इल्हाम.........
लेखक- मानव कौल
इल्हाम...
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(नाटक दो स्थानों में, एक पार्क की
बेंच और एक मध्यमवर्गीय परिवार के ड्राइंग रूम में घटित हो रहा है।)
(लाइट आती है। एक आदमी की धुँधली आकृति बेंच में बैठी दिखती है। म्यूज़िक शुरू
होता है।) fade out…
Fade in…
(आदमी अकेला बेंच के अगल-बग़ल खेल रहा है।)
Fade out…
Fade in…
(वो सो रहा है।)
Fade out…
Fade in…
(आदमी नाच रहा है।)
Fade out…
Scene- 1
(पूनम तोहफ़े, गुलदस्ते और
दूसरे सामान उठा रही है और शुक्ला मेहमानों को दरवाज़े तक छोड़ने गया है और बाहर
से उसकी आवाज़ आती है)
शुक्ला- अच्छा तिवारी जी, फिर आना... हाँ
हाँ... मैं भगवान को बता दूँगा। अरे कोई नहीं,
अब क्या करें... वो आएगा तो उसके कान मरोडूंगा... ठीक है.. अच्छा भाभी जी, नमस्कार!
(शुक्ला अंदर आता है, शुक्ला और पूनम काफ़ी परेशान हैं, पूरे सीन में पूनम पार्टी के बचे सामान को
अंदर रख रही है... और घर ठीक कर रही है... शुक्ला उसकी मदद कर रहा होता है।अचानक
शुक्ला हँसने लगता है)
पूनम- तुम हँस क्यों रहे हो?
शुक्ला- भाभी सोचो, दिन भर कितनी
मेहनत की हमने, साले के बैंक के सारे दोस्तों को चोरी से जमा
किया कि सरप्राइज देंगे। साले ने हमें ही सरप्राइज दे दिया... आया ही नहीं।
पूनम- कहाँ होंगे वो?
शुक्ला- हाँ, कहाँ गया होगा? सारे दोस्त तो यहीं थे। क्या भाभी कोई चक्कर तो नहीं है?
पूनम- अरे नहीं, उनको नोट
गिनने से फ़ुर्सत मिले तब न। रात में सोते वक़्त भी उनकी उँगलियाँ चलती रहती हैं।
थूक लगाते हैं, नोट गिनते हैं। मैंने कहा अब तो नोट गिनने की
मशीन भी लग गई है... तो कहते हैं
अगर नोट भी मशीन गिनेगी, तो मैं क्या
करूँगा? जब तक नोट नहीं गिन लेते तब तक लगता ही नहीं कि कुछ किया है। आज आपका दिन भी पूरा बरबाद हो गया!
शुक्ला- एक दिन अपने दोस्त के लिए क्या दिक्कत है।
पूनम- आपको भी देर हो रही होगी... अब तो आते ही
होंगे।
शुक्ला- अपना कौन इंतज़ार कर रहा है। नीचे जाऊँगा, दुकान का शटर उठाऊँगा और फैल के सो जाऊँगा। भाभी मुझे थोड़ी चिंता हो रही है, काफ़ी समय हो गया है।
साला अपने ही
जन्मदिन पे गायब है! मुझे तो याद
नहीं पहले भी कभी उसने ऐसा किया हो?
पूनम- अभी पिछले कुछ महीनों से थोड़ा देर से घर आने लगे हैं पर इतनी देर कभी
नहीं हुई... मुझे तो लगता था कि नीचे आपकी दुकान में बैठ जाते होंगे, पर कहने लगे कि ऑफ़िस के पास एक पार्क है, वहीं थोड़ी
देर जाकर बैठ जाता हूँ, अच्छा लगता है।
शुक्ला- अजीब बात है! मुझे नहीं
बताया साले ने!
पूनम- बल्कि पिछले कुछ दिनों से ज़्यादा ही ख़ुश दिखते हैं।
शुक्ला- ये देखो, ये लाया था, (बेग़ से अंग्रेज़ी शराब की बोतल निकालता है।) साले के लिए... विदेशी। सोचा था साथ में पिएँगे। अपने सुनहरे भविष्य के बारे में गपशप करेंगे।
चलता हूँ भाभी... अकेले ही पिऊँगा अब। एक गिलास दे दीजिए।
(भगवान अंदर आता है)
भगवान- अबे गिलास भी यहीं से लेगा तो यहीं पी ले न!
शुक्ला- अबे साले... कहाँ था बे
भगवान?
अभी पाँच मिनट
पहले तेरा बर्थ डे निकला, पर कोई बात नहीं, हैप्पी बर्थ डे! कितनी चिंता हो रही थी तेरी।
भगवान- कहाँ है माल?
शुक्ला- माल तो है, पहले अपनी
बीवी से तो मिल ले... बहुत नाराज़
है वो।
(भगवान पूनम के पास जाता है। पूनम डिब्बा खोलने की कोशिश करती है, डिब्बा नहीं खुलता)
भगवान- अरे खुल नहीं रहा है?
पूनम- पता है आपको कितने लोग आए थे? आपका पूरा
बैंक यहीं पर था। किसी ने कुछ नहीं खाया। पूरा खाना बचा हुआ है... अब पूरे हफ़्ते वही गर्म करके खिलाऊँगी।
भगवान- अरे इतने लोग थे तो मुझे पहले बताना चाहिए
था न!
शुक्ला- सरप्राइज़ का मतलब जानता है तू?
(अचानक डिब्बा खुल जाता है)
भगवान- अरे ख़ुद ही खुल गया। पिंकी कहाँ है?
पूनम- सुबह कॉलेज है उसका... इंतज़ार करते-करते सो गई। पता है कितना समय हुआ है?
भगवान- अरे बाप रे! मुझे तो पता
ही नहीं चला!
पूनम- कहाँ थे आप, पूछ सकती हूँ?
भगवान- अरे मैं... वो पार्क गया
था। मुझे पता ही नहीं चला कि इतना टाइम हो गया।
अरे हाँ पता
है आज पार्क में...
पूनम- मुझे नहीं सुनना पार्क में क्या हुआ
था। मैं थक गई हूँ। भाई साहब, अंदर पानी, सोडा सब रखा है, निकाल लीजिएगा।
मैं सोने जा रही हूँ।
(पूनम जाती है। भगवान, शुक्ला से
गिलास लेने के लिए आगे बढ़ता ही है कि पूनम वापस आती है। भगवान जल्दी से गिलास वापस
करता है।)
पूनम- वो मैं कहना भूल गई थी... जन्मदिन की
हार्दिक शुभकामनाएँ!
भगवान- अरे नाराज़ हो?
पूनम- आपको फ़र्क़ पड़ता है? (पूनम चली जाती
है)
भगवान- हा हा हा शुक्ला... आज मैं बहुत ख़ुश हूँ। मैंने ऐसा जन्मदिन कभी नहीं मनाया।
शुक्ला- ये ले... चियर्स! पता है भाभी ने आज कितनी मेहनत की! मैंने भी आज दुकान अपने नौकरों के हवाले कर दी। तेरे सारे दोस्तों के घर गया और उन्हें ख़बर
की कि आज पार्टी है। सब बिचारे आ
भी गए... और एक तू ही ग़ायब!
भगवान- अच्छा! तभी मैं कहूँ कि उन्हें खबर कैसे लग गई?
शुक्ला- मैंने कहा न मैंने ही सबको बताया।
भगवान- नहीं... वो बच्चों को?
शुक्ला- बच्चे... किसके?
भगवान- पार्क... पार्क के
बच्चे।
शुक्ला- ये पार्क का क्या चक्कर है?
भगवान- वहीं ऑफ़िस के पास एक पार्क है न... छोटा सा। वहीं
शाम को कुछ बच्चे खेलने आते हैं। उन्हें खेलता देखना... पूरी थकान मिट जाती है। मेरी तो बच्चों से दोस्ती भी हो गई है। मैंने उन्हें
वो सारे खेल सिखाए जो मैं बचपन में खेला करता था और आज तो उन्होंने मेरा जन्मदिन
भी मनाया। मैं पूछता रहा... तुम्हें कैसे पता
चला?
पर किसी ने
कुछ नहीं बताया।
शुक्ला- किसके बच्चे हैं वो?
भगवान- पता नहीं। अरे हाँ, आज चाचा भी आए
थे मिलने।
शुक्ला- चाचा! तेरा कोई चाचा
भी है यहाँ?
भगवान- नहीं, मेरे चाचा
नहीं... वो चाचा हैं, पर वो कैसे आ
सकते हैं?
शुक्ला- सुन भाई, मुझे थोड़ी चढ़ गई है। तेरी कोई बात मेरी
समझ में नहीं आ रही है। कौन चाचा... कौन से बच्चे... अभी ये सब छोड़, देख हर साल की
तरह इस साल भी मैं दारू लाया... लाया कि नहीं?
