रविवार, 12 मार्च 2017






aRANYA Presents,














    चुहल...



















                                                   Written & Directed by- manav kaul




चुहल...

                                   

                                                   Written & Directed by- Manav Kaul

                   
Scene-0

MUSIC फेड इन होता है... लाइट आती है तो हमें कुछ महिलाएँ (जो अलग-अलग उम्र और वर्ग का प्रतिनिधित्व कर सकें।) स्टेज में बिख़री हुई ख़ड़ी दिखती हैं। हर महिला पपेट की तरह अपने चार क्लीषे काम को बार-बार दौहरा रही हैं। एक लड़का ऑफिस वर्दी में अंदर आता है जिसके पीछे एक ट्युरिस्ट नुमा आदमी प्रवेश करता है।
लड़का-     आईये सर, ये हमारे म्युज़ियम का सबसे बहतरीन हिस्सा है जिसे हमने डेडिकेट किया है भारतीय नारी को, इडियन वुमेन। थोड़ा जल्दी देखिएगा म्युज़ियम बंद होने का वक़्त हो गया है। मैं नीचे आपका इंतज़ार करुंगा। जल्दी आईयेगा।
लड़का चला जाता है और ट्युरिस्ट उन लड़कियों पर नज़र डालता है। फिर देखता है कि उस रुम में कोई नहीं है। कोई सीसी टीवी केमेरा भी नहीं है। वो एक दो बार वाचमेन को आवाज़ देता है पर कोई आवाज़ वापिस नहीं आती। वो एक लड़की के पास जाता है... और उस लड़की को ख़राब तरीके से छूता है.. उसके छूते ही लड़की पपेट की तरह काम छोड़कर... पेंडुलम की तरह हिलने लगती है। फिर वह धीरे-धीर बाक़ी लड़कियों को छूना शुरू करता है। कभी अपनी उँगली से तो कभी उस तरीक़े से जैसे भीड़ भरी बस में पुरुष औरतों को छूते हैं, कभी अख़बार से लड़्की को मारता है.. कभी गालों को छूता है। वो लड़कियों को छूता चलता है और लड़कियाँ  पेंडुलम की तरह हिलने लगती हैं। जब वह सबसे आगे की लड़की तक पहुँचता है तो बाक़ी सारी लड़कियाँ पेंडुलम की तरह हिल रही हैं। वह उस लड़की को तेज़ घक्का देने लगता है, तो वह कुछ देर में गिर जाती है। वह आदमी घबराकर यहाँ-वहाँ देखता है। एक-एक करके सारी लड़कियाँ गिरने लगती हैं। वह आदमी भाग जाता है। आख़िरी औरत गिरने को होती है। हम ब्लैक आउट करते हैं।

Scene-1

(ब्लैक आउट में हमें गाना सुनाई देता है। यह गाना निम्मी गा रही है। गाना के बीच में लाईट आती है, हम देखते हैं कि सन्नाटे में सुधीर, निम्मी (सुधीर की बहन) और माँ (आरती की माँ) बैठे हैं। कुछ देर में गाना खत्म होता है.. सभी चुप हैं।)

निम्मी-  गाना ख़त्म हो गया!
(कोई कुछ नहीं कहता। निम्मी सुधीर को आँख दिखाती है, सुधीर मना करता है... निम्मी च्युंटी काटने की कोशिश करती है, सुधीर झिझककर ताली बजाता है।)

सुधीर- हम लोग चलें? बहुत देर हो चली है। शायद वह कहीं फँस गई होंगी।
माँ- फँसेंगी क्यों?
निम्मी- मतलब अटक गई होगीं।
माँ- अटक गई होगी! वह क्यों अटकेगी?
निम्मी- नहीं। असल में...
माँ- क्या?
सुधीर- आंटी, हमारी आख़िरी बस का टाइम भी हो रहा है। कुछ देर में वो निकल जाएगी.. तो थोड़ा हम निकलते हैं।
निम्मी- भईया इतना मज़ा तो आ रहा है।
सुधीर- मज़ा?
माँ- क्यों आपको ठीक नहीं लग रहा यहाँ?
सुधीर- नहीं नहीं आंटी। बहुत अच्छा लग रहा है। सब!
माँ- वह बस आती ही होगी।
निम्मी- तब तक मैं एक गाना ओर गा देती हूँ।
माँ- नहीं!
सुधीर- निम्मी थोड़ा रुक भी जाओ।
निम्मी- अच्छा ठीक है तो आप ही गा दीजिए।
माँ- मैं?
सुधीर- निम्मी, तुम्हारा दिमाग़ ठीक है? हम यहाँ लड़की देखने आए हैं और तुम आंटी से कह रही हो कि गाना सुनाओ?
निम्मी- नहीं नहीं भइया। मैं तो असल में...
माँ- मैं गाती हूँ... सुनाऊँ?
सुधीर- जी! हाँ हाँ!
निम्मी- सुनाइए न। बिंदास!
(माँ गाना सुनाने लगती हैं। वह आलाप लेती हैं तभी सब कुछ शांत हो जाता है। दरवाज़े की तरफ़ से लाइट बढ़ती है और सुधीर उस तरफ़ देखता है और दर्शकों से कहता है।)
सुधीर- कुछ बदलने वाला है। है न? यह आहट बरबस हम तक पहुँच जाती है। जैसे सालों से थमे हुए तालाब के किनारे हम बरसों-बरस इंतज़ार कर रहे थे। तभी एक कंकड़ कहीं से आकर गिरता है, लहरें उठती हैं, और हमें पता चलता है कि इस थमे हुए तलाब के भीतर कितना कुछ था जो हरकत कर रहा था। और कुछ भी वैसा नहीं रहता जो सालों से चला आ रहा है। ठीक उस क्षण, सब कुछ बदल जाता है।
(आरती भागती हुई भीतर आती है। सुधीर खड़ा होकर नमस्ते करता है। बाक़ी सभी बैठे रहते हैं। सुधीर को अजीब लगता है और वह तुरंत बैठ जाता है।)
आरती- Sorry! ऑफ़ि‍स में थोड़ी देर हो गई, मैं बस मुँह धोकर आती हूँ।
(आरती भीतर चली जाती है।)
सुधीर- (निम्मी से) मैं खड़ा हो गया था।
निम्मी- क्या?
माँ- अचानक ऑफिस में कोई ज़रूरी काम आ गया होगा सो इसे जाना पड़ा।
निम्मी- तो आरती संडे को भी काम करती हैं?
माँ- अरे प्रायवेट कंपनी है। जब काम बढ़ जाता है तो जाना पड़ता है, पर कभी-कभी।
(आरती बिना मुँह धोए वापस आ जाती है।)
माँ- बेटा, आओ बैठो। बड़ा मज़ा आ रहा था। है न?
सुधीर- जी!         
(सुधीर और निम्मी एक साथ कहते हैं- ‘हाँ, बिल्कुल!)
माँ- यह सुधीर है, पास ही के गाँव में। गाँव में...
सुधीर- मैं स्कूल में टीचर हूँ।
निम्मी- अरे! सरकारी स्कूल में?
माँ- हाँ टीचर हैं। मैं ज़रा कुछ खाने को बनाती हूँ। तुम लोग बैठ के आराम से बातें करो। (माँ भीतर चली जाती है।)
निम्मी- अरे वाह!
सुधीर- निम्मी, हमें तो निकलना...?
निम्मी- अरे आंटी! हमें थोड़ी जल्दी है। आख़िरी बस निकल जाएगी।
माँ- (भीतर से ही) अरे बस अभी हो जाएगा।
निम्मी- फिर ठीक है।
(निम्मी की कुछ समझ में नहीं आता कि वह बात कहाँ से शुरू करे। कुछ देर की चुप्पी के बाद।)
निम्मी- मैं निम्मी।
आरती- मैं आरती।
निम्मी- यह मेरे भाई हैं।
आरती- जी!
निम्मी- आप गाना गाती हैं?
सुधीर- निम्मी नहीं!
निम्मी- भइया, ज़रा बात करने दो। (तंज़ में)
आरती- तुम गाती हो?
निम्मी- बिल्कुल! मैं तो... मतलब गुनगुना लेती हूँ।
आरती- तो सुनाओ।
निम्मी- सुनाऊँ?
माँ- (निम्मी अभी पहला ही सुर लगाती है कि तभी भीतर से माँ की आवाज़ आती है-) निम्मी ज़रा मेरी थोड़ी मदद करा दोगी?
निम्मी- जी, आई। गाना तो रह ही गया... चलो बाद में।
(निम्मी सुधीर को आँख दिखाकर भीतर चली जाती है। सुधीर और आरती कुछ देर असहज चुप्पी में रहते हैं।)
सुधीर- (बहुत झिझकते हुए) हमारे यहाँ यह एक बिल्कुल पागल है।
आरती- यह एक ही...
(अचानक आरती के मुँह से निकल जाता है। सुधीर की समझ में नहीं आता वह क्या करे।)
आरती- आप हँसे क्यों थे?
सुधीर- आपने देख लिया था? Sorry!
आरती- पर क्यों हंसे थे?
सुधीर- मैं बताऊँ आपको?
आरती- जी।
सुधीर- आप भागती हुई आई थीं और फिर भीतर मुँह धोने चली गई थीं।
आरती- हाँ।
सुधीर- पर फिर आपने मुँह तो धोया ही नहीं?
आरती- हाँ... मुझे लगा क्या मुँह धोना।
(दोनों कुछ देर तक शांत रहते हैं।)
आरती- आपको पसीना बहुत आता है?
(सुधीर जेब में रुमाल टटोलता है तो उसे पता चलता है कि वह रुमाल नहीं लाया। तो वह अपनी शर्ट से पसीना पोछता है।)
सुधीर- नहीं। यूँ नहीं आता है। पर, अभी, मुझे न इसकी आदत नहीं है।
आरती- पसीने की?
सुधीर- नहीं। यह इस तरह... आना। और... मुझे अजीब लगता है।
आरती- तो क्यों आए?
सुधीर- पता नहीं। माँ हैं नहीं। और बापू और निम्मी लगातार मेरी शादी की चिंता में रहते हैं। उनको लगता है कि मेरे चुप रहने का कारण मेरा अकेलापन है।
आरती- क्या वह सही हैं?
सुधीर- पता नहीं। शायद हो भी।
आरती- अच्छा। आप शादी नहीं करना चाहते?
सुधीर- मैं बिल्कुल करना चाहता हूँ। पर यह तरीक़े देखिए न कितने डरावने हैं। मतलब ऐसे आकर बैठना और... फिर...फिर.. मतलब.. हे ना। मैं आपसे एक बात और कहना चाहता हूँ। मना करने में आप ज़्यादा समय नहीं लेना। मुझे वह दिन बड़े डरावने लगते हैं।
आरती- कौन से दिन?
सुधीर- वह मना करने के पहले वाले दिन होते हैं न... वह। लगता है जैसे एक लंबी परीक्षा चल रही है। बुख़ार बना रहता है।
आरती- बुख़ार?
सुधीर- हाँ, मुझे तो, बचपन से ही, परीक्षा के नाम से ही बुख़ार आ जाता था।
आरती- और अब आप स्कूल में टीचर हैं।
सुधीर- देखो त्रासदी!
आरती- त्रासदी या बदला? आप अब टीचर हो गए हैं वहाँ, जहाँ कभी परीक्षा दिया करते थे।
(तभी माँ भीतर से आती है।)
माँ- बेटा यह टेस्ट कर लेना... ठीक है क्या? असल में घर में सब कुछ यह ही बनाती है... तो... मुझे कुछ भी काम नहीं करने देती है। एक बार तो होली पर इसने पूरे मौहल्ले वालों के लिए...
आरती- माँ... माँ... ठीक है।
(माँ वापस भीतर चली जाती है।)
सुधीर- आंटी कितनी अच्छी हैं।
आरती- माँ झूठ बोल रही थी।
सुधीर- आपको यह मुझे बताने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
आरती- मुझे झूठ पसंद नहीं है।
सुधीर- तो आपको क्या पसंद है?
आरती- क्या कीजिएगा जानकर?
सुधीर- कुछ नहीं। अगर कुछ किया जा सकता है तो बता दीजिए।
आरती- किस बारे में?
सुधीर- आपकी पसंद जानकर अगर कुछ किया जा सकता है... तो बता दीजिए?
आरती- नहीं... कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
(चुप्पी।)
आरती- आपको कैसे लगता है कि मैं मना ही कर दूँगी।
सुधीर- मना ही होता है। पर... अगर आप चाहें तो हम इसपर बात कर सकते हैं।
आरती- अगर आपको बुरा न लगे तो क्या हम बाहर बरामदे में चलकर बात करें?
सुधीर- बरामदे में?
आरती- हाँ... मैं आपसे बात करते-करते पौधों को पानी भी दे दूँगी
सुधीर- हाँ क्यों नहीं... चलिए।
(आरती बारामदे में चली जाती है, सुधीर कुछ असहज सा बरामदे में आता है और बाहर की हवा में थोड़ा सहज महसूस करता है।)
सुधीर- आपके लिए क्या यह बहुत आम बात है?
आरती- हाँ!
सुधीर- मेरे तो हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते हैं।
आरती- पौधों को पानी डालने में?
सुधीर- नहीं... मैं तो इस तरह आने की बात कर रहा हूँ। मतलब इस तरह आना।
आरती- मैं समझ गई थी। मैं तो बस चुहल कर रही थी।
(वक़्फ़ा)
(सुधीर हँसने लगता है।)
सुधीर- मुझे अच्छा लगा आपसे मिलकर। धन्यवाद!
आरती- किस बात का?
सुधीर- यह चुहल का! मैंने कभी ऐसा सोचा नहीं था कि... ऐसी परीक्षा की घड़ी में कोई चुहल भी हो सकती है।
आरती- ऐसे सोचिए न कि चलो इस बहाने कम से कम पता तो लग गया कि इस धरती पर कहीं कोई आरती है और कहीं कोई...
सुधीर- सुधीर...
आरती- सुधीर है।
सुधीर- हाँ। आरती और सुधीर हैं।
आरती- आप गाना गाते हैं?
सुधीर- कतई नहीं। अच्छा... आप गाती हैं?
आरती- नहीं।
सुधीर- अच्छा? तो फिर आपने...
आरती- आपको बच्चे अच्छे लगते हैं?
सुधीर- शादी के बाद अगर एक हो तो ठीक है। पर अगर आप दो चाहती हैं तो हम उस पर बात कर सकते हैं। मेरी माँ को भी... दो...
आरती- नहीं नहीं... वैसे नहीं... आप बच्चों को पढ़ाते हैं न, इसलिए पूछा। आप तो माँ पर चले गए!
सुधीर- अच्छा! स्कूल में तो बच्चे बहुत हैं और बहुत बच्चे जब एक साथ आते हैं तो... अच्छे ही लगते हैं। हे ना...
(तभी पीछे से माँ और निम्मी पकोड़े लेकर आती हैं।)
माँ- अरे यह लोग कहाँ गए?
निम्मी- वह बाहर हैं। (आवाज़ देती है।) भइया आइए गरमा-गरम पकोड़े।
(सुधीर जाने लगता है पर पलटकर वापिस आता है और आरती से कहता है।)
सुधीर- सुनिए, मैं माफी चाहता हूँ! मुझे लगा था कि आप अपने बच्चों की बात कर रही थीं.. पर असल में आप दूसरे बच्चों की ही बात कर रही थीं। sorry.
आरती- सुनिए!
सुधीर- जी?
आरती- आप जवाब का इंतज़ार मत करिएगा। यह शादी नहीं हो सकती है।
सुधीर- क्यों?
आरती- आप अभी जानना चाहते हैं?
सुधीर- नहीं।
आरती- नहीं?
सुधीर- नहीं।
 (आरती भीतर जाती है और निम्मी और अपनी माँ के साथ बैठ जाती है। सुधीर वहीं खड़ा रहता है। वह दर्शकों को देखता है।)
सुधीर- एक बार मैंने ख़ुद को चमत्कृत-साताजमहल के सामने खड़ा पाया। मेरे चख़े अनुभवों के बाहर वह अनुभव था। मैं देर तक उसके गोल-गोल चक्कर काटता रहा। अचानक मुझे लगने लगा कि... बहुत भीतर एक संबंध मैं ताजमहल के साथ महसूस कर रहा हूँ, यह ताजमहल सिर्फ मेरा है। जब उसे बाक़ी लोग देख रहे थे, फोटो ख़ीच रहे थे, छू रहे थे तो मुझे घनघोर जलन महसूस हो रही थी। मैं इसे अपने साथ ले जाना चाहता था, अपने घर।
बाद में मैं अपने घर एक छोटा सा ताजमहल खरीद कर ले आया। वो जो बिकते हैं ना बाहर फुटपाथ पर... वो वाला। हमने आते ही उसे टी वी के ऊपर रख दिया. फिर कुछ वक़्त बाद हमने उसे फ्रिज पर रख दिया। फिर बहुत वक़्त तक वो  आलमारी के ऊपर रखा रहा । फिर कहीं गिर के टूट गया नहीं... वो कहीं गुम हो गया... देखिये वो ताजमहल अब मुझे याद भी नहीं।
(सुधीर भीतर जाता है। माँ पकोड़े देती है उसे। वह उस पकोड़े को देखता है फिर आरती को देखता है। आरती कहती है।)
आरती- देख क्या रहे हैं... खाइए!
(सुधीर आश्चर्य से आरती को देखता है। निम्मी धीरे से एक रुमानी गाना शुरू करती है। माँ और सुधीर दोनों एक साथ “निम्मी!!!”)
Black out…

