए उन्हें कहीं भी घर मे पेन दिखता तो वो तोड़ देते। मुझे मेरे पिता बहुत कम ही याद हैं। मैं बहुत छोटा था जब वो चल बसे थे। मेरी माँपिताजी के बारे में जब बात करती थी तो ऐसा लगता था मानो वो कोई सैनिक हों जिनका काम था उनपर पहरा देना। पिताजी जब तक जीवित थे उन्होंने माँ पर पहरा दिया था। मेरी माँ बहुत सुंदर थींताँबई रंगदुबला-पतला लंबा क़दघने बालइसलिए पिताजी हमेशा काम पर जाने के पहले घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं अपने बाप से बहुत चिढ़ता था। क्रूर आदमीआदमी ऐसा कैसे हो सकता हैइतना क्रूरमाँ बताती हैं कि उसी क्रूरता के बीच कहीं मैं पैदा हुआ था और माँ ने बहुत वक्त बाद कोमलता को छुआ थाइसलिए उन्होंने मेरा नाम कोंपल रखा था। अब ये नाम मुझे बहुत अच्छा लगता है।

फिर जब पिताजी नहीं रहे तो मुझे लगा माँ अब खूब लिखेंगी.. पर ऐसा हुआ नहीं। मुझे बहुत अजीब लगा तो मैं एक दिन माँ के पास गया और उनसे कहा,

माँ आप क्या ये कोरे पन्नों से सामने पेन से खेलती रहती होआप लिखती क्यों नहीं होलिखोआपको जो लिखना हैआपको पूरी आजादी है।

तो उन्होंने कहा, ‘इतना आसान थोड़ी हैमेरे भीतर कई सालों का ग़ुस्सा भरा है बेटाऔर गुस्सा आदमी को कठोर बना देता है... मैं ये ग़ुस्सा नहीं लिखना चाहती हूँ। मैं कुछ अच्छा लिखना चाहती हूँ।

अच्छा लेखनमेरी माँ एक शब्द भी नहीं लिख पाई थीं। पर वो बहुत पढ़ती थींहाँबाप रे! वो हमेशा किताबों से घिरी रहती।

और एक मैं था उनका गधा-बच्चामुझे न तो लिखना अच्छा लगता था और न ही पढ़ना। भई बहुत कठिन काम हैअपने बस का नहीं है। मैं तो किताबों का इस्तेमाल करता था सो जाने के लिए। किताबें मेरी लिए नींद की गोलियाँ थीं। खाओ और टप से सो जाओ। 

पर माँ हर रात एक किताब मेरे सिरहाने रख दिया करती थी और कहती कि

ऐसे नहींहमेशा पढ़कर ही सोना’ 

ठीक है माँ।

मैं एक पन्ना पढ़ता और जैसे कैसे दूसरे पन्ने पर पहुँचता पर तब तक मुझे लगता कि मेरी पलकों पर किसी ने ये बड़े बड़े पत्थर रख दिए हैं। मैं पूरी ताकत लगाता कि एक वाक्यकुछ शब्द और पढ़ लूँ पर मजाल हैं आँखें खुली रहें। वो पट से बंद हो जाती और मैं खर्राटे लेने लगता।

सुबह माँ पूछती,तो सुनाओ कहानी जो रात में पढ़ी थी?’ 



मैं कहताठीक है माँ,  सोने से पहले का एक पन्ना तो मैं उन्हें सुना देता और दूसरे पन्ने तक आते ही मैं माँ के सामने एक झूठी कहानी बुनने लगताऔर जैसे कैसे उस कहनी को पूरा कर देता।  माँ मेरी झूठी कहानी पर खुश हो जाती। उन्हें मेरे झूठ पर मज़ा आ जाता। मैं सोचने लगा कि ये क्या हैअरेजब उन्हें मेरे झूठ पर ही मजा आ रहा है तो पढ़ने की क्या जरूरत है। मैंने तुरंत पढ़ना कर दिया बंदअब मैं बढ़िया चादर तानकर सोतासुबह बढ़ियाँ एक अंगड़ाई लेकर उठता और माँ के सामने एक पूरी झूठी कहानी बनाकर सुना देता। माँ हंस हंस के लोट-पोट हो जाती। मेरी माँ इतना अच्छा हंसती थींनहींनहीं वो हंसती नहीं थी वो खिलखिलाती थीं... वो खिलखिलाती थीं।

फिर एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया,

कोपल’, भारी आवाज़ में 

क्या माँ?’

इधर आइधर आइधर आमाँ जब भी मुझे ऐसे बुलाती थीं मैं समझ जाता था कि मुझसे कुछ बड़ी गड़बड़ी हुई है। 

क्या हुआ माँ?’ 

सुनतू जो मुझे सुनाता हैये कहानियाँ

हाँतू उन्हें लिख दिया कर।

क्या माँवो कहानियाँ तो पहले से ही लिखी हुई है न किताबों मेंउन्हें फिर से क्यों लिखना?’



चल झूठेमैं जानती नहीं हूँ क्यावो अलग हैंमुझे पता है तू मुझे क्या सुनाता हैवो ज़्यादा अच्छा हैसुन ना मैं पढ़ना चाहती हूँ तुझेतू लिख दिया कर ना।

देखा कितनी तेज़ हैं। मतलब इन्हें शुरु से पता था कि मैं झूठ झूठ सुना रहा हूँ पर इन्होंने कभी कुछ कहा नहीं बस खिलखिलाती रहीं।

माँ।

क्या है?’

Sorryअब आपको तो पता है कि ये सब झूठ है नइस झूठ को क्या लिखना?’