भगवान- हाँ, लाया।
शुक्ला- और हर साल की तरह इस साल भी हम लोग
अपने ख़ूबसूरत भविष्य की बातें करेंगे। करेंगे कि नहीं?
भगवान- हाँ, करेंगे... लेकिन इस बार
पहले तू शुरू करेगा।
शुक्ला- अरे, मैं क्या
बोलूँगा! अरे यार तू न फ़ँसा देता है। मैं... नहीं यार...
भगवान- शुक्ला... बुदबुद नहीं, शुरू कर।
शुक्ला- चल ठीक है, मैं ही शुरू
करता हूँ। वो देख, दुकान... है कि नहीं।
भगवान- हाँ, दुकान।
शुक्ला- फिर... दो दुकान।
भगवान- दो दुकान। फिर?
शुक्ला- फिर तीन दुकान।
भगवान- हाँ तीन। फिर?
शुक्ला- हा हा हा... फिर क्या? अपना भविष्य
तो सीधा है। अभी थोड़े कपड़े बेचता हूँ, बाद में बहुत कपड़े
बेचूँगा। चल मेरा हो गया अब तू शुरू कर। और हाँ पिंकी
की शादी से शुरू करना... मज़ा आएगा।
भगवान- नहीं... उसके भी पहले
से घर से शुरू करता हूँ। ये घर दो साल में अपना हो जायेगा।
शुक्ला- अपना हो गया।
भगवान- फिर पिंकी की शादी।
शुक्ला- हो गई... मज़ा आ गया। फिर?
भगवान- बिल्लू कुछ साल में इंजीनियर बन चुका होगा।
शुक्ला- वो बिल्डिंग बना रहा है, ये बड़े-बड़े पुल
बना रहा है।
भगवान- फिर उसकी शादी...
शुक्ला- धूमधाम से।
भगवान- तब तक पिंकी के बच्चे हो गए होंगे।
शुक्ला- बहुत सारे।
भगवान- फिर बिल्लू के बच्चे।
शुक्ला- मज़ा आ गया।
भगवान- फिर हम उन्हें बड़ा करेंगे... (भगवान
संजीदा होता जाता है।) और अगर ज़िंदा
रहे तो उन्हें बहुत प्यार भी करेंगे और उनकी भी शादी करेंगे...
शुक्ला- करेंगे... भगवान करेंगे।
भगवान- और फिर भी अगर बचे रहे तो उनके बच्चों का भी सुख भोगेंगे... और फिर...
शुक्ला- हाँ, फिर?
भगवान- फिर... फिर क्या? और क्या?
शुक्ला- फिर मज़ा! बहुत सारा मज़ा! क्या हुआ आज तूने मन से नहीं सुनाया, पिछली बार
कितना मज़ा आया था याद है? क्या हुआ
भगवान?
भगवान- कुछ नहीं शुक्ला! आज एक अजीब सी बात याद आई... मेरा स्कूल नदी के उस पार था, रोज छोटी-सी
नाव में उस पार जाना पड़ता था। जो नाव चलाता था उससे मेरी अच्छी दोस्ती थी। एक दिन
हम नाव में स्कूल जा रहे थे, तभी हमने देखा
कि मल्लाह नाव चलाने के बजाय अपने डंडे से चिड़िया को उड़ा रहा है पर चिड़िया
बार-बार उड़कर वापस वहीं बैठ जाती है। मल्लाह का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। हम सब डर
गए क्योंकि नाव बुरी तरह हिल रही थी। मैंने कहा- ‘अरे क्या कर रहे हो? नाव डुबाओगे क्या?’ तो उसने कहा-
‘अरे साहब, इसे मुफ़्त में नदी पार करने की आदत पड़ गई
है।’ हम सभी हँस दिए। इसके काफ़ी दिनों बाद हमने देखा, मल्लाह और चिड़िया एक-दूसरे से मुँह फेरकर बैठे हैं, मानो एक-दूसरे से नाराज़ हों। फिर कुछ दिनों बाद देखा मल्लाह चिड़िया से
बातें कर रहा है लगातार... कभी हँसता है, कभी चिल्लाता है। सभी कहने लगे ये पागल हो गया है। मुझसे रहा नहीं गया।
मैंने उससे
पूछ लिया- ‘क्या कर रहे हो? पागल हो गए हो
क्या, एक चिड़िया से बात कर रहे हो?’ तो वो कहने लगा-
‘मुझे तो लगता है आप सब लोग पागल हैं, अरे ये तो आप
सब से बात करना चाहती है, आप लोग इससे
बात क्यों नहीं करते?’ हम उसे पागल
समझ रहे थे और वो हम सबको।
शुक्ला- फिर वो मल्लाह का क्या हुआ?
भगवान- जब बात फैल गई तो सबने उसकी नाव में जाना बंद कर दिया।
कुछ समय तक वो
अकेले ही नाव चलाता रहा। बाद में मैंने सुना था कि लोगों ने उसे पत्थर मार-मारकर
गाँव से भगा दिया।
शुक्ला- बस?
भगवान- हाँ, बस।
शुक्ला- अरे ये तो एकदम अजीब सी बात हुई!
भगवान- ये ही सब चीज़ें मुझे याद आती हैं, जब मैं पार्क
की उस बेंच पर बैठता हूँ और फिर वो बच्चे आ जाते हैं। लेकिन शुक्ला, आज तेरे को पता नहीं कितने सालों बाद मैं नाचा।
शुक्ला- तू नाचा ?
भगवान- अरे हाँ! बहुत मज़ा आया।
क्या धुन थी वो... (भगवान मुँह से अजीब सी, तीख़ी धुन निकालता है
और नाचना शुरू कर देता है। पहले शुक्ला को ठीक लगता है और वो टेबिल पर ताल देखकर
उसका साथ देने की कोशिश करता है पर फिर वो परेशान हो जाता है। डरने लगता है।)
शुक्ला- अरे वाह! मज़ा आ गया... चल आ जा... सुन आ जा यार, बहुत हो गया भगवान... बैठ न! क्या कर रहा
है? सुन... बस बहुत हो गया यार... ओ बैठ न... देख मुझे ठीक नहीं लग रहा है भगवान... भगवान... (भगवान अपनी धुन में मगन है... और नृत्य दूर से
विकृत लगने लगता है।) तू पागल हो गया है क्या?
Black Out
Scene-2
(भगवान पार्क की बेंच पर बैठा है।)
भगवान- भीतर पानी साफ़ था... साफ़ ठंडा
पानी। कुँए की तरह, जब हम पैदा
हुए थे। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए हमने अपने कुँए में खिलौने फ़ेंके, शब्द फ़ेंके, किताबें, लोगों की अपेक्षाओं जैसे भारी पत्थर और इंसान जैसा जीने
के ढेरों खांचे और अब जब हमारे कुँए में पानी की जगह नहीं बची है तो हम
कहते हैं... ये तो सामान्य बात है।
Scene-3
(पिंकी चाय लेकर आती है। पूनम, शुक्ला और सौरभ बैठे हुए हैं।)
पूनम- लीजिए, चाय पीजिए।
माफ़ कीजिएगा, जन्मदिन के
दिन इन्हें कुछ ज़रूरी काम आ गया था। बहुत देर बाद आए। हम भी परेशान हो गए थे, अब सब ठीक है। ये एकदम ठीक हैं। आपसे भी उस दिन के बाद आज मुलाकात हो रही है।
शुक्ला- भाभी, इन्हें सब पता
है। ये आपसे कुछ बात करने आए हैं।
सौरभ- असल में... (सौरभ, पिंकी की तरफ़ देखता है।)
पूनम- पिंकी, तुम अंदर जाओ... (पिंकी अंदर जाती है।) हाँ, कहिए।
सौरभ- जी... सर मेरे
सीनियर हैं। मैं बैंक का ये लेटर लाया हूँ। अकेले आने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए शुक्ला जी से रिक्वेस्ट की कि साथ चलें। सर को
सस्पेंड कर दिया गया है...
पूनम- क्यों? क्यों सस्पेंड
कर दिया वो तो रोज काम पर जाते हैं? इतने साल
उन्होंने बैंक को दिए हैं और आप एकदम...
सौरभ- वो करीब एक महीने से बैंक नहीं आ रहे हैं... इसलिए ये लेटर
मुझे ख़ुद ही लाना पड़ा।
पूनम- पर वो तो रोज सुबह... मैं रोज़
उन्हें टिफ़िन बनाकर... पर क्यों
निकाल दिया?
सौरभ- सर असल में पैसे बाँटने लगे थे।
शुक्ला- मतलब बाँटने नहीं लगा था। सिर्फ़ एक को...
पूनम- किसको?
सौरभ- भगवान सर?
पूनम- वो घर पर नहीं हैं, आप कहिए...