Scene- 2.

(एक छोटे मोनटाज से सीन शुरू करते हैं जिसमें आरती एक व्यस्त प्रायवेट कंपनी के ऑफिस में काम कर रही है। तभी सुधीर प्रवेश करता है। सुधीर आरती की टेबल के सामने आकर खड़ा हो जाता है पर आरती उसे देख नहीं पाती। चपरासी चाय लेकर आरती के बगल में खड़ा है, वह आरती को कहता है।)
चपरासी- आरती जी... कोई आपसे मिलने आया है।
आरती- कहिए क्या काम है?
सुधीर- काम तो ख़ास नहीं है...
आरती- अरे! आप? बैठिए मैं अभी आती हूँ।
(आरती भीतर जाती है। वह चपरासी सुधीर को घूर रहा होता है। इशारे से चाय पूछता है, सुधीर घबराहट में मना कर देता है। आरती कुछ देर में वापस आती है और सुधीर के सामने बैठ जाती है। वह चपरासी अभी भी सुधीर को घूर रहा है। सुधीर आरती को देखकर हँस देता है।)
आरती- अरे आप फिर हँस रहे हैं?
सुधीर- आप फिर मुँह धोकर नहीं आईं।
आरती- मैं मुँह धोने नहीं गई थी। तो बताइए कैसे आना हुआ?
सुधीर- क्या हम यहीं बात करें?
आरती- क्यों यहाँ क्या बुराई है?
सुधीर- नहीं... यहाँ भी बात की जा सकती है।
आरती- हाँ... बोलिए।
सुधीर- आरती देखो मैं असल में.. अब कैसे कहूँ.. क्या है कि...
आरती- ओह! आप किसी का काम करवाने आए हैं? सुधीर, यह प्रायवेट कंपनी है। मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकती। और रिश्वत तो...
सुधीर- अरे! मैं किसी का काम करवाने नहीं आया हूँ। मैं तो आपसे...
आरती- मुझसे क्या?
सुधीर- आपसे कहने आया था कि मेरी शादी तय हो गई है।
चपरासी- (थोड़ी देर की चुप्पी के बाद) मुबारक हो! (मुबारक हो कहकर चपरासी चल देता है।)
आरती- ओह! आप कुछ देर बाहर बैठिए... मैं आती हूँ।
(सुधीर उठकर बाहर जाता है। आरती अपना सामान समेटती है। बेग उठाती और तभी उसके निग़ाह दर्शकों पर पड़ती है... वो मुस्कुराती है।)