उन्होंने कहा,’ये झूठ नहीं है ये तेरी कल्पना है… और ऐसे ही सब लिखते हैं।



क्या मतलबतो क्या ये सारी किताबों में झूठ-झूठ लिखा हुआ है?’, मैंने उनसे पूछा था। 



हाँझूठकल्पनाएक ही बात है।

मेरे दिमाग़ में हो गया विस्फोट। मतलब आप समझ रहे हैं कि आपको अचानक पता चले कि इस दुनियाँ में जितनी किताबें है उसमें सब झूठ-झूठ लिखा हुआ है। भाई साब! मेरे तो तोते उड़ गए। फिर लगा अगर सब झूठ ही पेल रहे हैं तो ये झूठ तो मैं भी लिख सकता हूँ।  फिर क्या मैं रोज़ सुबह उठता और एक बढ़िया झूठी कहानी माँ को लिखकर देता और माँ मेरा झूठ पढ़ती और खुश हो जाती। कितनी सही सेटिंग हो गई थी ये। नींद की नींद और कहानी की कहानी। ओ भाई साहबलेकिन मुझे इस सब में पता ही नहीं चला कि मैं कब माँ के पैंतरे में फँस गया था और लिखने लगा था। बाप रे कितनी तेज़ हैं माँ। मैं लिखता ही चला गया थाअपनी माँ के लिए।

 

आपको पता है मुझे विंडो सीट मिली थी प्लेन में,  मुझे अचानक से विंडो सीट का मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं लगता हैछोटे सुखद आश्चर्य जैसा कुछ। मुझे हवाई जहाज़ शुरु से ही बहुत पसंद थे। अरे मेरा छोड़िए मेरी माँ तो हवाई जहाज़ के लिए पागल थी।

हमारे घर के ऊपर से जब भी हवाई जहाज़ गुजरता तो मैं और माँ दोनों घर से बाहर आ जाते और आश्चर्य से उसे देखते। माँ के मुँह से निकलता… ओह! फिर हम टाटा करते थे। टाटा टाटा टाटा टाटा टाटाजब तक वो आँखों से ओझल नहीं हो जाता हम टाटा करते रहते। 

कोपल’, माँ कहती 

क्या माँ?’

बेटा हवाई जहाज़ का दिखना बहुत शुभ होता है।

हैं!

हाँये ले एक रूपये.. जा पेड़े ले आ।’ 

हवाई जहाज़ दिखने पर हमारे यहाँ पेड़े आते थे। पर हम ज़्यादा पेड़े खा नहीं पाते थेक्योंकि हमारे घर से उस वक़्त महीने दो महीनों में एक-आध हवाईजहाज़ बमुश्किल गुजरता था। फिर पता नहीं क्या हुआ कि मेरे बड़े होने मेंहमारे घर के ऊपर से हवाई जहाज़ गुजरने की तादाद बढ़ने लगी। पेड़े बहुत महँगे थेहम बताशों पर आ गए। और कभी कभी तो हमारे गाँव से एक ही दिन में दो हवाई जहाज़ गुज़र जाते। बताशे भी तो पूरे महीने चलाने होते थे। ऐसा थोड़ी हर हवाई जहाज़ पर बताशा मुँह में रख लिया। इतने पैसे थोड़ी थे। तब माँ को एक तरकीब सूझी। अब हमारे घर से जैसे ही दूसरी हवाई जहाज़ गुजरता मैं और मेरी माँ ऐसा बिहेव करते कि हमें तो कुछ सुनाई नहीं दे रहापता नहीं क्या आवाज़ आ रही है ऊपर से। ये तरकीब बहुत काम आई। जैसे माँ की तनख्वाह बहुत कम थीवो महीने की एक तारीख को अपने छे सौसात सौ रूपये को लाकर सीधा भगवान की अलमारी में रख देती थीं और कहती कि

कोपलबस बहुत हुआइस बार इन पैसों को पूरा महीना चलाना है।‘ 

मैं कहता, ‘ठीक है माँ’, 

क्या ख़ाक ठीक है। वो पैसे हर बार की तरहबीस से पच्चीस तारीख़ के आस पास कहीं अपना दम तोड़ देते। और महीने का आख़री हफ़्ता हम ऐसे गुज़ारते मानो घर के ऊपर से गड़गड़ाता हुआ दुखों भरा दूसरा हवाई जहाज़ गड़गड़ाता हुआ गुजर रहा होऔर तब ये तरकीब काम आती। हमें वो दुख दिखाई नहीं देता। उस दुख को हम सुनते ही नहीं। हर महीने के आख़री हफ़्ते का दुख यूँ आता और बिना दिखे वो यूँ गुजर जाता। और फिर ख़ुशियों भरी एक तारीख़ आती और भगवान की अलमारी वापस पैसे आ जाते। माँ कहती किदुखों को अगर देखो नहीं तो वो असल में हैं ही नहीं।   

एक दिन मैंने माँ से पूछा

माँ’, उन्हीं की तरह गंभीर आवाज में

क्या है?’ 

इधर आओइधर आओइधर आओ।‘ 

एक दूंगी रख कर।

अरे ऐसे ही पूछना था कुछ’ 

पूछ?’

गंभीर सवाल है।

गंभीर सवाल मुझे अच्छे लगते हैं।

अच्छा तो ये सुनोमाँ हम इसे भगवान की अलमारी क्यों कहते हैंइसमें भगवान तो है नहीं। ख़ाली पड़ी है अलमारी।’ 



माँ ने कहा था, ‘क्योंकि भगवान तेरे पिता के साथ चले गए। मैं तो नास्तिक हूँ ना।’ 



छी.. क्याआप नास्तिक हो?’

हाँ।

नहीं।

हाँमैं नास्तिक हूँ।

अरेमाएँ कहाँ नास्तिक होती हैंमाँ नास्तिक नहीं होती हैं।

अब मैं तो हूँ।’ 

पर मैं नहीं हूँभगवानमैं नहीं हूँबस ये ही हैं। मैं तो आपमें विश्वास रखता हूँअपनी सेटिंग एकदम सही चल रही है।’, मैंने कहा 

तू भी नास्तिक है।’ 

माँ! पाप लगेगा क्या कह रही हो। मैं नहीं हूँ।

हम सब इस दुनिया में ज़्यादा नास्तिक हैं कम आस्तिक हैं।’ 

क्या!

हाँदेखो इस दुनिया में लगभग दस धर्म है। उसमें से नौ तो तू नहीं मानता हैबस एक मानता है न। तो उन नौ धर्मों के लिए तो हम दोनों साथ में नास्तिक हुए न। मैं तो बस एक और धर्म नहीं मानती हूँ।

अब कर लो इनसे बात। देखा कैसे घुमाती है बातों को। पर मैं भी कोपल हूँ ऐसे हारने वाला नहीं था। मैंने पूछा।

तो… तो इसका क्या मतलब… आप कह रही हो कि मैं भागवान को नहीं मानूँ। नहीं मानूँ?’ 