सौरभ- एक बुढ़िया हर महीने पेंशन लेने आती थी, भगवान सर पता
नहीं क्यों उसे पाँच सौ रुपये ज़्यादा देने लगे। मैनेजर साहब ने पूछा- ये गलती
कैसे हुई... तो सर कहने लगे- ये गलती नहीं है, मैंने
जानबूझकर दिए हैं। मैनेजर साहब ने पूछा- क्या माँगे थे उसने? सर ने कहा- नहीं। फिर उनकी बहुत तेज़ बहस हुई। हम लोगों ने भी बाद में सर को
समझाया तो सर कहने लगे कि मैंने उसकी ‘आह’ सुनी है। (सौरभ को हँसी आने लगती है वो
हँसी दबाता है) सॉरी! और फिर सर
पता नहीं क्या पागलों जैसे बातें करने लगे। मेरा मतलब... मैं नहीं, ऐसा बैंक वाले लोग कहते हैं कि किसी को भी
पैसे बाँट देना, पागलपन ही हुआ न!
शुक्ला- ऎ.. क्या बोल रहा है.. चुप..
शुक्ला- ऎ.. क्या बोल रहा है.. चुप..
सौरभ- नहीं मैं नहीं... पागल तो उन्हें बाक़ी
लोग.. सॉरी.. मेरे मूँह से निकल गया.. पागल नहीं..।
पूनम- पागल नहीं हैं वो...
Black Out
Scene-4
(भगवान पार्क की बेंच पर....)
भगवान- आदतन... अपना भविष्य
मैं अपने हाथों की रेखाओं में टटोलता हूँ...
‘कहीं कुछ छुपा हुआ है’ -सा चमत्कार
एक छोटे बादल जैसा हमेशा साथ चलता है
तेज़ धूप में इस बादल से हमें कोई सहायता
नहीं मिलती
वो हथेली में एक तिल की तरह... बस पड़ा रहता
है
अब तिल का होना शुभ है
और इससे लाभ होगा
इसलिए इस छोटे बादल को सँभालकर रखता हूँ
फिर इच्छा होती है... कि वहाँ चला
जाऊँ
जहाँ बारिश पैदा होती है...
बादल बँट रहे होते हैं...
पर शायद देर हो चुकी है।
अब मेरी आस्था का अँगूठा इतना कड़क हो चुका है
कि वो किसी के विश्वास में झुकता ही नहीं है।
फिर मैं उन रेखाओं के बारे में सोचता हूँ
जो बीच में ही कहीं गायब हो गई थीं।
‘ये एक दिन मेरी नियति जीएगा’ – की आशा में...
जो बहुत समय तक मेरी हथेली में पडी रहीं।
क्या थी उनकी नियति?
कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही थी,
इन दरवाज़ों के उस तरफ़
जिन्हें मैं कभी खोल नहीं पाया?
तभी मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी,
मैंने देखा... मेरे माथे पर कुछ रेखाएँ बढ़ गई हैं... अचानक!
अब ये रेखाएँ क्या हैं?
क्या इनकी भी कोई नियति है? अपने दरवाज़े
हैं?
नहीं – इनका कुछ नहीं है!
बहुत बाद में पता चला इनका कुछ भी नहीं है,
ये मौन की रेखाएँ हैं।
मौन – उन रेखाओं का जो मेरे हाथों में उभरी थीं
पर मैं उनके दरवाज़े कभी खोल ही नहीं पाया।
सच मैंने देखा है-
जब भी कोई रेखा मेरे हाथों से ग़ायब हुई है,
मैंने उसका मौन अपने माथे पर महसूस किया है।
मुझे लगता है- यही मौन है– जो हमें बूढ़ा
बनाते है।
जिस दिन माथे पर जगह खत्म हो जाएगी
ये मौन चेहरे पर उतर आएगा
और हम बूढ़े हो जाएँगे।
Fade Out
Scene-5
(पिंकी बाहर बैठी हुई है। शुक्ला भीतर से बाहर आता है)
शुक्ला- सो रहा है। भाभी कहाँ हैं?
पिंकी- फ़ोन करने गई हैं। पापा एक हफ़्ते से कहाँ थे? कहाँ मिले?
शुक्ला- एक हफ़्ते से कहाँ था ये तो पता नहीं... पर अभी पार्क
में मिला, सो रहा था बेंच पर।
पिंकी- मतलब... एक हफ़्ते से
पार्क में ही थे?
शुक्ला- नहीं, मैं पहले भी
गया था वहाँ। पता नहीं इतने दिन कहाँ था ये... बेटा पानी
देना।
पिंकी- मैंने माँ को कभी नहीं बताया, नहीं तो वो
बहुत घबरा जातीं! अंकल, पापा मुझसे बहुत बातें करते थे...
शुक्ला- क्या... क्या बातें
करते थे?
पिंकी- कुछ भी, क़िस्से, घटनाएँ। मुझे उनकी बातें सुनना अच्छा लगता था पर समझ में कुछ नहीं आता था। वो
कुछ डरे हुए थे। मैंने उनसे
पूछा कि उन्हें क्या हुआ है तो कहने लगे मुझे इल्हाम हुआ है।
शुक्ला- इल्हाम! वो क्या होता
है?
पिंकी- पता नहीं... फिर कहने लगे– मुझे हर चीज़
एकदम नई सी लगती है... धुली हुई। मैं
सब कुछ फिर से एक बच्चे की तरह जी रहा हूँ। मैं बच्चा होने वाला हूँ। तो मैंने
उनसे पूछा– अभी आप क्या हैं? तो वो कहने लगे– ‘अभी मैं शेर
हूँ और इसके पहले मैं ऊँट था।’
शुक्ला- क्या हो गया है इसे! कैसा हो गया है ये... उसने बताया
क्यों वो इतना परेशान
है?
पिंकी- वो परेशान नहीं हैं, वो बस डरे हुए
हैं। उन्हें डर है... और शायद
इसीलिए वो इतने दिन घर नहीं आए।
शुक्ला- ये सब तुम्हें पहले बताना चाहिए था, क्या डर... किसका डर?
पिंकी- तृप्ति का डर...
शुक्ला- तृप्ति? ये क्या है?
पिंकी- हाँ तृप्त हो जाने का डर... पापा कह रहे
थे उन्हें लगता है कि वो तृप्त हैं। जिसमें सारी वजह, इच्छाएँ खत्म हो जाती हैं। वो कह रहे थे- कोई भी वजह
नहीं बची है, सिवाए एक वजह के... एक इच्छा के... कि मुझे वापस इस
घर में आना है। रोज... अपने परिवार... अपनी बेटी के पास... और उन्हें ये वजह भी खो जाने का डर है।
शुक्ला- मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। और... और क्या कह रहा था?
पिंकी- और चाचा के बारे में बहुत बतियाते हैं।
शुक्ला- ये... ये चाचा कौन है? वो कह रहा था कि चाचा उससे मिलने आए थे। कहाँ रहते हैं वो कुछ पता है?
पिंकी- वो यहाँ रहते हैं? मुझे नहीं
मालूम था। ( पूनम अंदर आती है)
पूनम- अरे कहाँ हैं वो?
शुक्ला- अंदर सो रहा है... सोने दीजिए।
डॉक्टर ने कहा
है कि आराम की सख्त ज़रूरत है।
पूनम- मैं बस देखकर आती हूँ। (पूनम भीतर जाती
है)
शुक्ला- वो चाचा के बारे में तुम्हारी माँ को कुछ पता है?
पिंकी- उन्होंने कभी बात नहीं की मुझसे। (पूनम आती है)
पूनम- हे भगवान! बस इन्हें ठीक कर दे और कुछ नहीं चाहिए। ये प्रसाद लो। मैं मन्नत माँग के आई
हूँ। सब ठीक हो जाएगा। ये ख़ुद घर आए ना?
शुक्ला- नहीं... पार्क में सो
रहा था। बहुत गहरी नींद में। मैंने इतनी कोशिश की उठाने की... फिर पानी डाला... तब भी नहीं
उठा। मैं डर गया, कई लोगों की
मदद से इसे डॉक्टर के पास लेकर गया तब कहीं जाकर इसे होश आया।
पूनम- डॉक्टर... क्या कहा उसने?
शुक्ला- उसने तो डॉक्टर का गला ही पकड़ लिया था और पता नहीं क्या कह रहा था
डॉक्टर से... कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वापस इसे बेहोश
करके इसके टेस्ट लेने पडे... डॉक्टर ने कहा
है कि इसे आराम की सख़्त ज़रुरत है।
पूनम- मैं भी कल पार्क गई थी... इन्हें ढूँढते
हुए। ये तो कह रहे थे कि बहुत सुंदर पार्क है, पर वो तो एकदम खंडहर जैसी जगह है। एक बेंच पड़ी है। टूटे-फ़ूटे झूले हैं और
बस।
शुक्ला- और भाभी, जिन लोगों ने
मेरी मदद की डॉक्टर के पास ले जाने में, वो कह रहे थे– ‘ये पार्क सालों से बंद पड़ा है, यहाँ सिर्फ़
ये ही जाता है, बेंच पर बैठा रहता है।’ लोगों ने इसे कभी अकेले बड़बड़ाते देखा है, तो कभी नाचते
हुए...