आरती- (दर्शकों से-) कितनी अच्छी लड़की है यह। मैंने बहुत पहले कितनी अच्छी लड़की है यह, इस नाम की एक दुकान खोली थी, वह जो किराने की दुकान होती है न जिसमें जो आप चाहें आपको वह सब मिलता है... बिल्कुल वैसी। मुझे लगता था मैं असल में जो बेचती हूँ वही लोग ख़रीदना चाहते हैं। फिर बहुत बाद में पता चला कि असल में जो लोग ख़रीदना चाहते हैं, मैं तो वही बेच रही हूँ। यह बज़ार है। यहाँ डिमांड है और सप्लाई है। और इतिहास में हमारे जैसे थोक से थे। मैं तो बस उसे फुटकर में बेच रही हूँ। इस सब में मैं क्या चाहती हूँ? मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। तो एक दिन मैंने अपनी दुकान के शटर गिरा दिए। बस... अब मैं किसी को कुछ भी नहीं बेच रही हूँ।  
(तब तक दृश्य बदलता है और वह दोनों एक कैफ़े में बैठे हैं।)
वेटर- सर भीड़ बहुत थी आपका ऑर्डर सुन नहीं पाया।
सुधीर- मैंने कहा था दो चाय, शक्कर कम।
आरती-मेरे लिए शक्कर डालना..।
सुधीर- तो फिर मेरे लिए भी शक्कर डाल देना।
वेटर- जी अभी लाया।
आरती- अंत में आपको कोई लड़की मिल ही गई जिसने तुरंत हाँ कह दिया?
(सुधीर चुप रहता है।)
आरती- क्या हुआ? आप तो शादी करना चाहते थे... सब ठीक है!
सुधीर- हाँ... मैं ख़ुद यही सोच रहा था। पर फिर guilt क्यों हो रहा था यह समझ में नहीं आया।
आरती- किस बात का guilt?
सुधीर- जिस दिन मैं आपसे मिला था उस दिन कुछ हुआ था। मतलब ऐसा कुछ हुआ नहीं था। बस मैं कुछ भरोसे में था। मेरी ग़लती है... पर उस भरोसे की वजह से एक संबंध आपसे बन गया था। इस संबंध में मैंने पहली बार अपनापन महसूस किया था। सो... आप समझ रही होंगी मैं कैसा पागल हूँ!
आरती- हाँ।
सुधीर- जी?
आरती- हाँ वही सोच रही हूँ कि कितने पागल हो।
सुधीर- मैं माफ़ी चाहता हूँ।
(दोनों कुछ देर शांत बैठे रहते हैं।)
आरती- तो कबकी है शादी?
सुधीर- अभी डेट तय नहीं है, पर वह कह रहे हैं कि जल्दी करना चाहते हैं।
आरती- अच्छा! तो लड़की ने हाँ बोल दिया?
सुधीर- क्यों तुम्हें इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है?
आरती- नहीं अधिकतर तुम परीक्षा में बैठते हो... इसलिए पूछा।
सुधीर- इस बार मैं टीचर था... हाँ और ना मेरे हाथ में था।
आरती- तो तुमने हाँ कर दिया?
सुधीर- हाँ।
आरती- और लड़की ने हाँ कह दिया?
सुधीर- हाँ।
आरती- तो मुझसे मिलने क्यों आए हो?
सुधीर- ईमानदारी की बात है कि मुझे लगा एक आख़िरी चांस ले लेता हूँ। अपने मन की पूरी बात आपसे कह दूँगा और आपसे पूरी बात सुन लूँगा... आपने तो अभी तक कुछ कहा ही नहीं है... तो कम से कम... है न...
आरती- (आरती अपनी मुस्कुराहट रोकते हुए) चुप हो जाओ... चुप हो जाओ।
सुधीर- सॉरी! सॉरी!
आरती- यूँ लगता है मानो शादी करने के लिए पैदा हुए थे!
सुधीर- वैसे टीचर बनने के लिए भी पैदा नहीं हुआ था।
आरती- तो पूरी ज़िदगी compromise ही करोगे?
सुधीर- एक बार सोचा compromise नहीं करके देखता हूँ... तो देखो कितनी डाँट खा रहा हूँ।
आरती- मैं डाँट नहीं रही हूँ।
सुधीर- हम बातचीत भी कहाँ कर रहे हैं?
(दर्शकों से।) सब गड़बड़ हो गया। (उठकर दर्शकों के क़रीब जाता है।) यह जो साँप-सीढ़ी का खेल है न... यह खेल बड़ा अजब है। कभी सीढ़ी मिलती है और कभी साँप मिलता है। आपको क्या लगता है कि आप बड़े चालाक है.. आप अपनी चालाकी में ऊपर की तरफ़ जा रहे हैं! एक बार सबसे ऊपर पहुँच गए तो इस गोल-गोल चक्कर से छुटकारा! पर इस गोल-गोल चक्कर से छुटकारा कभी नहीं है। हम हर बार पासा फेंकते हैं... और हर बार एक नंबर से रह जाते हैं। वो 99वें वाला साँप मुँह बाए सामने खड़ा दिखता है और यह खेल फिर शुरू होता है। अब आप ही बताइए क्या करें?
आरती- मतलब?
सुधीर- (वापस आरती के पास) मतलब, मैं टीचर हूँ... क्यों हूँ पता नहीं। बच्चे उतने अच्छे नहीं लगते पर फिर भी उनके बीच ही घिरा रहता हूँ। स्कूल छोटे गाँव में है और वहाँ कुछ भी करने को नहीं है। बस हर शाम जाकर हनुमान टेकड़ी पर बैठ जाता हूँ। सुबह लगता है कि एक सीढ़ी मिल गई है अब ऊपर चढ़ जाऊँगा... पर शाम होते-होते साँप डस लेता है और मैं वापस वहीं का वहीं!
आरती- तुम्हारे घर में साँप हैं?
सुधीर- नहीं मैं वह साँप-सीढ़ी वाले साँप की बात कर रहा था।
आरती- मैं समझी नहीं... तुम घर में अकेले बैठकर साँप-सीढ़ी खेलते हो?
(वक़्फ़ा)
आरती- क्या हुआ?
सुधीर- कुछ नहीं।
आरती- सॉरी! मैं समझ गई तुम जो कहना चाहते हो।
सुधीर- अब इसमें तुम पूछती हो कि पैदा क्यों हुआ हूँ? मुझे नहीं पता। मुझे यह भी नहीं पता कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। तुम बहुत पसंद आई... तो मैंने...
(इसी बीच वेटर चाय लेकर आता है। वह एक कप टेबल पर रखने को होता है तभी आरती कहती है।)
आरती- मैं किसी से प्यार करती हूँ। (वेटर फ्रीज़ हो जाता है। कुछ देर तक तीनों आश्चर्य में रुके रहते हैं।)
सुधीर- सॉरी! मुझे नहीं पता था। (वेटर कप वापस ट्रे में रखता है और निकल जाता है।सुधीर खड़ा हो जाता है।) मैं... मतलब, मुझे बिल्कुल इसका अंदाज़ा नहीं था.. तुमने पहले कह दिया होता..  माफ़ कर दीजिए!
(सुधीर चला जाता है।)

आरती- (दर्शकों से) वह एक होगा जिसके साथ मैं अपना पूरा जीवन बिता सकती हूँ। वह एक हमेशा होगा। किसी के भी आते ही लगता है, यह तो है। प्यार तो होगा। प्यार है नहीं कभी भी। वह हमेशा होगा।
Fade out…

Scene-3

(निम्मी अकेली बैठी हुई है।)
निम्मी- आंटी... आंटी...
माँ- आई बस।
(माँ भीतर से पानी लेकर आती हैं और निम्मी के बग़ल में बैठ जाती हैं।)

माँ- मैं अंदर बहुत सोच रही थी। बेटा, बहुत सोचा पर बिलकुल समझ में नहीं आया कौन हो तुम?
निम्मी- अरे! अच्छा! आंटी क़रीब एक साल पहले मैं अपने भाई के साथ आई थी... आरती को देखने?
माँ- अच्छा! हाँ! वही तो... बिल्कुल!
निम्मी- हाँ।
माँ- गगन?
निम्मी- नहीं आंटी... सुधीर।
माँ- हाँ... वह जो टकले थे?
निम्मी- नहीं नहीं... भइया के तो बाल हैं।
माँ- अरे हाँ! वह... वह न अनिल कपूर जैसी मूँछ वाले?
निम्मी- नहीं आंटी... भइया चिकने हैं।
माँ- ओफ़्फ़! अभी इसे इतने लोग देखने आ चुके हैं न कि मेरा तो सिर-पैर का कोई हिसाब नहीं है। तो वह जो है, सुधीर कैसे हैं?
निम्मी- बहुत अच्छे हैं।
(वक़्फ़ा)
माँ- पानी पी लिया?
निम्मी- हाँ।
माँ- चाय?
निम्मी- हाँ।
माँ- शक्कर नहीं है।
निम्मी- अरे!
माँ- तो फिर... हैं?
निम्मी- पकोड़े?
माँ- अरे तो यहाँ एक साल बाद तुम पकोड़े ख़ाने आई हो?
निम्मी- नहीं आंटी वह आरती?
माँ- उससे मिलने?
निम्मी- नहीं... मेरी अगले महीने शादी है। मैं उसी की इत्तला देने आई थी।
माँ- मुबारक हो!
निम्मी- आरती की तो शादी हो ही गई होगी... है न?
माँ- इत्ती सी धरी हो तुम... और देखो तुम्हारी शादी हो रही है। और एक यह है... ऊँट हो चुकी है पर...
निम्मी- अरे वाह! मतलब शादी नहीं हुई अभी?
माँ- तुम्हें बड़ी खुशी हो रही है?
निम्मी- नहीं आंटी... यह तो ठीक नहीं है! मतलब, ऐसे कैसे? अगर... ग़लत है ये.. मतलब.. होनी तो... बिल्कुल... है न!
माँ- रहने दो तुम... जब ख़ुद के मुँह में लड्डू फँसा हो तो दूसरों के लिए आशीर्वाद नहीं निकलता है। चलो बधाई है! तो ठीक है फिर!
निम्मी- पर आरती?
माँ- वह जब आएगी हम बता देंगे।
निम्मी- अच्छा आप बस मेरी यह चिठ्ठी उनको दे देना जब वह आएँ।
माँ- ठीक...
(निम्मी लिखने बैठती है तभी। आरती आ जाती है। निम्मी खुश हो जाती है पर लिखना बंद नहीं करती है।)

आरती- निम्मी... तुम?
माँ- अरे बेटा, तुम जानती हो? वह एक लड़का आया था न... क्या नाम था?
आरती- सुधीर।
माँ- हाँ... अरे तुम्हें तो याद है!
आरती- निम्मी यहाँ कैसे?
(निम्मी जल्दी-जल्दी अपना लिखना खत्म करती है।)
माँ- अरे सही काम सही समय से कर रही है... शादी। और देख लो तुम ख़ुद को...
(माँ पानी का गिलास लेकर भीतर चली जाती है। निम्मी आरती के पास आती है और उसे पर्ची देती है।)
निम्मी- आपका ही इंतज़ार कर रही थी... आख़िरी बस निकल जाएगी... आप बस इसे पढ़ लेना।
(निम्मी आरती को गले लगाती है)
निम्मी- आपकी शादी नहीं हुई अब तक।
(खुश होकर निम्मी चली जाती है। आरती की कुछ समझ में नहीं आता।  निम्मी के जाने के बाद आरती पर्ची पढ़ती है, पहले आश्चर्य... फिर हल्की मुस्कुराहट उसके चहरे पर आती है।)
BLACK OUT

Scene-4

(स्कूल... अचानक हम देखते हैं कि बहुत सारे बच्चे बैठे हैं। एक कोने में कुर्सी लगी है। और चपरासी घंटी बजाकर बच्चों के सारे पेपर उड़ाता है। सारे बच्चे अपने परीक्षा के पेपर लेकर अपनी-अपनी जगह पर आकर बैठ जाते हैं। सुधीर भीतर से आकर कुर्सी पर बैठता है, चपरासी चला जाता है। कुछ देर में वह चपरासी वापस आता है।)
चपरासी- साब!
सुधीर- हाँ, क्या हुआ?
रानी- कोई लड़की आपसे मिलने आई थी।
सारे बच्चे- ओ ओ ओ ओ ओ...!
सुधीर- श्श्श्श्श...! श्श्श्श्श...!
चपरासी- अरे! चुप! (बच्चों से)
सुधीर- चुप! देख नहीं रहे परीक्षा चल रही है... चलो जाओ।
(चपरासी जाता है। तभी एक बच्चा चिल्लाता है supplementary sir! सुधीर उसे ले जाने का इशारा करता है। वह भागता हुआ आता है और supplementary लेकर चला जाता है। चपरासी वापस आता है।)
रानी- मैंने कह दिया कि आप क्लास में व्यस्त हैं।
सारे बच्चे- (खिल्ली उड़ाने जैसा हँसते है।) हि हि हि हि...
सुधीर- श्श्श्श्श...! अच्छा किया... चलो अब।
(चपरासी चला जाता है। एक तरफ़ से आरती प्रवेश करती है और स्टेज के दूसरी तरफ़ बैठ जाती है। हम इस हिस्से को हनुमान टेकड़ी कहते हैं। घंटी बजती है। आरती और सुधीर एक-साथ घड़ी को देखते हैं।)
सुधीर- बस आख़िरी आधा घंटा और... चलो जल्दी ख़त्म करो।
(तभी चपरासी भागकर वापस आता है।)

