पीले स्कूटर वाला आदमी
मानव कौल
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बिस्तर पर लाल अपने पिताजी की गोद में सिर रखाकर सो रहा है। पिताजी लाल सिर पर अपना सिर रखकर सो रहे हैं। बूढ़ा आदमी लाल की पीठ पर सिर रखकर सो रहा है... नील लाल के पेरों के पास लेटी हुई है.... पीतांबर नील के दूसरी तरफ लाल के ऊफर सिर रखकर सो रहा है। सभी लाल को चारों तरफ से ढ़के हुए हैं। लाईट आती है और हम ये दृश्य देखते हैं। बग़ल में पिताजी का बेग़ और झोला रखा है। धीरे-धीरे सब लोग उठना शुरु करते हैं... नील नेपथ्य में चली जाती है। पीतांबर दाए तरफ रखी हुई डेस्क पर बैठ जाता है। बूढ़ा आदमी बांए तरफ की बाल्कनी पर बैठ जाता है। दोनों के सामने छोटा टाईप्राईटर रखा है जिसमें पेपर फसा हुआ है... और बहुत सारे कोरे काग़ज़ बगल में रखे हैं और कुछ कागज़ भरे हुए। सब सब चले जाते हैं तो धीरे से पिताजी उठते हैं वो बग़ल में पड़े अपने सामान को उठाने को होते हैं कि टाईप्राईटर की आवाज़ से लाल की नींद खुल जाती है। इस वक़्त बूढ़ा आदमी और पीतांबर दोनों टाईप कर रहे हैं। लाल अपने बिस्तर पर बैठ जाता है.. टाईपिंग की आवाज़ सुनते हुए... तभी उसकी निग़ाह पिताजी पर पड़ती है वो सामान नीचे रखते हैं मानों अभी अभी भीतर आए हो..
लाल- आप!
पिता- मैंने कहा था मैं साढ़े सात बजे आऊँगा।
लाल- (पैर पड़ता है) मैं सो रहा था।
पिता- कैसी तबीयत है तुम्हारी?
लाल- ठीक है।
पिता- फिर जॉन्डिस हो गया?
लाल- फिर मतलब? बचपन में होता था, अब हुआ है और अब तो लगभग ठीक भी हो गया है।
पिता- मैंने तुम्हें मना किया था।
लाल- अरे मैंने स्कूटर नहीं बेचा, बस सौदा तय कर रहा था। पर वो, घटिया स्कूटर कोई ख़रीदना ही नहीं चाहता।
पिता- स्कूटर बेचने के बारे में तुमने सोचा ही क्यों?
लाल- क्यों? सोचने से पीलिया हो जाता है क्या?
पिता- तुम्हें हो सकता है।
लाल- पता है। (दोनों दर्शकों से) जब मैं छोटा था, मुझे पीलिया हो गया था।
पिता- दो बार!
लाल- हाँ हाँ दो बार। खूब झाड़-फूँक कराई गई।
पिता- मेरे पिताजी इसको लेकर गाँव-गाँव भटके थे।
लाल- गाँव-गाँव, सिर्फ़ दो गाँव। और भटके नहीं थे, गए थे। तब एक बाबा ने ताबीज पहनाया और कहा कि इक्कीस दिन में इसका पीलिया उतर जाएगा और...
पिता- और इसकी कोई भी चीज़ जो इस सबसे ज़्यादा पसंद हो, उसे पीले रंग की होना चाहिए। अगर नहीं है तो उसे पीला करा दो, तो हम इसे गोद में लेकर पूरे घर में भटके और पूछा कि बताओ तुम्हारी सबसे पसंदीदा चीज़ कौन-सी है।
लाल- मेरी मति भ्रष्ट हो गई थी, मैंने अपनी उँगली सीधे स्कूटर पर रख दी।
पिता- और मेरे स्कूटर को पीला कराया गया।
लाल- और पीलिया के डर के चक्कर में आज तक उसे साथ लेकर घूम रहा हूँ। मुझे पीलिया का डर नहीं है, इनका वहम है। हर लेटर में पूछते हैं, वो स्कूटर ठीक है ना, सर्विसिंग कराई, तीन महीने हो गए।
पिता- तुम्हारा हेलमेट किस रंग का है?
(तभी पिताजी को ज़मीन में पड़ा अंतर्देशीय पत्र पड़ा मिलता है, जिसे अभी तक खोला नहीं गया है। वो उसे लेकर सीधा लाल के पास जाते हैं।)
पिता- (लाल से) मेरा लेटर मिला तुम्हें?
लाल- हाँ कुछ दिन पहले मिला था!
पिता- पढ़ा?
लाल- स्कूटर सर्विसिंग पर दे दिया है ।
पिता- स्कूटर की सविसिंग के लिए लेटर नहीं लिखा था। मैं कल आ रहा हूँ तुमसे मिलने।
लाल- पता है। आपने लेटर में ऊपर ही लिखा है। 7:30AM आ रहा हूँ।
पिता- इसलिए क्योंकि मुझे पता है कि तुम मेरा लेटर कभी खोलकर पढ़ते नहीं। पैसों की ज़रूरत है?
लाल- नहीं।
पिता- काम कैसा चल रहा है?
लाल- काम नहीं कर रहा हूँ। दो महीने से छुट्टी ले रखी है।
पिता- क्यों?
लाल- क्योंकि आज-कल ये फाँस बहुत दर्द करती है।
पिता- किससे बदला ले रहे हो, मुझसे कि अपने आपसे?
लाल- मैं कहानी लिख रहा हूँ।
पिता- जिस कहानी का तुम्हें अंत नहीं पता, उसे क्यों लिखना चाहते हो?
लाल- मेरे पास बहुत सारे सवाल हैं।
पिता- क्या पूछना चाहते हो?
लाल- आपने इंदिरा गाँधी के मरने की ख़बर दादाजी को क्यों नहीं दी?
पिता- तुम इसका जवाब जानते हो।
लाल- हाँ। मैं जानता हूँ, पर मुझे ये नहीं पता कि वो सही है या ग़लत।
पिता- तुम क्यों इस कहानी के पीछे पड़े हो? तुम कुछ दूसरा नहीं लिख सकते?
(इसी वक़्त बूढ़ा आदमी अपनी बाल्कनी से उतरकर लाल के सामने आकर खड़ा हो जाता है।)
लाल- मैं लिख रहा हूँ, एक बूढ़े की कहानी लिख रहा हूँ। वो बूढ़ा मेरे घर के सामने की बिल्डिंग की सातवीं मंज़िल की बालकनी पर दिन भर बैठा रहता है। मैं उसकी कहानी भी लिख रहा हूँ पर...
पिता- पर क्या?
लाल- मेरी कहानी का हर पात्र पीला स्कूटर क्यों चलाता है?
(ये सुनते ही बूढ़ा आदमी वापिस अपनी बाल्कनी पर चला जाता है।)
पिता- तुम पीले स्कूटर को भूल क्यों नहीं जाते हो?
लाल- मैं तो उसे अपनी ज़िंदगी से निकाल देना चाहता हूँ।
पिता- ऐसा मत करना।
लाल- क्यों, आपको डर है पीलिया से मेरी मौत हो जाएगी?
पिता- हाँ।
लाल- ऐसे कोई नहीं मरता।
पिता- तुम्हारे दादाजी ने सख़्त मना किया था।
लाल- ठीक है, मैं इसे ज़िंदगी भर अपने पास रखूँगा, पर एक शर्त है। मुझे कहानी का अंत बता दीजिए।
पिता- तुम डरे हुए हो, तुम अंत जानना ही नहीं चाहते।
लाल- मैं जानना चाहता हूँ।
पिता- देखो कई चीज़ें ज़िंदगी में गणित के सवाल की तरह होती हैं, जिन्हें अगर आपको हल करना हो तो आपको ‘माना कि’ से शुरुआत करनी पड़ती है। तुम्हारी दिक़्क़त ये है कि तुम्हें इसका अंत मानना पड़ेगा। माना कि अंत ये है, इसलिए कहानी ये है।
लाल- ठीक है कम से कम इतना तो बता दीजिए कि आपने इंदिरा गाँधी के मरने की ख़बर दादाजी को क्यों नहीं दी? कहाँ जा रहे हैं आप?
(पिताजी को इस सवाल से पता चलता है कि लाल चाहता है कि वो चला जाए।)
पिता- बाथरूम। (लाल मुस्कुराता है और वापिस सो जाता है) मेरे पास एक कुदाली है जिससे मैं सफ़ेद भविष्य के पहाड़ को काटता जा रहा हूँ और उसकी मिट्टी पीछे ढकेल रहा हूँ। पीछे अतीत का बड़ा-सा पहाड़ इकठ्ठा होता जा रहा है। हर बार अपना कुदाल चलाने पर भी ढेर सारा सफ़ेद भविष्य सामने है और पीछे हर कुदाल के वार का ढेर सारा अतीत। अतीत के पहाड़ पर घास उग आई है वो हरा-भरा हो गया है। सारी घटनाएँ जो जीते वक़्त कड़वी लगती थीं वो अतीत के पहाड़ पर जाकर घना पेड़ बन गई हैं, जो अब छाया देता है। कई कहानियाँ अतीत में बिना अंत लिये आती हैं। अंत भी उस कहानी के साथ ही घटता है। लेकिन आप ऐन उस वक़्त पर वहाँ मौजूद नहीं होते या आप बहुत छोटे होते हैं, या वो अंत कहीं बहुत डरावना न हो, इस शंका में आप उसे जानना ही नहीं चाहते। ऐसी कहानियाँ बड़ा-सा पत्थर बनकर अतीत के पहाड़ पर जम जाती हैं, जिसे आप पूरी ज़िंदगी ढोते रहते हैं।
(पिता चले जाते हैं। उनके जाते ही पीतांबर अपना ही लिखा पढ़कर हंसने लगता है। उसकी हंसी से लाल उठ कर बैठ जाता है। वो शुरुआती कुछ लाईन पढ़ता है... फिर सीधा दर्शकों से मुख़ातिफ होता है।)
पीतांबर- रात होने के ठीक पहले मेरी आँख खुल गई, तो देखा पिछली रात से पूरे दिन तक मैं सोता रहा। इस बीच मेरी आँख खुली थी सुबह 7:30 बजे। फिर सो गया, अब सर भारी हो रहा था, सब कुछ बड़ा अजीब-सा लग रहा था। ख़ुद को कोसने लगा, क्या कर रहा हूँ? क्या हो रहा है मेरे साथ? वैसे भी पिछले दो महीने से मैं कुछ कर नहीं रहा था। पर, एक पूरा दिन वो भी पिछली रात के साथ सोते हुए बिता देना। मैं सोच रहा था वो सभी एक दिन में कितना आगे बढ़ गए होंगे जो परसों तक मेरे साथ थे। उठकर पानी पिया, कुछ समझ में नहीं आया तो चाय चढ़ा दी। (पीतांबर लाल को चाय लाकर देता है।) अब पूरी रात कैसे बिताओगे (लाल से)? नींद का आना वैसे भी रात के साथ आपके संबंध पर निर्भर करता है। खैर मैंने चाय छानी और बाल्कनी में आकर खड़ा हो गया, (लाल और पीतांबर दो कोने में जाकर खड़े हो जाते हैं मानों दोनों बाल्कनी पर खड़े हों।) पूरा शहर मेरी बाल्कनी से नहीं दिखता था। बस सामने की दो ऊँची बिल्डिंग और उनके बीच से मुझे शहर की चौड़ी सड़क हाइवे दिखती थी। मुझे इस बाल्कनी से इतनी-सी दुनिया देखने की आदत पड़ गई थी, सो जब भी देखता था घंटों वहीं खड़ा रह जाता था। वो इतनी-सी दुनिया मुझे पूरी तरह सम्मोहित कर लेती थी, हर बार। असल में ये बिल्डिंग, ये चौड़ी सड़क, सामने के घर, ये सब मेरे घर के अंदर का ही हिस्सा थे। बाहर बोलकर मैं इन्हें बाहर करने की कोशिश ज़रूर करता था, पर मैं खड़ा रहा। काफ़ी देर, चाय आधी पी चुका था, आधी ठंडी हो चुकी थी, फिर भी पिए जा रहा था। पिताजी के लगभग सारे ख़तों का जवाब मैं लिख चुका था, सिवाय उनके अंतिम लेटर के। (नील मुँह से डोर बेल बजती है। टिंग टॉग।) तभी बेल सुनाई दी, डोरबेल। मैं मुड़ा नहीं, (टिंग टॉग) वो फिर सुनाई दी। (लाल हंसता है।) मुझे हँसी आने लगी, वो फिर आ गए। ये वही हैं, असल में मेरे घर में डोरबेल थी ही नहीं।
नील- दरवाज़ा खोलो। (बाहर से नील चिल्लाती है.. लाल उस तरफ जाता है हंसते हुए।)
पीतांबर- नहीं। (लाल मुड़कर पीतांबर के पास जाता है... उसको मनाने जैसा)
लाल- सुनो.. देखो... (पीतांबर से...)