पूनम- बच्चे?
शुक्ला- कभी ऐसे ही अख़बार को हवा में घुमा रहा है...
पूनम- बच्चे?
शुक्ला- भाभी... वहाँ कोई
बच्चे खेलने नहीं जाते।
पूनम- हे भगवान! (आँखे बंद कर
लेती है, एक लंबी साँस भर के शांत हो जाती है।) हम अभी पिछले ही साल घूमने गए थे... है न पिंकी, याद है! वहाँ पहाड़ थे, बहुत सारी बर्फ़ थी। तू, बिल्लू, ये.. पूरा परिवार। हमने बर्फ़ के चार बड़े बड़े
गोले बनाए, कंचों से उनकी आँखे बनाईं।
एक बिल्लू, एक पिंकी, मैं और... पिंकी वो फ़ोटो लाना, जो हमने वहाँ खींचे थे।
पिंकी- माँ...
पूनम- फ़ोटो लाओ बेटा आआआ... (चिल्लाती
है।)
शुक्ला- बेटा, जाओ... (पिंकी अंदर जाती है) भाभी... भाभी... किसको फ़ोन किया आपने?
पूनम- हाँ बिल्लू को फ़ोन किया पर उसके पास तो टाइम ही नहीं है। इनके भाई को
भी फ़ोन किया, मुझे लगा था ये गाँव चले गए होंगे।
मैं बता रही
हूँ। ये सब भूत-प्रेत का चक्कर है।
शुक्ला- भाभी... ये सब बेकार
की बाते हैं। भगवान ठीक हो जाएगा।
(भीतर से पिंकी के चीखने की आवाज़ आती है। वो भागती हुई बाहर आती है।)
पिंकी- मम्मी...
पूनम- क्या हुआ?
पिंकी- पापा... पापा सो नहीं
रहे थे वो बैठे हुए थे। मैंने पूछा- ‘आप ठीक तो हैं, क्या हुआ?’ तो वो मुझ पर झपट पड़े और मेरे हाथ से फ़ोटो
एलबम छीन लिया और... (भगवान के
खांसने की आवाज़ आती है और वो एलबम देखता हुआ अंदर आता है... उसका सिर भारी हो रहा है। सभी डरे हुए हैं। भगवान सबको देखकर मुस्कुराता है। )
भगवान- कौन सा दिन है आज ? कौन सी तारीख़
है? (सभी डरे हुए भगवान को एकटक देखते रहते हैं।)
क्या हुआ (भगवान फिर एलबम को देखता है और मुस्कुराने लगता है।)
भगवान- सुंदर है ये सब... कितना ख़ूबसूरत
है (एलबम टेबल पर रखता है और एक कुर्सी पर बैठ जाता है।) पर हम क्या करेंगे इतनी
ख़ूबसूरती का! मैं कभी कभी अपना सबसे ख़ूबसूरत सपना याद करता हूँ, मेरा सबसे ख़ूबसूरत सपना भी... कभी बहुत ख़ूबसूरत
नहीं था। मेरे सपने भी थोड़ी सी ख़ुशी में, बहुत सारे सुख चुगने जैसे हैं। जैसे कोई चिड़िया अपना खाना चुगती है... पर जब उसे पूरी रोटी मिलती है तो वो पूरी रोटी नहीं खाती... वो उस रोटी में से रोटी चुग रही होती है। बहुत बड़े आकाश में भी हम अपने
हिस्से का आकाश चुग लेते हैं। देखने के लिए हम बड़ा ख़ूबसूरत आसमान देख सकते हैं... पर जीने के लिए हम उतना ही आकाश जी पाएँगे, जितने आकाश को
हमने अपने घर की खिड़की में से जीना सीखा है।
शुक्ला- भगवान... (शुक्ला चिल्लाता है। पूनम उसे रोकती है) भाभी... मैं बात करता
हूँ, बहुत दिनों से इसका नाटक चल रहा है। (शुक्ला
भगवान के पास आकर gibberish में बात करता
है।)
शुक्ला- #$#%$#^%$#$%#%%$%$^^&##!$$#%$^$
भगवान- तुम लोग क्या बोल रहे हो? पिंकी भी अंदर आई तो पता नहीं क्या बोल रही थी? (शुक्ला फिर
कुछ बोलने की कोशिश करता है, भगवान टोक
देता है।) क्या... क्या है? (शुक्ला
परेशान होकर पूनम के पास जाता है।)
शुक्ला- अरे भाभी, पता नहीं क्या
बोल रहा है। कौन सी भाषा... कुछ समझ में
नहीं आ रहा है... क्या हो गया है इसे... (भगवान के पास आकर उसे झिंझोड़ता है और जिबरिश में चिल्लाता है.. ’क्या हो गया
है तुझे.. पागल हो गया है क्या?’)
पूनम- भाई साहब! रुकिए मैं बात करती हूँ... (पूनम भगवान के पास आती है और धीरे से, बहुत प्यार
से उसे समझाना शुरु करती है... पर सब जिबरिश है.. भगवान की कुछ समझ में नहीं आता।)
#$%#%^%$^$^^$%^$%^$%#%%^&
भगवान- ये सब
क्या है? पूनम... क्या कह रही हो तुम
पूनम- (भगवान के बोलते ही पूनम परेशान हो जाती है.... और अपनी आवाज़ ऊंची करती
है...।)^$^$$^$^#$%#%%$%$$%$^^ (पूनम बोलते बोलते रोने लगती है। पीछे से
शुक्ला जिबरिश में बोलना शुर करता भगवान से.. फिर पिंकी भी बोलने लगती है जिबरिश
में... पूनम भी साथ हो लेती है... भगवान सबको सुनते हुए डर जाता है.. उसे कुछ समझ
नहीं आता। सारे लोग अब साथ में और लगातार बोलते जा रहे हैं।)
भगवान- पागल नहीं हूँ मैं।
भगवान- पागल नहीं हूँ मैं।
भगवान- पागल नहीं हूँ मैं। (अंत में चिल्लाता
है... सब चुप हो जाते हैं।)
Black Out
Scene –6
(एक-एक करके सब लोग कुर्सी पर आकर बैठते हैं... और डॉक्टर से बात करते हैं...
डॉक्टर मानों दर्शक हों।)
पूनम- नमस्कार डॉक्टर साब! पूनम... इनकी पत्नी।
जी, पहले से काफ़ी बेहतर हैं, गहरी नींद
सोते हैं। जब तक कुछ बोलते नहीं हैं, तब तक एकदम
ठीक दिखते हैं पर मैं आपको एक बात बताऊँ... इन्हें
दिमाग़ी बुख़ार हो गया है या फिर किसी का साया है। जी... मैं विश्वास करती हूँ। मैं सब पर विश्वास करती हूँ। अगर कोई मुझसे कहेगा न कि
यहीं सौ बार नाक रगड़ो, तुम्हारे पति
ठीक हो जाएँगे तो मैं नाक रगड़ूँगी। एक पूरा साल हो गया है एक डॉक्टर से दूसरे
डॉक्डर तक जाते जाते... मैं बहुत थक
गई हूँ। बस बहुत हो गया... अब सहन नहीं
होता। माफ़ करना डॉक्टर साब! सब ठीक हो जाएगा... सब ठीक है।
शुक्ला- नमस्कार... जी मेरा नाम
पी.पी. शुक्ला। मेरी एक छोटी-सी कपड़े की दुकान है वहीं इसके घर के नीचे। इससे दोस्ती
तो बहुत पुरानी है, शादी से पहले
से जानता हूँ। क्या हुआ... ये तो सर
भगवान जाने या... भगवान जाने। मुझे लगा कि कहीं कोई गड़बड़ है।
एक दिन मेरे पास आया और कहने लगा शुक्ला एक बात बता। मैंने कहा पूछ... तो कहने लगा चिड़िया जब पैदा होती है तो क्या वो अपना पेड़ ख़रीदती है, घोसला ख़रीदती है, अपना एक
ईश्वर चुनती है? मैंने कहा ऐसा लगता तो नहीं है। तो कहने लगा
यदि वो इन सबका बोझ उठाती तो उड़ ही नहीं पाती और हँसता हुआ चला गया। अब आप बताइए एक
बीवी-बच्चों वाला आदमी, बैंक का
कर्मचारी उसको ये सब बातें शोभा देती हैं? अब तो क्या
बोल रहा है, क्या नहीं, किसी को कुछ
समझ नहीं आता।
पिंकी- मैं पिंकी... मेरे भाई का
नाम बिल्लू है। पापा मुझसे बहुत प्यार करते थे... मेरा मतलब
करते हैं। जी मैंने एक-दो बार कोशिश की उनसे अकेले में बात करने की, पर... एक बार उन्होंने मुझे कुछ कागज़ दिए और इशारा किया कि पढ़ो। जब मैंने कागज़
खोले तो उस पर चित्र बने हुए थे... अजीब से थे।
मुझे डर लगता है! मुझे अपने ही
पापा से डर लगता है!