चपरासी- (झेंपते हुए) साब! वह लड़की कहकर गई कि वह हनुमान टेकड़ी पर इंतज़ार करेगी आपका।
सारे बच्चे- भाई सॉब!
चपरासी- अरे चुप! बच्चे कितने बत्तमीज़ हैं यह... सुधीर जी आपने बहुत ढ़ील दे रखी है... मैं होता तो सूटिंग कर देता सबकी।
सुधीर- हनुमान टेकड़ी... पक्का हनुमान टेकड़ी?
चपरासी- हाँ!
सुधीर- सुनो तुम यहाँ बैठो। आधे घंटे में इनसे पेपर छीन लेना... मैं चला।
(सुधीर भागता हुआ जाता है। चपरासी सुधीर की कुर्सी पर बैठता है। और सारे बच्चों से कहता है।)
चपरासी- पंद्राह मिनट मेरी तरफ़ से एक्स्ट्रा... ऐश करो!
(सारे बच्चे देखते हैं कि सर चले गए हैं। वह सब खड़े होकर चपरासी को घेर लेते हैं। चपरासी डर के मारे चिल्लाता है- “छुट्टी!!!” सभी भाग जाते हैं। चपरासी भी कुर्सी लेकर निकल जाता है।)

Scene-5

(हनुमान टेकड़ी पर आरती।)

आरती- (दर्शकों से) हमें पता है कि ग़लत क्या है। हम कुछ ग़लत नहीं करते हैं। पर वह जो बिंदु है जहाँ पर सही ख़त्म होता है और ग़लत शुरू होता है। हम उस बिंदु को बार-बार छूने का मज़ा नहीं छोड़ते हैं। कभी भी।
 (सुधीर भागता हुआ प्रवेश करता है, वह हड़बड़ाया हुआ है। उसे आरती को वहाँ देखकर विश्वास नहीं होता। वह बहुत कुछ कहने में कुछ नहीं कह पाता।)
सुधीर- तुम... यहाँ मेरे गाँव में?
आरती- हाँ
सुधीर-  मतलब... मुझे विश्वास नहीं...!
(वह बस हँसता जाता है, कुछ कह नहीं पाता ढंग से। आरती उसे देख रही है।)
आरती- बहुत अच्छी हवा चलती है यहाँ।
(वक़्फ़ा)
आरती- पहले वह घर नहीं था यहाँ... वह शायद अभी-अभी बना है।
(वक़्फ़ा)
आरती- तुम यहाँ अब नहीं आते हो?
(वक़्फ़ा)
आरती- क्या हुआ?
सुधीर- मुझे यक़ीन नहीं हो रहा है... तुम यहाँ, हनुमान टेकड़ी पर क्या कर रही हो?
आरती- तुमसे मिलने आई हूँ।
सुधीर- क्यों?
आरती- देखने आई थी कि तुम्हारा शादीशुदा संसार कैसा चल रहा है! कितने बच्चे हैं?
सुधीर- हमारे यहाँ सब ठीक चल रहा है।
आरती- अच्छा है।
सुधीर- तुम्हें कैसे पता कि वह घर पहले यहाँ नहीं था? तुम पहले भी यहाँ आ चुकी हो?
आरती- हाँ। क़रीब एक साल पहले। जब तुम मेरे ऑफिस आए थे उसके कुछ दिनों बाद। तुमने कहा था कि तुम रोज़ शाम को यहाँ आते हो, पर तुम उस रोज़ नहीं आए थे।
सुधीर- ओह! तुम सच में आई थीं यहाँ?
आरती- हाँ।
सुधीर-
 मैं क्यों नहीं आया था?
आरती- मुझे क्या पता, कुछ दिनों बाद मैं फिर आई थी। तब भी तुम नहीं दिखे। अब तुम्हारा घर, स्कूल कुछ पता नहीं था। फिर मैंने सोचा अगर मैंने तुम्हें ढूँढ़ भी लिया तो क्या करूँगी! मैं तुम्हें तुम्हें शादी करने से रोकना तो नहीं चाहती... फिर मैं नहीं आई।
(आरती सुधीर को बैठने का इशारा करती है। स्टेज के दूसरी तरफ़ वह बैठा जाता है।)
सुधीर- ओह! मैं बस बीच में एक-दो बार ही नहीं आ पाया था। शायद... तुम यहाँ दो बार आई थीं। काश मैं...
आरती- काश क्या?
सुधीर- काश क्या? काश कुछ नहीं। पर एक बात बताओ...  अगर तुम मुझे शादी से रोकना नहीं चाहती थी तो क्यों आई थी?
आरती- क्या हमारे पास हर क्यों का जवाब होता है? बस मैं आई थी। मेरे पास इसका कोई ठीक कारण नहीं है।
सुधीर- (मन में) क्या बोलती हो कुछ समझ में नहीं आता। (आरती से) वैसे मैं तुम्हें एक बात बता दूं... कि मैंने अभी तक शादी नहीं की है।
आरती- जानती हूँ। निम्मी आई थी।
सुधीर- निम्मी???
आरती- वैसे मैं भी तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ कि एक मेरी तस्वीर है..  वह जो शादी के लिए  भेजते हैं न... और एक तुम्हारी कोई दीवार है...
सुधीर- निम्मी! ओफ़्फ़! गधी! मैं... मैं... मैं उसे ज़िदा नहीं छोड़ूँगे। उसने यह तुम्हें क्यों बताया?
आरती- नहीं, निम्मी से नाराज़ मत हो। वह तुमसे बहुत प्यार करती है। पर सच बताओ, मेरी तस्वीर तुमने अपनी दीवार पर टाँग रखी है?
सुधीर- नहीं, असल में दीवार में एक छेद हो गया था तो मैंने सोचा कि वह तस्वीर...
(आरती हँसने लगती है। सुधीर बहुत शर्मिंदा हो जाता है।)
सुधीर- तुम्हारे प्यार का क्या हुआ?
आरती- मेरे प्यार का?
सुधीर- अरे! तुम किसी से प्यार करती थी... शादी हो गई तुम्हारी?
आरती- हाँ।
सुधीर- मुबारक हो! फिर तो...
आरती- सुधीर, अगर शादी की होती तो यहाँ क्यों आती!
सुधीर- तुम असंभव हो!
आरती- असंभव?
सुधीर- कैसी हो तुम?
आरती- कैसी हूँ?
सुधीर- मुझे तुमसे बहुत डर लगता है।
आरती- अरे! मुझसे?
सुधीर- हाँ।
आरती- मैंने क्या किया है?
सुधीर- मुझे लगता है कि एक पहेली चल रही है, जिसमें सारे जवाब कहीं बीच में हैं। देखो मैं तुमसे दो बार मिला हूँ और हर बार मिलने के बाद देर तक हमारे बीच हुई बातचीत को ही सुलझाता रहता हूँ। कि तुमने ये कहा था... नहीं असल में उसका मतलब तो वो था.. पर फिर ये क्यों हुआ.. अरे हाँ .. वो .. नहीं ये... ।
आरती- तुम्हारे पास न बहुत ख़ाली समय है।
सुधीर- यह देखो... यह देखो... जैसे यह जवाब। कैसा जवाब है यह? चुभता भी है और सही भी लगता है!
आरती- मेरे दिमाग़ में ऐसा कुछ भी नहीं है।
सुधीर- छोड़ो तुम नहीं समझोगी।
आरती- क्या नहीं समझूँगी?
सुधीर- अगर तुम मेरी जगह होती न तो तुम्हें समझ में आता कि असल में मैं क्या कहना चाहता हूँ तुमसे।
आरती- और अगर तुम मेरी जगह होते तो तुम्हें पता लगता कि तुम कितने funny हो।
सुधीर- funny???
आरती- हाँ... सच में!
सुधीर- कितना मस्त जीवन होता मेरा अगर... काश! काश मैं तुम्हारी जगह होता जहाँ से अंत में सब funny दिखता है!
आरती- और देखो, मुझे तुम पर रश्क होता है।
सुधीर- मुझ पर?
आरती- हाँ। तुम्हें पता है मैं यहाँ क्यों आ सकी? क्योंकि मैं तुम्हारे पास आ सकती थी। तुम वह जगह देते हो कि तुम्हारे तक आसानी से पहुँचा जा सकता है। तुम हो ही ऐसे...
सुधीर- बताओ! तुम्हें मुझ पर रश्क होता है और मैं तुम्हारे जैसा होना चाहता हूँ... यह funny है?
आरती- हाँ। सुनो न... एक बार बदलकर देखते हैं।
सुधीर- क्या? क्या बदलकर देखते हैं?
आरती- रोल। मैं तुम्हारे जैसी होना चाहती हूँ। अभी... इसी वक़्त!
सुधीर- अरे! यह कोई मज़ाक है क्या? मतलब... तुम मेरे जैसा कैसे हो सकती हो?
आरती- बस तुम यहाँ आकर बैठ जाओ और मैं तुम्हारी जगह... हो गया!
सुधीर- मैं तो ऐसे ही कह रहा था, तुम तो सच में... ऐसा थोड़ी होता है।
आरती- उठो! उठो!
(आरती सुधीर के पास आ जाती है और उसे उठा देती है। सुधीर उठता है। आरती उसकी जगह बैठ जाती है। सुधीर खड़ा रहता है।)
आरती- (सुधीर की तरह बोलने की कोशिश करती है।) अरे आप खड़े क्यों हैं? जाइए बैठिए।
(सुधीर की कुछ समझ नहीं आता।)
आरती- अरे! देखो तुम जैसे ही मेरी जगह बैठोगे न, तो मेरे जैसे हो जाओगे। जाओ... आप खड़े क्यों हैं? बैठिए।
सुधीर- एक तो मैं ऐसे नहीं बोलता हूँ।
(सुधीर बैठता है। फिर खड़ा हो जाता है।)
सुधीर- अरे! यह क्या है? हम इतने दिनों बाद मिले हैं और तुम तो इसे बिल्कुल मज़ाक बना दे रही हो...
आरती- तुम्हीं ने कहा न तुम्हें चुहल पसंद है... तो हम बस चुहल कर रहे हैं समझ लो। चलो न... बैठो।
(सुधीर फिर बैठता है।)
आरती- शुरु करें?
(सुधीर उसे रुकने का इशारा करता है और फिर आरती की तरह बैठने की कोशिश करता है... फिर आरती से इशारे से कहता है.. शुरु करो।)
आरती- तो माँ कैसी हैं?
सुधीर- माँ तो नहीं हैं। बताया था ना तुम्हें?
आरती- तुम्हारी माँ है। (आरती इशारा करती है कि अब तुम मैं हूँ और मैं तुम हो।)
सुधीर- ओ... अच्छा तो मेरी माँ है...।
आरती- हाँ।
सुधीर- और निम्मी तुम्हारी बहन है।
आरती- हाँ।
सुधीर- उसे तो तुम रख लो...।
आरती- तो बोलो माँ कैसी हैं?
सुधीर- माँ अच्छी है। (अचानक सुधीर को यह कहना अच्छा लगता है कि माँ अच्छी है। वह एक बार फिर कहता है और उसे अच्छा लगता है।)
आरती- तो तुम किसी से प्रेम करते थे, इसलिए तुमने मुझे मना कर दिया शादी के लिए?
सुधीर- मैंने? ...अरे मैं तो कब से तुम्हारे पीछे पड़ा हूँ कि कर लो शादी और ख़त्म करो ये लफड़ा।
आरती- अरे तुम फिर समझ ही नहीं रहे हो...
सुधीर- (अचानक सुधीर की समझ में आता है और वह बहुत खुश हो जाता है।) हाँ मैंने... अरे यह तो सब कुछ बदल गया। बहुत सही है। हाँ हाँ हाँ... मैंने तुम्हें मना कर दिया। साफ़ कह दिया भूल जाओ नहीं हो सकती यह शादी।
आरती- क्यों?
सुधीर- क्योंकि... क्योंकि...
आरती- क्योंकि तुम किसी से प्यार करते थे... जानती हूँ।
सुधीर- नहीं... क्योंकि मुझे तुम्हारी नाक नहीं पसंद...
आरती- मेरी नाक?
सुधीर- हाँ और जैसे तुम हँसती हो, वह भी नहीं पसंद...
(आरती सुधीर की तरफ़ आश्चर्य से देखती है। सुधीर घबराकर उसकी तरफ़ जाता है।)
सुधीर- सॉरी सॉरी! वह हँसी वाली बात मुँह से निकल गई। ग़लती से... चुहल-चुहल में गड़बड़ हो गई।
आरती- और नाक वाली?
सुधीर- तुम्हारी नाक तो बहुत अच्छी है।
आरती- अच्छा!
सुधीर- क्या हुआ? मैंने कुछ ज़्यादा बोल दिया?
आरती- वहीं बैठो। ठीक है... सही जा रहे हो। और कुछ?
सुधीर- एक और बात कहूँ?
आरती- बोलो...
सुधीर- अच्छा तुम यह बताओ कि... (उसे हँसी आती है।) यह बताओ कि ऐसा क्या देखा तुमने मुझमें कि तुम मुझसे शादी करने के पीछे मरी ही चली जा रही हो?
आरती- वाह!
सुधीर- कितना अच्छा लगा यह बोलकर... अब जवाब दो? बोलो?
आरती- ह्म्म... जिस तरह तुमने मुझे मना किया। हाँ कहने में उतना आकर्षण नहीं है जितना ना कहने में है।
सुधीर- अरे वाह! बहुत सही... और और?
आरती- शायद एक कहानी है। जितनी बार तुमसे मिली हूँ। ऐसा लगता है कि तुम्हारे सारे कहे में बहुत सारा अनकहा रह गया है। इसलिए बार-बार इसे जानने चली आती हूँ।
सुधीर- यही तो... यही तो। बिल्कुल सही कहा तुमने। यही अनकहा। मुझे हमेशा लगता था कि कुछ अनकहा रह गया है। इसलिए बार-बार तुम्हारे बारे में सोचता था। तुम...
आरती- यह क्या है?
सुधीर- क्या है?
आरती- अभी तुम मैं थे और मैं तुम। अभी तुम तुम हो गए। छोड़ो तुमसे नहीं होगा। आराम से बैठते हैं।
सुधीर- सॉरी! पर...
(सुधीर वापस भागकर अपनी जगह पर बैठता है। दोनों चुप हो जाते हैं।)
सुधीर- ठीक है, जब तक तुम नहीं कहोगी हम चुहल करते रहेंगे।
आरती- रहने दो।
(आरती पलटकर दूसरी तरफ़ देखने लगती है।)
सुधीर- यह देखो। मैं तुम हूँ... और यह मेरी दर्द भरी कहानी सुनो। मैं एक लड़की से प्रेम करता था। वह भी मुझसे भयंकर प्रेम करती थी। हम दोनों शादी करना चाहते थे, पर नहीं कर पाए।। मैं उसे कभी भुला नहीं पाया। इसलिए अब यह। हमारी शादी मुश्किल है। नामुमकिन!
(आरती हँसने लगती है।)
आरती- कितनी सीधी सच्ची साफ़ बात है।
सुधीर- हाँ।
आरती- झूठ है।
सुधीर- यही सच है।
आरती- सच?
सुधीर- हाँ... बिल्कुल।
आरती- क्या नाम था उस लड़की का? बोलो... जल्दी बताओ?
सुधीर- उसका नाम...
आरती- झूठ।
सुधीर- तो यह तो...
आरती- झूठ।
सुधीर- उसका नाम प्रेरणा है।
आरती- क्या?
सुधीर- प्रेरणा।
आरती- तुम फँस जाओगे।
सुधीर- नहीं फँसूँगा।
आरती- पक्का?
सुधीर- हाँ।
आरती- उसकी नाक कैसी है? अब मत बोलना मेरे जैसी!
सुधीर- बिल्कुल नहीं। उसकी नाक बहुत खूबसूरत थी... तराशी हुई। प्रेरणा के नाक़।
आरती- गाती है?
सुधीर- हाँ। मेरी बहन निम्मी को वही गाना सिखाती थी। मैं वहीं पहली बार उससे मिला था, उसकी संगीत क्लास में। वह गा रही थी और मैं मंत्रमुग्ध हो गया था।
आरती- पहली बार अकेले बात कब हुई?
सुधीर- मैं तबला सीखने संगीत क्लास चला गया था। हम दोनों गली के नुक्कड़ तक साथ पैदल चलते थे। वहाँ उसने पहली बार मुझे कहा था- ज़ाकिर हुसैन। अरे उस वक़्त मेरे बाल बड़े हुआ करते थे। और जब मैं तिरकिट धा तिरकिट धा करता था तो.. ऎसे आगे आते थे।
आरती- सच में?
सुधीर- हाँ। असल में मैं उसके घर जाने से डरता था। उसके पास दो कुत्ते थे। उसके पिताजी डॉक्टर थे। पर आरती, वह जब भी मुझे देखती थी तो मुझे लगता था... आह! वह टीस उठती है ना जब नज़र मिलती है। आह! उसके देखते ही... ओह!
आरती- बस-बस!
सुधीर- और कुछ?
आरती- उसमें कोई बुराई?
सुधीर- सिर्फ़ एक। उसने मुझे छोड़ दिया... जो मेरी समझ में नहीं आया।
आरती- क्यों?
सुधीर- क्योंकि हम एक-दूसरे से भयंकर प्यार करते थे।
आरती- तो जाकर कारण पता किया?
सुधीर- मुझमें हिम्मत नहीं थी।
आरती- अभी मिलते हो?
सुधीर- नहीं उसकी शादी हो चुकी है।
आरती- तुम सोए हो प्रेरणा के साथ?
सुधीर- क्या?
आरती- सोए हो?
सुधीर- यह वैसा प्यार नहीं था।
आरती- तो कैसा था?
सुधीर- सच का प्यार।
आरती- जिसमें साथ भजन गाते हैं?
सुधीर- तुम नहीं समझोगी। इसलिए मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता।
आरती- ओ, तो यह भी एक कारण है!
सुधीर- मुख्य कारण यही है।
(वक़्फ़ा)