नील- क्या हुआ? आज भी कुछ ठान लिया है? दरवाज़ा खोलो।
लाल- आज! मैं सोच रहा था कि उसे...
नील- मत सोचो, तुम्हारे पास कोई बहाना नहीं है। दरवाज़ा खोलो।
पीतांबर- ये कहानी..? (अपनी लिखी कहानी उसे दिखाता है।)
लाल- अरे.. लिख लेंगें... सुनो ज़िद मत करो।
(पीतांबर लाल के सामने से हट जाता है।)
नील- मैं ज़िद नहीं कर रही हूँ और अगर तुम देर करोगे तो मैं चली जाऊँगी, पर कोई और आएगा जिसे तुम्हें सहना पड़ेगा। बोलो जाऊँ या तुम्हें बचाऊँ?
(लाल दरवाज़ा खोलता है, वो अंदर आ जाती है, बिस्तर को देखती है..)
नील- न्यु बेडशीट.. वाह!
(लाल उसके आते ही थोड़ा झेंप जाता है.. वो पीतांबर को देखता है जो टाईप्राईटर पर नाराज़ बैठा है। दर्शको से... सफाई देते हुए।)
लाल- पता नहीं क्या हुआ, पर मैंने दरवाज़ा खोल दिया। अगर आपको पता हो कि दूसरी तरफ़ कौन है तो दरवाज़ा खोलना आसान हो जाता है। तो आसान काम मैंने कर दिया। वो अंदर आ चुकी है।
नील- कपड़े उतारूँ? (वो साड़ी उतारने लगती है।)
लाल- नहीं।
नील- अधिकतर तो तुम कपड़े उतरवाते ही हो इसलिए पूछ लिया।
लाल- नहीं, आज नहीं।
नील- क्यों, आज क्यों नहीं? सोमवार को तुम्हारा उपवास होता है क्या?
(नील हंसती हुई पलंग पर लेट जाती है।)
लाल- (दर्शकों से) लोग झूठ बोलते हैं कि समय अपनी रफ़्तार से चलता है ना। असल में समय बहुत बुरी तरह थमता है और बहुत तेज़ चलता है। समय के अपने खाली घेरे होते हैं, इन घेरों का अपना अलग समय और अपनी अलग रफ़्तार होती है।
नील- तुम अपने समय से नाराज़ हो।
लाल- तुम कितनी देर यहाँ रुकोगी?
नील- तुम बताओ।
लाल- क्यों, तुम कुछ तय करके नहीं आई हो?
नील- आई थी।
लाल- फिर?
नील- तुम्हारे ऊपर है।
लाल- क्या?
नील- तुम्हें पता है।
लाल- देखो तुम मुझे डराती हो।
नील- बचाती भी तो हूँ।
लाल- मैं बचना नहीं चाहता।
नील- वो तो मैं पहले ही कह रही थी कि बचो मत।
लाल- तुम जाना चाहती हो?
नील- मैं तो आना भी नहीं चाहती थी।
लाल- देखो आज मैंने तुम्हें नहीं बुलाया है।
नील- क्या? ज़रा फिर से कहना?
लाल- मुझे कुछ देर के लिए अकला छोड़ोगी?
नील- ठीक है.. छोड़ दूंगी अकेला.. पहले इसका जवाब दो, एक नदी में छोटी-सी नाव पे एक भैंस खड़ी है, वो नाव डूबनेवाली है। मतलब अगर उस नाव में एक कंकड़ भी डालो तो वो डूब जाएगी। तभी भैंस गोबर कर देती है, बताओ नाव डूबेगी कि नहीं?
लाल- मेरे ख़याल से नाव... तुम कुछ देर चुप रहोगी।
नील- फँस गए ना! (तभी लाल को पीछे पिता खड़े देखते हैं.. लाल नील को अपने ऊपर से हटाता है।)
लाल- मैं फँस चुका हूँ। मुझे लिखना है।
नील- तुम्हें किसी की ज़रूरत है।
लाल- तुम्हारी नहीं, इतना जानता हूँ।
नील- जब ज़रूरत हो तो बुलाना मत, मैं ख़ुद आऊँगी। इससे तुम्हें इतनी तो संतुष्टि मिलेगी कि तुमने नहीं बुलाया था। (नील चली जाती है.. लाल पिता को नहीं देखना चाहता है वो पलटकर दर्शकों को देखता है.. और मुस्कुराकर कहता है।)
लाल- देर तक सोते रहने से ‘क्यों’ जैसे कई सवाल उठे हैं, इन सारे सवालों का मेरे पास एक ही जवाब है। सो जाता हूँ।
(लाल झटके से लेटता है और अपनी आँखे बंद कर लेता है... उसकी आँखे बंद करते ही... बाप, नील, और बूढ़ा आदमी तीनो उसके पलंग के पास तक आते और उसको झूने की कोशिश करते हैं तब तक लाल अपनी आँखे खोल लेता है। उसकी आँखे खोलते ही तीनों वैसे ही पीछे चले जाते हैं।)
पीतांबर- तुम सो नहीं सकते।
लाल- क्यों?
पीतांबर- तुम्हें कहानी लिखनी है।
लाल- तुम कौन हो?
पीतांबर- देखो तुम ये नहीं जानना चाहते जो तुम पूछ रहे हो।
लाल- हाँ, तो मैं क्या चाहता हूँ?
पीतांबर- तुम्हारे पास बहुत सारे सवाल हैं?
लाल- हाँ, मरे पास बहुत सारे सवाल हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि...
नील- अंदर आऊँ?
पिता- मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ कब आँऊ?
लाल- मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम रोज़ कहाँ जाते हो?
पीतांबर- तुम रोज़ मुझे क्यों देखते हो?
लाल- तब मेरा चाय पीने का वक़्त होता है और मैं तुम्हें रोज़ अपनी बाल्कनी से जाता हुआ देखता हूँ।
पीतांबर- मैं भी तुम्हें कई दिनों से मुझे देखते हुए देख रहा हूँ।
लाल- तुम हाईवे पर रुककर मुझे क्यों देखते हो?
पीतांबर- तुम बाल्कनी में खड़े होकर मुझे क्यों देखते हो? (तभी पिता सीधे आकर लाल के सामने खड़े हो जाते हैं) तुम्हें अपने बाप से प्रॉब्लम है ना? (ये सुनते ही पिता पीतांबर की तरफ जाते हैं)
लाल- क्यों? (पिता वापिस लाल की तरफ बढ़ते हैं..)
पीतांबर- क्योंकि वो तुम्हारी माँ के साथ सोता था।
(ये वाक्य सुनते ही... लाल को छोड़कर बाक़ी सारे लोग जहाँ खड़े थे वहीं गिर जाते हैं। लाल अपना सिर झुका लेता है.. और फिर दर्शकों की तरफ देखता है।)
लाल- सभी अपने-अपने तरीक़े से रात के साथ सोते हैं, हर आदमी का रात के अँधरे के साथ अपना संबंध होता है। (वो बिस्तर पर बैठता है उसे यूं देखता है मानों उसपर कोई लेटा हो... सभी धीरे-धीरे उठते हैं... बिस्तर के अगल-बगल धूमने लगते हैं।) यह संबंध अगर अच्छा है, तो आपको नींद आ जाती है और अगर ये संबंध ख़राब है तो आपके जीवन के छोटे-छोटे अँधेरे, रात के अँधेरे में घुस आते हैं और आपको सोने नहीं देते। मेरे पास बहुत सारे सवाल हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?
पिता- मैं?
नील- मैं?
पीतांबर- मैं भीड़ में खो जाने से डरता हूँ। मैं हमेशा भीड़ का हिस्सा बनने से डरता हूँ। इसलिए मैंने बहुत सारे चुटकुले, जोक्स याद कर लिए है। हमेशा लगातार सबके सामने सुनाता रहता हूँ। लाल, पीली, नीली, हरी शर्ट पहनता हूँ, रोज़ शेव करता हूँ, जब भी घबराता हूँ, बाथरुम चला जाता हूँ। दो अलग-अलग किस्म के अख़बार रोज़ घर से याद करके निकलता हूँ। ज़्यादा चीज़ें पता नहीं होतीं, पर किसी भी विषय पर लगभग एक घंटे बोल सकता हूँ। और हाँ, मैं पीला स्कूटर चलाता हूँ।
लाल- चुप क्यों हो गए, बोलो?
पीतांबर- क्यों, दूसरों की कहानी में अपना सुख ढूँढ़ रहे हो?
लाल- नहीं, मैं सुनना चाहता हूँ।
पीतांबर- किसके बारे में?
लाल- तुम जानते हो।
पीतांबर- कहानी शुरू करें? (पीतांबर अपनी डेस्क पर टाईप करना शुरु करता है।)
लाल- हाँ, (डोरबेल बजती है..) अरे मुझे पिताजी को लेने स्टेशन जाना था, मैं भूल ही गया।
(लाल पलटता है और पीछे पिता खड़े हैं। वो चमले कपड़े पहने हुए हैं। लाल तुरंत पेर पड़ता है।)
पिताजी- ख़ुश रहो, अगर रह सको तो!
लाल- मैं आने ही वाला था आपको स्टेशन पर लेने।
पिताजी- उसकी कोई ज़रूरत नहीं है। कैसा लग रहा हूँ मैं?