सौरभ- जी, मैं ऐसे बहुत से पागलों को जानता हूँ। अजी
गर्मी में बड़े-बड़े लोग निकल लेते हैं। माफ़ कीजिएगा डॉक साब, वैसे आप ज़्यादा जानते हैं पर आप ही बताइए बुढ़ापे में बुड्ढों के मुँह से आह
नहीं निकलेगी तो क्या निकलेगा? और ऐसे हर आह
पर पैसे बाँटने लगे तो बैंक तो दो दिन में खाली हो जाएगा। अजी इन पागलों का कोई
भरोसा नहीं है। हमारे गाँव में एक पागल था, एक बार उसने
एक आदमी का सर फोड़ दिया... बताइए। मैं एक
बात बोलूँ डॉक साब... पागलों का कोई इलाज नहीं... टॉइम वेस्ट
है बस।
Scene –7
(भगवान अंदर आता है और उसके पीछे पीछे मोहन (भिखारी) अंदर आते हैं)
भगवान- पूनम... (मोहन दरवाज़े
पर ही रुक जाता है...) आ जाओ, अरे अंदर आ
जाओ।
मोहन- क्या भाई... तुम्हारा ही
घर है न?
नहीं तो दोनों
पिटेंगे।
भगवान- मेरा ही घर है। पूनम... पूनम...
मोहन- पूनम कौन है?
भगवान- मेरी पत्नी है... तुम्हें बताया
था।
मोहन- नहीं, मैं कह रहा था... पूनम कहाँ है?
भगवान- हाँ वो कहीं गई होगी। अरे तुम अंदर आओ न।
मोहन- नहीं, मैं भिखारी हूँ। मुझे अपनी औकात पता है, मैं यहीं ठीक हूँ।
भगवान- अच्छा... ठीक है। मैं
भीतर देखकर आता हूँ।
(भीतर से भगवान की आवाज़ आती है, जो पिंकी से
कुछ पूछ रहा है। पिंकी डरी हुई बाहर आती है,
पिंकी जिबरिश बोल रही है। भगवान, पिंकी को खीचकर बाहर लाता है।)
पिंकी- (जिबरिश में)
भगवान- बेटा... तुम्हारी माँ
कहाँ है? क्या हुआ तुम्हें? क्या कह रही
हो तुम .. सुनो इधर आओ।
पिंकी- #$%^%&^*&%&*^*^%&%^%&^&^$#%
भगवान- बेटा, सुनो! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।
मोहन- मै बताऊँ... मैं बताऊँ... माँ किसी बाबा को लेने गई है। मुझे बहुत डर लग रहा है... पापा...छोड़ो मुझे.. पापा छोड़ो मुझे...
पिंकी- (पिंकी मोहन को देखती है और जिबरिश में बोलने लगती है.. जिसे मोहन
ट्रासलेट करता है।)
मोहन- ये कौन है? ये तो कोई
भिखारी है। पापा आप भिखारी को घर में ले आए...
भगवान- (भगवान वापिस पिंकी का हाथ पकड़कर उसे मोहन के पास लेकर आता है।) ये
मेरी बात समझता है। मैं बस इतना बताना चाहता हूँ कि मैं ख़ुद ठीक हो जाऊँगा। इधर
आओ... मोहन तुम बताओ इसको कि...
पिंकी- (पिंकी जिबरिश में चिल्लाने लगती है... मोहन ट्रांसलेट करता है।)
मोहन- पापा, आप सच में पागल हो गए हैं। दूर हटो तुम
मुझसे।
भगवान- बेटा... बेटा मेरी बात
सुनो... बेटा...
पिंकी- (पिंकी जिबरिश में चिल्लाती हुई बाहर भाग जाती है)
भगवान- पिंकी कहाँ चली गई? क्या कह रही
थी वो?
पिंकी- मैं माँ को लेकर आती हूँ... माँ... माँ...
भगवान- तुमने उसे रोका क्यों नहीं?
मोहन- अरे वो इतनी डरी हुई थी और तुम कह रहे हो रोका क्यों नहीं। (हँसने लगता
है।)
भगवान- तुम हँस क्यों रहे हो?
मोहन- तुम्हारा तो खेल हो गया है दोस्त! मुझे लगा था तुम मुझे बेवकूफ़ बना रहे
हो... अब क्या करोगे तुम?
भगवान- पता नहीं... मुझे तो बस
इतना पता है, मैं वापस आना चाहता हूँ।
मोहन- वापस! तुम तो यहीं हो।
भगवान- यही तो मैं अपने परिवार वालों को समझाना चाहता हूँ कि मैं यहीं रहने के लिए लड़ रहा हूँ और मैं चाहता हूँ कि
जब पूनम आए तो तुम उसे एक बार बता देना कि मैं कोशिश कर रहा हूँ। तुमने देखा न वो
मेरी बात नहीं समझ पा रहे हैं... और अगर उन्हें
ये लगता है कि ये बीमारी है तो उसका इलाज भी मैं ही कर सकता हूँ।
मोहन- देखो, मैं कोशिश
करूँगा... पता नहीं कि वो लोग मेरी बात समझेंगे कि नहीं। वैसे क्या हुआ है तुम्हें? माफ़ करना मुझे हँसी आ रही है, पर मैं सच में
जानना चाहता हूँ।
भगवान- लड़डू खाओगे?... (भगवान भीतर से लड़्डू लाता है उसके लिए...) तुम्हें पता
है, मैं बचपन में अपने पिताजी के साथ एक आरती गाया करता था- ‘ओ शंकर मेरे, कब होंगे दर्शन तेरे’। मेरे पिताजी
बडी तल्लीनता
से वो आरती गाया करते थे... रोज़। मुझे लगा
कि अगर मैं शंकर होता तो पिताजी
को दर्शन जरूर देता और तब मेरे पिताजी क्या करते...? ये बात मेरे दिमाग में
फ़ंस गई। सच में मेरे पिताजी क्या करते? ये सोचते हुये
मैं कई महीनों
अपने पिताजी के साथ घूमता रहा और एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया कि – ’आप
क्या करेंगे?’ उन्होंने मेरी
बात टाल दी। पर मुझे जवाब चाहिए था। सो वो
जब भी मेरे सामने पड़ते मैं पूछ लेता कि – ’आप क्या करेंगे।’ एक दिन
उन्होंने गुस्से में आकर मुझे मार दिया... बहुत मारा... पर वो बात वहीं की
वहीं रह गई। सो कुछ दिनों बाद मैं घर से भाग गया। फिर मुझे याद नहीं कि
क्या हुआ था। मेरे घर वाले बताते हैं कि दो साल तक मैं नहीं मिला था फिर
कुछ समय मुझे मेंटल हॉस्पिटल में भी रखा गया था, तब उनका कहना
है कि मैं
सब भूल गया था, मतलब ठीक हो गया था।
मोहन- तुम ठीक हो गए थे तब?
भगवान- झाडू लगाने के बाद हमको लगता है कि घर पूरी तरह साफ़ हो गया है
पर असल में कचरा वहीं घर के बाहर, घर के कोनों
में दुबका हुआ ताक लगाये
बैठा रहता है।
मोहन- सुनो भाई... मैं तुम्हारे
घरवालों को बताने की कोशिश करूँगा जैसा
मैंने देखा कि तुम्हारी बात तो कोई सुन ही नहीं रहा है पर मेरी ख़ुद समझ
में नहीं आ रहा है कि मैं उन्हें क्या बताऊँगा... मतलब क्या
कहूँगा उन्हें
कि क्या हुआ है तुम्हें?
भगवान- “क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है-देखो मैं हूँ?” (रमण
महर्षि) ये वाक्य पता नहीं कहाँ, कब सुना था... जो घर के कचरे की तरह, मेरे
दरवाज़े के बाहर ही जाने कब से घात लगाये पड़ा था... एक दिन जब मैं पसीने में
लथपथ बिना कुछ सोचे एकदम खाली कुँए सा अपने घर की ओर जा रहा था... मानो किसी ने मुझको सुन्न कर दिया हो... तब उस क्षण इस
वाक्य ने मुझे ढर दबोचा। “क्या दुनिया
तुम्हारे पास आकर कहती है-देखो मैं हूँ” तब पहली बार
मैं उस पार्क की बेंच पर जाकर बैठा था। कुछ देर में पसीना आना बंद हो गया। मेरे झुके
हुए कंधे सीधे हो गए और मैंने अपने दोनों हाथ खोल दिए... जैसे कोई बहुत पुराना बिछडा हुआ दोस्त मुझे दिखा हो, जिसके मैं गले लगना चाहता हूँ। तभी मुझे लगा जैसे कोई मेरे बगल में आकर बैठ
गया हो। अचानक वो मेरे करीब आया और मेरे कान में फ़ुसफ़ुसाया-“क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है-देखो मैं हूँ।” और मैंने इसका जवाब देना शुरू किया... उस दिन... अगले दिन... हफ़्तों.... महीनों.... और तब मुझे हर चीज़ धुली-धुली लगने लगी। जैसे किसी ने साबुन से रगड-रगडकर सब
कुछ धो दिया हो... सडकों को, कूडे के
डिब्बे को, सारे जानवरों को, वो कोने में बैठे मोची को और मोची के आँखों के नीचे पडे गड्ढों को और... पूरे शहर को, सबको और तब
मुझे वो रेखायें दिखने लगीं।
मोहन- रेखायें?