आरती- तुम सच में किसी से प्यार करते थे?
(सुधीर दर्शकों से)
सुधीर- हम क्या पैदा कर देते हैं बीच में? कोई हमेशा बीच में होता है। हम हमेशा तीन होते हैं... दो नहीं। तीसरा अगर कोई नहीं है तो हम प्रेम को बीच में खड़ा कर देते हैं। और कभी-कभी प्रेम के कारण वह दिखना बंद हो जाता है जिससे हम प्रेम करते हैं।
(आरती से) प्रेरणा में एक बच्चों-सी उत्सुकता थी। उससे बातें मुक्त करती थी... बाँधती नहीं थी।
आरती- मैं तुमसे क्यों शादी करना चाहती हूँ?
सुधीर- हाँ यह बताओ... क्यों?
आरती- मैं एक लड़के के प्रेम में थी। मैं नहीं वह मेरे प्रेम में था।
(सुधीर मुस्कुरा देता है।)
आरती- क्या हुआ?
सुधीर- नहीं... कुछ नहीं!
आरती- तुम्हें कुछ अजीब लगा?
सुधीर- वहतुम्हारे प्रेम में था।
आरती- हाँ, वह मेरे प्रेम में था।
सुधीर- यह तुम्हें बताने की ज़रूरत नहीं है।
आरती- ज़रूरत है... क्योंकि तुमने तो शादी से मना कर दिया न मुझे? तो ज़रूरत है।
सुधीर- अच्छा! क्या नाम था उसका? जल्दी बताओ?
आरती- राकेश, दिनेश, रवि, रमेश... क्या फर्क पड़ता है!
(दोनों चुप हो जाते हैं।)
सुधीर- फिर?
आरती- जब हम मिलते थे तो हम भजन नहीं करते थे।
सुधीर- ओ! मतलब.... अच्छा?
आरती- हाँ! अंत में वह शादी चाहता था पर मैं नहीं।
सुधीर- क्यों?
आरती- मैं कॉलेज में थी। यंग थी। तैयार नहीं थी। वह बहुत बोरिंग था। वगैरह-वगैराह...
सुधीर- फिर?
आरती- फिर उसकी शादी हो गई। और उसकी शादी होते ही वह मुझे इतना पसंद आने लगा। या तुम्हारी भाषा में कहूँ... ओह, मैं तो तुम्हारी ही भाषा में ही बात कर रही हूँ। मैं उससे प्यार करने लगी थी.. भयंकर वाला। जब तुम मुझसे मिलने आए तो मुझे लगा कि अरे यह तो वही है। राकेश, दिनेश, रवि, रमेश-सा सुधीर! इसलिए तुम!
सुधीर- इसलिए तुम? मतलब, मैं इतना बोरिंग हूँ?
आरती- नहीं... तुम्हारी नाक उससे बिल्कुल मिलती है। तुम्हारी बातें और तुम... तुम इस वक़्त तो बोरिंग नहीं हो।
सुधीर- सच में?
आरती- सच में मतलब?
सुधीर- सच में मैं इसलिए पसंद आया?
आरती- सच थोड़ा कड़वा है। तुम सुन नहीं पाओगे!
सुधीर- कोशिश करो।
आरती- सच यह कि... एक Void है। ख़ालीपन। इसे भरने के लिए कुछ चाहिए। एक खिलौना, इसलिए तुम! कोई दूसरा भी हो सकता था, पर आकर्षण तुम पर ही है क्योंकि... इस खिलौने को देखकर लगता है कि इससे बहुत समय तक खेला जा सकता है। यह नए-नए खेल में फँसाए रखेगा... और बोरियत नहीं होगी। इसलिए तुम!
सुधीर- यह बात इतनी चुभ क्यों रही है।
आरती- तुम बताओ?
सुधीर- शायद बहुत सच्चाई है इसमें।
आरती- मैंने पहले ही कहा था
सुधीर- हाँ, तुमने पहले ही कहा था।