तुम तो मानोगे

,ओ... रुकोरुकोरुको मैं क्यों मानूँगा?’

क्योंकि तुम पुरूष हो।



छीनहींमाँ में आपका बेटा हूँ। मैं कोई पुरुष-वुरुष नहीं हूँ।

अरे गधेमेरे बेटे होने पर साथ साथ तू पुरुष भी तो हैऔर हर धर्म में मुख्य भूमिका तो पुरुषों की ही है… तो वो तो मानेंगे। हम औरतों का तो हर धर्म में सपोर्टिग रोल है… तो मैं तो नहीं मानूँगी। मुझे तो समझ में नहीं आता कि औरतें क्यों इसे स्वीकार करती हैंमैं नहीं करुगीमेरा अब सपोर्टिंग रोल नहीं है। मेरे जीवन में मेरी भूमिका मुख्य है।

पता नहीं क्यों मुझे ये बात बहुत बुरी लग रही थी। मैंने कहा

और मैंमैं कहा हूँ आपके जीवन में?’

तुम अहम किरदार हो।’ 

अहम! मैं मुख्य नहीं हूँ। मैं आपका इकलौता बेटाआपके जीवन में मुख्य नहीं है?’

मुख्य तो कोई नहीं हैमैं मेरे जीवन में मुख्य हूँजैसे तुम्हारे जीवन में तुम।

ये माँ क्या कह रही थींये कौन सी बातें हैमैं हैरान था। मेरी आँखों में एकदम कोने कोने तक आँसू आ चुके थे। पर मैंने ख़ुद से कहा किनहीं कोपल रोना नहीं है। एक नास्तिक के सामने तो हमें कभी नहीं रोना है। मैं सीधा अपने पक्के दोस्त सुधीर के घर गया। 

सुधीरसुधीर’, मैंने उसे आवाज़ लगाईवो मेरे एकदम पक्का दोस्त था। 

सुधीर नीचे आ।’ जैसे ही वो नीचे आया मैंने उससे कहा कि

चल,  मुझे तुझसे ज़रूरी बात करनी हैहनुमान मंदिर चलते हैं।’ 

हम दोनों हनुमान मंदिर के चबूतरे पर जाकर बैठ गए। मैंने सुधीर को सब कुछ बतायाआप लोगों को वहाँ होना थातो आप देखते कि क्या ग़ुस्सा हुआ था सुधीर। उसकी आँखें लाल हो गई थीं और चेहरा पीला। मैंने कहा

क्या बात है यार सुधीरबहुत सही।

हाँ यार कोपल भईतेरे घर तो यार बड़ी ट्रेजडी हो गई है यार।’ तभी मेरी इच्छा हुई की बजरंगबली से जाकर माँ की शिकायत कर दूँ क्यापर बजरंगबली एक नास्तिक का क्या उखाड़ लेंगे?  तभी सुधीर बोला

कोपल यार तेरे लिए तो बहुत ही बेड फीलिंग्स हो रही है यार।

हे ना।

और यार कोपलमाँ तो अपने बच्चे के लिए अपना पूरा का पूरा जीवन न्योछावर कर देती है और चूँ तक नहीं करती। चूँ भी नहीं करती है माँ भाईऔर बता एक तेरी माँ हैंकैसे निकली यारये तो सही नहीं है।

हे ना।’ 

और भाई नास्तिक… यार कुछ भी चल रहा है तेरे घर मेंनास्तिक-पास्तिकछी… क्या मतलब हैमाँ होके नास्तिक.. छी छी छी।

छी छी छी।’ 



मैंने भी उसकी छी में अपनी छी मिला दी। तभी मैंने देखा कि सुधीर उठकर खड़ा हो गया और मेरे सामने ग़ुस्से में चक्कर काटने लगा। क्या बात है मतलब पक्का दोस्त हो तो ऐसेवो मेरी माँ की बात पर मुझसे भी ज्यादा गुस्सा था। मैंने कहा,

सुधीर भाई लब यू। क्या बात है सुधीरबहुत ही सहीएकदम पक्का दोस्त है यार तू मेरागजब भाई।‘

कोपल भाईतेरे से एक बात कहनी थी।

बोल ना भाई।

अब भई तूने अपनी माँ की बात छेड़ी है इसीलिए बता रिया हूँ,  अगर तुझे बुरा न लगे तो।’ 



यार मेरी माँ नास्तिक हैं…. इससे बुरा क्या हो सकता है भई।भी कुछ हो सकता है?’



सही कह रहा है।



बोल भई।



यार कोपल भाईतेरी माँ के बारे में गाँव वाले बहुत ही गंदी गंदी बातें करते हैं यार।



क्या मतलब।



कहते हैं यारतेरे यहाँ पता नहीं कौन कौन लोग आते हैं।‘  

हाँ तू जानता तो है सबको… गुप्ता जी आते हैं… अवस्थी जी आते हैं… सोनी जी… जानता तो है तू सबको।



हाँ पर वो तो सब अकेले आते हैं… वो अपनी लुगाईयों के साथ थोड़ी आते हैं।

लुगाई?’

अरे मतलबबीबियों के साथ थोड़ी आते है। और ग्यारह बजेबारह बजे रात तक हंसी ठठे की आवाज़ें तेरे घर से आ रही होती है यार।



अरे पगलेपर वो आवाज़ तो इसलिए आती है कि हमारे घर के खिड़की दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं।’ 

तूने तो कहा था कि तू तो सो जाता है जल्दीतो तुझे क्या पता खिड़की दरवाज़े कब तक खुले रहते है और कब बंद हो जाते हैं।



क्या मतलब है सुधीरकुत्ते।क्या कहना चाह रहा है तू?’