भगवान- रेखायें... जैसे हाथों पर, माथे पर होती हैं, ठीक वैसी ही
रेखायें
ज़मीन पर भी पड़ती हैं। ये एक पगडंडी बनने जैसा है।
मोहन- मतलब?
भगवान- जैसे ये घर में, ये रेखायें
तुम्हें नहीं दिख रहीं ?
मोहन- नहीं... कहाँ हैं?
भगवान- अभी थोड़ी बिगड गई हैं क्योंकि पिछले कुछ समय से मैं अपनी ही
रेखाओं को लांघ रहा हूँ इसीलिए पूरा घर परेशान है... हमारे जीने की... हमारे
चलने की रेखायें पूरे शहर में फ़ैली होती हैं... जैसे तुम्हारी
रेखायें...
नहीं मुझे तुम्हारी रेखायें नहीं दिखीं, मोहन?
मोहन- नहीं दिखीं... क्योंकि मैं
चलता ही नहीं हूँ... मैं जहाँ धंधा
करता
हूँ वहीं सो जाता हूँ। हमें तो अपनी जगह इतना बैठना पड़ता है कि लोगों को
लगने लगे कि ये यहीं से उगा है और एक दिन यहीं समा जाएगा... रुको, तुम्हें
कैसे पता कि मेरा नाम मोहन है? मैंने आजतक
किसी को अपना नाम नहीं बताया।
भगवान- मुझे तो उस चिड़िया का नाम भी पता है जो बाहर चहक रही है। आजकल मैं
उससे थोड़ा नाराज़ हूँ... इसलिए देखो
कैसे मना रही है।
मोहन- तुम्हारी पत्नी अभी तक आई नहीं ?
भगवान- आती होगी।
मोहन- सुनो... अब जब तुम मुझे सुन सकते हो तो तुमसे एक बात
कहूँ?
भगवान- हाँ
मोहन- मैं जो खाना खाता हूँ ना... कभी लोगों का
जूठा, कभी कहीं से जुगाड
किया हुआ। खाते वक़्त मैं हमेशा सोचता हूँ कि जो खाने का स्वाद मुझे आ रहा
है क्या वही स्वाद इन सबको भी आ रहा होगा या मुझे कुछ अलग ही स्वाद आता
है। मैं अपना खाना हमेशा चटखारे मारकर खाता हूँ। देखो अभी भी मुँह में
पानी आ गया।
भगवान- क्या तुम ठीक ठीक बता सकते हो कि कैसा स्वाद आता है?
मोहन- हाँ... ये... ये वाला। ये
अभी आया था... रुको... अ... अ... ये... ये आया... अरे...
भगवान- नहीं बता सकते। कोई नहीं बता सकता। मेरी भी यही समस्या है, मुझे
अब खाने में जो स्वाद आ रहा है वो मैं किसी को नहीं बता सकता।
(मोहन गाना, गाना शुरू करता है.. भगवान भी उसके गाने के
साथ अपना विकृत सा नाच शुरु करता है। पीछे एक बाबा का प्रवेश होता है वो इन दोनों
को देखता हुआ... कुछ
छिडकता हुआ भीतर के कमरे में चला जाता है। पिंकी और पूनम आते हैं।)
पूनम- ये कौन है पिंकी?
पिंकी- आपसे कहा था ना कि पापा किसी भिखारी को ले आए हैं।
भगवान- (भगवान पूनम और पिंकी को देखता है... और खुश हो जाता है वो मोहन को
गाना गाने से रोकता है।) मोहन मेरी पत्नी आ गई... इसे कह दो जो
भी मैंने तुम्हें बताया है... जल्दी।
मोहन- ठीक है भाई मैं कोशिश करता हूँ। (मोहन, पूनम के पास
जाता है, नमस्ते करता है.. और कहना शुरु करता है और हमें पता चलता है कि मोहन तो
गूंगा है।) आ...आ...आ...आ
(मोहन वापिस भगवान के पास आता है) मैंने कहा था ना ये लोग मेरी बात नहीं समझेंगें।
भगवान- क्यों नहीं समझेंगें ये लोग...जब मैं समझ
रहा हूँ तो वो भी समझेगें... तू बोल ना... तू बोल उनसे।
मोहन- (मोहन फिर कोशिश करता है..) आ...आ...आ...
बाबा- (भीतर से बाबा बाहर आता है... और तेज़ आवाज़ में आदेश देता है।) बाहर
निकालो इस गूंगे को। (पूनम और पिंकी मोहन को खींचते हुये
बाहर निकालते हैं और मोहन भागकर वापस आता है। पूनम और पिंकी उसे वापस
पकडकर बाहर निकालते हैं। यहाँ भगवान और बाबा अकेले रह जाते हैं। भगवान डर के
मारे बाबा से दूर भागना चाहता है। बाबा अंत में उसे पकड लेता है, बालों से और मंत्र
पढता हुआ भगवान को खींचते हुये पूरे घर का चक्कर लगाता है। उसपरकुछ छिड्कता है और
बीच स्टेज पर लाकर चाँटा मारता है, तब तक पिंकी
और पूनम अंदर आ जाते हैं।भगवान नीचे गिर जाता है... एक क्रूरता इस सीन में दिखती
है जिसकी बहुत ज़रुरत है..।)
पिंकी- पापा ...S...S...S...
(ब्लैक आउट होता है कुछ चाँटो की आवाज़ आती है। फिर लाइट आती है। भगवान
सामने बेहोश पड़ा है। बाबा, पिंकी और पूनम
पीछे खडे हैं।)
बाबा- अब इसे रात भर यहीं अकेला रहने दो। बाहर से ताला लगा देना, ये
सुबह तक ठीक हो जाएगा। चलिए।
पूनम- बेटा, चाभी ले आ।
(पिंकी चाभी लाती है। सब निकल जाते हैं। भगवान बेहोश पड़ा हुआ है। तभी विंग से
बहुत सारी लाईट भीतर आती है.. मानों सूरज की रोशनी सीधे दरवाज़े से भीतर प्रवेश कर
रही हो.. कुछ अनरियल सी। भगवान को होश आता है और वो उस रोशनी की तरफ बढ़ता है।
भगवान उस रोशनी को देख रहा होता है और अचानक मुस्कुराने लगता है। भगवान को चाचा
चौधरी आते हुए दिखाई देते हैं)
भगवान- चाचा... चाचा जी।
(चाचा चौधरी, कॉमिक्स के बहुत प्रसिद्ध पात्र हैं।)
चाचा- जो लोग नाच रहे थे वो हमेशा पागल समझे गए उन लोगों के द्वारा
जिन्हें कभी संगीत सुनाई ही नहीं दिया। (नित्शे)
भगवान- मैं वापस आना चाहता हूँ। चाचा... मैं वो नहीं
हूँ... मैं सब कुछ नहीं
जानना चाहता... ये पहले सुख
था अब नहीं... मेरे हाथ से सब कुछ छूटता जा रहा
है। मैं ये सहन नहीं कर सकता।
चाचा- जब तुम अपने बाप की मार खाकर अपने घर से भाग गए थे, तब तुम क्या
थे? तब तुम ऊँट थे... ऊँट... जो एक वीराने में घुटनों तक झुका हुआ अपनी ही आत्मा का बोझ लादे, बिना कुछ जाने-समझे भटक रहा था... अब तक। अभी
कायकल्प हुआ है... ट्रांसफ़ार्मेशन... और अब तुम सीधे खडे हो। अब तुम शेर हो... जो अब उसी
वीराने में शासन करना चाहता है। ईश्वर कहता है- तुम्हें ये करना चाहिए। शेर कहता
है- मैं नहीं करूँगा। तुम्हारे लिए सारे मूल्य, मर्यादायें
सब अप्रासांगिक हैं। तुम सब कुछ नया रचना चाहते हो... और यही नया
रचते-रचते बहुत जल्द फिर एक कायाकल्प होगा और तुम एक शिशु हो जाओगे... बच्चे और वो ही ज़रूरी है, वो ही नयी शुरुआत
है और यही तो तुम चाहते हो। (नित्शे)
भगवान- क्या मैं सच में यही पाना चाहता था? तो क्यों मुझे
सब लोग रोते
हुये और मुझे मारते हुये दिखाई दे रहे हैं।
चाचा- अब ये ग्लानि है... जब मल्लाह को
गाँव वाले पत्थर मार-मारकर गाँव से
बाहर निकाल रहे थे तो एक पत्थर तो तुम्हारे हाथ में भी था।
भगवान- हाँ... पर मैंने मारा नहीं था।
चाचा- मारा नहीं... पर बचाया भी तो
नहीं... और अब जब तुम ख़ुद चिड़िया से बातें कर रहे हो तो उन पत्थरों को कैसे रोक सकते
हो जो अब तुम्हें दूसरों के हाथों में दिख रहे हैं।
भगवान- क्या मैं ये सब रोक नहीं सकता हूँ... पर ये सब एकदम
से कैसे हो गया?