लाल- अच्छे।
पिताजी- तुम्हारा मुँह क्यों लटका हुआ है? (ख़ुद से) बहुत गैस बन रही है।
लाल- कहाँ जा रहे हैं?
पिताजी- बाथरूम, क्यों तुम्हें प्रॉब्लम है? (अंदर से) ये क्या हाल बना रखा है बाथरूम का? (चुप्पी)
पीतांबर- (पीतांबर ने जो लिखा है वो उठाकर पढ़ना शुरु करता है।) तुम्हें अपने बाप से प्रॉब्लम है। क्योंकि वो तुम्हारी माँ को छोड़कर चले गए थे। फिर भी बार-बार उनसे मिलने आते थे क्यों? शायद उनके साथ सोने। तुम्हें पैसे देकर चॉकलेट लेने भेजते थे। माँ उनके लगातार आने के डर से चल बसी। (पीतांबर पलटता है देखता कि पिता आकर पलंग पर बैठ गए हैं और लाल को देख रहे हैं।) ये तुमसे मिलने की ज़िद क्यों करते हैं? ये तुमसे क्यों मिलना चाहते हैं?
(लाल और पीतांबर दोनों पिता को घेर लेते हैं.. पिता लाल को देखकर जेब से चॉकलेट्स निकालते हैं।)
पिताजी- चॉकलेट खाओगे? (पीतांबर थककर बूढ़े आदमी की जगह बैठता और लिखना शुरु करता है।)
लाल- आप यहाँ कितने दिन रुकेंगे?
पिताजी- तुम कहो तो मैं अभी जा सकता हूँ।
(हर बात पर बाप एक चॉकलेट लाल के सामने रखता है और लाल वो चॉकलेट अपने सामने से हटा देता है।)
लाल- चाय पीयेगें?
पिताजी- तुमने लिखना क्यों छोड़ दिया? क्या कर रहे हो आजकल?
लाल- कुछ नहीं।
पिताजी- सुना है तुमने कोई जॉब ज्वॉइन कर लिया है?
लाल- कर लिया था। पिछले दो महीने से छुट्टी ले रखी है।
पिताजी- क्यों, मेरे मरने का शोक मना रहे हो? लिखना क्यों छोड़ दिया?
लाल- मैं लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।
पिताजी- किसकी कहानी लिख रहे हो?
लाल- एक बूढ़े की। वो बूढ़ा...
(बूढ़ा आदमी भागता हुआ प्रवेश करता है.. पर पिता को देखकर रुक जाता है। लाल बूढ़े आदमी के पास जाता है। पिता अभी लाल से यूं बात कर रहे हैं मानों वो उनके सामने अभी भी खड़ा है।)
पिताजी- क्या हुआ? मेरा आख़िरी लेटर अब तक क्यों नहीं खोला? मुझसे बात नहीं करना चाहते। जब बात करने की इच्छा हो तो बुला लेना। मैं इंतज़ार करूँगा।
(पिता पीछे चले जाते है। पिता के जाते ही बूढ़ा आदमी पलटकर जाने को होता है लाल रोक लेता है।)
लाल- आओ, अंदर आ जाओ।
बूढ़ा आदमी- मुझसे कोई ग़लती हो गई क्या?
लाल- नहीं कोई ग़लती नहीं।
बूढ़ा आदमी- आज तुमने मेरी तरफ़ एक बार भी नहीं देखा।
लाल- मैं अभी तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था।
बूढ़ा आदमी- मुझे तुमसे कुछ बात करनी थी। मैं बाल्कनी से तुम्हें इशारा भी कर रहा था। सातवीं मंज़िल से चलकर आ रहा हूँ। मेरी लिफ्ट भी काम नहीं कर रही है।
लाल- क्या बात है, बोलो?
बूढ़ा आदमी- मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है। मुझे लगता है, तुम्हें भी वही लगता है जो मुझे लगता है। पता है मुझे क्या लगता है? (बूढ़ा आदमी लाल की मदद से पलंग पर चढ़ जाता है और आसमान की तरफ देखता है।) मुझे लगता है कि, कल का दिन सांत्वना है आज के दिन के बीतने की। आज तो बीत गया, जैसे-तैसे बीत ही जाएगा ना! फिर लगने लगता है कि कल एक जादू की पुड़िया में बंद है, पुड़िया खुलेगी, सूरज उगेगा और सब कुछ वही होगा जो सालों से मैं बाल्कनी में बैठे-बैठे सोच रहा हूँ। पता है आजकल मैं एक बूढ़ी चील को देखता हूँ, वो बहुत बूढ़ी हो चुकी है। वह बस एक पेड़ के ठूठ पर बैठी रहती है, बहुत से जवान कौवे उसे चोंच मारकर भागते हैं। उस चील की एक समस्या है या शायद जवान कौवों का डर, पर उसने अब ऊपर आसमान में उड़ना छोड़ दिया है। उसके पर झड़ते हैं। मैं उसके झड़े हुए परों को आजकल इकट्ठा कर रहा हूँ, रोज। पर वो ऊपर उड़ेगी ना? मैं उसे एक बार आसमान में ऐसे गोल-गोल ऊपर उड़ते हुए देखना चाहता हूँ।
(लाल ना में सिर हिलाता है। बूढ़ा आदमी नाराज़ हो जाता है और ग़ुस्से में निकल जाता है।)
लाल- ये एक दिन सातवीं मंज़िल से कूदकर अपनी जान देगा।
पीतांबर- तुम इसे बचा सकते हो?
लाल- नहीं। क्योंकि चील अब इतना ऊपर नहीं उड़ सकती।
पीतांबर- चाहो तो बचा सकते हो। बस कहानी का अंत बदल दो। जाने दो, तुम बहुत थक गए हो।
लाल- मैं थका नहीं हूँ। मैं बस सोना चाहता हूँ।
पीतांबर- नहीं, तुम मुझसे कुछ पूछना चाहते हो।
लाल- हाँ, मेरे पास बहुत सारे सवाल हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि इंदिरा गाँधी के मरने की ख़बर दादा जी को क्यों नहीं दी गई?
पीतांबर- ये बहुत बड़ा सवाल है। कुछ दूसरा पूछो?
लाल- तुमने लिखना क्यों छोड़ दिया?
पीतांबर- अब मैं नहीं लिख सकता, क्योंकि मुझे हर कहानी में हर पात्र में अपना बाप दिखाई देता है। मेरी हर कहानी मेरी माँ की कहानी होती है। मेरी कहानी का हर आदमी मेरी माँ को डरा रहा होता है और कहानी का अंत होने से पहले मेरा बाप हँसता है और मुझसे एक ही वाक्य बोलता है। (पिता दोनों को देखते हुए प्रवेश कर चुका है और वो लाल से कहता है।)
लाल- ये लो बेटा, दस रुपए, जाओ चॉकलेट ले आओ, फिर हम स्कूटर पर घूमने जाएँगे।
पीतांबर- और कहानी वहीं रुक जाती है।
लाल- नहीं, (पिता से) पर अब मुझे दूसरे लोग दिखने लगे हैं। (पिता मायूस होकर पीछे चले जाते हैं) मैं उस बूढ़े आदमी की कहानी लिख सकता हूँ। लाल पीतांबर की डेस्क पर जाकर बैठता है और पीतांबर बूढ़े आदमी की.. दोनों लिखना चालू करते हैं। पीतांबर उत्साहित है क्यों कि कहानी आगे बढ़ रही हैं।) मैंने हमेशा इसे बाल्कनी में धूप सेंकते हुए देखा है।
पीतांबर- धूप हो या ना हो, ये हमेशा धूप सेंकता रहता है।
लाल- इसने अपने जीवन में सिर्फ़ चार ठोस चीज़ें की हैं।
पीतांबर- पहली, अपनी बेटी की शादी। (नील टिंग-टॉग कहकर प्रवेश करती है और पलंग पर आकर लेट जाती है।)
लाल- जो घर वापस आ गई, पति ने छोड़ दिया।
पीतांबर- टीवी और फ्रिज़ ख़रीदा।
नील- आह! टी वी।
लाल- फ्रिज़ में आजकल बर्फ़ नहीं जमती है।
नील- बर्फ़!
लाल- टीवी बहुत पुराना है इसलिए सिर्फ़ आठ चैनल ही देखे जा सकते हैं।
नील- एक दो नहीं... पूरे आठ!
पीतांबर- तीसरी, इसने...
नील- इसने!
लाल- इसने, इसने, इसने...
नील- इसने इसने
लाल- मेरा सिर भारी हो रहा है।
पीतांबर- तीसरी और चौथी ठोस चीज़ क्या है?
नील- ठोस चीज़! आह!
लाल- मुझे पता है पर...
पीतांबर- तुम बिल्कुल ठीक जा रहे हो, बूढ़े के बारे में सोचो।
नील- सोचो! ठोस चीज़!
लाल- मैं बचना चाहता हूँ।
(नील हंस देती है।)
नील- देखो तुमने ख़ुद कहा बचना चाहता हूँ, बोलो बचाऊँ?
लाल- (लाल भागकर पीतांबर के पास जाता है।) उस बूढ़े के पास पीला स्कूटर है, मेरे पास तीसरी ठोस चीज़ ये है।
पीतांबर- तुम फिर अपने बाप को बीच में घसीट लाए।
नील- बोलो बचाऊँ? (लाल नील के पास जाता है)
पीतांबर- तुम्हें कहानी लिखनी है। इसे छोड़ो बूढ़े के बारे में सोचो। (लाल वापिस पीतांबर के पास आता है।)
नील- मेरी तरफ़ देखो, कपड़े उतारूँ? (लाल नील के पास आता है।)
पीतांबर- चौथी ठोस चीज़ क्या है?(लाल पलटकर पीतांबर के पास जाता है।)
नील- मेरी ज़रूरत है या मैं जाऊँ? (लाल चिल्ला देता है।)
लाल- बस.. बस.. बस..! रुको, ये ग़लत है। (लाल आगे जाने को होता है तभी नील उसके गले लग जाती है। फिर खुद गिर पड़ती है... वापिस उठती है फिर गले लगती है.. फिर गिर जाती है। वो लगातार ये कर रही होती है जब लाल बोलता है।) जब तक मैं अपनी कहानी नहीं लिखूँगा, मैं किसी और की कहानी नहीं लिख सकता- मुझे अपनी कहानी लिखनी है।
नील- तो बूढ़े का क्या होगा? मेरा क्या होगा? (इस बार गिरने पर वो उठती नहीं है। लाल उसके पास जाता है।)
लाल- सुनो, मुझसे बात करो।
नील- नहीं मैं बात नहीं कर सकती। तुम्हें तो मेरी ज़रूरत नहीं है।
लाल- मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। मुझसे बात करो। (लाल उसकी गोदी में सिर रखकर लेट जाता है।)
नील- एक दिन सफ़ेद घोड़े पे सवाल होकर एक राजकुमार आया तबड़क, तबड़क, तबड़क... उसे मुझसे प्यार हो गया तबड़क, तबड़क, तबड़क... फिर हमारी शादी हो गई तबड़क, तबड़क, तबड़क... ढेर सारे बच्चे हो गए तबड़क, तबड़क, तबड़क।
पीतांबर- (अपनी डेस्क से)और फिर वो तुम्हें छोड़कर चला गया तबड़क, तबड़क, तबड़क! हमें तुम्हारी कहानी नहीं सुननी है।
नील- अच्छा ठीक है, उसी के बारे में बात करूँगी तो तुम सुनना चाहते हो। (नील उठकर बूढ़े आदमी की जगह जाकर बैठ जाती है।)
पीतांबर- मैं पूरी ज़िंदगी चेहरों के पीछे भागा हूँ।
नील- मैं... पूरी ज़िंदगी... चेहरों के पीछे.. भागी हूँ। (लिखने का मखौल उड़ाती हुई)
पीतांबर- असल में मैंने चौकोर साँस लेना शुरू कर दिया था।
नील- इन चौकोर साँसों के अपने अँधरे कोने हैं जिनमें बहुत से चेहरे छिपे बैठे हैं- ये एक तरह का चौकोर कुआँ जैसा है जिसमें अगर मैं आवाज़ लगाती हूँ तो मुझे अपनी नहीं किसी दूसरे की आवाज़ गूँजती हुई सुनाई देती है। मैं उस आवाज़ के पीछे भागती हूँ। वो आवाज़ चेहरा बन जाता है और मैं उससे कहती हूँ- कपड़े उतारूँ?