आरती- (दर्शकों से) पहले जब कुछ भी नहीं था, तो ब्रह्म था। वह एक, अकेला। जब कुछ था ही नहीं तो वह अकेला बोर होने लगा। तो उसे ख़ुद को जनने की इच्छा हुई। तो वह एक से दो हो गया। दूसरे ने मैंको जानना शुरू किया। फिर दूसरे की भी इच्छा हुई कि कोई उसे भी देखे जाने, admire करे। तो वह दूसरा फिर से दो हो गया। और इस तरह हम सब... कोई हमें देखे, समझे, और जाने... छी!
(सुधीर से..) तुम्हारी आख़िरी बस निकलने वाली है। चुहल ख़त्म करते हैं। बहुत अच्छा लगा तुमसे मिलके।
(आरती उठती है और जाने को होती है। पर सुधीर नहीं हिलता।)
आरती- क्या हुआ? चलो...
सुधीर- मुझे नहीं पता हम लोग इसके बाद कभी मिलेंगे भी कि नहीं!
आरती- तो?
सुधीर- मैं इस मुलाक़ात को पहेली नहीं बनने देना चाहता हूँ।
आरती- इसमें कोई पहेली नहीं है।
सुधीर- पर यह अधूरी है अभी।
आरती- तुम अंत पर पहुँचना चाहते हो?
सुधीर- नहीं। मैं इस पहेली के जवाब तक पहुँचना चाहता हूँ।
आरती- जवाब का मतलब अंत...
सुधीर- नहीं जवाब अंत नहीं होते... जवाब बात को ख़त्म कर देते हैं।
आरती- तुम अजीब बातें कर रहे हो! यह तुम पर सूट नहीं करती हैं।
सुधीर- क्योंकि मैं अभी भी मैं नहीं हूँ। मैं अभी भी तुम हूँ। मैंने खेलना बंद नहीं किया है। बैठो... खड़ी क्यों हो?
(आरती बैठ जाती है।)
आरती- मेरी आख़िरी बस निकल गई तो?
सुधीर- मेरी?
आरती- तुम्हारी’ तुम्हारी आख़री बस निकल गई तो क्या करोगे?
सुधीर- हम अभी क्या कर रहे हैं? मुझे नहीं पता। बस छूट जाएगी तो क्या होगा मुझे नहीं पता। आज एक दिन मुझे कुछ भी पता नहीं करना है।
आरती- सुनो... बहुत भूख लगी है। शायद ’मेरा’ घर पास ही है। चलोगे?
सुधीर- ठीक है।
(आरती चलने को होती है।)

सुधीर- सुनो! अभी मैं तुम हूँ और तुम मैं हो। है न?
आरती- हाँ।
सुधीर- क्या हम वह हो सकते हैं जो हम हमेशा से होना चाहते थे?
आरती- मतलब?
सुधीर- मतलब वह एक... जो हम हमेशा से सोचते थे कि काश हम होते?
आरती- देखो यह कुछ बहुत आगे जा रहा है।
सुधीर- नहीं... यह बहुत सही जा रहा है।
आरती- तुम सच में यह चाहते हो?
सुधीर- क्यों तुम्हें डर लग रहा है?
आरती- मैं डरपोक नहीं हूँ... पर यह महज़ चुहल थी। पर अभी... अभी यह...
सुधीर- चुहल ही है। यक़ीन मानो। यह सब चुहल है... तो?
आरती- ठीक है। मैं और तुम। अब मैं और तुम नहीं हैं। अब हम वो होंगे जो हम हमेशा से होना चाहते थे। यही है न? ठीक है!
(आरती चली जाती है और सुधीर कुछ देर बैठा रहता है।)

सुधीर- (दर्शकों से) मैं पहली बार मैं नहीं था। दूसरी तरफ़ बैठे हुए ख़ुद को देखा तो घबरा गया। लगा... यह मैं हूँ? मैं आज तक दूसरों के आईने में ख़ुद को देखकर जी रहा था। मैंने असल में ख़ुद को अभी तक देखा ही नहीं था। क्या मैं आरती हूँ अभी? और कितनी विचित्र बात है कि सुधीर हो जाने की थकान से मैं डरा बैठा हूँ। नहीं मैं आरती नहीं होना चाहता हूँ पर मैं वापस सुधीर भी नहीं बनना चाहता हूँ। तो फिर अब? मैं... क्या?
Black out

Scene-6

(लाईट आती है हम आरती को देखते हैं वो स्टेज राईट की तरफ खड़ी सुधीर का इंतज़ार कर रही है... वो सुधीर को आवाज़ लगाती है।)
आरती- सुधीर, तुम्हारा घर अच्छा है।
सुधीर- (अंदर से..) धन्यवाद..
आरती- तो फिर शुरू करें?
सुधीर- बस आया।

(सुधीर एक गमछा डाले.. और झॊला हाथ में लिए स्टेश लेफ्ट से प्रवेश करता है।)

आरती- तो यह है जो तुम हमेशा से होना चाहते थे?
सुधीर- हाँ।
आरती- कौन हो तुम?
(सुधीर अपने झोले और गमछे की तरफ़ इशारा करता है।)
सुधीर- कवि हूँ। शुरु करुं...
आरती- इर्शाद है।
सुधीर- हमारे बीच की छूटी हुई जगह उतना ही ईश्वर अपने भीतर पाले हुए है जितना हमारा सारा अनकहा। वह तुम्हारी ’अनकहा..’ वाली बात मेरे बीच में डाल दी।
आरती- नहीं नहीं...
सुधीर- नहीं न? रुको... मैं फिर आता हूँ।
(सुधीर वापस जाता है और वह भीतर तैयारी करते हुए गाना गाना शुरू करता है। और कुछ देर में अंदर गाता हुआ आता है। बीच में ही उसे समझ में आता है कि वह बहुत ख़राब गाता है। आरती हंसने लगती है... और अपने कानों पर हाथ रख लेती है... वह रुक जाता है। और वापस चला जाता है। आरती ज़ोर से हँसती है।)
सुधीर- यह तो बहुत ही बुरा है... मैं फिर आता हूँ।

(जैकेट, चश्मा, हेवरसेक, पहनकर सुधीर रॉन बनकर आता है। बहुत कान्फिडेंट, किसी की परवाह नहीं जैसा व्यक्तित्त्व! वह आकर सामने खड़ा होता है।)
सुधीर-  ह्म्म... यह ठीक है।
आरती- बाप रे... कौन हो तुम?
सुधीर-  मैं रॉन हूँ।
आरती- रोन...???
सुधीर- रोन नहीं.... ROOOON… ROOON... RAAAOOON…  RAAOOOOOONNNNN हूँ।
(आरती मुस्कुराती है। कुछ देर उसको देखती है।)
आरती- तो ये रॉन क्या करता है?
सुधीर- I know my shitमैं... मैं घूमता-फिरता हूँ। यायावर टाइप। पहाड़ों, नदियों, nature lover... कहीं भी, कभी भी, बिना किसी ओ कुछ बताए..  बस निकल जाता हूँ। पगलपन.. एकदम... मतलब.. खतरनाक। you know ...that types…
आरती- और कहाँ-कहाँ गए हो?
सुधीर-  अभी? अभी तो शुरू किया है। मतलब... लिस्ट है मेरे पास। बहुत सारी जगहों की!
(दोनों एक-दूसरे को कुछ देर देखते हैं। रॉन मायूस हो जाता है।)
आरती- सुधीर!
सुधीर- सॉरी! ये सब कॉलेज के वक़्त सोचा था.. कि कवि होऊंगा, गायक.. बेड बॉय... पर मैं जानता हूँ मैं असल में क्या होना चाहता हूँ। आरती, सच में मैं जानता हूँ कि मैं क्या होना चाहता हूँ। बस मैं आया...
(सुधीर जाता है और कुछ देर में वो एक बूढ़ा आदमी के रुप में प्रवेश करता है। काला कोट पहने। धीरे से आकर वह आरती के सामने समर्पित-सा खड़ा हो जाता है। आरती उस बूढ़े आदमी को देखती है और मानो व उसे पहचानती हो। जैसी कुछ देर में।)
आरती- मैं आती हूँ।
(आरती जाती है।)

सुधीर- (दर्शकों से) मैं बूढ़ा होना चाहता हूँ। मैं सच में बूढ़ा होना चाहता हूँ! सच! मैं असल में ख़ुद से बड़ी अपेक्षाएँ रखता हूँ! मेरे घर वालों को भी मुझसे बहुत अपेक्षाएँ हैं। शायद मेरे गाँव को भी मुझसे बड़ी अपेक्षाएँ हैं। इस समाज को, शायद इस देश को भी। मैं जी नहीं पा रहा हूँ। मैं सिर्फ़ जीना चाहता हूँ। हल्का होकर... जो जैसा है उसे ठीक वैसा का वैसा जी लेना चाहता हूँ। जैसे... अगर दुख हैं तो मैं दुखी होना चाहता हूँ। और सुख में मुझे मुस्कुराने में कोई झिझक नहीं चाहिए। मैं बहुत जल्दी वहाँ पँहुचना चाहता हूँ जहाँ से मैं इन सारी अपेक्षाओं का दायरा लाँघ सकूँ। ख़ुद से भी और दूसरों से भी और बस, जीना शुरू करूँ... हल्का होकर...  बूढ़ा होकर।
(आरती प्रवेश करती है। वह कपड़े बदलकर आई है। वह एकदम युवा लग रही है। सुधीर आश्चर्य से उसे देखता है।)
आरती- ऐसे क्या देख रहे हो? मैं तो मुँह धोकर आई हूँ।
सुधीर- तुम बहुत अच्छी लग रही हो!
(आरती अचानक स्वतंत्र महसूस करती है। वह एक अँगड़ाई लेती है और पूरे मंच पर बच्चों-सी उछल-कूद करने लगती है। सुधीर दूर से उसे देखता रहता है।)
सुधीर- यह क्या उम्र है?
आरती- यही वह उम्र है। ठीक इस वक़्त के बाद सब बदल गया था। मेरा मुझे देखना, लोगों का मुझे देखना, उनकी आँखें... सब कुछ। मुझे यह उम्र कितनी ज़्यादा याद है, मानो यह हमेशा मेरे साथ थी... और मुझे पता ही नहीं था।
सुधीर- तो तुम यह उम्र होना चाहती हो?
आरती- नहीं यह उम्र नहीं। मैं इसकी खुशबू होना चाहती हूँ... मुक्त! बेबाक़ खुशबू! तुम्हें पता है मेरा पूरा जीवन बस इसी बिंदु पर वापिस आने की होड़ है बस।
सुधीर- तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कभी नहीं रोकूँगा, तुम्हारी खुशबू तक पहुँचने में। फिर हम साथ क्यों नहीं चल सकते?
आरती- मैं अकेले चलना चाहती हूँ। और अगर ग़लती से साथ चल दिए तो तुम बहुत दुखी होगे।
सुधीर- मुझे ऐसा नहीं लगता है।
आरती- क्यों?
सुधीर- क्योंकि... क्योंकि.. खुशी बाँटने में है। और अगर...
आरती- बचकानी बातें मत करो!
सुधीर- क्या हम कतई साथ नहीं चल सकते?
आरती- तुम बूढ़े होकर भी बदले नहीं।
सुधीर- चोर, चोरी से जाए... हेरा-फेरी से नहीं!
आरती- यह क्या है?
सुधीर- कुछ अजीब लग रहा है?
आरती- तुम बूढ़े होना चाहते हो?
सुधीर- यह तुम पूछ रही हो?
आरती- हाँ! क्यों मैं पूछ नहीं सकती?
सुधीर- तुम्हें जवाब देना अजीब लगता है।
आरती- क्यों?
सुधीर- मुझे लगता है तुम्हें तो सब पता है।
आरती- नहीं! मुझे नहीं पता है। बताओ यह उम्र क्यों?
सुधीर- यह उम्र नहीं। मैं इसकी खुशबू होना चाहता हूँ।
आरती- तुम मेरी बात चोरी कर रहे हो।
सुधीर- यहाँ हम सब चोर हैं। और चोरी के बाद अपना माल टटोल रहे हैं।
आरती- कुछ मिला?
सुधीर- अगर कुछ मिल जाएगा तो लगेगा कि... यह लो, हमने इससे भी मुनाफ़ा कमा लिया!
आरती- सुनो! क्या कहके मैं पुकारूँ तुम्हें?
सुधीर- तुम्हें मेरा नाम पता है।
आरती- नहीं! तुम वह नहीं हो अब..  बादल... बादल अच्छा है। वह हरदम बदल जाते हैं इससे पहले कि आप उन्हें समझ पाओ। मुझे बादल बहुत पसंद थे। जब बहुत हो जाते थे तो बरस जाते थे। तुम बादल हो मेरे लिए.. और मैं?
सुधीर- तुम! मुझे कुछ दूसरा नहीं दिखता तुम्हारे में। मेरे लिए तुम चुहल थी, चुहल हो। तुम बहुत हो मेरे लिए... पर बरसना हमेशा शेष रह जाता है।
आरती- चुहल! तुम्हें पता है... जब हम पहली बार मिले थे तो मुझे लगा था हम कभी नहीं मिलेंगे!
सुधीर- और मुझे यक़ीन था कि हम ज़रुर मिलेंगे।
आरती- दूसरी बार मुझे पता था कि हम ज़रूर मिलेंगे।
सुधीर- वो ऑफिस में... बाप रे..  मैंने सोचा था कि अब नहीं होगी मुलाक़ात कभी!
आरती- और इस मुलाक़ात के बाद?
सुधीर- सच पूछो तो... हमें नहीं मिलना चाहिए।
आरती- कभी नहीं?
सुधीर- ना... कभी नहीं! (दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं। मानो सालों से एक-दूसरे को जानते हों।)
आरती- बादल... मैं बहुत खुश हूँ। बहुत। जैसे पहली बारिश होती है न...
सुधीर- हाँ... जैसे मिट्टी की खुशबू।
(आरती और सुधीर  दोनों एक-दूसरे की तरफ़ बढ़ते हैं। धीरे-धीरे क़रीब आते हैं।)
आरती- जैसे... नीला आसमान।
सुधीर- जैसे... बचपना।
आरती- जैसे.. शरारत।
सुधीर- जैसे बरग़द की छांव
आरती- जैसे ठंडी हवा।
सुधीर- जैसे सुबह की चाय।
आरती- जैसे तुम।
सुधीर- जैसे प्रेम।
आरती- बादल।
सुधीर- चुहल।
(दोनों एक-दूसरे को चूमते हैं।)
Black out