अरे वाह भाईलब यू से सीधा कुत्ते पर आ गया। वाह! यार मैं थोड़ी के रिया हूँ… ये तो गाँव में लोग कह रहे हैं कितेरी माँ बहुत गुलछर्रे उड़ाती है।

गुलछर्रेहनुमान मंदिर के उस चबूतरे पर मैंने पहली बार ये शब्द सुना था। आज भी मैं कभी गुलछर्रे शब्द सुनता हूँ तो माँ का चेहरा मेरी आँखों के सामने कौंध जाता है। गुलछर्रेये शब्द सच में कितना क्रूर है। मैं उस दिन सीधा अपनी माँ से बात करने गया था। मैंने उसने कहा किमाँ आप येआप ये…. पर क्या कहूँ?  कौन सा शब्दवो कौन से वाक्य हैंमाँ से इस किस्म के संवाद के शब्द ही नहीं थेवो वाक्य बने ही नहीं थे। मैं बहुत वक्त तक कुछ भी नहीं कह पाया था। फिर एक दिन पता नहीं कहा से मेरे भीतर हिम्मत आई और मैं सीधा माँ के पास गया और कहा,

माँ मुझे आपसे जरूरी बात करनी हैंअभी

क्या हुआ.. बोल बेटा।‘, वो अपना सारा काम छोड़कर अचानक सचेत हो गई।

माँ मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि.....मैं लडखडाने लगा था। पर मुझे आज माँ से बात करनी ही थीमैंने पूछा...

माँ आप… आप… आप.. माँ… आप… आप इतनी सुंदर क्यों होक्यों हो आप इतनी सुंदरआप माँओं जैसी माँ क्यों नहीं होआप सुधीर की माँ को देख लेबंटी कीराजू-छोटू कीसलीम की… आपने पिंकी की माँ को देखा हैदेखो आप सारी माएँ कैसी दिखती हैंऔर एक आप हो….. सुंदर कहीं की।

कुछ देर में माँ मेरे पास आई और उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा

मैं समझती हूँ बेटा पर मैं क्या करूँ तू बतातू ही बोल क्या करूँ मैं?’

मुझे नहीं पता … और आप ये स्लीवलेस वाला ब्लाउज़  क्यों पहनती होताकि आपके पूरे कंधे दिखेंहै नाऔर मैंने देखा है जब आप स्कूल जाती हो तो जान बूझकर साड़ी ऐसे पहनती तो ताकी आपका पेट दिखे… और आप…’



कोंपल!….चुप हो जा बेटा, चुप हो जा..

माँ की आँखों मे डर था। मुझे लगा उन्होने कोई भूत देख लिया हो। मैंने पूछा,

माँक्या हुआमाँ’ 

तो उन्होने कहा कि,तू सुन रहा है खुद कोतू कितना अपने बाप जैसा सुनाई दे रहा है।

मैं अपने पिता से चिढता थामैं उनके जैसा नहीं होना चाहता था। कभी भी नहीं। नहींनहींनहीं।

इस विषय पर मैंने और माँ ने फिर कोई बात नहीं की कभी। पर मैंने देखा थाइसके बाद भी माँ ने अपने जीने में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं किए। वो जैसी थी वैसी की वैसी रहीं। फिर एक दिन माँ पूरी बाँह का ब्लाउज़ पहनकर स्कूल जा रही हैं। मैं तुरंत घर भागा और उनके सारे स्लीवलेस ब्लाउज़ उठाए और घर से दूर जाकर एक कूड़ेदान में फेंक दिए। 

पर आप आश्चर्य करेंगे इससे मेरी माँ को कोई फ़र्क़ नहीं पडा। घर में लोगों का आना जाना लगा रहा। माँ हर कुछ दिनों  में एक नया स्लीवलेस का ब्लाउज़ सिलवा लाती और मैंजब भी मौक़ा मिलता उस ब्लाउज़ को कूड़े दान में फेंक आता। ब्लाउज़ कहाँ ग़ायब हो रहें हैये न कभी माँ पूछती और न नए ब्लाउज़ के दिखने पर मैं भी चुप रहता। अजीब सा मूक युद्ध चल रहा था हम दोनों के बीच जिसमें कोई भी हार मानने को राज़ी नहीं था। मैं जब तक गाँव में रहा ये युद्ध कभी ख़त्म नहीं हुआ था।

युद्धहिंसा शायद आदमी को जल्दी बड़ा कर देती है। मुझे पता ही नहीं चला मैं कब बड़ा हो गया था। मेरी अजीब सी छतरी-छतरी दाड़ी मूँछ उग आई थीं।

फिर एक अच्छी खबर आई। मेरा जॉब लग गया मुंबई में। गाँव में सबने कहा कि अरे कोपल है न उसका जॉब लगा है बंबई में। घर में पेड़े आएबहुत सारे पेड़े। मैंने कुछ ज़्यादा ही खा लिए और मेरा पेट ख़राब हो गया। अच्छी चीज ज़्यादा मिल जाए तो पचती नहीं है। 

फिर मुझे लगा ये कितना अच्छा मौक़ा हैमाँ को फँसाने का। इससे माँ नहीं बच सकती थीं। 

मैंने माँ से कहा,

माँ क्या रखा है इस गाँव मेंयहाँ वैसे भी लोग अजीब-अजीब बातें करते हैं। बंबई ग़ज़ब शहर है। चलो माँ अब से हम दोनों वहीं रहेंगे। वहाँ आपको जैसे रहना हो आप रहनाजो कहना है वो करनाखुली छूट है आपको।



माँ ने कहा कि, ’तू बंबई जा तेरे को वहाँ जैसे रहना है रहजो करना है करखुली छूट हो तेरे कोमैं तो यहाँ वैसे ही रह रही हूँ जैसा मुझे रहना है।

माँ कभी तो मेरी बात सुनो… लोग क्या कहेंगे कि जैसे ही मुझे बंबई में जॉब मिला मैं अपनी माँ को अकेला छोड़कर भाग गया।’ 



तो उन लोगों को कहना कि तेरी माँ विकलांग नहीं हैउसके हाथ पैर सही चलते हैंउन्हें ज़िंदा रहने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं है।’ 



मेरी माँ मेरी बातों में नहीं फँसी। ज़िद्दी औरत है अब क्या बताऊँ। 

ठीक है रहोजैसे रहना है आपकोपर कम से कम आप ये गुल…… आप ये स्लीवलेस ब्लाउज़ पहनना तो बंद कर दोप्लीज़।

माँ मेरी तरफ़ मुसकुरा के देखने लगी। कुछ देर में उन्होंने मुझसे कहा

ठीक है बेटाचल छोड़ दियाअब से नहीं पहनूँगी कभी स्लीवलेस ब्लाउज़… कभी नहीं पहनूँगी। अब खुश है तूखुश है?’ 