पीतांबर- तुमने फिर अपनी कहानी शुरू कर दी?
नील- क्यों जब तुमको हर कहानी में अपना बाप दिखाई देता है तो मैं तुम्हारी कहानी में अपनी एक लाइन नहीं जोड़ सकती हूँ।
पीतांबर- कम-से-कम कपड़े उतारूँ जैसा घटिया शब्द तो मत जोड़ो।
नील- क्यों? जब तुम कहते हो, कपड़े उतारो तो तुम्हें तो बड़ा मज़ा आता है। ये सब छोड़ो, इसका जवाब दो। एक नदी में छोटी-सी नाव में एक भैंस खड़ी है। वो नाव डूबने वाली है, मतलब अगर उस नाव में एक कंकड़ भी डाल दोगे न तो वो डूब जाएगी। तभी भैंस गोबर कर देती है। बताओ नाव डूबेगी कि नहीं।
पीतांबर- नाव डूबेगी। उत्तर है नाव डूबेगी।
नील- ग़लत। उत्तर है नाव नहीं डूबेगी, क्योंकि गोबर तो भैंस के पेट में ही था, अब नाव में है। इसलिए नाव नहीं डूबेगी।
पीतांबर- (नील चली जाती है.. पितांबर उसके पीछे भागते हुए उससे कहता है।) नाव डूबेगी। नाव डूबेगी।
(लाल तब तक पलंग पर बैठा हुआ अपनी उंगली में लगी फांस को देख रहा है.. पीछे से पिता और बूढ़ा आदमी आकर खड़े हो चुके हैं और उसे देख रहे हैं।)
लाल- बहुत पहले मेरी उँगली में एक फाँस गड़ गई थी। वो काफ़ी भीतर तक घुस गई थी, बहुत दर्द हो रहा था और ख़ून निकलने लगा था। जब मैंने उस फाँस को बाहर खींचा तो वो टूट गई, आधी फाँस भीतर ही रह गई। उस वक़्त मैं दर्द सहन नहीं कर पा रहा था। मैं डर के मारे डॉक्टर के पास भी नहीं गया। क़रीब एक हफ़्ते तक वो दर्द रहा, फिर कम होने लगा। अब उस दर्द का कम होना मैं बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। मुझे अजीब लगने लगा! अब मुझे इसके साथ रहने की आदत पड़ गई थी। क़रीब दो हफ़्ते बाद जब वो दर्द लगभग ख़त्म होने लगा तो उस भीतर घुसी हुई फाँस को मैंने और भीतर कर दिया। फिर ख़ून निकला, फिर दर्द होने लगा। अभी तक ये फाँस मेरी उँगली में जमी हुई है। पापा आप इसे देख सकते है।
(बूढ़ा आदमी और पिता दोनों झुक्कर उसकी फांस देखते हैं... बूढ़ा आदमी अचानक पीछे कदम रखता मानों उसे कुछ पता लगा हो।)
बूढ़ा आदमी- नहीं मैं अपनी चील के साथ इस कहानी में नहीं आऊँगा।
(पिता भी दो कदम पीछे खड़े हो जाते हैं.... लाल वापिस फांस को दबाता है... और फिर कहता है।)
लाल- अभी तक ये फाँस मेरी उँगली में जमी हुई है। पापा आप इसे देख सकते है।
(बूढ़ा आदमी और पिता वापिस उसी तरह फांस की तरफ झुकते हैं.. मानों वही सीन फिर से हो रहा हो... इस बार लाल बूढ़े आदमी की तरफ देखता है और कहता है।)
लाल- पापा
बूढ़ा आदमी- हाँ मैं इसे देख सकता हूँ ये अभी तक तुम्हारे पास है।
(बूढ़ा आदमी अब इस कहानी में उसका पिता हो चुका है... उसके पिता.. धीरे से पीछे की तरफ चले जाते हैं।)
लाल- हाँ।
बूढ़ा आदमी- क्या चाहते हो?
लाल- पता नहीं।
बूढ़ा आदमी- तुम्हें पता है।
लाल- दर्द कम हो रहा है।
बूढ़ा आदमी- तुम्हें दूसरी फाँस की ज़रूरत है।
लाल- अभी नहीं। (वो फाँस को वापस भीतर की तरफ़ दबाता है।) आऽऽऽ
बूढ़ा आदमी- (अचानक बहुत किसी रेफ्री सा लाल से कहता है) नौ सो संतावे.. नौ सो निन्यानवे... और हज़ार... (और दोनों हाथ ऊपर उठाकर जश्न मना रहा होता है तभी पीछॆ से पिता बॉक्सर की गंजी पहनकर.. सिर पर पट्टा बांधे पूरी उर्जा के साथ प्रवेश करते हैं।)
लाल- (पैर पड़ता है) पापा मैं आपको स्टेशन लेने आने वाला था?
(पिता पूरी स्टेज पर तेज़ी से धूमने लगते हैं और लाल उनके पीछॆ एक छोटे बच्चे सा उछलता हुआ चलने लगता है... बूढ़ा आदमी अपनी बाल्कनी पर जाकर बैठ जाता है। पीतांबर बूढ़े आदमी की मालिश कर रहा होता है।)
पिता- बहुत बड़ा हो गया है तू।
लाल- पापा, मैं एकदम आपके जैसा बनना चाहता हूँ।
पिता- अरे बेटा, मेरे जैसा बनने के लिए बहुत कसरत, वर्जिश करनी पड़ेगी। मैं जब मिल्ट्री में था तो बॉक्सिंग करता था। एक दिन रिंग में मैंने अपने सीनियर का कान काट लिया। वो रोता हुआ गया था। बाद में उसने मेरा कोर्ट मार्शल कर दिया, पर मैं रोया नहीं। उस वक़्त भी मैं मुस्कुराता रहा। तेरा बाप कभी नहीं रोया।
पीतांबर- आप कभी नहीं रोए, पापा? (बूढ़े आदमी से।)
लाल- मेरे पापा कभी नहीं रोए। पापा आप रेम्बो को भी बॉक्सिंग में हरा सकते हैं।
पिता- बेटा, बॉडी से कुछ नहीं होता, जिगर होना चाहिए, जिगर।
पीतांबर- पापा आप रोते हैं।
पिता- बहुत दिन से तेरे साथ बॉक्सिंग नहीं लड़ी। चल उठ, मार-मार।
(दोनों बॉक्सिंग खेलना शुरू करते हैं। कुछ देर में एक तेज़ धूंसा लाल को पेट में पड़ता है और वो वहीं गिर जाता है।)
पीतांबर- जब दादाजी नहीं रहे तो आपने अपने आपको बाथरूम में क्यों बंद कर लिया था?
पिता- अच्छा हुआ लगी नहीं।
पीतांबर- आप बाथरूम में क्या कर रहे थे? आप बाथरुम में बैठकर रो रहे थे ना?
पिता- (लाल के सामने बैठते हैं।) तुम अपनी सेहत का थोड़ा ध्यान रखो, बहुत जल्दी थक जाते हो।
पीतांबर- (बूढ़े आदमी को छोड़कर दर्शकों से संबोधित होता है।) मैं हमेशा थक जाता था, मैं बहुत जल्दी थक जाता थ।
पिता- चल एक ताश की बाज़ी हो जाए।
पीतांबर- (बूढ़ा आदमी पीतांबर को ताक के एक एक पत्ते देता रहता है और वो सारे पत्ते देखते हुए हवा में उडाता जाता है... दर्शकों से बात करते हुए।) बहुत छोटे में मुझे चश्मा लग गया था। पापा ने पाँच बार मेरी आँखों का चेकअप करवाया। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनके बेटे को भी कभी चश्मा लग सकता है। मैं अपनी आँखों का चेकअप करवा-करवाकर थक गया। मैं हमेशा थक जाता था। मैं बहुत जल्दी थक जाता था।
पिता- फिर हार गया। अब रोना मत, चल एक और बाज़ी खेलते हैं।
पीतांबर- एक बार स्कूल में मेरे दोस्त से मेरी लड़ाई हो गई। हम दोनों ने एक दूसरे को चाँटा भी नहीं मारा, बस मुँह से ढिशुम-ढिशुम की आवाज़ निकालते रहे। वो बच्चों जैसी लड़ाई होती है ना, जिसमें चाँटे-घूसे नहीं पड़ते, बस कपड़े गंदे हो जाते हैं। मेरी पैंट घुटनों पर से फट गई। घर पर पापा ने देख लिया, पूछने लगे किसने मारा? मैंने कहा-लड़ाई हुई पर मारा किसी-ने-किसी को भी नहीं। उन्हें लगा मैं कुछ छुपा रहा हूँ। वो उसी वक़्त मेरे दोस्त के घर पर गए और उसके पापा को सड़क पर खड़े होकर गालियाँ दीं और जब मेरा दोस्त माफ़ी माँगने आया तो उसे एक चाँटा मार दिया। स्कूल में काफ़ी समय तक मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते रहे। ‘ऐ इसे छूना मत, नहीं तो बदला लेने इसका बाप घर तक आ जाता है।’ ये सुनते-सुनते मैं थक गया था। मैं हमेशा थक जाता था। मैं बहुत जल्दी थक जाता था।
पिता- तू फिर हार गया।
लाल- मुझे ताश खेलना नहीं आता है।
पिता- क्यों?
लाल- क्योंकि आपने कभी मेरे साथ ताश नहीं खेला है।
पिता- क्योंकि तुझे चश्मा लग गया था ना इसलिए।
लाल- आपने मेरे दोस्त को चाँटा क्यों मारा था? (पिता जाने लगता है) इंदिरा गाँधी के मरने की ख़बर दादाजी को क्यों नहीं दी गई।
पिता- इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है।
लाल- आप कहाँ जा रहे हैं?