चाचा- ये सब एकदम से नहीं हुआ है... तुमने कभी
सोचा, क्यों तुमने अपने बच्चों के नाम बिल्लू और पिंकी रखे हैं। क्योंकि ये तुम्हारे
कॉमिक्स के सबसे पसंदीदा पात्र हैं, हैं ना?
भगवान- नहीं... मुझे सबसे ज़्यादा
साबू पसंद है। अरे साबू कहाँ है... चाचाजी आप
साबू को नहीं लाये ?
चाचा- लाया हूँ ना... वो बाहर खडा
है।
भगवान- साबू... साबू... (भगवान बाहर आता है। दरवाज खोलने की कोशिश करता है पर बाहर ताला लगा है। भगवान वापस
आता है) आप उसे बुला लीजिए ना मैं उससे मिलना चाहता हूँ।
चाचा- वो तो ख़ुद तुमसे मिलना चाहता है। पर क्या करें... तुमने अपने घर ही इतने छोटे बना रखे हैं कि साबू अंदर आ ही नहीं सकता। पर जैसे
ही तुम शिशु हो जाओगे ना तो वो भीतर आ जाएगा, वो ही नहीं सब
कुछ भीतर आ जाएगा।
भगवान- चाचाजी... क्या हम दोनों
सुख एक साथ नहीं ले सकते?
चाचा- क्या इंसानों जैसी बातें कर रहे हो?
भगवान- मुझे ऎसा लगता है कि मैं नदी के तेज़ बहाव के विरुद्ध तैर रहा हूँ।
तैरता हूँ, तैरता हूँ पर कहीं पहुँचता नहीं हूँ और अगर
तैरना बंद कर दूं तो डर है कि कहीं ये नदी बहाकर ना ले जाये। क्या करूँ मैं... ये सब कितना कठिन क्यों है?
चाचा- ये सब सरल है... इस दुनिया में
जीना उतना ही सरल है जितनी सरलता से एक चिड़िया जीती है। पर हमने ’कैसे जीना है के’ इतने किस्से
और कहानियाँ बना लिए हैं कि अब लगता है कि कोई बुद्ध ही होगा जो ऎसा जी सकता है। हमारे
बस की बात नहीं है। जबकि एक चिड़िया वैसी ही जी रही है जैसे उसे जीना चाहिए।
भगवान- पर मैं कौन हूँ... क्या खोज रहा
हूँ ?
चाचा- तुम कुछ नहीं खोज रहे हो। तुम्हें बस ये पता लग गया है कि तुम बिछड गए
हो...अपने घर से... अपने आप से... ख़ुद से... तुम बस अपने घर वापस आना चाहते हो.... और उस ओर चल
रहे हो।
भगवान- तुमने ईश्वर को देखा है?
चाचा- तुम्हें पूछना चाहिए क्या मैंने ईश्वर को देखा ? ये तुम्हारा इल्हाम है ये सब तुम्हें पता है।
भगवान- क्या मैंने ईश्वर को देखा है ?
चाचा- मैंने ईश्वर को नहीं देखा, पर हाँ मैंने
एक सपना देखा है...
भगवान- हाँ... उस स्वप्न में एक झील दिखाई दी... काई से ढँकी हुयी (रामकृष्ण परमहंस)
चाचा- तभी हवा का झोंका आया... और धीरे धीरे
काई एक और सरकती गई।
भगवान- और मुझे नीला पानी दिखाई दिया।
चाचा- तो मैंने सोचा ... ये नीला पानी
सत्य है... ईश्वर है। तभी हवा का झोंका दोबारा आया और काई झील पर वापस आ गयी।
भगवान- तब मैंने सोचा... ये तो माया है... छलावा।
चाचा- सत्य भी वही है... माया भी वही
है। दोनो एक-दूसरे के बगैर नहीं रह सकते। हा... हा... हा...
भगवान- हा... हा... हा... चाचाजी, चलो पार्क में जाकर बैठेंगें। मुझे आपसे बहुत
बातें करनी हैं।
चाचा- नहीं... अभी मैं चलता हूँ। तुम आराम करो... तुम्हें आराम की ज़रूरत है।
भगवान- अब आप मुझसे मिलने कब आयेंगें?
चाचा- जब तुम बुलाओगे।
भगवान- आप मेरे साथ रह क्यों नहीं जाते... यहीं इस घर
में ?
चाचा- मैंने कहा ना जब तुम शिशु हो जाओगे तो मैं ही नहीं सब... पूरी दुनिया तुम्हारे साथ रहने लगेगी। (चाचाजी जाने लगते हैं, फिर पलटकर भगवान
से पूछते हैं।) क्या ज़िंदगी तुम्हारे पास आकर कहती है, देखो मैं हूँ?
भगवान- चाचाजी... हाँ वो कहती
है, पर अब मैं उसे सुनना नहीं चाहता। मैं इस पूरे आकाश का क्या करूँगा जिसमें उडना
मैंने सीखा ही नहीं... मैं तो बस उतना
ही आकाश जीना चाहता हूँ जितने आकाश को मैंने अपने घर की खिडकी में से जीना सीखा
है।
चाचा- तो ठीक है... इसे हमारी
आखिरी मुलाकात ही समझो।
(चाचा चौधरी गाना गाते हुए निकल जाते हैं भगवान को चाचा चौधरी का जाना दुखी कर
देता है... वो पलटता है और उसे पार्क की बेंच दिखती है.. सुंदर, सपनों सी... वो
उसकी तरफ जाता है उसे छूने पर उसे छूता नहीं है।)
भगवान- मैंने सुनहरा सोचा था, वो काला निकला।
तभी नींद का एक झोंका आया,
मैंने उसे फिर सुनहरा कर दिया।
अब... सुबह होने क भय लेकर
नींद में बैठा हू॥
या तो उसे उठकर काला पाऊँ,
या हमेशा के लिए उसे सुनहरा ही रहने दूँ...... और कभी ना
उठूँ।
Scene-8
(भगवान बहुत सारे पेपर लेकर कुछ काम कर रहा है और उसका व्यवहार अति
सामान्य है कि सामान्य नहीं लग रहा है। पिंकी तैयार होकर कहीं बाहर जा
रही है।)
पिंकी- माँ, जल्दी चलो... मुझे कॉलेज के
लिए देर हो रही है... अरे पापा आप
अभी तक गए नहीं। शुक्ला जी इंतज़ार कर रहे होंगे।
भगवान- मैं उसी की दुकान का हिसाब कर रहा था... मुझे पता ही
नहीं चला कि
इतना टाईम हो गया ।
पिंकी- आप फिर अपनी दवा खाना भूल गए ?
भगवान- मैं भूल गया ?
पिंकी- दवाई खाई आपने ?
(पिंकी दवाई की शीशी निकालकर सामने रखती है।)
भगवान- बस खाता हूँ। (पूनम आती है)
पूनम- अरे आप गए नहीं अभी तक?
भगवान- बस... अभी हो गया... हो गया।
पिंकी- माँ... चलो मुझे देर हो रही है।
पूनम- चलो... आप जाते हुये दरवाजा बंद कर लेना। एक चाभी
मेरे पास है। (तभी
बेल बजती है पिंकी देखने जाती है)
पिंकी- माँ...
पूनम- कौन है?
पिंकी- वो...
पूनम- अरे कौन है?
पिंकी- वो भिखारी आया है...
भगवान- कौन... मैं... मैं... (भगवान तुरंत उठकर दरवाज़े की तरफ जाने को होता है तभी उसे याद आता है कि वो
ऎसे नहीं जा सकता... पूनम से आग्रह करता है।) उससे मिलना
चाहता हूँ... मिलूँ... अब तो मैं ठीक
भी हो गया हूँ।
पूनम- पर दुकान में जल्दी जाना... मैं शुक्ला जी
को बोलकर जाती हूँ... दवाई
मत भूलना। चलो पिंकी।
पिंकी- माँ?