मैं उन्हें देखता रहा फिर मैंने हाँ में सिर हिला दिया। माँ ने कहा

पर तुझे भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।’ 

बोलो माँ।

तुझे अपना कहानी संग्रह पूरा करना पड़ेगा।

चोरचोरी चोरी मेरी कहानियाँ पढ़ रही थीं। आपको कैसे पता कि मैं लिख रहा हूँ।

तेरी माँ हूँइतनी चोरी का तो हक़ है मुझेक़सम का कि तू अपना कहानी संग्रह पूरा करेगाखा क़सम।’ 

मुझे अच्छी तरह याद है वो दोपहर का वक़्त था। माँ आँगन में खड़ी थीं। उनके पीछे एक हरा घना पेड़ था। तब मैंने अपनी माँ के सिर पर हाथ रखकर क़सम खाई थी कि, ‘माँ मुझे आपकी क़सम हैमैं अपना कहनी संग्रह ज़रूर पूरा करूँगा।’ 

मैंने माँ की क़सम खाई थी। माँ की क़सम सबसे बड़ी क़सम होती है। सबसे बड़ी क़सम खाई थी मैंने। 

बंबई आते ही मैं काम में बुरी तरह उलझ गया था। उसी वक्त से माँ तबियत खराब रहने लगी थी। उन्हें खांसी के दौरे पड़ते थे। पर हर बार फोन आते ही उनका पहला सवाल वही होता किक्या लिख रहा है आजकल। मैंने उनको नहीं बताया था कि मैंने अपना कहानी संग्रह पूरा कर लिया था। मैंने उसका नाम त्रासदी रखा था। उस कहानी संग्रह के पहले पृष्ठ पर ही मैंने लिखा था… माँ के लिए। मुझे लगा जब से कहानी संग्रह प्रकाशित होगा तो मैं उसकी पहली प्रति लेकर सीधा गाँव जाऊँगा और इसे माँ की गोदी में रख दूँगा और कहूँगा किनहींनहीं पहले पहला पन्ना खोलो देखा क्या लिखा है….. आपके लिए….. सरप्राइज़।

 

हमारा प्लेन समय पर उतरा। मेरा गाँव एयरपोर्ट से करीब सत्तर किलोमीटर दूर था। मुझे अभी भी पसीना आ रहा थाआँखें जल रही थीपर मार का असर इतना कमाल था कि सर अभी तक हल्का बना हुआ था। मैंने एक टैक्सी की और गाँव की तरफ चल दिया। मैं अपने गाँव आख़री बार दो साल पहले आया थावो मेरी माँ से आखिरी मुलाकात थी। दो साल पहले कितना असहनीय दिन था वो...

 

दो साल पहले मुझे सुधीर का फ़ोन आया था। मैं ऑफिस में था। मेरे फोन उठाते ही उसने कहा कि..

कोंपल यार एक जरूरी बात करनी थी।

बोल सुधीर

यार कोंपलकैसे या र तूने इजाज़त दे दी?’ 

क्या इजाज़त दे दी मैंने?’

अरे यार ये सही थोड़ी हैकैसे सोनी जी तेरी माँ के साथ रह सकते हैं?’

क्याकौन साथ रहने लगा हैक्या बोल रहा है?’ 

ओ भाई! तेरे को नहीं पता?’ 

नहीं

अरे भाई साबवो ही मुझे लगा कोंपल ने ऐसे कैसे होने दिया दिया। मुझे लगा तूने कहा होगा सोनी जी को कि माँ का ख़्याल रखनादवाई अस्पताल देख लेना,  पर यार वो तो साथ ही रहने लगे हैं। तेरे ही घर मेंगाँव में कैसी-कैसी बातें हो रही है और तेरे को कुछ पता ही नहीं है। यार सब कह रहे हैं कि…’

सुधीर लगातार बोले जा रहा था। पर मुझे सिर्फ एक ही वाक्य सुनाई दे रहा था किमाँ अब खुलमखुल्ला गुलछर्रे उड़ाने लगी हैं।  मैं उनके जीवन में मुख्य नहीं हूँ मैं जानता हूँपर अहम तो हूँ। उन्हें पता नहीं कि मैं यहाँ बंबई में अकेला रहता हूँमुझ तक ख़बर पहुँचेगी तो कैसा लगेगा मुझेउन्हें किसी की चिंता नहीं रह गई थी। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया मैं सीधा अपने गाँव गयाऔर जैसे ही अपने घर पर पहुँचा तो देखता क्या हूँ कि मेरे घर का दरवाज़ा सोनी जी ने खोला। मेरी इच्छा तो हुई उनसे कहने की किक्या कर रहा है तू मेरे घर मेंनिकल यहाँ से…. पर मैंने देखा वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे मानो मुझे चिढ़ा रहे हों।उन्होने कहा

अरे कोपल! तुम आ रहे हो तुमने बताया भी नहीं। आ जाओ,  सुनियेदेखिए कौन आया हैआपका लाड़ला लेखक कोंपल! आ जाओ.. जाओ अंदर जाओ माँ अंदर है।

मैं इस आदमी की आवाज भी नहीं सुनना चाहता था। मैं सीधा माँ के कमरे में चला गया और कमरे में घुसते ही मुझे क्या दिखा,  माँ के कमरे मे खूँटी पर सोनी जी के कपड़े टंगे हुए हैंमाँ के कमरे में।  मैंने गुस्से में अपनी आँखें बंद की और माँ के पैर छुए। माँ को देखा तो वो बहुत दुबली हो गई थीउनका शरीर जर्जर हो गया था। मैं उनके बग़ल में बैठा,

क्या हो गया माँरहने दीजिएउठने की क्या ज़रूरत है। क्या हुआ है माँ?”