पिता- बाथरूम।
(पीतांबर बूढ़े आदमी को छोड़कर और लाल पिता को छोड़कर आमने सामने आकर खड़े हो जाते हैं। पीछे नील शेडों में ये जो भी बोलते हैं उन्हें खुसफुसाहट में दौहराती रहती है।)
पीतांबर- अजीब-सा बुख़ार आजकल मैं महसूस करता हूँ। ये बुख़ार बढ़ता नहीं है, घटता नहीं है, बस रहता है वहीं आपके भीतर।
लाल- देर तक सोते रहने से क्यों जैसे कई सवाल उठे। इन सवालों का जवाब मेरे पास नहीं है, क्योंकि मेरी कहानियाँ आधी रह जाती हैं, पूरी नहीं हो पाती है। (दर्शको को एक खुशी से देखता है।) मेरी कहानी ... (पीतांबर भागकर अपनी डेस्क पर बैठ जाता है। लाल को कहानी सूझ रही है वो उत्साहित हो जाता है।) मेरी कहानी- मेरे दादाजी काले थे, (पिता को देखते हुए...) मेरे पिता गोरे और मैं बहुत गोरा।
पीतांबर- (टाइप करते हुए) मेरे दादाजी काले थे, मेरे पिताजी गोरे और मैं बहुत गोरा।
बूढ़ा आदमी- (बाल्कनी से) मेरे पिताजी बहुत काले थे। याने इसके दादाजी... वो कहते थे कि वो रात में पैदा हुए हैं इसीलिए काले हैं। उन्हें पूरा यक़ीन था कि यदि वे दिन में पैदा हुए होते तो गोरे होते। मेरी तरह मेरी माँ काली थी, मेरे पिताजी बहुत काले थे और मैं गोरा था। पर मेरे पिताजी ख़ुश रहते थे क्योंकि उनको ये कारण ही बहुत सही लगता था कि मेरा बेटा सुबह पैदा हुआ है इसलिए रात अपना रंग उस पर नहीं छोड़ पाई। वो बच गया, मेरा बेटा बच गया। देर रात को वह हमेशा उठकर एक बार मेरी तरफ़ देख लेते थे। उन्हें रात में मैं बहुत सुंदर दिखता था- ये वो मुझे सुबह बताते थे। ‘कल रात तू बहुत सुंदर लिख रहा था।’
(पीछे की तरफ पिता अचानक खुद को बहुत सारी पीली साड़ी में धूंधट ली हुई औरतों में खुद को घिरा पाते हैं। वो उन औरतों के बीच भटकर रहे है..।)
लाल- (सामने की तरफ रटा रटाया सा बोलने में) मैं आपको स्टेशन लेने आपने ही वाला था।
पिता- उसकी क्या ज़रूरत है, क्या मुझे तुम्हारा घर नहीं पता है?
लाल- किसे ढूँढ रहे हैं?
बूढ़ा आदमी- मुझे दोपहर का आसमान बहुत अच्छा लगता है। दोपहर का आसमान बहुत शांत होता है, उसमें छोटे धब्बे-सी एक चील मँडराती रहती है। मुझे पता ही नहीं चलता था कि मैंने कब चील को देखना शुरू किया और कब आसमान को देखना छोड़ा। अब चील नहीं उड़ती है, उसके पर झड़ते हैं। चील के पर झड़ना अजीब लगता है ना? जैसे कोई शेर बूढ़ा हो रहा हो और आपने उसके झड़ते हुए दाँत देख लिए हों, हा हा हा...
लाल- किसे ढूँढ़ रहे है?
पिता- तुम्हारी माँ, तुम्हारी माँ की तस्वीर नहीं लगाई तुमने?
लाल- नहीं लगाई। (तभी सारी औरतें रुक जाती हैं।)
पिता- बेटा, अब हम अकेला नहीं रह सकते। हमें किसी की ज़रूरत है। तुम शादी कर लो। माफ़ करना! तुम एक छोटी-सी दुकान क्यों नहीं खोल लेते? अरे आजकल STD-PCO बहुत चलते हैं। और उसके साथ अगर Xerox डाल लो तो पैसा ही पैसा! तुम अपना लिखते रहना, मैं दुकान सँभालूँगा। अपनी माँ के नाम पर रखना STD-PCO और Xerox का नाम- सावित्री बाई STD-PCO & Xerox… अच्छा है ना?
लाल- ये कहानी मुझे अभी पूरी करनी है।
पीतांबर- फिर क्या हुआ?
बूढ़ा आदमी- फिर मेरी शादी हुई- ( इस बात को सुनते ही पिता, पीतांबर की डेस्क पर चले जाते हैं और लिखी हुई कहानी देखने लगते हैं.. पीतांबर दर्शकों की तरफ डाऊन स्टेज आ जाता है... लाल बूढ़े आदमी की बाल्कनी में जाकर कहानी देखने लगता है... और बूढ़ा आदमी.. नीचे बिस्तर के पास आ जाता है।) सावित्री नाम था लड़की का। मेरे पिताजी ने सिर्फ़ इसलिए उससे मेरी शादी की क्योंकि वो रात में पैदा हुई थी फिर भी गोरी थी। पिताजी को लगा कितनी भाग्यशाली है, रात में पैदा होकर भी गोरी है। बाद में हमें एक लड़का पैदा हुआ, जिसे पैदा होते ही जॉन्डिस हो गया- पीलिया। (बूढ़ा आदमी लाल की तरफ़ इशारा करता है।)
पिता- (सब लोग आनी जगह पिता के बोलते हुए बदलते हैं) घटनाएँ सालों में बँटी होती हैं। साल भी हमें घटनाओं के रूप में ही याद रहते हैं। जिस साल की कोई घटना नहीं, समझो वो साल हमने जिया ही नहीं। और कई घटनाएँ इतनी बड़ी होती हैं कि जीवन लगती है जिसे हम अलग-अलग तरीक़े से पूरी ज़िंदगी जीते रहते हैं।
बूढ़ा आदमी- ये तब की बात है जब हमारे यहाँ नया-नया टीवी आया था। बहुत कम लोगों के यहाँ टीवी हुआ करता था। उस वक़्त सावित्री मुझे भूल चुकी थी, उसे टीवी से प्यार हो गया था। तब तक मेरे पिताजी बूढ़े हो चुके थे, उन्हें अलग कमरे में शिफ़्ट भी कर दिया गया था। तब सिर्फ़ दूरदर्शन हुआ करता था और सैटर्डे-संडे को फ़िल्म दिखाई जाती थी।
लाल- मुझे फ़िल्म देखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। पर मेरे दादाजी, वो फिल्मों के पीछे पागल थे। उनके लिए टीवी चमत्कार था। वो फ़िल्म देखते हुए हँसते थे, रोते थे। वो फ़िल्म देखते नहीं थे, वो फ़िल्म देखना जीते थे। दादाजी की आवाज़ चली गई थी, वो दिन भर में केवल दो-तीन शब्द ही बोल पाते थे। जैसे पानी-खाना और बोलते ही हाँफने लगते थे, इसलिए वो इन शब्दों का इस्तेमाल बहुत नाप-तौलकर करते थे। मैं फ़िल्म नहीं देखता था, मैं तो बस दादाजी को फ़िल्म देखते हुए देखता था।
पिता- सैटर्डे-संडे को हमारे यहाँ बहुत भीड़ होती थी, सावित्री के दोस्त आते थे, खासकर संडे को तो मेरा अपने ही घर में घुसना मुश्किल हो जाता था। सावित्री को मेरे पिताजी का फ़िल्म देखना बिल्कुल पसंद नहीं था। क्योंकि उनके पूरे शरीर से बदबू आती थी पेशाब की। सावित्री, पर उसने ग़लत किया!
लाल- क्या, क्या ग़लत किया था माँ ने?
पिता- पूरी दुनिया में इतनी कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं, तुम कुछ भी लिख सकते हो। फिर क्यों अपने आपको तकलीफ़ दे रहे हो?
लाल- क्योंकि मैं एक ही तकलीफ़ को बार-बार नहीं जीना चाहता हूँ।
(लाल बाप के सामने चिल्ला देता है। और कुछ देर में लाल और पीतांबर जहाँ खड़े थे वही गिर जाते हैं... स्पाट बाप और बूढ़े आदमी पर रह जाता है।)
पिता- मैं जब सपने देखा करता था तो मैं उन कभी उन सपनों को बुला नहीं पाया जिन्हें मैं देखना चाहता था। मेरे सपने बस आते थे और मैं उन्हें देख लेता था। मैं अपने सपने में अपने बेटे को कुछ बनाना चाहता था पर वो बना नहीं, वो मेरे सपनों जैसा ही निकला। वो जैसा था वैसा ही मेरे सपने में आ जाता था। (लाल और पीतांबर दोनों खड़े होकर बाप की तरफ बढ़ते हैं।)
लाल- क्या ग़लत किया माँ ने?
पिता- देखा।
लाल- सावित्री ने क्या ग़लत किया?
पीतांबर- ये तो तुम्हें पता है। है ना?
लाल- (हंसते हुए) हाँ, ये तो मुझे पता है। तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?