Scene-7

(माँ और निम्मी बैठे हुए हैं। सामने मिठाई का डिब्बा पड़ा हुआ है। माँ मिठाई के डिब्बे को उठाती है।)
निम्मी- मुझे बड़ी खुशी हो रही हैं आंटी।
माँ- कहाँ से लाए यह मिठाई?
निम्मी- हमारे गाँव की सबसे गज़ब मिठाई है।
माँ- अरे तो चख़ लेते हैं?
निम्मी- नहीं नहीं... एक बार आरती आ जाए तो खोल लेंगे।
माँ- अरे वह आती होगी। तब तक... थोड़ा सा!
निम्मी- जब इतना इंतज़ार किया है तो थोड़ा ओर सही।
(सुधीर की भीतर से आवाज़ आती है।)
सुधीर- आंटी शक्कर कहाँ है?
माँ- अरे वो... रुको मैं आती हूँ।
सुधीर- रहने दीजिए मिल गई... मिल गई।
माँ- अरे! इसे क्या ज़रूरत थी चाय बनाने की! मैं कर लेती!
निम्मी- अरे भइया गज़ब चाय बनाते हैं!
माँ- आरती को पता है न?
निम्मी- पता नहीं... आरती ने भइया के हाथ की चाय पी कि नहीं!
माँ- अरे वह नहीं... आरती को पता है न कि तुम लोग आ रहे हो?
निम्मी- भइया ने तो कहा था कि पहले ख़त लिखकर बता देते हैं कि हम आ रहे हैं। पर मैंने कहा सरप्राइज़ देते हैं। बड़ा मज़ा आएगा।
माँ- अरे! मुझे लगा आरती को पता है.. अरे बता देते तो ठीक रहता। आरती को सरप्राइज़ पसंद नहीं है।
निम्मी- सरप्राइज़ सबको अच्छे लगते हैं!
माँ- पर आरती ऐसी नहीं है। वह तो...
(तभी आरती ऑफ़ि‍स से वापस आती है।)

आरती- अरे निम्मी! तुम क्या कर रही हो यहाँ?
निम्मी- अरे आइए! आप का ही इंतज़ार था... बैठिए।
माँ- आरती, यह लोग आए हैं।
आरती- कौन लोग?
माँ- मैंने नहीं बुलाया। यह लोग ख़ुद आए हैं।
आरती- कौन लोग माँ?
(सुधीर अंदर से चाय लेकर आता है।)
सुधीर- यह लीजिए गरमा गरम चाय...
निम्मी- दुल्हा पसंद आया?
आरती- क्या?
माँ- निम्मी मज़ाक कर रही है?
आरती- तुम अंदर चाय बना रहे थे?
निम्मी- भइया बहुत अच्छी चाय बनाते हैं।
सुधीर- तुम्हारे लिए भी बनाई है।
(सुधीर चाय रखता है। कुछ देर चुप्पी रहती है। कोई चाय नहीं छूता।)
आरती- तुमने मेरे लिए चाय बनाई है? मुझे विश्वास नहीं हो रहा है!
निम्मी- ऐसा होता है.. पहले चाय आती है फिर पकोड़े.. ।
माँ- अच्छा छोड़ो... चाय पीते हैं।
आरती- माँ रुको! सुधीर... यह क्या हो रहा है?
सुधीर- आंटी! असल में इसे कुछ नहीं पता। मैं समझाता हूँ। मैंने निम्मी को बताया था कि तुम आई थी मिलने.. वो हनुमान टेकड़ी पर.. । और इसने पूरे घर में बात फैला दी.. तो फिर मैंने सोचा चलो...
आरती- तुमने सोचा चलो! चलो क्या?
सुधीर- मतलब... अब तो हमको...
आरती- हमको शादी कर लेनी चाहिए! है ना?
 सुधीर- हाँ ... मतलब कम से कम बात तो कर सकते हैं।
आरती- मुझे जिस बात का डर था... तुम बिल्कुल वैसे ही निकले!
सुधीर- कैसे?
आरती- मतलब... रमेश, राकेश, दिनेश जैसा सुधीर!
सुधीर- आरती!
आरती- क्या आरती... हम दोनों ने इतना अच्छा समय साथ गुज़ारा। और तुमने इतना छोटा मतलब निकाला उसका... कि बस अब तो यह मेरी है? और यह बात भी खुद ही तय कर ली... कि यह तो बस अब मेरी है..  मैं बस एक चीज़ ही निकली न अंत में तुम्हारे लिए? अरे इसके साथ तो बहुत मज़ा आया अब तो इसे सजाकर मैं अपने घर में ले जाऊँगा। इसे सबसे सही जगह रखूँगा। यह पूरा जीवन मेरा मनोरंजन करेगी...!
सुधीर- आरती, यह क्या कह रही हो तुम?
आरती- सुधीर, तुम्हें सच में कुछ समझ में नहीं आया? तुम...
(आरती उठकर भीतर चली जाती है। सब लोग चुप रह जाते हैं।)
निम्मी- भइया आपने तो कहा था कि आरती और आप!
सुधीर- पर क्या हुआ.. मुझे..।
माँ- मैंने पहले ही कहा था कि उसको बता देते।
निम्मी- भइया चलो... चलिए हम लोग चलते हैं!
माँ- अब आप चाय पीकर जाइए। और मिठाई भी चख़ लेते हैं।
निम्मी- आप रख लीजिए मिठाई... हम चलते हैं।
सुधीर- रुको! मैं... मैं बात करता हूँ।कुछ कन्फ्युज़न हुआ है। मुझे बात करना है।
निम्मी- भइया जाने दो।
सुधीर- नहीं! कोई कन्फ्यूजन है। आंटी मैं बस एक बार...
(सुधीर उठकर पीछे जाता है और आरती को आवाज़ लगाता है।)

सुधीर- आरती... आरती... आरती... क्या हुआ? यह क्या है? तुम ऎसे उठकर क्यों चली गईं? आरती मैंने क्या किया ऐसा? आरती...
(आरती बाहर आती है।)
आरती- क्या हुआ? तुम क्या चाहते हो?
सुधीर- मुझे नहीं पता
आरती- झूठ मत बोलो।
सुधीर- मैं सच कह रहा हूँ, मुझे नहीं पता कि मैं क्या करना चाहता हूँ।
आरती- मैं बताऊँ?
सुधीर- हाँ...
आरती- तुम निम्मी और मेरी माँ को यह बताना चाहते हो कि तुम्हें तो कुछ समझ में नहीं आया! जबकि तुम सब समझ रहे हो।
सुधीर- मुझे सच में कुछ समझ नहीं आ रहा है।
आरती- तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था बादल।
सुधीर- एक तो तुम मुझे बादल मत कहो।
माँ- यह बादल कौन है?
निम्मी- आरती... आरती... असल में मेरी ग़लती है! मैं भइया को ज़बरदस्ती लेकर आई थी। चलो भइया... चलो!
सुधीर- नहीं! यह झूठ बोल रही है.. मैं ख़ुद यहाँ आना चाहता था। मैं अपनी मर्ज़ी से आया हूँ।
निम्मी- चलो भइया... बस! अब चलते हैं। चलो यहाँ से..।
(निम्मी ज़बर्दस्ति सुधीर को ले जाने लगती है.. सुधीर उसे रोकता है।)
सुधीर- नहीं! अगर मैं अभी चला गया तो यह सब कुछ फिर पहेली बन जाएगा, मुझे इसका जवाब चाहिए।
निम्मी- नहीं भइया... चलो।
सुधीर- मैं जा नहीं सकता।
(अचानक सुधीर पहली बार चिल्लाता है और निम्मी घबरा जाती है। उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या करे।बाक़ी सब भी कुछ डर जाते हैं। सुधीर अपने चिल्लाने पर झेंप जाता है। वो आरती के पास जाता है।)
सुधीर- आरती मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा... सुनों मुझसे बात करों.. इधर आकर बैठो.. मुझे बस कुछ देर बात करनी है। बैठो।
(सुधीर आरती बैठते हैं... माँ आरती के पास बैठती है.. और निम्मी डरी हुई सुधीर के पास)
सुधीर- बताओ आरती.... मैं इस वक़्त क्या महसूस कर रहा हूँ..?
आरती- सुधीर तुम घर जाओ।
निम्मी- चलो भईया घर चलते हैं।
सुधीर- नहीं... अच्छा सुनो! आओ चुहल खेलते हैं।
आरती- तुम पागल हो गए हो?
माँ- यह क्या हो रहा है?
निम्मी- भइया... सुनो! हो गया बहुत... हम चलते हैं।
आरती- सुधीर... तुम जाओ यहाँ से।
निम्मी- क्या कर रहे हो भईया.. पागल हो गए हो.. चलो घर चलते हैं।
सुधीर- (ज़ोर से चिल्लाता है) मैं पागल नहीं हूँ और मैं चला जाऊँगा घर... पर मैं ग़लत नहीं हूँ! सही क्या है मुझे नहीं पता, वह तुम बता पाओगी। इसलिए चुहल खेलेते हैं। आओ। तुम इधर बैठो... मैं उधर बैठता हूँ। (सुधीर आरती को अपनी जगह बिठाता है और ख़ुद उसकी जगह बैठता है।) हाँ अब ठीक है। अब बताओ सही क्या है?
आरती- तुम सही हो सुधीर।
सुधीर- चुहल! चुहल! नहीं ऐसे नहीं... शुरू से खेलते हैं। तुम पूछो माँ कैसी है मेरी। पूछो। जाने दो, मैं बताता हूँ... मेरी माँ बहुत अच्छी हैं।
निम्मी- माँ...! भइया क्या कह रहे हो आप?
सुधीर- और यह निम्मी। तुम्हारी बहन निम्मी कैसी है? बताओ? बताओ?
माँ- अरे! यह क्या कह रहे हो तुम सुधीर?
(सुधीर बहुत तेज़ चीखने लगता है।)
सुधीर- जब मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहता तो क्यों आ गई यहाँ? क्या कर रहा हूँ मैं? क्यों आ गया मैं यहाँ पर? क्या सच में मैं पागल हूँ?
निम्मी- भइया चलो यहाँ से। क्या कर रहे हो आप? चलो... चलो...
माँ- आरती तुम अंदर चलो।
(निम्मी सुधीर को ख़ीचकर ले जाती है... पर दरवाज़े तक पहुँचकर सुधीर रुक जाता है.. आरती की माँ उसे अंदर ले जाने को होती है पर आरती दरवाज़े पर रुक जाती है।)
सुधीर- मैं नहीं जाऊँगा। मुझे जवाब चाहिए। यह पहेली है!
निम्मी- मैं जाती हूँ। मैं नहीं देख सकती यह सब। मैं जाती हूँ।
(निम्मी निकल जाती है।)
माँ- आरती! चलो... मैं कह रही हूँ चलो!
आरती- माँ! मैं बात करती हूँ... आप अंदर जाओ।
माँ- लेकिन बेटा!
आरती- माँ आप जाओ।
(माँ भीतर चली जाती है।)
आरती- आओ चुहल खेलते हैं... आओ बैठो।
(सुधीर आता है और आरती के सामने बैठ जाता है।)
आरती- शुरू करें?
सुधीर- हाँ।
Black out…