तभी मुझे सोनी जी की आवाज़ आईवह दरवाज़े पर खड़े थे।

डॉक्टर ने आराम करने को कहा है पर कहाँ मानती हैं ये। मैंने कहा कि कोंपल को बता देते हैंतो कहने लगी नहीं नहीं वो अकेला रहता है वो बेकार में वो परेशान होगामैंने कहा जाओ उसके साथ रहो थोड़ा हवा पानी बदलेगापर नहींसुनती ही नहीं हैंभइया बहुत परेशान हो गया हूँ मैं तोखैरचाय बना दूँ तुम्हारे लिएतुमने तो कुछ खाया भी नहीं होगाजल्दी के कुछ बना देता हूँ तुम्हारे लिए?’

ये आदमी चुप ही नहीं होगाइसकी समझ ही नहीं आ रहा है कि इसके कपड़े मेरी माँ के बेडरूम में टंगे हैंये हमारे किचन में खाना बना रहा हैऔर ये कौन होते हैं मुझे बताने वाला कि मेरी माँ कैसी हैकैसी नहीं है!



आप रहने दीजिएमुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’ 



माँ ने तुरंत मेरे गालों पर हाथ फेरा और कहा,

नहीं बेटा नहींबेटा गुस्सा नहीं करतेग़ुस्सा आदमी को कठोर बनाता हैकठोर नहीं बनना है तुझेतू कोपल हैवो सब छोड़ बेटा पहले तू ये बता आजकल क्या लिख रहा है?’ 



मैं कुछ भी नहीं लिख रहा हूँ। क्योंकि मैं कभी कुछ लिखना चाहता ही नहीं थाआप लिखना चाहती थींमैं नहीं।’ मैंने ये सीधा माँ की आँखों में देखते हुए कहा था। 



मुझे बाज़ार में कुछ काम हैसोनी जी ने कहामैं आता हूँतुममाँ बेटे आराम से बैठकर बातें करो।’ 

हाँ जाओमरो (मैंने फुसफुसाया)’ 

पर माँ ने उन्हें रोक दिया

सोनी जीवापस आइयेआपको अभी बाज़ार जाने की ज़रूरत नहीं है। आप यहीं रहिए। बेटा तुम बाहर के कमरे में बैठोमैं हाथ मुँह धोकर आती हूँ।

मैंने सोनी जी को देखाफिर माँ को देखा... 



क्यामैं बाहर जाऊ?’ मैंने पूछा 



हाँतुम बाहर बैठोमैं आती हूँ। सोनी जी जरा हाथ दीजिएउठाइयेआराम से।

मैं बाहर आकर बैठ गया। यहाँ पर हमारे यहाँ मेहमान आकर बैठते थे। माँ और सोनी जी भीतर कमेरे में थे। मैंने देखा घर बहुत साफ़ दिख रहा था। नए पर्दे लगे हुए थेनई चद्दरें थीं। तभी मेरी निगाह भगवान की अलमारी पर गईवहाँ भगवान की अलमारी में भगवान थे और बाहर अगरबत्ती भी जल रही थी। बहुत सही माँक्या बात है। 

तभी माँ हाथ मुँह धोकर आई और मेरे सामने आकर बैठ गई। वो अभी भी कितनी सुंदर थीं। सोनी जी माँ के पीछे खड़े हुए थे।  



तू अचानक आ गयाबता देता तो कुछ बनावा देती तेरे लिए। सोनी जी बहुत अच्छा खाना बनाते हैं।



माँ मैं आपको लेने आया हूँ। अपना सामान बाँधो अब हम बंबई में रहेंगे। मैंने शाम की फ़्लाइट के टिकिट बुक करा दिए हैं। अब मैं आपकी एक भी नहीं सुनूँगा… आप मेरे साथ ही रहेंगी अब से बस बहुत हुआ।’ 

अरे बाबादेखोसोनी जीकितना प्यार करता है मुझसेमाँ को कुछ भी हुआ तो सब कुछ छोड़-छाड़कर आ जाएगा। गाँव में सब लोग कहेंगे कि वैसे बहुत व्यस्त रहता है बंबई में पर अगर माँ पर बात आई तो भइयावो तो सब कुछ छोड़ देता है। इतना प्यार करता है माँ से।’ 



सोनी जी झेंप गए। 



अरे ऐसे क्यों कह रही होदेखो सच में आ ही गया ना।’, सोनी जी ने कहा



हाँ वो ही तो कह रही हूँ… देखोसब छोड़कर आ गया।’ 



माँ आप कुछ भी कह लो हम शाम को साथ चल रहे हैं। मैं आपकी एक नहीं सुनूँगा’ 

ज़बरदस्ती ले जाएगा?’

हाँ।

मेरी रज़ामंदी नहीं लेगा?’

नहीं।



रख पाएगा मुझे तू अपने साथ?’



क्यों नहीं रखूँगाआप मेरी माँ हो।



वो माँ जो तुझे गाँव में रहकर शर्मिंदा कर रही है। कैसी माँ है येउसे क्यों रखना अपने साथ।



ये क्या कह रही हो आप?’



इसलिए आया है ना तू?’



हाँ मैं इसीलिए आया हूँ… क्योंकि मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि…’



क्या?....कि मैं खुश रहूँ।



नहीं



तो क्या बर्दाश्त नहीं कर सकता?’



मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि आप ये.. ये… ये

तभी माँ को अचानक खाँसी का दौरा पड़ा। मैं कुछ करता उससे पहले सोनी जी ने माँ को पानी पिलाया और वो उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। मैं उठने वाला था। मैं माँ के पास जाना चाहता थापर वहाँ मेरी जगह ही नहीं थी। कुछ देर में माँ की खाँसी शांत हुई। पूरे घर मे अचानक गहरी चुप छा गई थी। माँ ने कहा



कोंपल

हाँ माँ

मैं कुछ कहूँ बेटा

बोलो

बेटा मैंने पूरा जीवन बहुत सी दुकानें खोल रखी थीं।

दुकानें?’