पीतांबर- पता नहीं। शायद मैं STD-PCO खोलना चाहता था, नहीं खोल पाया इसलिए पीला स्कूटर चलाता हूँ। वैसे भी इस देश में आदमी कौन से रंग का स्कूटर चला सकता है? पहले तो स्कूटर चलाते ही वो मिडिल क्लास का हो जाता है। वो हरे रंग का स्कूटर नहीं चला सकता, वो भगवे कलर का स्कूटर नहीं चला सकता, वो लाल रंग का स्कूटर नहीं चला सकता। तो वो कैसे बता सकता है कि मैं किसी का नहीं हूँ, किसी की तरफ़ नहीं हूँ? पीला रंग बचा हुआ है इसलिए मैं पीला स्कूटर चलाता हूँ और मैं किसी की तरफ़ नहीं हूँ। (इस बीच पिता लाल के पास आते हैं और उसे यूं देखते हैं मानों कह रहे हो तुम्हें तो सब पता है। लाल उन्हें देखता रहता है। पीतांबर अपनी बात खत्म करके लाल के पास आत है और मुद्दे की बात करता है।)
पीतांबर- बताओं सावित्री ने क्या ग़लत किया? (तीनों धूमकर सामने की तरफ देखते है।)
लाल- सावित्री ने दादाजी का संडे को टीवी वाले कमरे में आना बंद करवा दिया। (दूर्दशन का मुख्य गाना बजता है।)
(पीतांबर उस संगीत पर टाइपराइटर पर जाकर बैठ जाता है और टाइप करना शुरू कर देता है। लाल और पिता पीछे की तरफ जाते हैं और राईट विंग की तरफ देखते है मानों वहाँ टीवी वाला कमरा हो... बूढ़ा आदमी.. बिस्तर को यूं देखता है मानों वो दादाजी का बिस्तर हो।)
बूढ़ा आदमी- पिताजी का संडे को फ़िल्म देखना बंद हो गया था। बंद करवा दिया गया। सावित्री के दोस्त आते थे ना। मैंने सावित्री को कहा, पिताजी को फ़िल्म देखना बहुत अच्छा लगता है। वो पूरे हफ़्ते इन दो दिनों का इंतज़ार करते हैं और शनिवार-इतवार को तो उनसे शाम का समय नहीं कटता है। वो खाना-पीना सब भूल जाते हैं, पर वो नहीं मानी। संडे को उनका आना बंद करवा दिया गया। पर टीवी की आवाज़ उनके कमरे तक आती थी।
पीतांबर- (टाईप करता है।) हाँ टीवी की आवाज़ उनके कमरे तक आती थी।
लाल- मुझे उस वक़्त फ़िल्म देखने का शौक बिलकुल नहीं था, मुझे तो बस दादाजी को फ़िल्म देखते हुए देखना अच्छा लगता था। अब मैं संडे को दादाजी के कमरे में इर्द-गिर्द मँडराता रहता था, अंदर जाने की हिम्मत नहीं होती थी। अगर दादाजी ने मुझसे कह दिया कि मुझे दीवी वाले कमरे में ले चलो तो मैं क्या करूँगा। माँ ने सख़्त मना किया था। वैसे मुझे माँ का भी उतना डर नहीं था पर असल में दादाजी दिन भर में कुछ ही शब्द बोल पाते थे और मैं उनके पूरे एक वाक्य को ज़ाया होते हुए नहीं देख सकता था।
पीतांबर- एक संडे को मुझसे नहीं रहा गया। मैंने सोचा वहाँ फ़िल्म चल रही है तो दादाजी इस वक़्त क्या रहे होंगे। सो मैं एक स्टूल लो आया, ऊपर चढ़ा और खिड़ी का पर्दा हटाकर देखा। तो देखता क्या हूँ कि दादाजी अपने पलंग पर लेटे हुए है। उनकी आँखें माथे की तरफ़ चढ़ी हुई हैं और वो टीवी वाले कमरे की तरफ़ देखने की कोशिश कर रहे हैं। और चेहरे पर वैसे ही भाव बदल रहे है जैसे वो फ़िल्म देखते हुए बदलते थे।
वो हँस रहे थे, वो रो रहे थे, वो चुप थे, वो अब फ़िल्म देखना सुन रहे थे।
बूढ़ा आदमी- थककर बैठ जाने से पहले नींद आ जाती थी। अब बैठे-बैठे थकना तो होता है पर नींद नहीं आती है। नींद आने के लिए हमारी उम्र में बड़े पैंतरे करने पड़ते हैं। ये रात से आपके संबंध पर भी निर्भर करता है। बचपन में मेरे पिताजी मुझसे कहते थे सो जाओ पर हम सोते नहीं थे। फिर कहते थे- आँखें बंद करो और एक सपना देखो। जैसे ही सपना ख़त्म हो जाए, मुझे तुरंत सुना देना। मेरे अच्छे सपने की तलाश वहीं से शुरू हो जाती थी। जैसे ही सपना मिलता, एक आवाज़ आती- उठो बेटा घूमने चलते है, सुबह हो गई। और सुबह हो जाती थी। रोज़ सुबह घूमते समय मैं पिताजी को अपना टूटा-फूटा सपना सुनाता था पर आजकल रात, पूरी रात चलती है। सपने हैं जो थकी हुई उबासी की तरह आते हैं और वहीं उस वक़्त ख़त्म हो जाते हैं। मेरे पिताजी को भी नींद नहीं आती थी। अब सोचता हूँ कि वो दिनभर एक कमरे में अकेले क्या करते होंगे! कमरा, जिसमें सुबह और रात का पता खिड़की से आती हुई रोशनी के आने और जाने से लगता था। एक बल्ब था नीरस-सा, जिसे जला दो तो समझो रात होने वाली है और बुझा दो तो समझो सुबह। पर वो मुस्कुरा देते थे। बल्ब जलाने का काम मेरा था। जब भी उनके कमरे में बल्ब जलाने जाता था तो पिताजी मुझे देखकर मुस्कुरा देते थे। (पिता बल्ब जलाकर बिस्तरे के पास आकर मुस्कुराते हुए चले जाते हैं ..मानों बिस्तरे पर दादाजी हो और उन्होंने उसे मुस्कुराकर देखा हो।)
पीतांबर- वह मुस्कुरा देते थे?
लाल- हाँ, वह मुस्कुरा देते थे।
पीतांबर- हाँ वो मुस्कुरा देते थे। बल्ब बुझाने का काम मेरा था। (लाल बल्ब बुझाता है।) जब भी मैं दादाजी के कमरे में बल्ब बुझाने जाता था तो वो हमेशा मुझे देखकर सचेत हो जाते थे। जैसे उस कमरे में और भी बहुत से लोग हैं, जिनसे वो मेरे आने के ठीक पहले तक बातें कर रहे थे। मैं पूरे कमरे में देखता कि वो कौन लोग है जिन्हें दादाजी छुपाना चाहते हैं। अजीब-सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर छा जाती थी, जैसे कि वो रंगे हाथों पकड़े गए हों। मैं डर के मारे बल्ब बुझाकर भाग जाता था।
लाल- (बूढ़े आदमी को देखते हुए।) पीलिया का पीला स्कूटर चलाने से खत्म हो जाता है?
पीतांबर- (पीतांबर हंसता है और लाल घर के भीतर जाने को होता है।) अरे तुम कहाँ चल दिए?
लाल- चाय चढ़ाने।
पीतांबर- इसका क्या होगा?
लाल- पता नहीं।
पीतांबर- ये कहानी पूरी नहीं करोगे?
लाल- करूँगा।
पीतांबर- कब?
लाल- अभी, अभी चाय ब्रेक।
पीतांबर- रुको।
लाल- क्या मैं एक चाय नहीं पी सकता?
पीतांबर- चाय पीते वक़्त क्या सोचोगे?
लाल- अरे ये मैं कैसे बता सकता हूँ।
पीतांबर- तुम यहीं तय करते जाओ कि चाय पीते वक़्त क्या सोचोगे।
लाल- तय कर लिया।
पीतांबर- क्या?
लाल- माना कि मैं पिताजी को स्टेशन लेने गया था... मैं उन्हें लेकर आऊँगा। (लाल भीतर चला जाता है... पीतांबर तुरंत लिकने बैठ जाता है।अब अगले तीन सीन लाल भीतर चाय बनाते हुए सोच रहा है, जो बाहर हो रहे हैं।)
बूढ़ा आदमी- पीलिया पीला स्कूटर चलाने से ख़त्म हो जाता है, पर विश्वास करना पड़ता है। पीलिया के कारण मुझे पीले रंग से नफ़रत है।
पीतांबर- (लाल पिताजी के पुराने अंतर्देशीय को खोल खोलकर देख रहा है।) कोई आदमी पीला स्कूटर कैसे चला सकता है! इस बात पर मुझे हँसी आती है। पर मेरे पिताजी के पास इसके कई कारण थे और वो अपने सारे बचकाने कारण मुझे लिखकर बताते थे जिसका नतीजा यह हुआ कि बाद में मैंने उनका लिखा हुआ पढ़ना बंद कर लिया।
बूढ़ा आदमी- छोटे सवालों के छोटे जवाब हो सकते हैं। पर कुछ सवाल इतने बड़े हैं कि उनके जवाब नहीं होते। वो आपके साथ रहने लगते हैं।
पीतांबर- मैं जब भी पिताजी के लिखे कारण को पढ़ता तो उनसे एक ही बात कहा करता था कि वो मुझे मेरे सपनों जैसे लगते हैं। टूटे-फूटे, अधूरे, बचकाने।
बूढ़ा आदमी- मैंने अपने अधिकतर लिखे ख़तों में अपने बेटे से अपने बचकाने सपनों का ही ज़िक्र किया है। पर अंत हमेशा एक ही लाइन से किया है।
पीतांबर- (ख़त का अंत पढ़ते हुए) मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ कब आऊँ?
बूढ़ा आदमी- जवाब कभी नहीं मिला क्योंकि वो मेरे ख़त खोलकर कभी पढ़ता ही नहीं था। इसलिए मैंने एक ख़त के ऊपर ही लिख दिया ‘7:30AM आ रहा हूँ।’ (लाल वो अंतिम खत लेकर डाऊन स्टेज आता है जिसे अभी तक खोला नहीं गया है। उसकी डेस्क पर नील आकर बैठ जाती है जो टाईप करने लगती है।)
नील- अंदर आऊँ? या नहीं आऊँ?
पीतांबर- तुम अंदर आ चुकी हो। (पीतांबर, डाऊन स्टेज लेटर को देखते हुए बात कर रहा है... पीछे शेड़ो में लाल किसी लड़की के साथ बहुत हल्के नृत्य करते हुए दिख रहा है.. बूढ़ा आदमी अपनी बाल्कनी पर बैठा हुआ है।)
नील- थक गए हो ना बहुत!
पीतांबर- तुम्हारे सामने बेचारा बनने में कितना सुख मिलता है।
नील- बेचारी मैं।
पीतांबर- तुम मुझे कभी माफ़ नहीं करोगी ना?
नील- तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँ?
पीतांबर- हाँ मैं चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम यहाँ कभी ना आओ।
नील- क्यों मुझमें एक फाँस ढूँढ़ रहे हो?
पीतांबर- नहीं।
नील- तुम जब भी मुझसे प्यार करते हो, मुझे लगता है कि तुम मुझसे बदला ले रहे हो।
पीतांबर- किस बात का?
नील- वो चीज़ें जो तुम्हारे पास नहीं हैं, उनका। या वो चीज़ें जो सिर्फ़ तुम्हारे ही पास है।
पीतांबर- जो बाते मैं तुमसे कहता हूँ तुम्हारे जाने के बाद उनसे कही ज़्यादा उन बातों की कतरनें मेरे घर में बिखरी रहती हैं जो मैं तुमसे नहीं कह पाता हूँ।
(पीछे लाल का शेडो गायब हो जाता है। अचानक नील भागते हुए पीताबंर सामएन खाड़ी हो जाते है और उसके बाल बनाती है मानों स्कूल के लिए उसे तैयार कर रही हो।नील माँ बन चुकी है।)
पीतांबर- अरे माँ।
नील- बेटा क्या कहना चाहते हो? बोलो बेटा
पीतांबर- पता नहीं। कहानी पूरी करनी है।
नील- क्या कहती है तुम्हारी कहानी, आज पूरी हो जाएगी?
पीतांबर- आज पूरी करनी है माँ। वो पिताजी के सारे लेटर्स खोल के पढ़ चुका हूँ, सिवाय अंतिम लेटर के। अगर वो खुल गया तो कहानी यहीं रुक जाएगी। (किचिन से कुछ सामान गिरने की आवाज़ आती है.. पीतांबर किचिन की तरफ भागता है।)
पीतांबर- अरे तुमने फिर चाय गिरा दी।
(उसी वक़्त लाल और पिता दरवाज़े से अंदर आते हैं। लाल के कपड़े अलग हैं। वह इस समय तीसरे सीन में हैं जो वह भीतर चाय बनाते हुए सोच रहा है।)
लाल- आइए, आइए पिताजी सँभल के हाँ, यहाँ बैठ जाइए।
पिता- कैसे हो बेटा? यहाँ सब ठीक है ना? मुझे कई दिनों से बुरे सपने आ रहे थे, लगा तुम्हारा एक्सीडेंट हो गया है। तुम फिर से बीमार पड़ गए हो। तुम्हें जॉन्डिस हो गया है।
लाल- नहीं।
पिता- मेरी तबीयत ठीक नहीं है, फिर भी मैं आ गया। सोचा कुछ दिन तुम्हारे साथ रह लूँगा तो सब ठीक हो जाएगा। वैसे मैंने अपने सारे लेटर्स के अंत में तुमसे पूछा है कि मैं तुम्हें मिलने आऊँ पर तुमने जवाब नहीं दिया। मैं यहाँ ज़्यादा दिन नहीं रुकूँगा, मुझे पता है तुम्हें मेरा यहाँ आना पसंद नहीं।
पीतांबर- नहीं ऐसी बात नहीं है, पापा। मैं, मैं, कुछ बोलो ना?