( Fade in पर हम देखते है बिल्कुल scene number -0 है। लड़कियाँ खड़ी हैं और पेंडुलम की तरह हिल रही हैं। आरती कुछ देर में बीच से निकलती है। सभी लड़कियाँ बिखरकर अपनी-अपनी जगह लेती है...। सभी के हाथों में उलझा हुआ धागा है जिसे वो सब लगातार सुलझाने की कोशिश करती हैं। आरती दर्शकों से।)
आरती- क्या मैं ग़लत हूँ?
लड़की 1- यह तो ग़लत लग रहा है।
आरती- तो सही क्या है?
लड़की 2- शायद! सही यह होता कि मैं अभी ‘हाँ’ कह देती और इसे निभाती रहती... अंत तक!
आरती- हाँ! यह एक तरीक़े से सही हो सकता था।
लड़की 2- एक तरीक़े से?
आरती- किसी दूसरे तरीक़े से नहीं जिया जा सकता क्या?
लड़की 2- क्यों नहीं! पर फिर बाद में पछताओगी।
आरती- क्या हम इतने महत्त्वपूर्ण हैं? एक कहानी ज़ाया हो गई तो क्या होगा? कितनी सफल कहानियाँ तो हैं हमारे पास!
लड़की 1- तक़लीफ उदाहरण बनने की है। एक पछताई कहानी का इस्तेमाल। बाक़ी कहानियों को डराने के लिए काफ़ी है।
आरती- एक ख़राब उदाहरण भी तो ज़रूरी है बाज़ार के लिए। मुझे दिक़्कत नहीं है।
लड़की 3- बहुत पहले मैं एक लड़की को जानती थी जो पेन से काग़ज़ पर तितली बनाया करती थी। वह उसे रंगों से भर देती। फिर... वह उस काग़ज़ को हवा में उछालती। उसे लगता कि एक दिन ये तितली, इस काग़ज़ से छिटककर उड़ जाएगी। फिर एक दिन स्कूल के ड्राइंग के टीचर ने उस तितली को देखा और उसे प्रथम पुरस्कार दे दिया। बहुत समय तक वह तितली स्कूल के नोटिस बोर्ड पर चिपकी रही।
आरती- मूर्ख!
बाक़ी सब- मूर्ख!
आरती- एक ही जीवन तो है हमारे पास। और मुझे यह एक प्रयोग जैसा लगता है। और इस प्रयोग के सारे निर्णय मेरे होने चाहिए.. गलत सही.. सब मेरा ही तो है ना! जैसे मुझे पता है कि काग़ज़ पर पेन से बनाई हुई तितली कभी उड़ नहीं सकती। पर मुझे प्रथम पुरुस्कार नहीं चाहिए। और सच कहूँ तो मुझे नहीं पता... और किसी को भी नहीं पता है... क्या कुछ नहीं पता होना गुनाह है? मैं उस तितली के उड़ने की आशा के भीतर ख़ुश हूँ। और इन अपनी बचकानी आशाओं के बीच मुझे किसी दूसरे की जगह नहीं दिखती। मैं इसमें अकेले रहना चाहती हूँ।
लड़की 1- इसका यह मतलब नहीं कि संन्यास ले लिया है?
आरती- कतई नहीं! मैं इस जीवन को उसकी संपूर्णता में जीना चाहती हूँ।
लड़की 3- जैसे ताजमहल?
आरती- हाँ... जैसे ताजमहल! मुझे ताजमहल बहुत पसंद है। मैं उसे देखना चाहती हूँ। छूना चाहती हूँ, पर उसे घर नहीं लाना चाहती।
सुधीर- यह तो मेरी बात है?
आरती- तुम्हीं ने कहा था कि यहाँ हम सब चोर हैं।
(सभी लड़किया पलटकर सुधीर को देखती हैं। आरती सुधीर के पास जाती है।)
आरती- है न?
सुधीर- हाँ! और चोरी के बाद अपना माल टटोल रहे हैं।
आरती- कुछ मिला?
सुधीर- हाँ!
आरती- क्या?
सुधीर- एक बात समझ में आई है। वो जो प्रेरणा थी न...
आरती- हाँ!
सुधीर- उससे बातें मुक्त करती थी और मैं उसे बाँधना चाहता था। हम आज भी सब कुछ बाँधना ही चाहते हैं। तुम्हारी तस्वीर अभी भी मेरी दीवार में टँगी हुई है। मैं बस उस तस्वीर में, ज़बरदस्ती ख़ुद को घुसाने की कोशिश कर रहा था। जबकि वह तस्वीर अपने आप में पूरी है। और मेरी दीवार पर काफ़ी अच्छी लगती है।
आरती- क्या यह अभी भी पहेली है?
सुधीर- नहीं, बिल्कुल भी नहीं
आरती- सुनो! तुम हनुमान टेकड़ी जाना बंद तो नहीं करोगे न?
सुधीर- तुम फिर चुहल कर रही हो?
आरती- तुम्हें पसीना बहुत जल्दी आता है।
सुधीर- असल में मुझे...
आरती- तुम्हें इसकी आदत नहीं है!
सुधीर- पसीने की?
आरती- नहीं! मैं तो चुहल की बात कर रही थी।
सुधीर- मैं चलता हूँ।
आरती- अरे चाय?
सुधीर- वह निम्मी नाराज़ होकर गई है... वह बवाल मचा देगी।
(सुधीर जाने को होता है तभी निम्मी की आवाज़ आती है। वह मंच पर ही बाक़ी लड़कियों के साथ बैठी है।)
निम्मी- भइया जब इतनी चाय बन गई है तो पीकर ही चलते हैं।
माँ- और मिठाई भी चख़ लेंगे।

(Music fade in होता है। माहौल हल्का हो जाता है। निम्मी आकर सुधीर के गले लगती है। इसी वक़्त सारी लड़कियाँ आरती के साथ चाय में मदद करती हैं। धीरे-धीरे सभी मंच पर आते हैं। और सबको आरती, निम्मी और माँ चाय देते हैं। पूरे मंच पर सारे लोग अलग-अलग ग्रुप में चाय पी रहे हैं और बातचीत कर रहे हैं। सभी एक साथ दर्शकों की तरफ़ धूमते हैं। सामने आकर दर्शकों को प्रणाम करते हैं।)


THE END……………………………………. 

20 टिप्‍पणियां:

  1. पृथ्वी में नाटक देखने के अनुभव को आज फिर जी लिया। अपने पाठकों के साथ शैर करने के लिये धन्यवाद।

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  2. ZIndagi bhar aabhaari rahenge aapka, aapke iss chuhal ke liYE!!

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  3. हर एक शब्द अपने आप में एक कहानी है यहां ! ईसे पढने के बाद ईतना चुप सा हो गया हुं कि कोई शब्द ही नहीं मील रहे, अभी मेैं कुछ लीखना चाहुंगा तो मुझे महेसुस होगा कि अपने आप से में चुहल कर रहा हूं...नहीं, मेैं बादल ही हूं जो ईस कहानी को पढते पढते कहीं बरस गया तो कहीं बिखर गया...पर मेरे भीतर कोई शून्यावकाश नहीं है...हा, अभी कुछ बोलने की कोशिश करुंगा तो मेरी भावनाओ का आकार बादलो की तरह बदल जायेगा..खैर, हनुमान टेकडी जैसे ईस ब्लोग तक हर शाम को आना बंद नहीं करुंगा. आप के साथ जगह बदलकर चुहल चुहल खेलना जो है !

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  4. Mene ye natak April 2017 me Bharat bhavan bhopal me dekha tha .bahut he shaandar natak laga .our kuch dino ke baad mene ye natak pada . .aap ek bahut shaandar Actor ho ek shaandar Director ho ...our me ye natak fir dekhna chahouga....Wasim hoshangabad..

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  5. Ye natak to bahut khoob likha hai. Pr esa lagta hai ki kaafi kheecha gyaa hai.

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  6. क्या खूब लिखा आपने लेकिन हर लेखक के लिए कई प्रश्न छोड़ गए आप जिसको ढूढ़ना जरूरी भी है और नहीं भी।

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  7. अभी रात में पढ़ा इस नाटक को । आज रात नींद कम ही आएगी लगता है। धन्यवाद sir .

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  8. मैं ,मैं हूँ ?
    या मैं तुम हूँ ?
    अगर मैं तुम भी नहीं हूँ
    तो क्या मैं कोई तीसरा हूँ ?
    या फिर कोई चौथा या पांचवा ...
    पता नहीं

    फिर मैं क्या होना चाहता हूँ ?
    अगर मैं तुम नहीं हो सकता
    तो क्या मैं कोई और हो सकता हूँ ?

    और ये सब होते होते ,
    मैं , मैं कब हो पाऊंगा ?
    हो भी पाऊंगा या नहीं ?

    क्या तुम मदद करोगे मेरी
    मुझे मैं होने में ?

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  9. bina kahe bhi sab mukkamal hai......bs hmm apne ankahe ko sweeksr nahi krte is dar se ki kahi baaki ise thukra na de....ise dutkaar na de...
    thanku maanav ji

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  10. यार मुझे तो इससे धर्मवीर भारती के प्ले कि सूरज के साथवे घोड़े की याद आ गई

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  11. यार मुझे तो इससे धर्मवीर भारती के प्ले कि सूरज के साथवे घोड़े की याद आ गई (जगन्नाथ)satywati

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