हाँअच्छी बेटी कीअच्छी माँ कीअच्छी बीवी कीअच्छी औरत कीअच्छी टीचर की… जाने कितनी दुकानें खोल रखी थीं। मैं कब से लोगों को वही बेच रही थी जो लोग ख़रीदना चाहते थे। पर लोगों की अपेक्षाएँ ख़त्म नहीं होतीमैं इस उम्र में और कितनी दुकानें खोलूँइस सब में मैं क्या चाहती हूँ मेरे पास उसकी कोई जगह ही नहीं बची थीउसकी एक टपरी तक नहीं थी मेरे पास। सो मैंने बहुत पहले अपनी सारी दुकानों के शटर गिरा दिए हैं। मैं अब किसी को कुछ नहीं बेच रही हूँ। न लोगों को और न ही तुझे।’ 

तभी एक हवाई जहाज़ हमारे घर के ऊपर से गुजरा। मैंने कहामाँ… हवाईजहाज़…  मैंने और माँ ने तुरंत ऊपर देखाफिर एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे। मैंने देखा सोनी जी भागकर किचन से बताशे ले आए। उन्होंने एक बताशा माँ को दिया और एक मेरी तरफ बढाया,

मैं ऑफ शुगर हूँ। मैं नहीं खा सकता इसेमैं आजकल डायटिंग कर कर रहा हूँ।’ 



हाँ.. सही है। इसमें तो बहुत मीठा होता है।’, सोनी जी ने बताशे को देखते हुए कहा

फिर उन्होंने मेरा वाला बताशा अपने मुँह में रख लिया। माँ मुझे देखकर मुस्कुरा रही थीं।

तू कितना बदल गया है बेटा। पर ठीक है शहर में रहता है वहाँ के तो रंग ढंग ही अलग हैं। सोनी जी वो दाल बनाओ न आजतड़के वाली ये बहुत अच्छी बनाते हैंमैं थोड़ा आराम कर लूँहम खाने पर बात करेंगे। तेरे साथ मैं ज़्यादा खाना खा लूँगी।

माँ उठी और सोनी जी की मदद से वो अपने कमरे में चली गई। सोनी जी अच्छी दाल बनाते हैं,  माँ के कमरे में उनके कपड़े लटके हुए थेभगवान की अलमारी में भगवान थेमाँ और सोनी जी मेरे सामने बताशे खा रहे थे। मुझे लगा मेरे हाथों से सारा कुछ छूट चुका है।

सीनी जी वापस आए और उन्होंने कहा

वो ऐसे है नहींवो असल में बीमारी की वजह से थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई हैं।’ 



चिड़चिड़ी हो गई है या धार्मिक हो गई हैं… वो भागवान में मानने लगी हैं।’ 



नहीं वो तो भगवान की अलमारी ख़ाली रहती थी इसलिए मैंने एक दिन एक पत्थर लाकर उसमें रख दियाअरे कुछ तो रहे उसमें,  वो तो भइया अभी भी... एकदम नास्तिक हैं। पर अच्छी है बहुतहे ना।’ 

(मैं देर तक देखता रहा। मुझे विश्वास नहीं हुआ।) मुझे सोनी जी की आँखों में प्रेम दिखा। अबे मेरी माँ है वो साले… मैं ये नहीं देख सकता था। ये मेरे बर्दाश्त के बाहर था। मैं वहाँ एक पल भी नहीं रुक पाया था। मैं तुरंत वापस बंबई आ गया। 

जब मैं मुंबई वापस पहुँचा था तो माँ से मैंने कोई बातचीत नहीं की। उनका भी मुझे कोई मेसेज फ़ोन कुछ नहीं आया था। मैंने सोच सही है करो जिसे जो करना हैजिसे जैसा जीना हो मेरी बला से। फिर कई महीनों बाद एक दिन अचानक माँ का मेसेज आया। 

कैसा है कोंपलमेरी तबीयत पहले से कुछ बेहतर रहती हैसोनी जी बहुत ख्याल रखते हैंसुन न बेटातू झूठ बोल रहा था नतू लिख रहा है नबेटा वो मत छोड़नावो तेरी कल्पना हैयथार्थ तो झूठ होता है बेटा कल्पना ही सच है। और अगर कुछ लिख रहा हो तो मुझे भी बता देना कि क्या लिख रहा है आजकल।’ 

मेरे पास एक लोहे की बाल्टी हुआ करती थी। मैं बाथरूम से वो लोहे की बाल्टी लाया। उसे कमरे के बीचों बीच रखा। फिर अपना कहानी संग्रह लेकर आयात्रासदीउसके टुकड़े टुकड़े करके मैंने बाल्टी में डाले और आग लगा दी।

माँ के लिए।

इस बात को दो साल बीत चुके थे। दो साल से मैंने अपनी माँ की शक्ल भी नहीं देखी थीअब पता नहीं कैसी दिख…….। 

भैया Ac चालू कर दो बहुत गर्मी है।



Ac चालू ही है।

टेक्सी ड्रायवर ने कहाटेक्सी गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी। 



ओ.. ठीक है। मुझे आज पता नहीं क्या हो रहा हैबहुत पसीना आ रहा है।



आप क्या पहली बार इस गाँव में आए हैं?’, टेक्सीवाले ने पूछा



नहीं… यहाँ मेरा अपना घर है।’ 



अच्छा तो घर वालों से मिलने आए हैं?’ 



हाँ।



आपका कौन रहता है यहाँ?’



माँ। मेरी माँ रहती हैं।

माँ रहती थींमैं थीं बोल नहीं पाया था। थींकैसे बोल देंइतनी जल्दी। पहली बार मैंने अपनी आँखों में पानी जमा होते देखा। वो टैक्सी वाला कांच में मुझे देख रहा था। मैंने सिर नीचे कर लिया। फिर कुछ देर में मैंने एक काला चश्मा लगा लिया। जैसे ही टैक्सी घर पहुँची मुझे सुधीर सामने खड़ा दिखा। उसने मुझे गले लगा लिया। 

तू ठीक है कोपल?’ 