पूनम- कुछ नहीं होगा... तू चल... (दोनो चले जाते हैं) जाईये अंदर बैठे हैं वो।
(मोहन अंदर आता है भगवान के गले लग जाता है और कुछ तोहफ़ा उसे देता है)
मोहन- आ... आ... आ...
भगवान- अब मैं तुम्हारी बात नहीं समझ सकता... अब तुम मेरे लिए
बस एकगूंगे भिखारी हो।
मोहन- आ... आ... आ...
भगवान- नहीं... मोहन... तुम्हारा नाम मोहन है ना... ये भी मुझे
इसीलिए याद है
क्योंकि मैंने अभी तक अपनी दवाई नहीं खाई।
मोहन- (ये दवाई क्या है) आ... आ... आ...
भगवान- मैं नहीं जानता। मैंने तुमसे कहा था ना कि मैं वापस आना चाहता हूँ।
बहुत कोशिशों के बाद भी जब मैं वापस नहीं आ पाया तो मैंने आसान रास्ता चुन लिया।
मैंने सोचा मैं मर जाता हूँ। बहुत मुश्किलों से ये गोलियां मिलीं। जैसे ही मैंने
इसे खाया, मुझे नींद आने लगी। मेरा ये हाथ सुन्न होने लगा, सिर एकदम भारी
हो गया। तभी किसी ने आकर मुझसे कहा – ’आप बीच रास्ते
में खडे हैं, यहाँ आ जाईये।’... मैंने उसे
धन्यवाद दिया। वो कोई बात नहीं कहकर चला गया... और मैंने देखा
मुझे सब समझ में आ रहा है... सभी मेरी बात
भी समझ रहे हैं। बस... और बस मैं ठीक
हो गया। अभी भी मुझे ठीक से नींद नहीं आती है, ये हाथ हल्का
सा सुन्न रहता है, सर भारी बना
रहता है... ये कहते हैं अब मैं ठीक हो गया हूँ। मैं अब सामान्य हूँ।
(मोहन दवाईयाँ अपने हाथ में ले लेता है और भगवान की तरफ़ इशारा करता है )
भगवान- ये... ये असल में झाडू है जो मुझे अपने घर में रोज
लगानी पड़ती है
कि हर आदमी की तरह मेरा भी घर साफ़ रहे।
(मोहन, भगवान को खींचकर दूसरी ओर लाने की कोशिश करता
है और नाचते हुये इशारा करता है कि उसे इल्हाम की ओर चले जाना चाहिए। भगवान पीछे
हटता है।)
भगवान- इल्हाम की मुझे क्या ज़रूरत है... पूरा सच जानकर
मैं क्या करूँगा। अगर जीवन के इस तरफ़ ही रहना है तो हर थोड़ी चीज़ से काम चल जाता
है... थोड़ा सच, थोड़ी ख़ुशी, थोडे सपने।
अगर पूरा चाहिए तो उस तरफ़ जाना पडेगा... पूरी
तरह। इस तरफ़ रहकर उस तरफ़ की बात करना भी झूठ है, अपने आपको बेवकूफ़
बनाने जैसा है और मैं... और बेवकूफ़
नहीं बनना चाहता ।
मोहन- (मोहन दवाई की शीशी तोडना चाहता है ) आ... आ... आ...
भगवान- नहीं... मैं हाथ जोडता
हूँ...
(मोहन गवाई वापस रख देता है )
भगवान- मोहन... अब मैं एक
इकाई हूँ... इस पूरी दुनिया की नहीं... दुनिया से अब
मुझे कोई मतलब नहीं । मैं इकाई हूँ, हमारी बनायी
दुनिया की, इस समाज की
और मुझे इस पूरे खाने में हमेशा नमक की मात्रा में रहना है... ना ज़्यादा ना
कम । ठीक उतना ही जितने में सभी को ये खाना एक तरह का स्वाद देता रहे...
हमेशा ।
(भगवान दवाई खाने को होता है, मोहन उसे
रोकता है और जाने की
आज्ञा माँगता है... तोहफ़ा टेबल
पर रखकर वो चला जाता है। भगवान दवाई
खाता है। अपने सारे कागज़ उठाकर जाने लगता है। तभी उसे चिड़िया के चहकने
की आवाज़ सुनाई देती है और वो रुकता है... धीरे से पीछे मुडता है। चिड़िया की
चहचहाट पूरी तरह भर जाती है... भगवान उस तरफ देखता रहता है। )
Fade Out
The end....
आपका ये नाटक मैने भोपाल में देखा था, इसके साथ ही शक्कर के पांच दाने भी उसी फेस्टीवल में देखा था। बाद में भारत भवन में पार्क भी देखने को मिला।
जवाब देंहटाएंइल्हाम मुझे बहुत पसंद आया था। इसे यहाँ देखकर खुशी हुई। पढ़ूंगा पूरा। धन्यवाद।
is natak ka matalb kya hota hai pata chala?
हटाएंbehad sundar aur prabhawshali natak hai ye. dekhne ki ichcha badh gayi hai.
जवाब देंहटाएंHey .. I was quite impressed and motivated by your play 'ILHAAM' and would like to watch it so that I could co-relate with it in a better way. If you could help me find its video online, I would be forever indebted to you. Thankyou.
जवाब देंहटाएंArjun Chopra
अतिसुंदर , मनमोहक, बहुत ही अच्छा है। इल्हाम जल्द ही play करने वाले हैं।
जवाब देंहटाएंBahut hi umda....shukriya ilham ko likhne ke liye...jisne bhi likha hai...❣️❣️🙏🙏
जवाब देंहटाएंYah natak sabhi logon ko dekhna padhna chahiye ,jisko jaise roop me mil jaye ,kuki Bhagwan Das abhi bhi jinda hai ,kuchh logon me jaise ki.......
जवाब देंहटाएंApni manpasand tippni chhapte ho
जवाब देंहटाएंमैं इल्हाम का यथार्थ मतलब समझना चाहता हूँ ,ये exact है क्या ? कोई बताये तो मेहरबानी
जवाब देंहटाएंइस नाटक को पढ़कर एक सन्न भाव काफी देर के लिए अंदर घर कर गया। "इल्हाम" शब्द से एक अलग सा रिश्ता महसूस कर पा रहा हूं। मैने आपका लिखा बहुत पढा है। और हमेशा आपका कुछ पढ़ कर लगता है जैसे मैंने किसी पहाड़ कि सीढ़ी पर चलते चलते, एक सीढ़ी और पार कर ली है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं'इल्हाम' एक पूरी यात्रा है अपने भीतर की......... भयभीत कर देने की सीमा तक.........।
जवाब देंहटाएं'इल्हाम' एक पूरी यात्रा है अपने भीतर की......... भयभीत कर देने की सीमा तक.........।
जवाब देंहटाएं'इल्हाम' एक पूरी यात्रा है अपने भीतर की......... भयभीत कर देने की सीमा तक.........।
जवाब देंहटाएंNamaste dear Mr. Kaul. I watched this play yesterday. Several things I have myself been considering appeared on the stage:
जवाब देंहटाएंWanting to control or help others without understanding oneself is bound to create conflict. For to understand oneself is to understand the world.
Wanting to run away from what one sees after one really begins to see is bound to cause neurosis. However, there is a possibility apart from fight or flight - to simply observe, to simply be with whatever is being revealed.
Of course, there's no way around some kind of great upheaval, inner transformation when we move closer to truth, जब हम जिंदगी की आँखाें में आँखें डाल कर देखते हैं. The fit of the so called insanity shall pass only if one doesn't wrestle with it.
And then, जब आप भीतर से फिर शिशु बन जाते हैं , when you 'make a journey home' to use the Sufi phrase, you laugh, you cry, it is such a great unburdening! Eveything is so vast, so tremendous, it is really nothing!
You do not feel desperate for being understood by others, as our dear Bhagwan does. (I love the fact that he's named thus :) ) He's so insecure, so impatient with what's happening to him. Most of us are. Chacha ji is bound to leave then, because we are so hesitant to hold his hand. Constantly seeking certanity, seeking validation from others. "Ilhaam" wondefully portrays the trials and psychological swings of a man who's in the middle of finding out कि वो बस जिंदा है, जी नहीं रहा.
But when wisdom is, when you've simply floated along, there's no need to escape from or to step back into the groove. There's none of that anynmore. You realize that everything - your own state, the state of those around you, their attitudes, their expectations, your expectation that they see what you see.. all this is life. Life is pain and pleasure, beauty and ugliness, living and dying.
Then whatsoever you do - become an artist or a hermit, return to the bank-job or retire.. it has a different quality. It is real. You do what you mean to do with love, and without fear. Everything falls in place - you realize the futility of rebelling out there. You do what you do, wholehartedly. बस.
We think being an artist is categorically different from being a bank worker - No. Both vocations can be performed with or without compassion, with or without joy, meditatively or unmeditatively.
"Do you have the patience to wait till your mud settles and the water is clear? Can you remain unmoving till the right action arises by itself?"
- Lao Tzu