लाल- पानी पिएँगे?
पिता- जो पूछना चाह रहे हो, पूछ लो।
लाल- आप बल्ब जलाने जाते थे ना, तो आपने इंदिरा गाँधी के मरने की ख़बर दादाजी को क्यों नहीं दी?
पिता- इसमें तुम्हारी ग़लती नहीं है।
नील- उन्होंने कह दिया बेटा, इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है, चुप रहो।
लाल- मेरी ग़लती की मुझे चिंता नहीं, पर आप...
नील- बेटा देखो, ये मत पूछना।
लाल- आप माँ को छोड़कर क्यों चले गए थे? बाद में माँ से बार-बार मिलने क्यों आते थे?
नील- बेटा एक तो उनकी तबीयत ठीक नहीं है और तुम...
पिता- (पिता लाल को अपना हाथ देते हैं सहारे के लिए..... उसकी सहायता से वो बिस्तर पर खड़े हो जाता है और आसमान की तरफ देखते हैं।) पता है, जब मैं और मेरे पिताजी रोज़ घूमने जाया करते थे ना तो मैं उन्हें अपने सपने के बारे में बताया करता था, हर रोज़। उस वक़्त मेरे पिताजी के रंग की एक काली चील हमारे सिर के ऊपर मँडराया करती थी। पिताजी कहते थे- जब मैं ना रहूँ तो तुम अपने सपने इस चील को सुना देना और मान लेना कि मैं सुन रहा हूँ। मैंने मान लिया, आज तक मैं यही मानता आ रहा हूँ, तुम्हें भी अंत मानना पड़ेगा।
नील- देखो तुम मान सकते हो बेटा, मान लो अंत। और कहानी ख़त्म कर दो बेटा।
पिता- आजकल सपने नहीं आते। रात पूरी रात चलती है। सोते रहना बड़ी कला है जो एक उम्र के बाद कम होती जाती है। सुबह घूमने भी नहीं जाता हूँ। क्योंकि चील बूढ़ी हो चुकी है। वो ऊपर आसमान में नहीं उड़ती। उसके पर झड़ते हैं।वो मेरे घर के सामने-एक पेड़ के ठूँठ पर बैठी रहती है।। मैं रोज़ सुबह घर से निकलकर उस पेड़ के नीचे जाके थोड़ी देर बैठ जाता हूँ-मेरे पास कोई सपना नहीं होता लेकिन चील सपना सुन रही होती है-वो मान लेती कि मैं सपना सुना रहा हूँ। और मैं मान लेता हूँ कि वो सपना सुन रही है।
लाल- पर आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया?
नील- बेटा वो जवाब दे चुके हैं।
पिता- इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है।
पीतांबर- लेकिन उस डर का क्या करूँ जिसे एक बुख़ार की तरह मैं अपने भीतर पाल रहा हूँ। जो बढ़ता नहीं है, घटता भी नहीं है, बस रहता है वहीं आपके भीतर।
लाल- ये डर है शब्दों का, अनकहे शब्दों का। जो कोई आपसे कहना चाह रहा था पर आप उसे अनसुना करते रहे। हर सुबह जब मैं दादाजी के कमरे में बल्ब बुझाने जाता था तो वो कुछ शब्द मुझसे कहते थे। शब्द जिन्हें मैं समझता तो था पर सुनना नहीं चाहता था। मैं डर के मारे उनके सामने चिल्ला देता था- ‘क्या, क्या? पानी चाहिए? क्या? चाय, चाय चाहिए? भूख लगी है? अच्छा मैं बाद में आता हूँ।’ और उनके कमरे से बाहर निकल आता था।
पीतांबर- पर वो शब्द, वो अनकहे शब्द पूरे दिन मेरे कानों में गूँजते रहते थे। बाद में वो डर इतना बढ़ गया कि मैंने उनके कमरे में जाना ही बंद कर दिया। चुपके से बल्ब बुझाने जाता था और वहाँ से भाग जाता था।
पिता- तुम पीला स्कूटर मत बेचना, उसे अपने पास ही रखना। तुम अपने सपने, अपनी कहानियाँ स्कूटर को सुनाया करना और मान लेना मैं सुन रहा हूँ। (ये कहते ही पिता एक अजीब नृत्य करने लगते हैं.. और बूढ़ा आदमी अपनी बाल्कनी में वही नृत्य करता है.. कुछ देर में पिताजी लाल के सहारे से नीचे उतरते हैं)
लाल- मुझे माफ़ कर देना पापा।
पिता- बेटा मुझे अंदर...
लाल- चलिए मैं ले चलता हूँ। कहाँ जाना है?
पिता- बाथरूम।
(लाल पिता को सहारा देते हुए पीछे ले जाता है... पिताजी पीछे खड़े हो जाते हैं और लाल उन्हें देखते हुए भीतर चला जाता है.. ये सब पीतांबर देखता है।)
बूढ़ा आदमी- (निर्मल वर्मा ने कहीं लिखा है)- ‘एक उम्र के बाद माँ-बाप अपने बच्चों की बढ़ती उम्र की छाया तले छोटे होते जाते हैं।’ मेरे पिताजी सचमुच बच्चे हो गए थे। वो फ़िल्म देखने के पीछे पागल थे। वो बच्चों जैसी ज़िद करने लगते थे। खाना-पीना छोड़ देते थे। शनिवार को फ़िल्म देखते थे, लेकिन मैनें उन्हें संडे को फ़िल्म नहीं देखने के लिए जैसे-तैसे मना लिया था। मुझे लगा मैं उनसे उनके जीवन की आधी साँसें माँग रहा हूँ। उन्हें बहुत दुख पहुँचा था। मैं सावित्री से बहुत नाराज़ हुआ, क़रीब एक हफ़्ते घर भी नहीं आया। खैर, अंत में वो नहीं मानी।
(लाल चाय लेकर प्रवेश करता है।)
पीतांबर- बना ली चाय।
लाल- हाँ।
पीतांबर- तो फायनली चाय ब्रेक ओवर?
लाल- हाँ, चाय ब्रेक ओवर।
पीतांबर- फिर क्या हुआ?
लाल- फिर इंदिरा गाँधी की मृत्यु हो गई। (और एक कागज़ पीतांबर को पकड़ाता है... पीतांबर उस काग़ज़ से कुछ लाईन पढ़ता है बाक़ी दर्शकों से...)
पीतांबर- फिर एक दिन ख़बर आई कि इंदिरा गाँधी की मृत्यु हो गई है। 31 अक्टूबर, बुधवार को। पूरे देश में शोक मनया गया। टीवी पर भी फ़िल्में दिखाई जानी बंद हो गईं। पिताजी ने माँ से कहा-
पिता- सुनो अपने बेटे से कह देना कि इंदिरा गाँधी की मृत्यु हो गई है इसलिए आजकल टीवी पर फिल्में नहीं दिखाई जा रही हैं। (पिता चले जाते हैं)
पीतांबर- और माँ ने...
नील- बेटा.. बेटा... (मानों विंग में बेटा खेल रहा हो... माँ चिल्लाती है... लाल बीच में खाड़ा सब देखता है.. किसी गवाह सा) तुम फिर खेलने लगे.. सुनो... अपने दादाजी को बता देना कि इंदिरा गाँधी की मृत्यु हो गई है इसलिए आजकल टीवी पर फिल्में नहीं दिखाई जा रही हैं। (माँ चली जाती है।)
पीतांबर- मैं कई दिनों तक दादाजी के कमरे के इर्द-गिर्द मँडराता रहा। उसमें एक सैटर्डे-संडे भी निकल गया पर अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई।
लाल- फिर एक दिन मैं दादाजी के कमरे में गया। घुसते ही लगा जैसे वो मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं उनके पास गया तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया कसकर, पता नहीं इतनी ताक़त उनमें कहाँ से आ गई थी! मुझे अपने पास खींचा और कहा- ‘मेरे कान ख़राब हो गए हैं, मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है।’ वो एक साँस में इतनी लंबी लाइन कैसे बोल गए। वो हाँफने लगे, उन्हें मेरे भाग जाने का शायद डर था, इसलिए उनके हाथ की पकड़ तेज़ होती जा रही थी। उन्होंने मुझे और पास खींच लिया। शायद वो और कुछ कहना चाह रहे थे पर उनका चेहरा डरावना होता जा रहा था। मैं डर गया जल्दी में मैंने कहना चाहा कि- ‘इंदिरा गाँधी की मृत्यु हो गई है इसलिए टीवी पर फ़िल्में नहीं...’ पर मेरे मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। मैंने देखा उनकी आँखें पीली होती जा रही हैं। चेहरा काला, पीली आँखें। वो एकदम चील जैसे दिखने लगे थे। मैं डर गया। मैंने अपना हाथ छुड़ाया और कमरे से बाहर निकल आया। (तब तक बूढ़ा आदमी बिस्तर के पास आ चुका है।)
बूढ़ा आदमी- इतवार को मुझे अभी भी याद है। (पिता भी भीतर आकर बिस्तर को देखने लगते हैं) जब मैं उनके कमरे में बल्ब जलाने गया था तो देखा उनकी आँखें उनके माथे तक चढ़ी हुई हैं। वो टीवी वाले कमरे की तरफ़ देखने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे अजीब लगा, क्योंकि वो पहली बार मुझे देखकर मुस्कुराए भी नहीं। पास पहुँचा तो देखा उनका शरीर पूरी तरह अकड़ा हुआ है। इच्छा तो हुई कि सावित्री को घसीटकर लाऊँ और ये दृश्य दिखाऊँ, पर मैं उनके पास जाकर बैठ गया। उनसे माफ़ी माँगी। उनकी पलकों पर हाथ फेरा और उनकी आँखें बंद हो गईं।(बूढ़ा आदमी और पिता अपना मफ्लौर उतारकर बिस्तर पर रख कर जाने लगते हैं।)
(बूढ़ा आदमी और पिता जाने लगता है।)
लाल- कहाँ जा रहे हैं आप?