हाँ मैं ठीक हूँ।’ मैंने कहा।

जा जा माँ अंदर हैंमैं तेरा सामान लेकर आता हूँ।

उसने इतनी सहजता से कहा कि मुझे लगा मैं जैसे ही घर में घुसूँगा मुझे वहाँ मेरी माँ मुस्कुराती हुई खड़ी दिख जाएँगी। मैं घर में घुसा तो बाहर वाले कमरे के बीचों-बीच उनका शरीर रखा हुआ था। उनके सर के बग़ल में एक थाली थी जिसमें राख रखी हुई थी। अगरबत्ती और दूब की वजह से पूरे कमरे में धुआँ फैला हुआ था। सोनी जी उनकी बग़ल में बैठे थे। मैं माँ के पास गयापर सोनी जी से थोड़ा दूर बैठा। सोनी जी मुझे देखते ही मेरे पास आ गए। कुछ देर में उन्होंने अपना सिर मेरे कंधे पर रखा और रोने लगे…. बच्चों की तरहसुबक-सुबक के। मैंने अपने कंधे को झटका दिया तो वो मुझसे दूर हो गए। कुछ देर में वो उठकर कमरे से बाहर चले गए।

मैंने माँ के चेहरे को देखा,

माँ, माँ, मैं आ गया, देखो न, देर हो गई, बहुत देर हो गई,

उन्हें देखकर ऐसा लगा वो गहरी नींद सो रही हैंवो अभी अपनी आँखें खोलेंगी और कहेंगी अरे कोपल तू आ गयाअब जल्दी से बता दे क्या लिख रहा है आजकल?  वो अभी भी माँओं जैसी माँ नहीं लग रही थीं। वो इस वक़्त भी बेहद खूबसूरत लग रही थीं। मैंने उनके गालों हो हल्के से छुआ। वो बहुत ठंडे थे। मैंने उनके माथे को छुआ….. 

माँऐ माँ… मैंने आपकी क़सम झूठी नहीं खाई थी। सच मेंमैंने अपना कहानी संग्रह पूरा कर लिया था। उसका नाम त्रासदी रखा था। और उसके पहले पनने पर ही मैंने लिखा था.... आप के लिए।

तभी मुझे रोने की आवाज़ आई। मैंने देखासोनी जी दरवाज़े से टिककर रो रहे थे। सुधीर अर्थी का सामान ले आया। उसके साथ दो लोग और थे। शायद वो उसके दोस्त थे। चलो अच्छा हैअब माँ की शवयात्रा में  सिर्फ हम तीन ही लोग नहीं होंगे। अबइस पूरे गाँव से,  माँ की शवयात्रा में हम पाँच लोग थे। सिर्फ़ पाँच। मेरी नास्तिक माँ।  

जब हम शमशान पहुँचे तो उन्हें सूखी लकड़ियों के ऊपर लिटाया गयाउनके ऊपर और लकड़ियाँ रखी गई। मुझे लग रहा था कि उन लकड़ियों के बीच एक हरा घना पेड़ लेटा हुआ है। माँ की चिता के पास ही सोनी जी उकड़ूँ बैठे हुए थे। उनके कंधे उचक रहे थे। वो अभी भी रो रहे थेवैसे ही सुबक सुबककरकिसी बच्चे की तरह। वो कितने कोमल दिखाई दे रहे थे। कोमलकोपल। कोपल! 

सुधीर जलती हुई लकड़ी लेकर मेरे पास आया और कहा

चल चलमाँ को अग्नि देनी है।’ 

(तभी मैंने देखा एक हवाई जहाज़ हमारे ऊपर से गजरा। मैं उस हवाई जहाज़ को देखता रहा। फिर मैंने ख़ुद को देखा।)इस जलतीं हुई लकड़ी को पकड़े हुए मैं एक सैनिक लग रहा था जिसका काम था मरने तक अपनी माँ पर पेहरा देना। मैं वही हो गया था… कठोर। कितना कठोर था मैं। नमैं कोंपल नहीं था।

अत में माँ को अग्नि सोनी जी ने ही दी। बहुत मनाने के बाद। उन्हीं का हक़ बनता था। 

जब हम वापस आए तो सोनी जी ने मुझे एक मोटी सी फाइल दी।

ये क्या है सोनी जी?’, मैंने पूछा

अरे तू ये नहीं जानता हैअरे तू जो वो सब लिखा करता था न बहुत सारादेख तेरा माँ ने आज तक उसको कितना सँभालकर रखा है। इसका हर एक पन्ना मैं उसके मुँह से जाने कितनी बार सुन चुका हूँ। और जब वो सुनाती थी तो बाबा कैसे खिलखिलाया करती थी।

(मैं सोनी जी को मुस्कुराते हुए देखने लगा। फिर मैंने फाइल अपने हाथ में ली।) मैं उस फाइल के पन्ने पलटकर देख रहा था। बचपन से आज तक का मेरा सारा झूठ माँ ने सहेजकर रखा था। 

पेलाग्या निलोवनामेरी माँ पेलाग्या निलोवना थीमैं ही गोर्की नहीं हो पाया था। हमारी माएँ हैं पलाग्या निलोवना पर उनकी कहानियाँ कहीं लिखी ही नहीं गई। उन्हें कही दर्ज ही नहीं किया गया। और अगर उन्होंने ख़ुद करना चाहा तो उनके पेन तोड़ दिए गए। वह बस अपने पति के जर्जर होने और बच्चों से आती ख़बरों के बीच कहीं अदृश्य-सी बूढ़ी होती रहीं। ये हमारी माएँ थीं जो ज़ाया हो गई।

अगले दिन सुबह हम माँ की अस्थियाँ बटोरने पहुँचे। सोनी जी राख में माँ को टटोल रहे थेउसी वक्त मैंने अपनी जेब से एक पन्ना निकाला। मैंने रात में एक झूठ माँ के लिए लिखा था। वही झूठ जिसे माँ बहुत पसंद करती थीं। मैं माँ के पास गयाराख को छुआ तो वो अभी भी गर्म थी।

माँमैंने एक नया झूठ लिखा है आपके लिएसुनाऊँ….’

धूपचेहरा जला रही है



परछाईजूता खा रही है



शरीरपानी फेंक रहा है



एक दरख़्तपास आ रहा है



उसके आँचल में मैं पला हूँ 



उसकी वात्सल्य की साँस पीकर आज मैं भी हरा हूँ



आप विश्वास नहीं करेंगे



इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है…..

मैं उस पेड़ को……माँ कहता हूँ।

 

 End...

End...