बूढ़ा आदमी और पिता - बाथरूम।
पीतांबर- लगातार पिताजी का बाथरूम आना मैं देखता रहा। वो बहुत परेशान थे। मेरी इच्छा हुई कि पिताजी से कहूँ कि मेरे कारण ही दादाजी की मृत्यु हो गई। मैं ही उन्हें इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बारे में नहीं बता पाया, पर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। मुझे मार खाने का डर नहीं था। मुझे पिताजी की चिंता थी, वो दादाजी की मौत के कारण पूरी तरह टूट चुके थे। मैंने सोचा समय आने पर बता दूँगा। सही समय आने पर बता दूँगा।
लाल- मैं सही वक़्त का इंतज़ार ही करता रहा। दादाजी की मृत्यु के तीसरे दिन पिताजी घर छोड़कर चले गए थे। वो जाते वक़्त अपना सारा सामान भी ले गए थे। सारा सामान, मतलब एक झोला और एक पेटी। पीला स्कूटर छोड़ गए थे। उस वक़्त भी उन्हें मेरे जॉन्डिस की चिंता थी। (पीतांबर वो आखरी लेटर लेकर सामने आता है.. पिता आपने झोला और पेटी के साथ पीछे खड़े हैं। लाल उन्हें देख रहा है।)
पीतांबर- पिताजी के आए सभी लेटर्स को मैंने कभी खोला नहीं, पर पिछले दो महीने से उन्हें खोलता हूँ, पढ़ता हूँ, जवाब लिखता हूँ। उनका अंतिम लेटर दो महीने पहले आया था। ये मैंने अभी तक नहीं खोला है। कल 7:30AM आ रहा हूँ, ऊपर ही लिखा है। इस लेटर के बाद ना वो आए, न उनका कोई लेटर। (ऊपर से पिता के ऊपर चील के पंख और अंतर्देशीय बरने लगते हैं...) किसी के मरने का आपको उतना दुख नहीं होता है, जितना इस बात का कि उसके साथ-साथ वो संबंध भी जल गया, जो सिर्फ़ आप दोनों जी रहे थे, एक साथ। फिर लगने लगता है जैसे आपके साथ धोखा हुआ है। आप दोनों का एक संबंध का एक पुल था जिस पर आप दोनों चला करते थे, एक साथ। अचानक वो अपना हिस्सा काटकर चला गया। अब आप अधूरे पुल के छोर पर खड़े हैं जहाँ से आपको उसके जीवन का किनारा तो दिख रहा है, पर उस किनारे के रहस्यों को आप कभी नहीं जान पाएँगे। वो दिन-ब-दिन आपसे दूर होता जाएगा। (लाल आगे आकर बिस्त पर बैठ जाता है। पिताजी पेटी और झोला लिए पीछे खड़े उसे देखते रहते हैं।)
लाल- कहानी तो दादाजी की मौत पर ख़त्म हो चुकी है। अब ये जो भी हैं, उस कहानी की कतरनें है जो इस कहानी में ही हैं। पर इनकी कहानी को अब कोई ज़रूरत नहीं है।
पीतांबर- 7:30AM पिताजी आने वाले हैं। (पीतांबर लाल को आखरी लेटर देता है।)
लाल- हाँ।
पीतांबर- एक बात पूछूँ?
लाल- पूछो!
पीतांबर- तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो? हा हा हा...
(पीतांबर आखरी एक्ज़िट लेता है।)
पिता- तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?
लाल- मान लेने के लिए मेरे पास ज़्यादा कुछ नहीं है। एक पीला स्कूटर है, जिसे पिताजी के ख़तों के जवाब पढ़कर सुनाता हूँ और मान लेता हूँ कि पिताजी सुन रहे हैं, इसलिए पीला स्कूटर चलाता हूँ।
पिता- तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?
लाल- अब मुझे पीलिया का भी डर है, इसलिए मैं पीला स्कूटर चलाता हूँ।
पिता- तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?
लाल- मैं असल में, अपने आप से बदला ले रहा हूँ। ये पीला स्कूटर नहीं है, ये असल में मेरी उँगली में फँसी हुई एक फाँस है जिसे मैं आपने साथ लिए घूमता हूँ। इसलिए पीला स्कूटर चलाता हूँ।
पिता- अपराधबोध अगर पीठ पर लादे घूमते रहोगे तो जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा।
लाल- आप! आप कब आए? (पेर पड़ता है।)
पिता- 7:30AM, मैंने कहा था आऊँगा।
लाल- कब तक आप आते रहेंगे?
पिता- जब तक तुम मेरा अंतिम लेटर खोलकर पढ़ोगे नहीं। (आखरी लेटर बिस्तर पर पड़ा है उसे देखते हुए।)
लाल- मेरे पास बहुत सारे सवाल थे जिनका उत्तर सिर्फ़ आप जानते थे। इन सवालों के साथ, आपसे मिलने से भी मैं डरता था इसलिए मैं पूछ नहीं पाया। पर कोई है जो इन सवालों के उत्तर जानता है। ये विश्वास ही अपने आप में इतना बड़ा था कि इन प्रश्नों के साथ मैं आराम से जी रहा था। पर आपकी मृत्यु के साथ ही ये विश्वास भी मर गया और ये कल्पना ही अपने आप में इतनी डरावनी लगने लगी कि अब पूरी ज़िंदगी आपको अकेले ही इन प्रश्नों के बोझ तले जीना पड़ेगा। अब कोई भी नहीं है जो इन प्रश्नों के उत्तर जानता है। पर अब मैंने मान लिया है कि आपने मेरे सारे सवालों के उत्तर अपने इस अंतिम ख़त में लिख दिए हैं। इस ख़त को मैं पूरी ज़िंदगी अपने पास रखूँगा पर खोलूँगा नहीं। मैंने मान लिया है।
पिता- मैंने कहा था अंत तुम्हें मानना पड़ेगा। अच्छा है तुमने मान लिया। अब मैं नहीं आऊँगा। मैं जाता हूँ।
लाल- पापा, मेरी एक इच्छा है, मैं एक बार आपकी गोद में सर रखकर सोना चाहता हूँ, सो सकता हूँ? (लाल उनकी गोद में सिर रखकर लेट जाता है।) और जब तक मैं सो ना जाऊँ, आप कुछ बोलते रहना।
पिता- क्या बोलता रहूँ?
लाल- वही जो मैं सुनना चाहता हूँ।
पिता- सो जाओ। सभी अपने-अपने तरीक़े से रात के साथ सोते हैं। हर आदमी का रात के अँधरे के साथ अपना संबंध होता है। ये संबंध अगर अच्छा है तो आपको नींद आ जाती है और अगर संबंध ख़राब है तो आपके जीवन के छोटे-छोटे अँधेरे, रात के अँधेरे में घुस आते हैं जो आपको सोने नहीं देते और आप दूसरों को।
FADE OUT….
The End
सर मेरी ये कविता कबूल करे आपके नाटक पर लिखी है
जवाब देंहटाएंपीली स्कूटर वाला
उन रातोंके हर कोने में
मैं ढूँढता हु एक रंग न जाने
कौन से रँग का ।
सफ़ेद या काला...हरा या नीला
नहीं शायद पिलाही होगा।
ना जाने कौनसे वक्त मैंने
वह होली खेली थी जहाँ मेरे
रूह को लग गया यह रंग...।
कई कोशिशों के बावज़ूद मिटाता नहीं है ये।
रात का रंग भी अब
पिला दिखता है...उन कवाड़ों के पीछे
एक स्कूटर है मेरा
शायद पिले रंग का ही है।
हर रात मैं किश्तों मे जीता हूँ
जैसे हर रंग का कुछ
उधार है मुझपर...
रंग का या कुछ कर्म का ?
कई सायें पिरोये गये है मेरे
आसपास किसी मकसत से
पर वो क्यूँ पिले है ?
आवाज़े भी होती है तो लगता
है कोई रंग बोल रहा हो....
खुले आसमान को देखता हूँ तो लगता है कही तो रखीं है मैंने मेरी सोच।
मैं अब डूबता जा रहा हु उस
पिले रंग मे...उसके पहिले एकस कोई अंत है ?
मुझे ढूँढना है सफ़ेद रंग मेरे भविष्य का ....पर मेरे पिछे कई ढेर पड़े है रंगो के ..
उसमें से ढूँढना है मुझे मेरा
काला रंग जिससे शायद
मिट जाये ये पिला रंग।
उन रातोंसे कई रिश्ते है
मेरे ..
जो कोई नज़्म के दायरे में
सिमड़ गए है।
उन रिश्तों की सच्चाई का
रंगही मुझे आजादी देगा
मेरे इस पिले रंग से ...
पर उस स्कूटर का रंग कोई
भी हो उसको मैं पिला ही बनाऊंगा।
राहुल जगताप (जेपी)
बहुत बढ़िया नाटक है सर ,
जवाब देंहटाएंमैंने आपका साक्षात्कार देखा जिसमे आपने कहा था कि कुछ समय के लिए अच्छी स्क्रिप्ट और निर्देशन ना मिलने के कारण आपने एक्टिंग से दूरी बनाई थी सर यही कहानी मेरे साथ भी में बहुत ढूंढने पर मुझे आपके नाटक की स्क्रिप्ट सुझाई गई जो बिल्कुल वैसी है जैसा नाताक मैं करना चाहता हूँ ।आपकी आज्ञा से मैंने इसकी तैयारी शुरू कर दी है बहुत जल्द ही मैं इसका मंचन करूँगा और इस नाटक को लेकर आपका जो नजरिया है उस पर खरा उतरने का पूरा प्रयास करूँगा ।।thank you sir
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंश्री मानव कौल साहब,
जवाब देंहटाएंआपके इस नाटक का मंचन, मेरे जीवन की कुछ अज़ीज़ शख्सियतों में से एक सुश्री कशिश भाटिया द्वारा शैक्षणिक हितार्थ किया जा रहा हैं। मैं इस नाटक एवं आपकी नाट्य-शैली से अत्यंत प्रभावित हूँ और आशा हैं कि इसका अनुकूल प्रभाव मेरे लेखन पर भी हो। इस क्रम में स्वरचित एक कविता प्रस्तुत हैं:-
पीत रंग था सारा बचपन
और पीत रंग में रंगा हैं यौवन।
अब पीत पीत हर एक दिशा में
ये पीत प्रीत और पीत ही जीवन।
ये पीत समक्ष, हैं पीत ही भीतर
इस व्यर्थ चक्र में, सब तितर बितर।
इस अन्तर्द्वन्द के विकट रूप में
कभी पीत प्रचण्ड कभी पीत ही शीतल।
हैं श्वास सीमित पर पीत अनन्त
ये पीत अतीत ये पीत दिगन्त।
अज्ञात ध्येय गतिशील मार्ग में
सर्वलोक स्वप्न पर पीत जीवन्त।
ये रीत पीत की बीत ना जाएं
कोई और रंग कहीं जीत ना जाएं।
पीत पीत बस भजे पीताम्बर
चाहे प्राण जाय पर पीत ना जाएं।
~दीक्षांत मिश्रा "दाम"
वाह वाह वाह ! Hamesha Ki Tarah Ek Aur behtarin Rachna Peele scooter wala aadami jaundice pilapan aur aur Pita aur Putra ka ek Anokha sambandh dhanyvad Manav bhai Is Tarah Ke natak ke liye
जवाब देंहटाएंBehad shandar manav ji. aapmain naturally talented hain. i just watched your Music teacher movie today. aapke kaam aur andaz main behad sanjidgi hain.
जवाब देंहटाएंaapki shubchintak
noor
But yeh story merko samaj nahi ayii pls smja do Instagram - akshitttsharmaaa dm me pls
हटाएंअच्छी रचना के बारे में दो शब्द कहना भी अनुसासन हीनता हि है
जवाब देंहटाएंक्योंकि आप पहले ही उसे एक "अच्छी रचना" कह संबोधित कर चुके हैं
धन्यवाद मानव कौल